सामान्य ज्ञान
कालमेजुथु केरल की एक कला है। इस कला को कालम भी कहा जाता है। रंगोली और कोलम आदि जैसे नाम लोगों के लिए अब नये नहीं है और न ही घरों और मंदिरों के प्रदेश द्वार पर इनके चित्राकंन की परम्पररा ही नई है। कला का रूप आर्य, द्रविड़ और आदिवासी परम्पराओं का बहुत सुन्दर मिश्रण है।
कालमेजुथु कला का एक विचित्र रूप है, जो विशेष रूप से केरल में दिखाई देता है। यह अनिवार्य रूप से एक आनुष्ठानिक कला है। इसका प्रचलन केरल के मंदिरों और पावन उपवनों में होता है, जहां फर्श पर मां काली और भगवान आदि के चित्र बनाए जाते हैं। कालमेजुथु के स्वरूप कारकों को ध्यान में रखने की आवश्यकता होती है, जैसे कि मंदिर अथवा पावन उपवन के मुख्या देवता, कालमेजुथु के अनुष्ठान का धार्मिक प्रयोजन और इसे सम्पन्न करने वाली एक जाति। प्रत्येक मामले में इस कला के नियमों का कठोरता से पालन करना होता है और नमूनों, सूक्ष्म ब्यौरों, आयामों और रंग आदि की योजना के विषय में भी निर्णय लिया जाता है। अवसरों के अनुसार इनके नमूने काफ़ी भिन्न-भिन्न होते हैं, परन्तु कलाकार द्वारा चुने गए नमूने विरले ही दिखाई देते हैं।
इस कला के चित्रण में प्राकृतिक रंग, द्रव्यों और चूर्णों का प्रयोग किया जाता है। सामान्यत: इसमें पांच रंगों का प्रयोग होता है। चित्र केवल हाथों से ही बनाए जाते हैं और इनमें किसी अन्य का प्रयोग नहीं होता। तस्वीर बनाने का कार्य मध्य से शुरू किया जाता है और फिर एक-एक खण्ड तैयार करते हुए इसे बाहर की ओर ले जाते हैं। चूर्ण को अंगूठे और तजऱ्नी अंगुली की मदद से चुटकी में भरकर एक पतली धार बनाकर फर्श पर फैला देते हैं। कालमेजुथु कलाकार सामान्यतया कुछ समुदायों के सदस्य होते हैं, जैसे कि करूप, थय्यपाड़ी नाम्बियार्स, थियाडी नाम्बियार्स और थियाड़ी यूनिस। इन लोगों द्वारा बनाए गए कालमों की अलग-अलग विशेषता है।
कालमेजुथु पूर्ण होने पर देवता की उपासना की जाती है। उपासना में कई तरह के संगीत के वाद्यो को बजाते हुए भक्ति के गीत गाए जाते हैं। ये गीत मंत्रोच्चारण का ही रूप हैं। ये अनुष्ठान स्वयं कलाकारों द्वारा ही पूर्ण किया जाता है।