विचार / लेख
फिलवक्त देश मेंं कुछ बड़े और दूरगामी नस्ल के सवाल राजनीति के किरदारों में उनकी हैसियत तलाष रहे हैं। इन सवालों की पृष्ठभूमि ने नफरत और मजहबी धु्रवीकरण के जरिए समाज में जहरखुरानी करते रहने की साजिष जारी रखी है। लोकतंत्र की संवैधानिक बनावट चुनिंदा बुद्धिजीवियों, स्वतंत्रता संग्राम सैनिकों, विधि विषेषज्ञों और राजे रजवाड़ोंं के प्रतिनिधियों सहित बड़ेे किसानों और उद्योगपतियों के नुमाइंदों की मिली जुली कोशिशों से हो सकी थी। संविधान ने उम्मीद की थी कि जो सवाल फौरी तौर पर हल नहीं हो पा रहे, उनका निदान भविष्य की शासक पीढिय़ों और संसद को बुनियादी मंशाओं के मुताबिक करने की जिम्मेदारी महसूस की जाएगी। मूल अधिकार, नीति निदेशक सिद्धान्त तथा अदालती व्यवस्थाओं के मुतल्लिक आधा संविधान तो मजबूरियों का हलफनामा है।
देश के सामने सरकार चलाने से पहले ज़्यादा भारत-पाक विभाजन, भुखमरी, अकाल, जातीय विग्रह और कई पेचीदे प्रश्न उभर आए थे। यही वजह है कि आज़ादी के आंदोलन के सभी बुनियादी आदर्श संविधान निर्माता मुखर रूप से उसके स्थायी मकसदों की सूची में लिख नहीं पाए। भारतीय समाज प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों के दौर में प्रमुख राजनीतिक नेताओं की रहनुमाई में आगे बढऩे रास्ता तलाश रहा था। रहनुमाओं की षिक्षा मुख्यत: विदेशों बल्कि इंग्लैंड में हुई थी। सवाल केवल भाषा का नहीं था, और न अंगरेजियत की तहजीब भर का।
वह वक्त पश्चिम की वैज्ञानिक, तकनॉलॉजिकल और कूटनीतिक निगाह से दुनिया की कशमकश को देखने, समझने और संवारने का था। गांधी, नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, राजगोपालाचारी, जिन्ना, सुभाष बोस, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया और न जाने कितने नक्षत्र थे जिनके विचारों की रोषनी में देश को अपने बुनियादी संकल्प पत्र में भविष्य की पीढिय़ों के लिए वायदे भी सुरक्षित करने थे।
नेहरू ने संविधान सभा में उसके सम्भावित उद्देष्यों को लेकर ऐतिहासिक स्वप्नदर्शी भाषण दिया। तमाम महानता के बावजूद उन्हें समाजवाद और सेक्युलरिज्म जैसे शब्दों को संविधान की उद्देशिका में लिखने से परहेज और संकोच करना पड़ा। अम्बेडकर ने इस पर चुभती हुई टिप्पणी भी की थी लेकिन प्रारूप समिति के सभापति बनने पर मानो उन्होंने भी हालात से समझौता ही कर लिया। देश की राजनीति में उद्योगपतियों और राजेरजवाड़ों का इतना अदृश्य लेेकिन कारगर रसूख था कि संविधान की भाषा में स्पष्टता और खुलापन लाने में निर्माताओं को मन मारकर चुप रहना हुआ। विपरीत राजनीतिक हालात होने पर इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल में सेक्युलरिज्म और समाजवाद को आईन के मकसद के रूप में शब्दों में साफ -साफ जोड़ा गया। ऐसा करना भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा की आंखों की किरकिरी हुआ। वे आज भी जब जब हिन्दू राष्ट्र लाने का ऐलान करते हैंं, तब तब उन्हें संविधान के पंथ निरपेक्षता वाले ऐलान से जूझना पड़ता है।
भला हो सुप्रीम कोर्ट का, अपनी तमाम विवशताओं, विरोधाभासों और विसंगतियों के बावजूद 1973 में भारत के सबसे बड़ेे मुकदमे केषवानन्द भारती के प्रकरण में बहुमत से यह तय कर दिया कि सेक्युलरिज्म संविधान का बुनियादी ढांचा है। उसे सरकार या संसद संविधान संषोधन के नाम पर बदल नहीं सकती। यह भी कि न्यायपालिका अर्थात सुप्रीम कोर्ट को इस संबंध में व्याख्या करने का पूरा अधिकार होगा।
इस ऐतिहासिक संदर्भ में देष की राजनीति के पिछले लगभग दस वर्ष संविधान के फलसफा का कचूमर निकलते देख रहे हैं। भाजपा का संसद पर कब्जा मजहबी ध्रुवीकरण के चलते हुआ है। इसमें कहां संदेह है। केन्द्रीय सत्ता की नकेल हाथ में आ जाने के बाद भी हिन्दुत्व के जमावड़े ने अपनी मुहिम जारी रखी है। हिन्दू वोट बैंक को अपने पक्ष में पुख्ता करने के लिए मुसलमान से नफरत को राजनीति का मुख्य हथियार और प्रयोजन बनाया गया। देश की जनता अपने बहुमत में निरीह, कूपमंडूप, बुद्धिसंकुल और प्रतिरोधरहित तो रही ही है। उसके ऐसा होने से मजहबपरस्ती का फितूर लोकतंत्र को प्रदूषित करने का बड़ा कारण बन गया है।
