सामान्य ज्ञान
मान्यता है कि सारी सृष्टि के विनाश के पश्चात भी शेष नाग बचे रहते हैं, इसीलिए इनका नाम शेष हैं। सर्पाकार होने से इनके नाम से नाग विशेषण जुड़ा हुआ है। शेषनाग स्वर्ण पर्वत पर रहते हैं। शेष नाग के हज़ार मस्तक हैं। वे नील वस्त्र धारण करते हैं तथा समस्त देवी-देवताओं से पूजित हैं। उस पर्वत पर तीन शाखाओं वाला सोने का एक ताल वृक्ष है जो महाप्रभु की ध्वजा का काम करता है।
रात्रि के समय आकाश में जो वक्राकृति आकाशगंगा दिखाई पड़ती है और जो क्रमश: दिशा परिवर्तन करती रहती है, यह निखिल ब्रह्मांडों को अपने में समेटे हुए हैं। उसकी अनेक शाखाएं दिखाई पड़ती हैं। वह सर्पाकृति होती है। इसी को शेषनाग कहा गया है। पुराणों तथा काव्यों में शेष का वर्ण श्वेत कहा गया है। आकाशगंगा श्वेत होती ही है। यहां ऊॅं की आकृति में विश्व ब्रह्मांड को घेरती है। ऊँ को ब्रह्म कहा गया है। वही शेषनाग है।
शेषनाग का उल्लेख विभिन्न पुराणों में मिलता है। कालिका पुराण में कहा गया है कि प्रलयकाल आने पर जब सारी सृष्टि नष्ट हो जाती है तब भगवान विष्णु अपनी प्रिया लक्ष्मी के साथ इनके ऊपर शयन करते हैं और उनके ऊपर ये अपनी फणों की छाया किए रहते हैं। इनका पूर्ण फण कमल को ढंके रहता है, उत्तर का फण भगवान के शिराभाग का और दक्षिण फण चरणों का आच्छादन किए रहता है। प्रतीची का फण भगवान विष्णु के लिए व्यंजन का कार्य करता है। इनके ईशान कोण का फण शंख, चक्र, नंद, खड्ग, गरुड़ और युग तूणीर धारण करते हैं तथा आग्नेय कोण के फण गदा, पद्म आदि धारण करते हैं।
पुराणों में इन्हें सहस्रशीर्ष या सौ फणवाला कहा गया है। इनके एक फण पर सारी वसुंधरा यानी पृथ्वी स्थित है। लक्ष्मण और बलराम इनके अवतार कहे गए हैं। इनका कही अंत नहीं है इसीलिए इन्हें अनंत भी कहा गया है।
एरामला पर्वत माला
एरामला पर्वत श्रृंखला, पश्चिमी आंध्र प्रदेश राज्य का हिस्सा है। ये पहाडिय़ां दक्कन के पठार पर स्थित है और लगभग 54 से लेकर 50.5 करोड़ वर्ष पूर्व कैंब्रियन काल की स्लेटी पत्थरों तथा स्फटिक (क्वार्टजाइट) चट्टïानों से बनी हैं।
इस श्रृंखला में बीच-बीच में अपेक्षाकृत बाद के काल के लावा से बनी चट्टïानें भी हैं। इन पहाडिय़ों का रूझान पूर्वोत्तर से दक्षिण-पश्चिम की तरफ है तथा इन्हें कुंदेरू नदी की सहायक नदियां देशांशीय पहाडिय़ों और घाटियों के रूप में विभाजित करती हैं।