विचार / लेख

खारिज करने के लिए भी किताब पढऩा जरूरी
24-Jun-2023 5:09 PM
खारिज करने के लिए भी किताब पढऩा जरूरी

उर्मिलेश

इन दिनों हिंदी के अनेक कवि, लेखक और प्रोफेसर ‘गीता प्रेस’ को लेकर बहस में उतर पड़े हैं। तात्कालिक कारण है, केंद्र की मौजूदा भाजपा सरकार की तरफ से गीता प्रेस को ‘गांधी शांति पुरस्कार’ देने की घोषणा। पिछले दिनों देश के अनेक बुद्धिजीवियों ने इस फैसले पर अचरज प्रकट किया क्योंकि उन्होंने गीता प्रेस को गाँधी शांति पुरस्कार के लिए उपयुक्त नहीं माना। कुछ राजनीतिक दलों ने भी सरकार के इस फैसले की आलोचना कर दी। फेसबुक पर सक्रिय हिंदी के कुछ साहित्यकार भी इस फैसले के पक्ष या विपक्ष में लिखने लगे।

मुझे इस बात से उतना मतलब नहीं कि केंद्र सरकार या उसके मार्गदर्शन में चलने वाली संस्थाएँ किसको कब सम्मानित कर रही हैं! सरकारें क्या, इस देश में निजी और बहुत प्रतिष्ठित संस्थाएँ भी जिसको चाहती हैं सम्मानित कर देती हैं! मैं तो मीडिया क्षेत्र के अति प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका अवार्ड की लिस्ट आपके सामने रख सकता हूँ, जिसमें टीवीपुरम् के उन तमाम चेहरों के नाम होंगे, जो पत्रकारिता के किसी भी पैमाने से

ऐसे सम्मान के लिए सर्वथा अयोग्य हैं। सच तो यह है कि इनमें कई तो पत्रकार न होकर ‘किसी न किसी बड़ी शक्ति’ के भोंपू जैसे हैं। इसी तरह सरकारी और साहित्य अकादमियों के सम्मानों की सूची में भी ऐसी असंख्य विसंगतियाँ देखी जा सकती हैं। इसलिए गीता प्रेस को मोदी सरकार ने सम्मानित किया; उसने अपने एजेंडे के तहत किया। उससे हमारी भी असहमति है पर हम कुछ कर नहीं सकते। लेकिन ‘गीता प्रेस’ के बारे में अपनी समझ तो रख ही सकते हैं।

इधर हिंदी के बहुत सारे साहित्यकार अचानक ‘गीता प्रेस’ के बारे में अपनी रंग-बिरंगी राय के साथ सामने आ रहे हैं। वह मेरे जैसे एक अदना हिंदी पत्रकार के कहने पर तो अपनी राय बदलेंगे नहीं! ऐसे तमाम हिंदी साहित्यकारों, प्रोफ़ेसरों और कवियों को एक सुझाव देना चाहता हूँ। लेखक-पत्रकार अक्षय मुकुल (Akshay Mukul) ने कई वर्षों के रिसर्च के बाद ‘गीता प्रेस’ पर एक विशद ग्रंथ लिखा है। आप उसे ज़रूर पढें। पढऩे में आनंद भी आयेगा और शायद आपको राय बदलने की जरूरत महसूस होगी। अगर महसूस नहीं हुई तो कोई बात नहीं!

यह महज़ संयोग नहीं कि ‘गीता प्रेस’ के संस्थापकों ने और उसके वैचारिक साहित्य में हर जगह वर्णाश्रम धर्म की ब्राह्मणी वर्ण-व्यवस्था को जायज ठहराया जाता रहा है। हम सब जानते ही हैं कि ब्राह्मण धर्म या वर्णाश्रम धर्म को ही बहुत बाद के दिनों में हिन्दू धर्म कहा जाने लगा। हिन्दू अपेक्षाकृत नया शब्द है और वह भी विदेशियों के सौजन्य से मिला है। इस धर्म के गंभीर अध्ययन के बाद डॉ. अम्बेडकर ने माना था कि ‘ इसका मूलाधार वर्ण व्यवस्था यानी बाद के दिनों में उभरी जातिगत विभाजन की व्यवस्था है! हिन्दू समाज जैसी कोई चीज नहीं है, हिन्दू के नाम पर जो कुछ है, वह जातियों का संग्रहण या झुंड है’। (Annihilation of Caste By Dr B R AMbedkar, page-19)।

गीता प्रेस या उसकी वैचारिकी का सम्बन्ध कथित हिन्दुत्व या हिन्दूवाद से है या नहीं, उसके हिन्दू धर्म-प्रचार का कोई वर्णाश्रमी, वर्णवादी, अंधविश्वासी या सांप्रदायिक एंगल है या नहीं; अक्षय की किताब में ऐसे तमाम सवालों के जवाब मिलते हैं।

पढिय़े और फिर जरूर लिखिये। ‘गीता प्रेस’ का पक्ष लेने के लिए या अक्षय के रिसर्च को खारिज करने के लिए भी उनकी किताब पढऩा शायद उचित होगा। हिंदी में तो किसी ने ऐसा काम किया नहीं तो अंग्रेज़ी में हुए काम पर नजऱ डालने में क्या दिक्कत है!

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