विचार / लेख
दूसरी किस्त
(कल के अंक से आगे)
राजनीति के कांग्रेसी अंदरखाने में यह संकेत कहीं से उभरा कि राहुल गांधी की अगुवाई में हुई ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का कर्नाटक के लोगों ने भारी स्वागत किया है। इसलिए उम्मीद बंधी है कि राजनीतिक पार्टी के बड़े नेताओं और जनता के बीच सीधा संवाद होने से बिगड़े हालात को अनुकूल करने की स्थिति तक सुधारा जा सकता है।
कांग्रेेस के केन्द्रीय नेतृत्व के अलावा कर्नाटक राज्य में यह बड़ा साहसिक फैसला प्रदेश की इकाई ने किया। वह उद्यम भविष्य की राजनीति का एक मोड़ हो सकता है। बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने के कांग्रेसी ऐलान की लगभग पैैरोडी बनाते खुद प्रधानमंत्री मोदी ने मुंह बिचका बिचकाकर हर सभा में बजरंगबली की जय के इस तरह वीर रस के नारे लगाए जिससे पूरा चुनाव अभियान हिन्दुत्व के मजहबी रंग में रंग जाए और कांग्रेस को मुस्लिमपरस्त संगठन प्रचारित कर दिया जाए।
भाजपा ने वर्षों से कांग्रेस के खिलाफ ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ जैसा शब्द ईजाद कर ही लिया था। यह शब्द उतना ही घातक है जितना ‘लव जिहाद’ और ‘पाकिस्तान जाओ’ जैसी अभिव्यक्तियां हैं। इधर कांग्रेस के कई कर्ताधर्ताओं ने अपनी प्रतिद्वंद्वी धर्मप्रधान (?) बुद्धि से भाजपा के कट्टर हिन्दुत्व के नारे के मुकाबले नर्म या सॉफ्ट हिन्दुत्व का नारा बुलंद करना शुरू किया। उनकी समझ रही होगी कि सेक्युलर हिन्दुत्व और अपेक्षाकृत सच्चे धार्मिक हिन्दुत्व वाले हिन्दू अपनी मूल बनावट में उदार ही होते हैं। उन्हें भी बहकाकर भाजपा ने अपने पक्ष में कर लिया है। सॉफ्ट हिन्दुत्व के नारे से ऐसे मतदाताओं की कांग्रेस के पक्ष में वापसी कराई जा सकती है।
मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष तथा उसके मुख्य वैचारिक कर्ताधर्ता कमलनाथ को सशक्त समझाईश दी गई कि वे भाजपा के ‘जयश्रीराम’ नारे का मुकाबला करने के लिए हनुमान या बजरंगबली के साथ खुद की राजनीतिक शख्सियत को एकात्म कर लें। तो मध्यप्रदेश में मामला बन सकता है। कमलनाथ ने पिछले महीनों में अपनी धार्मिक हैसियत दिखाते हुए हनुमान के प्रतीक को कांग्रेस के प्रचार के साथ इस तरह लयबद्ध कर लिया है कि भाजपा को भी अचरज हो रहा होगा। विवादित साधु कहलाते बागेश्वर धाम के युवा और बड़बोले प्रचारक को भी कमलनाथ ने साध लिया है-ऐसा बताया और प्रचारित किया जाता है।
