सामान्य ज्ञान
कौषीतकि ब्राह्मण को शांखायन ब्राह्मण भी कहते हैं। इसकी रचना का श्रेय शंखायन अथवा कौषीतकि को जाता है। कौषीतकि शंखायन के गुरु थे। अत: शंखायन ने अपने गुरु के नाम पर इसका नामकरण किया। यह ऋग्वेद की वाष्कल शाखा से सम्बन्धित है। यह 30 अध्यायों में विभक्त है और इसमें 226 खण्ड हैं। इस ग्रंथ में अन्य ब्राह्मण ग्रंथों की भांति मानवीय आचार के नियम और निर्देश दिए गए हैं।
यह ऋग्वेद का द्वितीय उपलब्ध ब्राह्मण ग्रन्थ है। शांखायन का सांख्यायन रूप में भी कहीं-कहीं उल्लेख मिलता है। इसी का दूसरा नाम कौषीतकि-ब्राह्मण भी है। ऋग्वेद की बाष्कल-शाखा से इसका सम्बन्ध बतलाया गया है। इस पर कोई भी प्राचैइन भाष्य प्रकाशित नहीं हुआ है। सम्पूर्ण ग्रन्थ 30 अध्यायों में विभक्त है। प्रत्येक अध्याय में खण्डों का अवान्तर विभाजन प्राप्त होता है। कुल 227 खण्ड हैं। परम्परा इसके प्रवचन का श्रेय शांखायन अथवा कौषीतकि (या कौषीतक) को देती है। शांखायन ब्राह्मण में अनेक स्थानों पर उनके मतों का नाम्ना उल्लेख है ताण्ड्यमहा ब्राह्मण में कौषीतकों का उल्लेख व्रात्यभावापन्न रूप में है।
शांखायन को ही अन्तिम रूप से शांखायनशाखीय ब्राह्मण ग्रन्थ का प्रवक्ता माना जाना चाहिए। आचार्य शांखायन ने ही अपने गुरु कौषीतकि के नाम पर इसका नामकरण कर दिया होगा, लेकिन परम्परा में शांखायन का नाम भी सुअक्षित रह गया। चरणव्यूह की महिदास-कृत टीका में उद्धत ‘महावर्ण’ के नाम श्लोक से भी इसकी पुष्टि होती है, जिसमें ब्राह्मण का नाम तो कौषीतकि ही है।
शंकराचार्य ने भी ब्रह्मसूत्र के भाष्य में कौषीतकि-ब्राह्मण नाम को स्वीकार किया है। 30 अध्यायात्मक इस ब्राह्मण का उल्लेख अष्टाध्यायी में भी है।