विचार / लेख
-अशोक कुमार पांडेय
अक्सर कई साथी लिखते हैं कि हमें सावरकर, मुखर्जी वगैरह के बारे में नहीं लिखना-बोलना चाहिए।
असल में वे इस गलतफहमी में जीते हैं कि हमारे लिखने-बोलने से सब तय होता है, हम नहीं लिखेंगे-बोलेंगे तो उनकी चर्चा नहीं होगी।
उन्हें सोचना चाहिए कि छह-सात दशक में गोडसे पर किसी ने नहीं लिखा। उसके अंतिम बयान को किताब की शक्ल देकर घर-घर पहुँचाया गया, लेकिन किसी ने जवाब देने की जरूरत महसूस नहीं की। हुआ क्या? उसके तर्क लोग सही मानने लगे।
दुनिया में जानकारी की प्यास मनुष्य का सबसे मूलभूत गुण है। सत्ता-सरकार जिसे महान बताती है सहज रूप से एक हिस्सा उस पर अविश्वास करता है और दूसरे सूत्रों से जानकारी चाहता है।
तो गोडसे या फिर मथाई की पायरेटेड यहाँ तक कि घटिया सामग्रियाँ अलग से डालकर छपी किताबें मैंने अच्छे-ख़ासे प्रगतिशीलों के घर में देखी हैं- तर्क जानकारी में क्या बुराई है!
इसलिए आज जब सत्ता गोडसे या सावरकर को हीरो बना रही है तो पाठक के पास ऑल्टरनेटिव होना चाहिए। मेरा उद्देश्य वही उपलब्ध कराना है।
कभी सोचा भी न था कि YouTube करूँगा, लेकिन वक़्त ऐसा है कि गंद से भरे वीडियो हर तरफ़ फैले हैं। मुझे लगा श्रोताओं के पास अल्टरनेटिव वर्शन होना चाहिए। तो इधर भी सक्रिय हुआ। लोग देख रहे हैं। मैं ऐसे दक्षिणपंथियों से मिला हूँ जिन्होंने मेरी किताबें पढ़ी हैं, वीडियो देखते हैं, सहमत नहीं होते, लेकिन कहीं न कहीं अल्टरनेटिव सूचना जाती तो है। आम लोगों के लिए तो यह काम मुझे बेहद जरूरी लगता है कि दोनों पक्ष उनके सामने हों।
इसलिए मुझे लगता है कि दक्षिणपंथ के हीरोज का सच जाना ही चाहिए लगातार। मुझे यह जरूरी काम लगता है और मैं लगातार करता हूँ।
बाक़ी इतिहास तय करेगा ज्वह आपको कूड़ेदान में डालेगा या फिर दर्ज करेगा यह तो कोई तय नहीं कर सकता आज।