हनुमान याने बजरंगबली की शक्ति को पिछले दिनों कांग्रेस के पक्ष में लाए जाने की कोशिश भी होती रही। वह इसलिए भी कि रामचरित मानस के किष्किंधा कांड के कर्नाटक रहवासी बजरंगबली ने वहां के चुनाव युद्ध में संजीवनी बूटी लेकर भाजपा के बुलावे पर जाना कुबूल नहीं किया। इस बात का भी प्रचार होता है कि राहुल गांधी धार्मिक हैं और वे मंदिरों में जाते दिखाई भी देते रहते हैं। उनका यज्ञोपवीत भी हुआ है। जवाहरलाल नेहरू के तरुण दिनों के उस फोटो को प्रकाशित किया जाता है, जब नेहरू का खुद का जनेऊ हुआ था। सॉफ्ट हिन्दुत्व के बदले मजहबपरस्ती की उपेक्षा करते अलग तरह से जवाब दिया कर्नाटक कांग्रेस ने। मुख्यत: सिद्धरमैया की अगुवाई में कांग्रेस ने संविधान के मकसदों सेक्युलरिज्म और समाजवाद पर कारगर प्रचारात्मक भरोसा किया। पार्टी ने जानबूझकर सॉफ्ट हिन्दुत्व का मुखौटा उतार फेंका जिसे बाकी राज्यों के कांग्रेसी अब भी विश्वासपूर्वक लगाए हुए अपना भविष्य संवारने में मशगूल हैं।
छत्तीसगढ़ में अपनी मजबूत स्थिति के बावजूद कांग्रेस इस बात का सावधान प्रचार कर रही है कि प्रदेश में भगवान राम की ननिहाल है। उनकी माता कौशल्या का मंदिर और राम वनगमन योजना के नाम पर कई सांस्कृतिक धार्मिक प्रकल्पों को सघन कर दिया गया है जिससे भाजपा का संभावित कट्टर हिन्दुत्व का हमला आसानी से रिबाउन्ड किया जा सके। बल्कि मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके। कर्नाटक ने लेकिन ऐसा नहीं किया।
वहां मुख्यत: सिद्धरमैया की अगुवाई में जातीय समरसता और सभी तरह के पिछड़े वर्गों, दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और नवयुवकों को अपनी चिंता के केन्द्र में एकीकृत रखकर सघन राजनीतिक मुहावरों में ही प्रचार किया गया। मजहबपरस्ती, सांप्रदायिकता जैसे उत्पादित दिमागी फितूर का उसी की उलट भाषा में जवाब देना कर्नाटक में कांग्रेस ने मुनासिब नहीं समझा। जहां अन्य राज्यों में कांग्रेसी मुख्यमंत्री या बड़े नेता खुद के धार्मिक और हिन्दू होने का नीयतन प्रचार करते हैं। वहीं कर्नाटक के जुझारू शीर्ष नेता सिद्धरमैया वर्षोंं से ऐलान कर रहे हैं कि वे नास्तिक हैं। उन्हें ईश्वर में ही विश्वास नहीं है। वे धार्मिक ढकोसलों में भरोसा नहीं करते। उनका कोई मंत्री अगर धार्मिक पाखंडवाद में भरोसा करता था। तो मुख्यमंत्री ने उसकी भी लानत मलामत की।
अपनी पिछली कांग्रेसी सरकार के वक्त सिद्धरमैया ने भाजपा के विरोध की परवाह नहीं करते हुए कर्नाटक के षेर कहे जाने वाले टीपू सुल्तान की जयंती का आयोजन पूरे प्रदेश में किया। भले ही उसे मुस्लिम तुष्टिकरण कहा गया। कांग्रेस को यह भी सुनना पड़ा है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद अपने पहले इंटरव्यू में सिद्धरमैया ने कहा कि मैं लोहिया के विचारों से प्रेरित हूं। मुख्यमंत्री वर्षों तक जनता दल के विभिन्न घटकों में सदस्य रहे हैं। साठ वर्ष की उम्र तक वे कांग्रेस में नहीं आए थे। उन्होंने साफ कहा कि कांग्रेस पार्टी को लोहिया के उन विचारों से कभी ऐतराज नहीं रहा जहां समाजवादी नेता ने आरक्षण, भूमि सुधार और सत्ता के विकेन्द्रीकरण जैसी राजनीतिक थ्योरी का प्रचार किया।
