सामान्य ज्ञान
धर्मशास्त्र के अनुसार मान्यता है कि जब भद्रा का वास किसी पर्व काल में स्पर्श करता है तो उसके समय की पूर्ण अवस्था तक श्रद्धावास माना जाता है। भद्राकाल में विवाह, मुंडन, गृह प्रवेश, रक्षा बंधन आदि मांगलिक कार्य नहीं किए जाते हैं। लेकिन भद्राकाल में स्त्री प्रसंग, यज्ञ करना, स्नान करना, अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग करना, ऑपरेशन करना, कोर्ट में मुकदमा दायर करना, अग्नि सुलगाना, किसी वस्तु को काटना, भैंस, घोड़ा, ऊंट संबंधी कर्म प्रशस्त माने जाते हैं।
भद्रा भगवान सूर्य की कन्या है। सूर्य की पत्नी छाया से उत्पन्न है और शनि की सगी बहन है। यह काले वर्ण, लंबे केश, बड़े-बड़े दांत तथा भयंकर रूप वाली है। सूर्य भगवान से सोचा इसका विवाह किसके साथ किया जाए। प्रचा के दुख को देखकर ब्रह्माजी ने भी सूर्य के पास जाकर उनकी कन्या द्वारा किए गए दुष्कर्मों को बतलाया।
यह सुनकर सूर्य ने कहा आप इस विश्व के कर्ता तथा भर्ता हैं, फिर आप कहें। ब्रह्माजी ने विष्टि को बुलाकर कहा- भद्रे! बव, बालव, कौलव आदि करणों के अंत में तुम निवास करो और जो व्यक्ति यात्रा, प्रवेश, मांगल्य कृत्य, रेवती, व्यापार, उद्योग आदि कार्य तुम्हारे समय में करे, उन्हीं में तुम विघ्न करो। तीन दिन तक किसी प्रकार की बाधा न डालो। चौथे दिन के आधे भाग में देवता और असुर तुम्हारी पूजा करेंगे। जो तुम्हारा आदर न करे, उनका कार्य तुम ध्वस्त कर देना। इस प्रकार से भद्रा की उत्पत्ति हुई।
भद्रा 5 घड़ी मुख में, 2 घड़ी कंठ में, 11 घड़ी हृदय में, 5 घड़ी नाभि में, 5 घड़ी कटि में और 3 घड़ी पुच्छ में स्थिर रहती है। जब भद्रा मुख में रहती है तब कार्य का नाश होता है। कंठ में धन का नाश, हृदय में प्राण का नाश, नाभि में कहल, कटि में अर्थ-भंश होता है तथा पुच्छ में विजय तथा कार्य सिद्धि हो जाती है।
भद्रा के 12 नाम हैं- धन्या, दधिमुखी, भद्रा, महामारी, खरानना, कालरात्रि, महारुद्रा, विष्टि, कुलपुत्रिका, भैरवी, महाकाली तथा असुरक्षयकरी।