विचार / लेख

कुर्सी का अनंत मोह
17-Jun-2023 10:14 PM
कुर्सी का अनंत मोह

-डॉ. आर.के.पालीवाल
सत्ता की कुर्सी का मोह अधिकांश लोगों के लिए कभी खत्म नहीं होता। उदाहरण के तौर पर पूरा वानप्रस्थ आश्रम महानगरों में बिता चुके नेता भी संन्यास तो दूर मार्गदर्शक मंडल में जाने के लिए तैयार नहीं होते। इनका बस चले तो राजा महाराजाओं की तरह कुर्सी पर ही आखिरी सांस लें।  जिनकी सक्रिय राजनीति में भूमिका महत्वहीन हो जाती है वे राज्यपाल बनने की जुगत भिड़ाने लगते हैं। 

कुछ उम्र के तीसरे और चौथे पड़ाव पर भी टिकट के लिए दलबदलू तक का कलंक बर्दाश्त कर लेते हैं और आत्ममुग्धता के दौरे में निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर जमानत तक जब्त करा लेते हैं। नेताओं की कुर्सी केवल पांच साल की होती है। उसमें भी कभी कभी संसद या विधान सभा बीच में भंग होने पर समय के पहले चुनाव होने से पांच साल से पहले ही कुर्सी चली जाती है, इसलिए उनका कुर्सी मोह एक हद तक समझ में आता है। नेताओं के बरक्स नौकरशाहों की स्थिति अलग है। उन्हें लगातार तीन चार दशक कुर्सी का सुख मिलता है इसीलिए काफी नौकरशाहों को तीस पैंतीस साल सेवा के बाद सेवानिवृति पर सुकून मिलता है। इतनी लंबी नौकरी के बाद बोरियत भी होने लगती है। कुछ नौकरशाह तो बेहतर विकल्प की तलाश में समय के पहले स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति भी ले लेते हैं।

इधर नौकरशाहों के एक अति महत्वाकांक्षी वर्ग में कुर्सी से कुछ ज्यादा ही लगाव बढ़ गया है। वे सेवानिवृति से पहले ही सेवानिवृति के बाद भी सेवारत रहने के जुगाड खोजने लगते हैं। ऐसे नौकरशाहों की संख्या में निरंतर इजाफा हो रहा है। सरकार ने भी ऐसे लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए तरह तरह के पद सृजित किए हैं इनमें सबसे ज्यादा दिलचस्पी वे आई ए एस अफसर लेते हैं जो किसी दल विशेष के मुखिया के मुंह लगे होते हैं। 

अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश में विद्युत नियामक आयोग में एक पद पर नियुक्ति के इकलौते अनार के लिए चालीस बीमारों के आवेदन मिलने के समाचार हैं। इस उदाहरण से पता चलता है कि अफसरों में रिटायरमेंट के बाद भी किसी सरकारी कुर्सी से चिपके रहने की प्रवृत्ति कितनी तेज गति से बढ़ रही है। 

एक पद के लिए चालीस आवेदन दर्शाते हैं कि कुर्सी के लालच में उच्च पदों पर आसीन ये नौकरशाह सरकारी सेवा में रहते हुए अपने राजनीतिक आकाओं की कृपा दृष्टि पाने के लिए उनके उल्टे सीधे काम करते रहे होंगे। इस तरह के पद नौकरशाहों के लिए कैरट एंड स्टिक की गाजर की तरह हो गए हैं जिनके लालच में काफ़ी लोग अपना जमीर गिरवी रख देते हैं। पद प्राप्ति के बाद ये लोग सरकार के एजेंट की तरह काम करते हैं। चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियों में सरकार के पूर्ण नियंत्रण को भी सर्वोच्च न्यायालय ने इसी पृष्ठभूमि में अनुचित माना है।

प्रश्न यह उठता है कि क्या सरकारी कुर्सी पर बैठ कर ही देश की सेवा की जा सकती है! तब तो इस लिहाज से सुभाष चन्द्र बोस ने आईसीएस की नौकरी ठुकराकर उचित नहीं किया था। महात्मा गांधी भी प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठ कर देश की सेवा कर सकते थे! उस स्थिति में उनके इर्द गिर्द कड़ा सुरक्षा घेरा होने से नाथूराम गोडसे की गोली भी उन तक नहीं पहुंच पाती! दरअसल कुर्सी के मोह में फंसे अफसर सरकारी सेवा के दौरान भी जनता की सेवा कम और नेताओं की जी हुजूरी ज्यादा करते हैं। ऐसे अधिकारियों पर मुख्यमंत्रियों की बडी कृपा होती है। उसी कृपा से दागदार करियर के बावजूद ये आसानी से मुख्य सचिव तक बन जाते हैं और रिटायरमेंट के बाद भी चार पांच साल के लिए सरकारी कुर्सी का जुगाड़ कर लेते हैं।इस समस्या का समाधान संभव हैं। ऐसे पदों पर रिटायरमेंट के बाद दो साल की कूलिंग ऑफ़ के बाद ही आवेदन किया जाना चाहिए। दूसरे यह नियुक्तियां सरकार के बजाय संघ लोक सेवा आयोग द्वारा की जानी चाहिए। जब क्लर्कों की नियुक्ति की एक जटिल प्रक्रिया है तब उच्च पदों के लिए यू पी एस सी से ही नियुक्तियां होनी चाहिए।

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