सामान्य ज्ञान
नॉर्मन अर्नेस्ट बोरलॉग को हरित क्रांति का ‘अग्रदूत’ या जनक कहा जाता है। वे खुद को ग्रेट डिप्रेशन की देन कहा करते थे और वे एक ऐसे शख्स थे जिन्होंने दुनिया की खाद्य समस्या को हल करने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। उन्हें शांति के नोबेल पुरस्कार, प्रेजीडेंट मेडल आफ फ्रीडम और कांग्रेसनल गोल्ड मेडल के साथ ही भारत के नागरिक सम्मान पद्म विभूषण सम्मान से भी नवाजा जा चुका है। जी हां, यहां बात हो रही है, नॉर्मन अर्नेस्ट बोरलॉग की।
नॉर्मन का जन्म 25 मार्च, 1914 में आयोवा के क्रेस्को प्रांत में हुआ। उन्होंने 1942 में प्लांट पैथोलॉजी और जेनेटिक्स में पीएच.डी की डिग्री हासिल कर ली। अपने अध्ययन की बदौलत बोरलॉग का 1942 से 1944 का समय विलमिंगटन के डूपोंट में बतौर माइक्रोबायोलॉजिस्ट के काम करते हुए गुजरा।
1944 में विशेषज्ञों ने विकासशील देशों में अकाल की संभावनाओं की आशंका जताई क्योंकि वहां फसलों की अपेक्षा जनसंख्या तेजी से बढ़ रही थी। बोरलॉग ने मेकिस्को में रॉकफेलर फाउंडेशन से पूंजी प्राप्त परियोजना में काम करना शुरू कर दिया। जहां उनका काम गेहूं का उत्पादन बढ़ाने की दिशा में अनुसंधान करना था। जिसमें वे जेनेटिक्स, प्लांट ब्रीडिंग, प्लांट पैथोलॉजी, कृषि विज्ञान (एग्रोनॉमी), मृदा विज्ञान (सॉयल साइंस) और अनाज प्रौद्योगिकी पर काम कर रहे थे। इस परियोजना का उद्देश्य मेक्सिको में गेहूं उत्पादन में वृद्धि करना था क्योंकि उस समय मेक्सिको भारी मात्रा में गेहूं का आयात कर रहा था। बोरलॉग ने माना था कि मेक्सिको के शुरूआती साल काफी मुश्किलों भरे रहे। लेकिन बोरलॉग की मेहनत रंग लाई और उन्होंने पिटिक 62 और पेनजामो 62 किस्में तैयार कीं। इसने मैक्सिको के गेहूं उत्पादन के संपूर्ण परिदृश्य को ही बदल कर रख दिया। इस तरह 1944 में गेहूं की कमी की मार झेल रहे मेक्सिको में 1963 में गेहूं का उत्पादन छह गुना अधिक हो चुका था।
1960 के दशक के दौरान भारत में सूखे की भयानक स्थितियां पैदा हो गई थीं, जिसके चलते देश में खाद्यान्न संकट पैदा हो गया था और देश में अमेरिका से गेहूं आयात किया जा रहा था। बोरलॉग अपने साथी डॉ. रॉबर्ट ग्लेन एंडरसन के साथ 1963 में भारत आए, ताकि वह मेक्सिको में आजमाए गए अपने मॉडल को यहां भी लागू कर सकें। डॉ. एम. एस स्वामीनाथन की देख-रेख में प्रयोग का सिलसिला नई दिल्ली के पूसा स्थित इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट में उन्नत किस्म की फसलों को बोने के साथ हुआ। इसी तरह का प्रयोग लुधियाना, पंतनगर, कानपुर, पुणे और इंदौर में भी किया गया। परिणाम बेहतरीन मिले। लेकिन कृषि की नई तकनीकों को लेकर विरोध के चलते बोरलॉग भारत में नई किस्म का रोपण नहीं कर सके। जब 1965 में सूखे के हालात और भी बदतर हो गए, उस समय सरकार ने कदम आगे बढ़ाए और गेहूं की उन्नत किस्मों की बुवाई को अपनी मंजूरी दे दी। मेक्सिको में अपनाई गई उन्नत किस्मों के बीजों और तकनीक का दक्षिण एशिया में प्रयोग कर बोरलॉग ने यहां गेहूं के उत्पादन को 1965 और 1970 के बीच दोगुना कर दिया।
हाल के कुछ वर्षों में बोरलॉग को अपनी उच्च उत्पादन क्षमता वाली फसलों के कारण पर्यावरणविदों और सामाजिक-आर्थिक आलोचना का शिकार भी होना पड़ा है।