विचार / लेख
- तृप्ति सोनी
पापा, जिनकी आवाज़ सुनकर यात्रीगण ध्यान दिया करते थे! पंडरी बस स्टैंड में बसों की हाजिऱी मेरे पापा की आवाज़ से ही लगती थी। वो देख नहीं पाते थे, पूरे बस स्टैंड में सूरदास के नाम से जाने जाते थे। कुर्सी बुनने की कला भी गज़़ब थी उनमें उनसे कुर्सी बुनना तो नहीं सीख पायी लेकिन आज मेरी ‘आवाज़’ उनकी देन है।
10 साल की उम्र थी मेरी और मुझे साइकिल चलाने का बड़ा शौक था उन दिनों 1 रुपये में आधे घंटे के लिए किराए में साइकिल मिला करती थी, 50 पैसे मिलते थे घर से खई-खज़़ाने के लिए मैं दो दिन का पैसा जोडक़र साइकिल लाती थी और पापा पीछे बैठकर मुझे साइकिल चलाना सिखाते थे, वो कहा करते थे तुम मेरी लाठी हो। साइकिल के दो पहियों के साथ मेरे पापा के कदमों ने मुझे रफ़्तार दी, बस स्टैंड उनको छोडऩे जाया करती थी और उन्हें एनाउंस करते सुना करती थी फिर एक-दो बार उन्होंने मुझे भी अनाउंस करने दिया। आज मुझे याद नहीं है लेकिन उस वक्त मुझे छत्तीसगढ़ के सभी रास्तों पर जाने वाली गाड़ी का रोडमैप याद होता था और पापा की तरह मैं भी हिन्दी, अंग्रेज़ी और छत्तीसगढ़ी में अनाउंस करती थी। पापा जितना अच्छा तो नहीं कर पाती थी लेकिन आज जो अवाज मेरी है मैंने उनसे सीखा है। उन्हें रेडियो और टेलीविजऩ पर समाचार सुनने की आदत थी लेकिन वो मुझे टीवी पर सुने बिना ही चले गये। उनके बिना हर प्रशंसा और सफलता हमेशा अधूरी रहेगी।
उनका नाम स्व रमाकांत अवधिया, वे स्व हरिप्रसाद अवधिया के मंझले बेटे थे। स्व हरिप्रसाद अवधिया छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों और शिक्षाविदों की गिनती में आते हैं भले आज उन्हें भुला दिया गया हो लेकिन उन्होंने हरि ठाकुर जैसे साहित्यकारों के साथ छत्तीसगढिय़त की अलख जगायी। कुछ साल पहले तक 10वीं की हिन्दी की किताब में शहीद वीर नारायण पर उनका लिखा पाठ प्रकाशित हुआ करता था।