सामान्य ज्ञान
कबूतर का इस्तेमाल भारत में सदियों से संदेशे भेजे जाने के लिए किया जाता रहा है। एक प्रकार से वे प्राचीन डाकिए हैं, लेकिन आधुनिक संचार के इस युग में अब यह बीते जमाने की बात हो गई है। पिछले पचास साल से जारी भारतीय पुलिस की कबूतर के ज़रिए डाक भेजने की सेवा को वर्ष 2002 में ही समाप्त कर दिया गया है।
भारत में संचार के इस युग में भी यह सेवा कई बार बड़ी कारगर साबित हुई है। पूर्वी ओडि़शा में बार-बार बाढ़ और चक्रवात के समय इसी से काम चलाया जाता था। ख़त ले जाने वाले कबूतर प्राय दूरदराज़ के पुलिस थानों के बीच एक बहुत महत्वपूर्ण सम्पर्क सूत्र का काम करते थे। जब सारे सम्पर्क टूट जाते हैं तब भी वे आंधी-तूफ़ान की चिंता न करते हुए अपना काम पूरा कर ही देते हैं। लेकिन ईमेल और इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यम के दौर में इन कबूतरों का क्या काम। भारतीय पुलिस विभाग में कबूतर के ज़रिए डाक भेजने की सेवा की शुरुआत 1946 में हुई यानि भारत की आज़ादी से एक साल पहले हुई थी। तब यह सेवा सेना ने पुलिस को सौंपी थी और इसका मुख्यालय कटक में हुआ करता था।
दोनों विश्व युद्धों में कबूतरों का संदेश भेजने के लिए काफी इस्तेमाल किया गया। उनके अच्छे दिशा ज्ञान के कारण दूसरे विश्व युद्ध में सिर्फ ब्रिटेन ने दूर दराज में संदेश भेजने के लिए दो लाख कबूतर इस्तेमाल किए। इस पंछी ने हजारों लोगों की जान भी बचाई है। कुछ को तो विक्टोरिया क्रॉस की तरह का डिकिन मेडल भी दिया गया। ये पंछी सिर्फ संदेश लाते ले जाते नहीं थे। वर्ष 1907 में युलियुस नॉयब्रोनर को आयडिया आया कि इनके गले में छोटा सा कैमेरा बांध हवा से फोटो भी लिए जा सकते हैं। इन्हें कभी जासूसी के लिए या लड़ाई के मैदान में इस्तेमाल किया जाना था या नहीं, इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। अमेरिका ने प्रोजेक्ट पिजन के तहत पिजन गाइडेड मिसाइल बनाने की कोशिश भी की थी।