विचार / लेख

यौनाकर्षण की पंखुडिय़ाँ वाया सैपियो सेक्सुअलिटी
30-Sep-2023 3:59 PM
यौनाकर्षण की पंखुडिय़ाँ वाया सैपियो सेक्सुअलिटी

-शोभा अक्षरा

सफेद रंग के लिफाफे में लगातार आती चिट्ठियों के बीच अचानक एक दिन पीले लिफाफे में बन्द कोई प्रेम-पाती मिल जाए। खुशबूदार उस चिट्ठी को खोलते वक्त झीनी-झीनी बारिश शुरू हो जाए और ठण्डी पर भुरभुरी-सी हवा गालों को छूती हुई यौवन को जगाए, कुछ इसी तरह जीवन में प्रेम आता है, यौनाकर्षण आता है।

कोई मुझसे सादगी को परिभाषित करने को कहे तो मैं उसे जवाब दूँगी कि प्रेमी से अपनी इच्छा के प्रेम की माँग करने वाली प्रेमिकाएँ सादगी की बेमिसाल उदाहरण होती हैं।

ऐसे ही कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका से उस वक्त जब दोनों प्रेम में रत हों वैसा ही प्रेम माँगे जैसा वह चाहता है तो उसे उसकी सादगी कहेंगे। यहाँ प्रेम में याचना नहीं है। प्रेम में याचना जैसा कुछ नहीं होता। प्रेम में रत दोनों देह स्वाभाविक तौर पर प्राकृतिक याचक होते हैं। यही तो बारिश की फुहार है, ठंड की गुनगुनी धूप भी, तितलियों के पंखों पर अनगिनत रंगों को एकसाथ उड़ते हुए देखने का सुख भी यही है।

सेक्सुअलिटी में समाहित सैपियो सेक्सुअलिटी को समझते वक्त जो सार मिला वह यह कि यह गुण किसी एक वर्ग को निर्धारित नहीं करता। यह बस दो लोगों की बेहद आत्मीय और व्यक्तिगत यौनाकर्षण के बिंदुओं के अंकुरित होने को आधार देता है। सादगी का उदाहरण वहीं से निकाल सकी।

कई बार दो लोग आपस में शारीरिक संबंध बनाने के बाद भी एक दूसरे के लिए वैसा आकर्षण नहीं महसूस करते जैसा एक सैपियोफाइल महसूस कर सकता/सकती है। कैजुएल सेक्स की तरह ही सब रह जाता है।

मगर सैपियोसेक्सुअल होना यानी किसी की बौद्धिक क्षमता को देखकर उसके तरफ शारीरिक और भावनात्मक रूप से आकर्षित होना। क्षमता का ह्रास नहीं होता, या तो वह बढ़ती जाती है या स्थिर रहती है। इस मामले में ऐसा आकर्षण के साथ होता है, या तो बढ़ता है या स्थिर रहता है। कम से कम तबतक तो जरूर जब तक दोनों में से कोई अपने बनाए हुए बौद्धिकता के मानकों में से किसी और के प्रति न आकर्षित हो जाए।

मन हमेशा एक आग्रह करता है, प्रेम करो, प्रेम में पड़ जाओ, चाहे प्रेम माँगना क्यों न पड़े। कोई वस्तु भी वहीं से माँगते हैं जहाँ से मिलने की गुंजाइश होती है, यह तो आखिर प्रेम है! यौनाकर्षण की सीमा को सिर्फ शरीर की माँग तक सीमित करना जिंन्दगी को एक अँधेरे कोने में अकेला छोड़ देना है, बल्कि यह तो जिंदगी के हर कोने को रोशनी से भरना है। पीले लिफाफे में आई चिट्ठी को थोड़ी देर बस यूँही थामे रहने के बाद खोलना होगा, पढऩा होगा फिर गुलाबी रंग के लिफाफे में जवाब भेजना ही होगा।

जवाब ‘हाँ’ ही हो यह जरूरी नहीं! दोनों ओर से ‘न’ पर कोई संताप भी नहीं होना चाहिए। यह भी तो उन पलों को जीना है जो प्रेम के गीत गुनगुनाते वक्त सिनेमा में नायक और नायिका जीते हैं। कहानियों, उपन्यासों में पात्र जीते हैं। रेलगाडिय़ों में कुछ समय के लिये ही सही, आकर्षण की उन्मुक्तता को बेताबी के साथ जैसे दो किशोर जीते हैं।

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