विचार / लेख

चिठ्ठी से व्हाट्सएप युग तक
29-Sep-2023 4:12 PM
चिठ्ठी  से व्हाट्सएप युग तक

  विष्णु नागर

बचपन में सोचता था कि जो चि_ियां हम पोस्ट ऑफिस के डिब्बे में डालते हैं, अंदर ही अंदर कोई रास्ता होता होगा, जिससे वे उस शहर, कस्बे या गांव के पोस्ट आफिस तक अपने आप पहुंच जाती होंगी। फिर उन्हें वहां का डाकिया निकाल कर वितरित कर देता होगा। हम अपने आपको तभी से शायद इतना ज्ञानी समझते होंगे या पूछने से डरते रहे होंगे कि मूर्ख समझ लिए जाएंगे, इसलिए पूछते नहीं थे।

पहले डाक आने का इंतजार रहा करता था क्योंकि उसमें किसी रिश्तेदार, परिचित, मित्र की चि_ी, अंतर्देशीय पत्र या लिफाफा आने की आशा रहती थी। हमारे बाद शायद एक और पीढ़ी ऐसी रही, जिसने चि_ियां लिखीं और पाईं। बहुत सी चि_ियां मैंने फाड़ दी हैं मगर बहुत सी अभी सुरक्षित हैं। वे एक तरह का दस्तावेज हैं। साहित्यिक मित्रों और पाठकों की आदि की चि_ियां उस समय का व्यक्तिगत और साहित्यिक दस्तावेज हैं।

साहित्यिक विमर्श है। उनका मोह छोड़ नहीं पा रहा हूं। कभी-कभी साल दो साल में चि_ियों को देखने पर अतीत में खो जाता हूं -एक शानदार और काफी कुछ भूले हुए अतीत में। कुछ चि_ियों के शब्दों में अधिक कुछ नहीं है, उस लिखावट में है कुछ,जो आज भी देखने पर झनझना देती हैं। कुछ चि_ियां कामकाजी होती थीं और उनका जवाब भी कामकाजी होता था मगर अधिकतर भावनाओं और विचारों से भरी होती थीं।

नये जमाने ने उस चि_ी युग को अप्रासंगिक कर दिया है मगर कुछ नया दिया भी है। पहले कुछ लिखकर भेजना होता था तो भेजने की भी काफी मशक्कत करनी पड़ती थी। पहले, पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय या पोस्ट आफिस का लिफाफा अगर घर में कहां रखा है,तो उसे ढूंढो। लिफाफा भेजना हो तो गोंद से चिपकाओ। पोस्ट आफिस तक जाओ। फिर अंधेरे में रहो कि पहुंचा या नहीं पहुंचा? पहुंचा तो जवाब क्यों नहीं आया?

अब मेल या एस एम एस या व्हाट्सएप से संदेश भेजो। ह्यद्गठ्ठह्ल लिखा आ गया मतलब काम हो गया। सामने वाले को मिल गया। अब मोबाइल से बात करना भी काफी सस्ता है। गरीब आदमी भी मोबाइल खरीद कर चार्ज करवा सकता है। चाहो तो सामने वाले को बता भी दो कि भेज दिया। इसी तरह टिकट, दस्तावेज भी मेल से आ जाते हैं। कागज की काफी बर्बादी कम से कम इस कारण रुकी है।

मगर पहले गोपनीयता की एक तरह से गारंटी जैसी रहती थी, अब नहीं रही। इस सुविधा की एक कीमत चुकानी पड़ती है। सरकार से लेकर हैकर्स तक सब जानना चाहें तो जान सकते हैं।

वैसे हमारे देश में कम से कम बात करने के मामले में गोपनीयता की कोई खास परवाह नहीं करता। लोग अकसर निजी से निजी, पारिवारिक बात भी जोर -जोर से करते हैं कि पास से गुजरता भी जान ले। गोपनीयता यूरोप -अमेरिका में बड़ा मुद्दा है, हमारे यहां नहीं।

मैं टाइप करना तब नहीं सीख पाया था, जब लगता था कि किसी ऑफिस में नौकरी करना पड़ सकती है? जिसके लिए टाइपिंग का ज्ञान जरूरी है। एक टाइपिंग इंस्टीट्यूट गया था छात्र जीवन में मगर यह सीख नहीं पाया। क्लर्क बनने के रास्ते से गुजरने से इस तरह मैंने अपने को आजाद कर लिया।

बाद में 1997 में हिंदुस्तान अख़बार में आया तो तब के संपादक आलोक मेहता ने हम सभी ब्यूरो के लोगों के लिए एक खास तारीख से कंप्यूटर पर लिखना अनिवार्य कर दिया। शुरू में चार लाइन ही लिखो मगर लिखना होगा। यह आदेश मेरे लिए वरदान बन गया।

धीरे-धीरे कंप्यूटर पर लिखना सीखा। कई बार गलती से डिलीट का बटन दब जाता और घंटों की मेहनत बर्बाद! मगर मैं हर चीज सीधे कंप्यूटर या मोबाइल पर नहीं लिखता। कोई भी रचनात्मक विचार पहले कागज पर दर्ज होता है। कई बार उसी में लगभग अंतिम रूप लेता है या उसमें और सुधार चलता रहता है। इसका एक लाभ हुआ कि खराब अक्षरों, भयंकर काटपीट करते हुए किसी को कुछ भेजने से छुटकारा मिला। अब मोबाइल या कंप्यूटर पर पचास बार सुधारो, कोई समस्या नहीं।

 मगर पेन से लिखा पढऩे -लिखने का वह रोमांच नहीं रहा। अक्षरों से जुड़ी व्यक्तियों और उस समय की स्मृतियां गायब हो गईं। बहुत कुछ निजताएं भी गायब हो गईं। मेल के अंदाज में वे बातें नहीं लिखी जा सकतीं। चि_ी में वह कह सकते थे,जो आमने-सामने नहीं कह सकते थे। अब शायद स्त्री-पुरूष, लडक़े -लडक़ी के बीच उस तरह के अवगुंठन रहे भी नहीं।

मोबाइल से बात करना सस्ता और सुलभ हुआ-सबके लिए होने से अपने आत्मीयों को जीवंत रूप में देखना संभव हुआ है। यह बहुत बड़ी राहत है। दूर जाकर निकट होना अब संभव हुआ है। जो पढ़ नहीं सकते, लिख नहीं सकते, उन्हें एक सहारा मिला है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि जो समय आपने या आपके घर के सदस्य या किसी आत्मीय ने दिया है, उससे ज्यादा समय हो जाए तो दूसरे का मन घबराने लगा है। पहले यह समस्या उतनी नहीं थी।

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