विचार / लेख
![अवाक होना एक क्रिया है अवाक होना एक क्रिया है](https://dailychhattisgarh.com/uploads/article/1695893156ownload_(1).jpg)
अमिता नीरव
हाल ही में इस शीर्षक से एक कहानी पूरी की। इस कहानी की नायिका भी मेरी ही तरह सोचती है कि अब वह कभी अवाक नहीं होगी। क्योंकि वह इतनी दफा, इतनी वजहों से अवाक हो चुकी होती है कि उसे लगता है कि अवाक होने की अब कोई वजह शेष है ही नहीं।
मैं भी यही समझती थी कि अब कुछ भी शायद ऐसा हो कि मुझे वो अवाक् करे, लेकिन नहीं... अवाक होना कभी भी आखिरी नहीं होती। उस दिन रमेश बिधूड़ी ने संसद में जिस तरह से गाली दी थी उससे मैं अवाक हूँ। अवाक शब्द की शिद्दत कितनी है नहीं जानती।
जो मेरी अनुभूति है, उसे ये शब्द व्यक्त करने में जरा भी सक्षम नहीं है, लेकिन अब तक इससे बेहतर शब्द कॉइन नहीं किया जा सका है। तो अवाक से बहुत-बहुत ज्यादा कुछ है जो मुझे इन दिनों घेरे हुए हैं। हर बार लगता है जैसे इस असहायता की अनुभूति आखिरी होगी, मगर नहीं होती।
हर कुछ दिनों में असहायता कुछ नए रंग-रूप औऱ धज में सामने आ खड़ी होती है। कई बार तो ये भी होता है कि अभी पुरानी से ही उबरे नहीं होते हैं और नई आ जाती है। इस हादसे से पहले से कुछ अलग तरह के प्रश्नों से जूझ रही थी, इसलिए यहाँ लिखने पर विराम लगा हुआ था।
संसद के कांड से कई दिन पहले से ये विचार मुझे परेशान कर रहा था कि इतने शब्द खर्च करने, इतने पन्ने काले करने औऱ इतना स्पेस घेरने का हासिल क्या है? ये कि मुझे क्यों लिखना चाहिए! मेरे लिखने से किसको क्या हासिल हो रहा है? किसकी जिंदगी में सूत भर भी फर्क आ रहा है?
किसको मेरे लिखे की जरूरत है? किसके लिए मेरे लिखने की कीमत है! तो पिछले दिनों इस ऊहापोह में थी कि मुझे लिखना जारी रखना चाहिए या नहीं? यूँ मैं इन प्रश्नों से हर कुछ महीनों में दो-चार होती रहती हूँ और हर बार ये जवाब दे दिया करती हूँ कि चूँकि यही मैं ठीक-ठाक कर सकती हूँ तो ये कर रही हूँ।
तभी ये हादसा हो जाता है। वीडियो देखकर स्तब्ध थी, लगा कि यदि मैं संसद में होती तो जरूर अपनी चप्पल निकालकर बिधूड़ी की तरफ फेंकती। क्योंकि आक्रोश इतना ही था जिसमें मैं आउट ऑफ कंट्रोल हो चुकी थी। ऐसे में प्तदानिश_अली का संयम काबिले तारीफ लगा।
असल में राजा बाबू की सरकार और उनके नुमाइंदे, उनके समर्थक हर वो कारनामा अंजाम दे रहे हैं, जिससे मुसलमानों की तरफ से रिएक्शन आए और फिर ये सब कह सकें कि ‘देखिए हम नहीं कहते हैं कि ये लोग हिंसक हैं।’ इसके उलट हो ये रहा है कि मुसलमान अभूतपूर्व संयम साधे हुए हैं। ये सरकार के प्लान के खिलाफ जा रहा है।
इस वक्त मुसलमानों के संयम ने हमारे जैसों की जिम्मेदारी बढ़ा दी है। इसलिए नहीं कि ये मसला मुसलमानों का है, बल्कि इसलिए कि मसला हमारे समाज का है, हमारे देश का है, हमारे लोकतंत्र का है, उसके स्वभाव और प्रकृति का है। ये ठीक है कि सेक्युलरिज्म की मोटी चादर हमारे पूर्वजों ने हमारे समाज पर डाल दी है।
शायद वो ये जानते होंगे कि हमारा समाज गहरे में साम्प्रदायिक है, इसलिए सेक्युलर वैल्यूज को प्रैक्टिस में लाया जाना जरूरी है। और इसलिए घिसने, छिदने के बाद भी उसमें अभी इतना सामर्थ्य तो बचा ही था कि वो साम्प्रदायिकता की सड़ांध को ढँक लें।
मगर राजा बाबू तो आए ही उस चादर को फाडक़र हैं। हमारा समाज नंगा हो गया है, ये बदबू और सड़ांध से भर गया है। अजीब ये है कि इसके बावजूद तथाकथित सहिष्णु लोगों को न शर्म आ रही है और न ही दिख रहा है। अपने आसपास लोगों को बेशर्मी से इसका बचाव करते देख रही हूँ।
अब सोचती हूँ, चाहे मेरे लिखने से कुछ फर्क नहीं पड़ता है, चाहे एक भी इंसान के जीवन में मेरे लिखे से सूत भर भी बदलाव नहीं आता हो, मुझे इसलिए लिखना होगा, क्योंकि इस असहायता, बेबसी और बेचैनी के दिनों में यही मेरा एकमात्र सहारा है।
चाहे इस बयान को संसद ने अपने रिकॉर्ड से निकाल दिया हो, मगर मैं ये वीडियो संभालकर रखूँगी। ताकि याद रहे कि इस देश और इस समाज ने हत्यारों, गालीबाजों, अपराधियों और दंगाइयों को चुनकर संसद में भेजा था। और संसद की गरिमा को इन लोगों ने किस तरह से जलाया था।
आपमें से जिनके भी पास ये वीडियो हो, संभाल कर रखें। ये इस गिरते देश के इतिहास का दस्तावेज है। न चाहते हुए भी मैं अवाक हो रही हूँ, और अवाक से भी और ज्यादा कुछ हो रही हूँ। बहुत जब्त करके भी मजबूर हो गई हूँ, क्योंकि असहायता के आलम में लिखना ही मेरा एकमात्र सहारा है।