विचार / लेख
photo : facebook
-ध्रुव गुप्त
अपने पुलिस जीवन के मेरे कुछ अनुभव ऐसे रहे जो आज रिटायरमेंट के वर्षों बाद भी सोचने पर व्यथित करते हैं। आज जाने क्यों उस दौर का मेरा सबसे दुखद अनुभव बहुत याद आ रहा है। बात 1981 की है जब मैं जिला ट्रेनिंग में छपरा में पदस्थापित था। तब छपरा-पटना हाईवे पर डोरीगंज का क्षेत्र सडक़ डकैतों से बुरी तरह आक्रांत था। एक रात गश्ती चेकिंग के सिलसिले में डोरीगंज के गंगा घाट पर रात के सन्नाटे में नदी के कोलाहल का आनंद ले रहा था मैं। कुछ अधिकारी और सशस्त्र बल के जवान मेरे आसपास मौजूद थे। आधी रात के बाद एक चौकीदार ने आकर सूचना दी कि पास के हाईवे से पांच-छह गाडिय़ां लूटने के बाद डकैत गंगा दियारे की ओर भाग निकले हैं। मैं घटनास्थल पर पहुंचा तो वहां यात्रियों की चीख-पुकार मची थी। एक अधिकारी को यात्रियों के बयान लेने के लिए छोडक़र मैं पुलिस बल के साथ गंगा के दियारे में प्रवेश कर गया। नदी के किनारे खड़ी एक नाव से नदी पार कर सात-आठ किलोमीटर पैदल चलकर सीमावर्ती भोजपुर जिले के दियारे में अपराधियों के लिए कुख्यात एक गांव में पहुंचा। वहां दर्जनों घरों की तलाशी में डकैती में लूटी गई लगभग तमाम संपत्ति बरामद हो गई और तीन अपराधी भी पकड़े गए। सुबह हुई तो अपराधियों और बरामद संपत्ति के साथ अधिकारी और कुछ जवानों को थाने लौट जाने को कहा। मैं खुद दो जवानों के साथ वहां एकत्र ग्रामीणों से पूछताछ में लगा रहा।
जब तक मैं नदी पार करने के लिए गंगा के उस किनारे पहुंचा तब तक सूरज सर पर आ गया था। जून का महीना था। भूख और प्यास के मारे बुरा हाल हो चला था। आसपास कहीं कोई गांव नहीं। चापाकल का तो सवाल ही नहीं। नदी के किनारे थोड़ी दूरी पर फूस और फटे कपड़ों से बनी एक अस्थायी झोपड़ी देखी तो भागकर वहां पहुंचा। झोपड़ी में लगभग साठ साल का एक दुबला-पतला बूढ़ा व्यक्ति मौजूद था। शायद थोड़ी-बहुत मछलियां पकड़ र आसपास के गांवों में बेचने के लिए वहां टिका था। मैंने उससे पूछा कि क्या वह हम तीन लोगों को कुछ खिला सकता है? उसके पास गमछे में लगभग आधा किलो मोटा चावल उपलब्ध था। हमें घड़े का पानी पिलाने के बाद वह थोड़ी-बहुत छोटी मछलियां पकडक़र ले आया।ईंट के चूल्हे पर पतीले में चावल डाला और नीचे आग में मछलियां। भात तैयार हुआ तो आग से मछलियां निकाल कर उसमें थोड़ा तेल, लहसुन और नमक डालकर मछली का तेज-तेज चोखा बनाया। हम भोजन पर टूट पड़े। भात थोड़ा कच्चा था और मछलियां कुछ अधपकी। बावजूद इसके वह मेरे जीवन का सबसे स्वादिष्ट भोजन था जिसका स्वाद में आज भी नहीं भूल पाया हूं। चलते समय मैंने उसे कुछ रुपए देने चाहे लेकिन उसने पैसे लेने से इंकार कर दिया। मैंने जबर्दस्ती उसकी जेब में सौ रुपए डाले और लौट आया।
कुछ महीनों बाद छपरा से मेरा ट्रांसफर हुआ तो मुझे उस बूढ़े मछुआरे की याद आई। मैं उससे मिलने एक बार फिर गंगा पार के दियारे में गया। वहां झोपड़ी गायब थी। कुछ दूरी पर स्थित एक गांव के लोगों ने बताया कि पुलिस को खाना खिलाने के अगले दिन से ही वह बूढ़ा और उसकी झोपड़ी दोनों गायब हैं। लोगों में चर्चा थी कि पुलिस मुखबिर होने के संदेह में डकैतों ने उसे मारकर गंगा में उसकी लाश बहा दी थी। उसके घर का पता किसी को मालूम नहीं था। मेरी आंखों में आंसू आ गए। मैं उस उजड़ी हुई झोपड़ी के पास देर तक उदास बैठा रहा। भारी कदमों से छपरा लौटा। उसका मासूम चेहरा और उसके भोजन का स्वाद मुझे आज भी नहीं भूला है। उस घटना के बाद कई बार मैंने मोटे चावल का भात और छोटी मछलियों का चोखा बनवाकर खाने की कोशिश की, लेकिन हर बार पहला कौर उठाते ही अपना हाथ मुझे खून से सना हुआ नजर आने लगता है और क्षमा की याचना में मेरे हाथ आकाश की ओर उठ जाते हैं।