ऐसा नहीं है कि कर्नाटक में रामराज्य है या यूरो-अमेरिकी संस्कृति से उत्पन्न हुआ सेक्युलरिज्म है। कर्नाटक भी हिन्दू कूपमंडूकता का प्रदेश रहा है। जहां देवदासी परंपरा रही है और ब्रम्हणेां का छोड़ा जूठा भोजन किए जाने के उदाहरण भी हैं। हालिया भी धर्मांधता इतनी रही है कि तमाम बड़े राजनेता स्वामी सन्यासियों के आश्रम में जाकर राजनीति का भविष्य तय करते रहे हैं। मंदिर, मठ और आश्रम सियासी गतिविधियों के बैरोमीटर बन गए हैं।
सिद्धरमैया ने समाजवादियों रामकृष्ण हेगड़ेे, देवराज अर्स और देवेगौड़ा मंत्रिमंडलों में हिस्सेदारी की है। वे खुद पिछड़ी कुरबा जाति के हैं। कर्नाटक में वोकालिंगा और लिंगायत लोगों का रसूख और दबदबा रहा है। सारे खतरे उठाकर भी सिद्धरमैया ने कर्नाटक में अंधश्रद्धा का उन्मूलन करने में कोताही नहीं की। उन्हें चामराजानगर से लोकसभा चुनाव लडऩे 2014 में मना किया गया था लेकिन सिद्धरमैया नहीं माने। वे अपने मंत्रालय के रखरखाव में भी रूढिय़ों और अफवाहों को खारिज करते रहे। भाजपा सरकार ने हर वक्त कोशिश की कि कोई दलित या मुस्लिम मंत्री नहीं बन सके। सिद्धरमैया ने इस मिथक को बार बार तोड़ा। इन सबके बावजूद अपनी साफगोई में लोहिया को अपना प्रेरणा पुरुष कहने में सिद्धरमैया को कभी हिचक नहीं हुई।
2024 में लोकसभा का महत्वपूर्ण चुनाव होना है। उसके पहिले कई राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव भी होने हैं। जाहिर है इन सभी चुनावों में कांग्रेस की भी महत्वपूर्ण भूमिका होगी। लेकिन उसका मुख्य हथियार यदि सॉफ्ट हिन्दुत्व हो तो लोकतंत्र और कांग्रेस को क्या कुछ मिल सकता है? अगर सांप्रदायिक शक्तियों को ही आपस में लडऩा है। तो भारत के संविधान का क्या भविष्य होगा?
समाज में साक्षरता बढ़ी है और वैज्ञानिक वृत्ति भी। भारत के इंजीनियर, डॉक्टर, कम्प्यूटर विषेषज्ञ, आर्किटेक्ट, प्रोफेसर जैसे तमाम बौद्धिक वैचारिक लोग दुनिया में मशहूर हैं। इसके बरक्स देश में बेहद बेरोजगारी है, महंगाई है, युवकों का भविष्य आपसी तोडफ़ोड़, जयश्रीराम, अल्लाह ओ अकबर जैसे नारों में नहीं है। इस वक्त यदि देश को धार्मिक अनावश्यक पचड़ों से बाहर किया जाए तो लोकतंत्र के मजबूत होने की गुंजाईश बनती है। इस काम को करने कांग्रेस ही नहीं, सभी राजनीतिक दल संविधान की हिदायतों में प्रतिबद्ध हैं। उन्हें संयुक्त होकर सोचना होगा। केवल सत्ता पाना उनका मकसद नहीं हो हालांकि चुनाव के जरिए सत्ता ही तो पाना होता है।
देश पोंगापंथी जमात की वैचारिक फिसलन की पिच पर आ तो गया है। चाहे जो हो। यह तो कर्नाटक ने दिखा दिया है कि केवल हिन्दू-मुस्लिम फिरकापरस्ती, धार्मिक कूपमंडूपता और हिंसक प्रयोजनों के जरिए संवैधानिक राजनीति की दिशा तय नहीं की जा सकती। पता नहीं कई प्रदेशों के कांग्रेसी कर्णधार अपने यशस्वी पूूर्वजों द्वारा दिखाए उस रास्ते पर चलने से परहेज करते हुए भाजपा संघ को उसी की शैली में सीखकर जवाब देने की कोशिश क्यों कर रहे हैं? (समाप्त)