सामान्य ज्ञान
रबारी एक ऐसा यायावर समुदाय है जो कि गुजरात और राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में जीवित रहने और अपने को अनुकूलित करने की असाधारण क्षमता के लिए विख्यात है। यह समुदाय विशेषकर कढ़ाई, मोती के काम और कांच, गारे की मूर्तिकला जैसी विशिष्ट कलाओं के लिए विख्यात है। उनकी द्वारा की जाने वाली कढ़ाई को भी रबारी कढ़ाई के नाम से जाना जाता है।
रबारी महिलाएं गारे की मूर्तियां स्वयं बनाती हैं। वे अपनी भेड़ों से प्राप्त ऊन को परम्परागत रुप में कातती हैं और फिर ऊनी सूट, दुपट्टे, कम्बल, पगडिय़ां बनाने के लिए स्थानीय बुनकरों को दे देती हैं। रबारी महिलाओं की सब से बड़ी पहचान उनके हस्तकौशल से होती है।
रबारी महिलाएं अनेक प्रकार की पोशाकों, बैगों, घरेलू सजावटी सामान और पशुओं के साज-सामान पर कढ़ाई करती हैं। जिन वस्तुओं पर वे कढ़ाई करती हैं वे उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं, रिवाजों, और मूल्यों को उभारती हैं। लड़कियां परम्परागत रुप में ब्लाउजों, स्कर्ट, दुपट्टों, दीवारों की हैंगिंग, तकियों, पर्स और कोठालों, जो कि दहेज भरने की बोरियां होती है, पर कढ़ाई करती हैं और यह सब उनके दहेज में उनके योगदान के रुप में होता है।
कुछ कढ़ाइयों में विशेष रिवाजों पर बल दिया जाता है। बहुत खूबसूरत ढंग से कढ़ाई किया हुआ कोठालिया-ऐसा पर्स जिसमें वर पान और सुपारी के आनुष्ठानिक उपहार ले जाता है, पारिवारिक सम्बन्ध बनाए रखने के लिए आदान-प्रदान के महत्व का परिचायक है। लुडी दुपट्टों पर कढ़ाई रबारी महिलाओं द्वारा पालन की जाने वाली परम्परागत शालीनता अर्थात लाज का महत्व दर्शाती है।
बड़ी आयु की रबारी महिलाएं काले वस्र पहनती हैं जो कि आनुष्ठानिक शोक के परिचायक होते हैं। शोक के समय युवा महिला रंगीन ब्लाउज़ पहनती हैं जिनके किनारों पर बारीक कढ़ाई की हुई होती है जो कि यह दर्शाती है कि महिला शोक मना रही है। जो महिला विधवा नहीं है उसके लिए अपने ब्लाउज़ पर क्रासनुमा निशान लगाना जरुरी है। उनके घाघरे पर रंगीन धागों और चांदी चढ़े कांच के टुकड़ों से खूबसूरत कढ़ाई की हुई होती है।