सामान्य ज्ञान

ढूंढ़ार शैली
05-Jun-2022 6:51 AM
 ढूंढ़ार शैली

ढूंढ़ार शैली, राजस्थान की एक चित्र शैली है। इसे जयपुर शैली भी कहते हैं जिसका विकास आमेर शैली से हुआ। मुगल शैली के प्रभाव का आधित्य इस शैली की विशेषता है। जयपुर के महाराजाओं पर मुगल जीवन तथा नीति की छाप विशेष रुप से रही है। अकबर के आमेर के राजा भारमल की पुत्री से विवाहोपरान्त सम्बन्धों में और प्रगाढ़ता आई थी। इसके बाद यहां की कला में भी मुगल छाप नजर आने लगी।

 शुरुआती चित्र परम्परा भाऊपुरा रैनबाल की छवरी, भारभल की छवरी (कालियादमन, मल्लयोद्धा), आमेर महल व वैराट की छतरियों में भित्तियों पर (वंशी बजाते कृष्ण) तथा कागजों पर प्राप्त होती है। बाद में राजा जयसिंह (1621-67) तथा सवाई जयसिंह (1699-1743) ने इस शैली को प्रश्रय दिया। राजा सवाई जयसिंह ने अपने दरबार में इस शैली के कलाकारों मोहम्मद शाह व साहिबराम चितेरो को प्रश्रय दिया। इन कलाकारों ने सुन्दर व्यक्ति, चित्रों व पशु-पक्षियों की लड़ाई सम्बंधी अनेक बड़े आकार के चित्र बनाए।

सवाई माधो सिंह प्रथम (1750-67) के समय में अलंकरणों में रंग न भरकर मोती, लाख व लकडिय़ां की मणियों को चिपकाकर चित्रण कार्य हुआ। इसी समय माधोनिवास, सिसोदिनी महल, गलता मंदिर व सिटी पैलेस में सुन्दर भिति चित्रों का निर्माण हुआ। सवाई प्रताप सिंह (1779-1803) जो स्वयं पुष्टि मार्गी कवि थे, के समय में कृष्ण लीला, नायिका भेद, राग-रागिनी, ऋतुुवर्णन, भागवतपुराण, दुर्गासप्तसती से सम्बंधित चित्र सृजित हुए। महाराज जगतसिंह के समय में पुण्डरीक हवेली के भित्ति चित्र, विश्व-प्रसिद्ध ठकृष्ण का गोवर्धन-धारण नामक चित्र रासमण्डल के चित्रों का निर्माण हुआ।

पोथीखाने के आसावरी रागिणी के चित्र व उसी मंडल के अन्य रागों के चित्रों में स्थानीय शैली की प्रधानता दिखाई देती है। कलाकार ने आसावरी रागिणी के चित्र में शबरी के केशों, उसके अल्प कपड़ों, आभूषणों और चन्दन के वृक्ष के चित्रण में जयपुर शैली की वास्तविकता को निभाया है। इसी तरह पोथीखाना के 17 वीं शताब्दी के ठभागवत  चित्रों में जो लाहोरे के एक खत्री द्वारा तैयार करवाये गये थे, स्थानीय विशेषताएं नजर आती हैं। 

18 वीं शाताब्दी की ठभागवत चित्र में रंगों की चटक मुगली है। चित्रों में द्वारिका का चित्रण जयपुर नगर की रचना के आधार पर किया गया है और कृष्ण-अर्जुन की वेषभूषा मुगल कालीन है। 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जयपुर शैली पर पाश्चात्य प्रभाव पडऩा शुरु हो जाता है। जयपुर शैली के चित्र गातिमय रेखाओं से मुक्त, शान्तिप्रदायक वर्णा में अंकित है। आकृतियां की भरभार होते हुए भी चेहरे भावयुक्त है।  आभूषणों में मुगल प्रभाव स्पष्ट दिखायी देता है।

आज भी जयपुर में हाथी-दांत पर लघु चित्र और बारह-मासा आदि का चित्रण कर उसे निर्यात किया जाता है। भित्ति चित्रण परंपरा भी अभी अस्तित्व में है।

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