इसके अलावा राजनीतिक हथकंडों से नैतिकता को दरकिनार करते अन्य पार्टी के जीत जाने पर भी उसके विधायकों की थोकबंद खरीदी भाजपा के पक्ष में हो जाती है। संपत्ति के संसाधनों पर कॉरपोरेट की मदद से ऑक्टोपस की तरह की पकड़ बना ली गई है। कानून कायदों का कचूमर निकालते और न्यायपालिका को धमकाते, पुचकारते और अपने पक्ष में करते ऐसा माहौल बना दिया गया है कि कहीं कोई जांच तक होने की हालत नहीं है। न्याय करने से डर का नाम जस्टिस लोया हो गया है। राजनीतिक मर्यादाओं और शुचिताओं की खुलेआम हत्या की जा रही है। संसद जैसी पवित्र और शीर्ष प्रतिनिधि संस्था के सदस्यों को मुंह खोलने तक नहीं दिया जा रहा है। जनता संविधान और देष की याने खुद की बदहाली पर भी चुप है। ऐसी जनविरोधी हिकमत तो भारत की गुलामी के दौर में शासक अंगरेज ने भी नहीं दिखाई थी। गौतम अडानी नाम का उद्योगपति भारत का एकक्षत्र वैश्विक संपत्ति सम्राट बना दिया गया है। कुबेर नाम का पौराणिक चरित्र भी इतना अमीर नहीं दिखाया जाता। लोकतंत्र की मर्यादा तार तार करते राष्ट्रपति पद की इतनी तौहीन कर दी गई है कि उनके मुलाकातियों की सूची भी सरकार तय करती कही जा रही है। भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री का रुतबा इतिहास के उन सम्राटों से कहीं ज़्यादा है, जिनके अत्याचारों से पीडि़त होकर लोग ईश्वर से मदद मांगते ‘त्राहिमाम त्राहिमाम’ करने लगते थे। गर्ज यह कि भारत इस समय राजनीति, प्रशासन और सामाजिक समरसता के लिहाज से इतिहास के सबसे बुरे अनपेक्षित दौर में है। पतन कथा अभी आगे और भी लिखी जाने की स्थिति है ही। ऐसे व्यापक राजनीतिक, ऐतिहासिक संदर्भ में देश लोकतंत्र के भविष्य को लेकर आपसी जद्दोजहद बल्कि घबराहट में भी है। शक्तिशाली और लोकप्रिय बना दिए गए प्रधानमंत्री मोदी के मुकाबले के लिए कई राजनीतिक दल हैं, लेकिन संघर्ष करने की उनकी ताकत पर जनता के कई वर्गों को पूरा भरोसा नहीं है।
पस्तहिम्मती और राजनीतिक तोडफ़ोड़ के इस बुरे वक्त में हाल में हुए कर्नाटक विधानसभा के चुनाव के परिणाम बदलाव की ताजा हवा के झोंके की तरह आए। कोई सर्वे एजेंसी या अनुमान करने वाले शुरू में मानने को तैयार नहीं थे कि कर्नाटक में प्रधानमंत्री की निजी सक्रिय दिलचस्पी बल्कि धुआंधार चुनाव प्रचार के कारण भाजपा हार भी सकती है। आखिर के दस दिन तो नरेन्द्र मोदी ने कर्नाटक में डेरा ही डाल दिया और ताबड़तोड़ रैलियां और सभाएं करने का रिकॉर्ड बना दिया। भारतीय लोकतांत्रिक परंपरा में प्रधानमंत्री प्रदेश के विधानसभा चुनाव में इतना सघन प्रचार गैर संवैधानिक जैसा समझते नहीं करते रहे हैं।
कांग्रेस पार्टी के ऐलान में बताया गया कि उसकी सरकार आने पर भाजपा के हमलावर आनुवांषिक संगठन बजरंग दल बल्कि खुद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबंध लगाने पर विचार होगा। कर्नाटक में ही श्रीराम सेने नाम का घातक साम्प्रदायिक संगठन कई निर्दोष लोगों की हत्याओं का आरोपी रह चुका है। साम्प्रदायिक नफरत का सैलाब कर्नाटक में खुल्लमखुल्ला सडक़ों की हिंसा तक में बहाया जाता रहा है। विचारक प्रोफेसर कलबुर्गी और पत्रकार गौरी लंकेश की निर्मम हत्या बंगलोर में ही खुले आम की गई, लेकिन सरकार की ओर से दोषियों के खिलाफ कोई कारगर कार्यवाही नहीं हो सकी। हिजाब प्रकरण में अल्पसंख्यक समुदाय की स्कूली छात्राओं को संस्थाओं से निकाला गया। इसके बाद कर्नाटक हाई कोर्ट ने सरकार से हमकदम होकर हिजाब पहनने की मांग को प्रतिबंधित कर दिया।
फिलवक्त मामला सुप्रीम कोर्ट में अनिर्णय की हालत में है। कर्नाटक की भाजपा सरकार दल बदल और तोडफ़ोड़ के कारण ही बनाई जा सकी थी। कांग्रेस विधायकों की तो पूरे देश में थोकबंदी में भाजपा द्वारा पिछले वर्षों में खरीदी हो रही है। भाजपा अन्य पार्टियों के विधायकों को आसानी से पूरी कीमत देकर खरीद लेती है। कहीं-कहीं एकाध विधायक होने पर भी सरकार में हिस्सेदारी भाजपा की हो ही जाती है। चाहे मेघालय हो, मध्यप्रदेष या महाराष्ट्र या अन्य प्रदेश। लोकतंत्र मेंं दलबदल, भ्रष्टाचार, हिंसा और संविधान विरोध का माहौल अपनी सड़ांध और बदबू फैला तो रहा है।