विचार / लेख

विपक्षी एकता का उद्देश्य
26-Jun-2023 7:09 PM
विपक्षी एकता का उद्देश्य

-डॉ आर. के. पालीवाल

लोकतान्त्रिक व्यवस्था में विपक्ष का महत्व सत्ता पक्ष जैसा ही है। सत्ताधारी दल की सरकार संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के अंतर्गत देश के नागरिकों के कल्याण के लिए जो कानून का राज्य स्थापित करती है उसका ऑडिट करने की जिम्मेदारी विपक्ष की ही है। इसीलिए लोकतंत्र को तानाशाही की तरफ बढऩे से रोकने के लिए मजबूत विपक्ष जरूरी माना जाता है। विपक्ष की भूमिका तब और भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है जब सत्ताधारी दल पूर्ण बहुमत के कारण मनमानी कर किसी खास वर्ग, विचारधारा या क्षेत्र के प्रति ज्यादा राग या द्वेष के वशीभूत होकर भेदभाव करने लगता है। आपातकाल से पहले कांग्रेस सरकार ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कुछ इसी तरह की प्रवृत्तियां पैदा हो गई थी जब विरोधियों की प्रताडऩा की जाने लगी थी। इसी पृष्ठभूमि में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में तत्कालीन कांग्रेस सरकार के खिलाफ जोरदार आन्दोलन शुरू हुआ था जिसमें अधिकांश विपक्षी दल शामिल हुए थे। वर्तमान केन्द्र सरकार के खिलाफ भी कुछ महीनों से इसी तरह का माहौल बन रहा है जिसकी एक महत्त्वपूर्ण कड़ी पटना में विपक्षी दलों की बैठक है।

पटना में विपक्षी दलों की बैठक से जिस तरह की जानकारियां बाहर आ रही हैं उससे एक बात तो साफ है कि इसका प्रमुख उद्देश्य व्यवस्था परिवर्तन न होकर सत्ता परिवर्तन है इसलिए आम अवाम को इससे लाभ की कोई खास उम्मीद नहीं है। लगातार दो बार केंद्र में सत्तारूढ़ नरेंद्र मोदी सरकार को हटाना विपक्षी दलों की सबसे पहली इच्छा है। यही कारण है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी चारा कांड में सजा पाए लालू यादव से न केवल शिष्टाचार भेंट करती हैं बल्कि उन्हें सम्मानित कर पैर छूकर उनका आशीर्वाद मांगती हैं। केंद्र में सत्ता पाने के लिए विपक्ष में इस वक्त पांच दल के उम्मीदवार औरों से आगे हैं। प्राथमिकता के आधार पर नीतीश कुमार सबसे आगे हैं जो मोदी को सत्ता से बाहर करने के लिए दिल्ली से कलकत्ता तक सबसे ज्यादा भागदौड़ कर रहे हैं। उनके बाद दूसरे नंबर पर ममता बनर्जी हैं। नीतीश कुमार और ममता बनर्जी की बाज़ नजऱ किंग मेकर बनते लालू प्रसाद यादव पर है। यही विपक्षी एकता का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि लालू प्रसाद यादव जैसे भ्रष्टाचार में सजा पाए और परिवारवाद को आगे बढ़ाने वाले नेता किंग मेकर बन रहे हैं। जिस आंदोलन की बागडोर लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में होगी उससे व्यवस्था परिवर्तन की उम्मीद तो नहीं की जा सकती।

1977 के सत्ता परिवर्तन आंदोलन का नेतृत्व लोकनायक जयप्रकाश नारायण के पास था। उनका कद स्वाधीनता सेनानी होने, ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए आजीवन देश सेवा करने के व्रत और हमेशा सत्ता के आकर्षण से दूर रहने के कारण तत्कालीन नेताओं में सबसे ऊपर था। उनके बरक्स लालू प्रसाद यादव की छवि एकदम उलट है। उनको बिहार के मुख्यमंत्री रहने के दौरान चारा घोटाले में लिप्तता प्रमाणित होने के बाद लंबी सजा हुई है। बिहार की वर्तमान बदहाली में उनकी सरकारों का बड़ा योगदान है। उनके रेलमंत्री के कार्यकाल के दौरान भ्रष्टाचार के मामलों में जांच एजेंसियों की कार्यवाही चल रही है। ऐसे व्यक्ति के मार्गदर्शन में होने वाले सत्ता परिवर्तन के आन्दोलन की क्या गति होगी उसकी सहज परिकल्पना संभव है। 

जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले आंदोलन की भी यही सबसे बड़ी कमी रही थी कि उसमें शामिल नेताओं का एकमात्र लक्ष्य इंदिरा गांधी की सत्ता छीनकर खुद की सत्ता स्थापित करना था। इसीलिए सत्ता परिवर्तन के बाद मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी को जो प्रचंड बहुमत हासिल हुआ था वह ज्यादा दिन तक नहीं टिक पाया था। लालू प्रसाद यादव के मार्गदर्शन में होने वाले सत्ता परिवर्तन आंदोलन का सकारात्मक परिणाम किसी भी दृष्टि से संभव नहीं लगता।

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