सामान्य ज्ञान
हमारे शरीर में बहत्तर हजार से ज्यादा नाडिय़ां हैं और सभी का मूल उदगम स्त्रोत नाभि स्थान है। उक्त नाडिय़ों में भी दस नाडिय़ां मुख्य हैं- 1.इड़ा (नाभि से बाईं नासिका), 2.पिंगला (नाभि से दाईं नासिका), 3.सुषुम्ना (नाभि से मध्य में), 4.शंखिनी (नाभि से गुदा), 5.कृकल (नाभि से लिंग तक), 6.पूषा (नाभि से दायां कान), 7.जसनी (नाभि से बाया कान), 8.गंधारी (नाभि से बाईं आंख), 9.हस्तिनी (नाभि से दाईं आंख), 10.लम्बिका (नाभि से जीभ)।
कम लोगों को ज्ञात है कि हमारी नाभि देह का ध्रुव बिंदु है। इस नाभि केंद्र में इस नाभि के नीचे जो कंद है, उससे अंकुर निकलते हैं। इसके मध्य में बहत्तर हजार नाडिय़ां स्थित हैं। इसकी स्थिति चक्राकार है। इन्हीं नाडिय़ों की सहायता से शरीर में दस तरह की वायु का संचार होता है। हर वायु का अलग-अलग नाम देते हुए इस तरह रखा जा सकता है - प्राण, (प्राण को प्राण इसलिए कहा जाता है, क्योंकि यह प्रयाण करता है) अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर तथा धनंजय। श्वास को हृदय में भरने और वहीं से बाहर करने का काम प्राण करता है, इसलिए कहा जाता है कि प्राणवायु हृदय में रहती है। अपान वायु का काम है मनुष्यों के आहार को नीचे फेंकना और मूत्र एवं वीर्य को विसर्जित करना। समान वायु, खाए हुए, सूंघे या पिए हुए पदार्थ को रक्त, पित्त या कफ आदि में समान रूप से वितरित करती है। शरीर के हर अंग का पोषण समान वायु द्वारा ही होता है। उदान वायु के कारण होंठ खुलते हैं। यही नहीं, यह जो हमारी आंख लाल हो जाती है, इसके पीछे भी उदान वायु का हाथ है। व्यान वायु के कारण हमारे हाथ उठते हैं, कलम चलती है, हम उठते-गिरते हैं। झुकना, भागना, छलांग लगाना आदि जो भी क्रियाएं हैं, वे सब व्यान वायु के कारण संपन्न होती हैं।
उदान वायु ही कंठ में अवरोध पैदा करती है, व्याधि को बढऩे देती है। डकार लाने का काम नाग वायु करती है। यह जो हम हर पल पलकें झपकते हैं, यह काम कूर्म वायु का है। भक्षण करने का काम कृकर वायु द्वारा संभव हो पाता है। जंभाई लेने का दायित्व देवदत्त नामक वायु की जिम्मेदारी है। हिचकी भी हमें इसी कारण आती है। धनंजय वायु ध्वनि या घोष पैदा करती है। प्राण भेद की तरह हमारे नाड़ी चक्र के भी भेद हैं। इन्हें क्रमश: संक्रांति, विषुप दिन, रात, अयन, अधिमास-ऋण-धन एवं उनरात्र नाम से पुकारा जाता है। शरीर नाम के इस संयंत्र के पास जो मस्तिष्क है, उसमें लगभग चौदह बिलियन सैल्स हैं और हर सैल या कोशिका निसर्गत इतनी निपुण है कि वह भय और प्रीति की भाषा समझती है। इसी मस्तिष्क के सबसे निचले अर्थात् रीढ़ की हड्डी से जुड़े भाग में, जिसे हम सर्पिल मन कहते हैं।
काल कोठरी
काल-कोठरी अंतरिक्ष का वह हिस्सा होता है जहां गुरुत्वीय क्षेत्र इतना प्रबल होता है कि इसमे से कुछ भी प्रवेश नहीं कर सकता यहां तक कि विद्युत चुंबकीय तरंग भी नहीं। हालांकि इनकी उपस्थिति का ज्ञान इनके अन्य पदार्थों के साथ परस्पर क्रिया द्वारा किया जा सकता है हालांकि इतने शक्तिशाली गुरुत्वीय क्षेत्र का विचार 18 वीं सदी का है परन्तु वर्तमान में काल-कोठरी आइंस्टाइन के सापेक्षता के सिद्घांत पर ही समझाए जाते हैं।