विचार / लेख
पहली किस्त
2024 का लोकसभा चुनाव देश में कई ताजातरीन चुनौतियां, मुसीबतेंं और गुंजाइशें लेकर अब तो आ ही रहा है। मौजूदा सत्तारूढ़ भाजपा जमावड़े को कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में बहुत मशक्कत के बाद भी अप्रत्याशित पटखनी खाने के बाद नए सिरे से अपनी राजनीतिक मुहिम को संवारने और पैना करने का अवसर, उत्साह और जतन हाथ लगा है। एक अरसे से संघ-भाजपा परिवार मुसलमानों को देश के जीवन में हाशिए पर डालने के लिए लगातार और पहले से कहीं अधिक हमलावर होता दिख रहा है।
यह तो है कि बेरोजगारी, महंगाई, अडानी-लूट, पेगासस जासूसी, कश्मीर की अवनति की हालत, पब्लिक सेक्टर का लगातार निजीकरण करते जाना, अरुणाचल में चीन का घुसे रहने पर भ्रम पैदा करना, पुलवामा में सैनिकों को जबरिया शहीद किया जाना, पहले किसानों, फिर बाद में पहलवानों के आंदालनों को पुलिसिया दमखम पर कुचलना, कर्नाटक चुनाव में दस दिन तक प्रधानमंत्री द्वारा रामभक्त बजरंगबली को एक तरह से स्टार केंपेनर बनाना तथा और कई असफलताओं के कारण 2024 का चुनाव बड़ी चुनौती होना लगा होगा। हर राजनीतिक बीमारी का इलाज एक रामबाण दवा से होता रहता है। जब कोई हिकमत काम नहीं आए। तब मुसलमान के अस्तित्व पर ही हमला करना एक कारगर तरीका है जिससे अनुकूल नतीजे मिलते रहे हैं। 2024 के चुनाव में भी मुसलमानों के कंधों पर रखकर निजाम की बंदूक चलाई जा सकती है। निशाना तमाम विपक्षी पार्टियां होंगी और बड़े पैमाने पर भारत के मतदाता।
इसी बीच कुछ अरसे से उत्तराखण्ड की भाजपा सरकार के मार्फत समान नागरिक संहिता लागू करने के ऐलान का रिहर्सल चलता रहता है। राजनीतिक प्रेक्षकों का अनुमान यह है कि यह एक नेट प्रैक्टिस है। मैच तो 2024 के चुनाव के पहले जरूर खेला जाएगा। उम्मीद के मुताबिक सबसे पहले उत्तराखण्ड की पुष्कर धामी सरकार ने समान नागरिक संहिता की चौहद्दी तैयार कर उसे विधि विशेषज्ञों की बहस और राय के सुपुर्द कर दिया है। केन्द्रीय विधि आयोग ने भी अपनी कसरत शुरू कर दी और एक माह के अंदर जनता की राय मांगी है और केन्द्र सरकार की भी। समान नागरिक संहिता को लेकर कई संदर्भ बिन्दु हैं।
अव्वल तो यह कि समान नागरिक संहिता अपने फैलाव और कसावट में क्या कुछ है। दूसरा यह कि सभी धर्मों के मानने वालों के अपने सामाजिक और पारिवारिक दस्तूर हैं। उन पर इस संहिता का क्या असर होगा? यह भी कि संविधान के अनुच्छेद 25 में अपने धर्म को मानने और उसका प्रचार करने के अधिकार हैं। वे क्या समान नागरिक संहिता के अनुच्छेद 44 के प्रावधान से उसी तरह टकरा सकते हैं जैसे बिपरजॉय समुद्री तूफान गुजरात और राजस्थान की धरती से टकराया। अन्य कई आनुशंगिक सवाल नेपथ्य में कुलबुला या फुसफुसा रहे हैं। एक बुनियादी सवाल की ओर लेकिन लोगों का ध्यान जा नहीं रहा है।
भारत का संविधान व्याख्याओं के तेवर के लिहाज से बांझ नहीं उर्वर खेत है। कोई संविधान कभी भी बंद गली का आखिरी मकान नहीं होता। वह संभावनाओं का पिटारा होता है। तभी तो वह किसी देश की महत्वाकांक्षाओं और चुनौतियोंं को सहेजते जनहित में आगे बढ़ता और संरक्षक की भूमिका अदा करता है। संविधान के इस चरित्र-लक्षण के संदर्भ में एक सैद्धांतिक सवाल भारत के सुप्रीम कोर्ट से भी पिछले सत्तर वर्षों में टकराता रहा है। संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष, संविधान के ढांचे के मुख्य आर्किटेक्ट और संविधान सभा की बहस के मुख्य नियंता और पैरोकार डॉ. भीमराव अम्बेडकर की अंतिम व्याख्या, हिदायत या आश्वासन आज भी इतिहास से सार्थक और भविष्यमूलक जिरह मांगते हैं। कई मौकों पर वकीलों और जजों की आपसी समझ में टकराव होने पर अम्बेडकर से ही रेफरी वाली सीटी बजाने को गुजारिश की जाती है। समान नागरिक संहिता के मामले में भी इस संदर्भ की उपेक्षा नहीं की जा सकती। अनुच्छेद 25 कहता तो है ‘‘(1) लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंत:करण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा।’’
