विचार / लेख
![मुझे अपने बच्चे का जन्म याद आया... मुझे अपने बच्चे का जन्म याद आया...](https://dailychhattisgarh.com/uploads/article/1696058869other__child.jpeg)
-अनु शक्ति सिंह
एक उड़ता हुआ सा ख़याल और जाने कितनी अच्छी-बुरी यादों के झोंके।
कुछ देर पहले अपने व्यावसायिक काम के सिलसिले में एक वीडियो/ऑडियो स्क्रिप्ट तैयार कर रही थी। विषय नई माँ के स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ था।
मैं स्क्रिप्ट ब्रीफ़ पढ़ते-पढ़ते ठहर गई। एक पंक्ति थी, नई माँ का शरीर गर्भावस्था और बच्चे के जन्म से उबर रहा होता है। ऐसे में उस पर बच्चे या घर की पूरी ज़िम्मेदारी नहीं होनी चाहिए। उसके स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी है कि घर का माहौल ख़ुशनुमा हो।
मुझे अपने बच्चे का जन्म याद आया। बाद की बातें भी। ख़ैर!
इन पंक्तियों को पढ़ते हुए मैं सोचने लगी कि कैसा समाज बनाया है हमने? बच्चे के जन्म के बाद माँ का ख़याल रखा जाना उसके पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी है।
कितनी स्त्रियाँ इस सुख को वास्तव में भोग पाती हैं? कामकाजी महिला घर पर है तो और आफ़त है। कुछ ही वक्त घर पर रहेगी। उसे कुछ अच्छा बनाना-खिलाना चाहिए।
एक लिहाज़ से जिन घरों में आय अच्छी हो वहाँ कम से कम कहने को ही सही, सहायक होते हैं।
समाज के कम आय वाले तबके का हाल बिगड़ता जाता है। चूँकि स्त्री परिवार के लिए अमूमन सबसे कम जरूरी मानी जाती है (मानना और होना दो चीज़ें हैं) उसकी परवाह किसे होती है? वह कर लेगी, उससे हो जाएगा। वह करती रहती है अपनी जान की क़ीमत पर।
बच्चा सभी पैदा करते हैं। इसमें नया क्या है? कितनी चीज़ें। इन चीज़ों के बीच लगातार जाती जानें।
इनके बीच हाल में पढ़ा गया ज़ेंडर राइट्स जर्नल (लैंगिक अधिकार पर लिखा गया आलेख) याद आया। 2020 में लिखे गये उस लेख के मुताबिक़ उस दरमियान लगभग नौ लाख महिलाओं ने गर्भ के दौरान या बच्चे के जन्म के एक महीने के भीतर अपने साथ पारिवारिक/पति द्वारा हिंसा की बात की थी।
मैं स्क्रिप्ट लिख रही थी। मन कलप रहा था। कितने संघर्ष औरतों के और किन-किन स्तरों पर… कभी कुछ रुकेगा? अगर हाँ तो कब?