विचार / लेख
-डॉ. आर.के.पालीवाल
सुबह का अखबार देखते हैं तो पहले पन्ने पर केंद्र या प्रदेश सरकार का कोई न कोई पूरे पन्ने का एक विज्ञापन जरूर होता है जिसमें किसी नई योजना की धमाकेदार शुरुआत की खबर प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री के जरूरत से ज्यादा मुस्कुराते हुए चेहरे के साथ एक सुदर्शन फोटो रहती है। ऐसा लगता है जैसे विज्ञापन देना सरकार की पहली प्राथमिकता हो गई है। महात्मा गांधी कहते थे कि कहने से पहले हमे करना चाहिए। ऐसा लगता है कि महात्मा गांधी अब विदेश प्रवास में चर्चा करने के लिए ही प्रासंगिक रह गए हैं उनके विचारों को देश में कोई लागू नहीं करना चाहता। सरकारें गांधी विचार के विपरित चलती हैं। वे घोषणाएं करती हैं, वादे करती हैं, नई नई योजनाएं बनाती हैं, विज्ञापन छपवाती हैं लेकिन ठीक से काम नहीं करती।
केवल अखबार पढऩे वाले शहरी लोग सोचते होंगे कि गांव के लोग कितने मजे में हैं क्योंकि सरकारी विज्ञापनों में लहलहाती फसलें, फ़सल काटते हुए कूल्हे मटकाकर गीत नृत्य करती सजी धजी औरतें, नेताओं जैसी भक्क सफेद धोती कुर्ता और पगड़ी पहने छप्पन इंच का सीना दिखाते किसान, गैस सिलेंडर पर खाना पकाती एकता कपूर के सीरियलों की संभ्रांत महिलाओं जैसी ग्रामीण युवतियां देखकर स्वस्थ आंखों वाले लोग भी भ्रमित हो सकते हैं। इन विज्ञापनों से सरकारें जनता को भ्रमित करना चाहती हैं। इस कार्य में उन्हें मीडिया का वह हिस्सा खूब आगे बढ़ कर समर्थन कर रहा है जिसे गोदी मीडिया का नाम दिया गया है।
ग्रामीण विकास कार्यों की हकीकत विज्ञापनों के दृश्यों से धुर विपरीत है। उदाहरण के तौर पर 2018 में शुरु हुई बलराम तालाब और नलकूप योजना पांच साल बाद भी अधूरी हैं। दो लाख़ रुपए का एक कुआं खोदने के लिए एक पंच वर्षीय योजना के पांच साल भी कम पड़ते हैं। इन पांच सालों में और भी दर्जनों नई योजनाएं घोषित हो चुकी हैं। ग्राम विकास योजनाओं का यह हाल प्रदेश की राजधानी भोपाल से सटे सीहोर जिले का है।इस जिले पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री काफ़ी ध्यान देते हैं क्योंकि उनका विधान सभा क्षेत्र इसी जिले से है। यदि ऐसे जिले की स्थिति अच्छी नहीं है तब दूर दराज के पिछड़े जिलों की क्या हालत होगी इसकी सहज कल्पना कर सकते हैं। मध्य प्रदेश अकेला ऐसा राज्य नहीं है। अमूमन हर राज्य की ऐसी ही स्थिति है।
ऐसा लगता है जैसे एक अनार सौ बीमार की कहावत विकास की इन्हीं योजनाओं के लिए बनी है। भ्रष्टाचार का भी यही एक बड़ा कारण है। कुंआ खुदवाने की योजना को ही देखें तो यह कार्य मनरेगा योजना के अंतर्गत किया जाता है। हर ग्राम पंचायत में कई सौ परिवार होते हैं लेकिन एक ग्राम पंचायत में इस योजना का लाभ एक समय में केवल चार या पांच परिवारों को मिलता है। हमने मध्य प्रदेश के सीहोर जिले की एक ग्राम पंचायत को केस स्टडी के लिए चुना तो पता चला कि पिछ्ले पांच सालों में शुरु हुए पांच काम अभी भी अधूरे पड़े हैं।
इस वर्ष ग्राम पंचायत ने फिर से पांच नाम शासन को भेजे हैं जिनमें से कोई भी नाम शासन के स्तर पर स्वीकृत नहीं हुआ है। कहने के लिए पंचायती राज व्यवस्था लागू है लेकिन पंचायत के तमाम कार्य ब्लॉक और जिले के अफसरों की स्वीकृति के बगैर आगे नहीं बढ़ते।सी ई ओ जनपद पंचायत कार्यालय के बाबू गांव वालों से चक्कर कटवाते रहते हैं। उन्हें लिखित में कोई कुछ नही बताता और मौखिक रूप से ऊल जलूल ऑब्जेक्शन बताए जाते हैं।जब तक पुराने काम पूरे नही होते तब तक नए काम स्वीकृत नहीं होते।
गांव वालों का मानना है कि जब तक बाबुओं के पास घूस या विधायक की सिफारिश नहीं पहुंचती तब तक फाइल जरा भी आगे नहीं बढ़ती। ऐसे में अंत्योदय में आने वाले गरीब परिवारों तक सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचना असंभव है। एक तो उनको यही पता नहीं चल पाता कि उनके नाम पर कितनी योजनाएं चल रही हैं। यदि यह जानकारी मिलती है तो उन्हें सरकारी योजना पाने के लिए किन किन दस्तावेजों को जमा करना है यह जानकारी नहीं मिलती। इसी वजह से उन्हें मदद नहीं मिल पाती। योजनाएं भले कम हों जब तक इन योजनाओं का लाभ सब पात्र नागरिकों को नहीं मिलेगा तब तक यही हाल रहेगा।