हुआ यह था कि अल्पसंख्यक उपसमिति, सलाहकार समिति और प्रारूप समिति की कार्यवाहियों से छनकर समान नागरिक संहिता का प्रस्तावित प्रावधान संविधान सभा में बहस के वास्ते आया। तब हिन्दुत्व तथा राष्ट्रवाद की अपनी खास आग्रही समझ के चलते हिन्दू महासभा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, रामराज्य परिषद, विश्व हिन्दू परिषद, (पहले जनसंघ) और अब भाजपा के व्यापक राजनीतिक परिवार ने कुछ हिचक के साथ समान नागरिक संहिता का समर्थन पहले किया था। अनुच्छेद 23 नवंबर 1948 को अनुच्छेद 44 के रूप में यही कहा गया है:-‘‘राज्य भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।’’
यह मासूम वाक्य छह दशकों से अमूर्त, वायवी और अनुर्वर बना हुआ है। संविधान सभा में बहस के वक्त आश्चर्यजनक रूप से किसी हिन्दू सदस्य ने इसका विरोध नहीं किया। ईसाई, पारसी, सिक्ख और बौद्ध सदस्य भी मौन रहे। पांच मुसलमान सदस्यों महबूब अली बेग, बी. पोकर साहब, मोहम्मद इस्माइल, नजीरूद्दीन अहमद तथा हुसैन इमाम ने ही संभावित सशर्त विरोध किया। उनका तर्क था कि विवाह, तलाक तथा उत्तराधिकार आदि के निजी मामले इस्लामी कानून धार्मिक ग्रंथों से उपजे हैं। उन्हें संसदीय विधायन के जरिए दूसरे धार्मिक समुदायों के कानूनों से समायोजित या एकरूप कर संशोधित नहीं किया जा सकता। बहुमत के डंडे को अल्पसंख्यकों पर चलाने की तानाशाही को लोकतंत्र नहीं कहते।
इसके बरक्स मुख्यत: के.एम. मुंशी, अलादि कृष्णास्वामी अय्यर और डॉक्टर अंबेडकर ने समझाने की कोशिश की कि समान नागरिक संहिता एक नवोदित, स्वतंत्र तथा धर्मनिरपेक्ष देष के लिए पूरी तौर पर जरूरी है। अंगरेजों के शासनकाल में हिन्दुओं तथा मुसलमानों के कई निजी कानूनों में हस्तक्षेप कर सामाजिक व्यवहार के लिए समान सिविल कोड बना ही दिए गए हैं। कई मुस्लिम देशों में भी समान सिविल कोड है। ऐसे देशों में भी है जहां मुसलमान अल्पसंख्यक हैं। समान संहिता बनने से सबसे अधिक फायदा मुस्लिम महिलाओं को होगा। उन्हें विवाह, तलाक और उत्तराधिकार के प्रचलित कानूनों के कारण हिन्दू तथा ईसाई महिलाओं आदि के बराबर अधिकार भी हासिल नहीं हैं।
आज भी संविधान सभा की मंशा को न्यायिक तौर पर समझने के लिए सुप्रीम कोर्ट अधिकतर सरकार के विधि मंत्री तथा प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. अंबेडकर की समझाइश पर निर्भर होता है। अंबेडकर ने चुटीली भाषा में कहा था कि निजी कानूनों के इलाके में ही समान कोड पर अब तक हमला नहीं किया गया है। उन्होंने ‘हमला’ शब्द का जानबूझकर इस्तेमाल किया था। अंबेडकर ने ऐतिहासिक आश्वासन दिया कि समान सिविल कोड बनेगा। तब भी उसे सब लोगों पर जबरिया नहीं लादा जाएगा। उन्होंने भविष्य की संसद से उम्मीद की थी कि वह ऐसे समुदायों के लिए ही समान सिविल कोड बनाएगी जो घोषणा करें कि वह उन पर लागू किया जाए। जाहिर है मोदी सरकार अंबेडकर की इस समझाईश को पूरा करने में जाहिर है असमर्थता महसूस करेगी। अंबेडकर के इस सुझाव को अमल में लाने में एक व्यावहारिक दिक्कत भी है। यदि एक स्त्री और पुरुष का जोड़ा विवाह के पहले या बाद में समान सिविल कोड को मानने या नहीं मानने के संबंध में अलग अलग राय व्यक्त करे, तब क्या होगा। (बाकी कल के अंक में)