संपादकीय
पुणे विश्वविद्यालय में बैठे-ठाले एक बखेड़ा खड़ा हो गया है। वहां पर रामलीला पर आधारित एक नाटक के मंचन के दौरान जब कुछ हिन्दू छात्रों ने यह पाया कि सीता की भूमिका कर रहा एक नौजवान सीता बने हुए सिगरेट पी रहा है, और गंदी जुबान बोल रहा है, तो उन्होंने आपत्ति की। उनकी लिखाई रिपोर्ट पर 5 छात्रों सहित विश्वविद्यालय के एक विभागाध्यक्ष को भी गिरफ्तार किया गया। धार्मिक भावनाएं आहत करने के इस मामले में इन्हें जमानत भी मिल गई, लेकिन विश्वविद्यालय में इससे एक गैरजरूरी तनाव उठ खड़ा हुआ है। राम और सीता के किरदार वाले इस नाटक, जब वी मेट, में कथानक ही यही था कि रामलीला करने वाले अभिनेता-अभिनेत्री जब मंच के पीछे रहते हैं, तो वे किस तरह बातें करते हैं। ऐसी ही अनौपचारिक बातचीत पर आधारित इस नाटक ने हिन्दू संगठनों के छात्र नेताओं को नाराज किया। इस मंचन को रोकने वाले छात्रों के साथ स्टेज कलाकारों का कुछ झगड़ा भी हुआ। यह नाटक रामलीला की पोशाक में राम-सीता, लक्ष्मण और रावण बने हुए कलाकारों की पर्दे के पीछे चल रही अनौपचारिक बातचीत को ही स्टेज पर नाटक की तरह दिखाने का काम था। लेकिन जब ऐसी अनौपचारिक बातचीत को मंच पर औपचारिक नाटक की तरह पेश किया गया तो दर्शकों में से भी लोग भडक़कर उठे, और स्टेज पर आकर झगड़ा करने लगे। विश्वविद्यालय का कहना है कि उसे अभी यही साफ नहीं है कि यह औपचारिक मंचन था, या रिहर्सल चल रहा था।
हिन्दुस्तान में धार्मिक मुद्दों को लेकर कई तरह के विवाद होते ही रहते हैं। लोगों की धार्मिक भावनाएं, और लोकतंत्र की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता साथ-साथ नहीं चलती हैं। यह बात सिर्फ हिन्दू भावनाओं को लेकर नहीं है, कई अलग-अलग धर्मों के लोग अपने धर्म से जुड़े प्रतीकों, रिवाजों, और मुद्दों को लेकर तेजी से भडक़ जाते हैं। कुछ दशक पहले तक इस तरह के बहुत से मजाक फिल्मों में दिखाए जाते थे, कुछ फिल्मों में शंकर बना हुआ कोई अभिनेता कहीं पेशाब घर से निकलते दिखता था, तो कहीं दौड़-भाग करते हुए। रामायण और महाभारत के किरदारों को लेकर सैकड़ों किस्म के मजाक चलते थे, और इन पर कोई बखेड़ा नहीं होता था। लेकिन आज हालात बिल्कुल अलग हैं, अब लोगों की धार्मिक भावनाएं मन के भीतर नहीं है, उनकी चमड़ी के ऊपर बसी हुई हैं, और जरा सी हवा की सरसराहट होते ही वे भडक़ने लगती हैं, हवा से भडक़ने वाली आग की लपटों की तरह। लोगों को याद होगा कि जब विश्वविख्यात लेखक सलमान रुश्दी ने सेटेनिक वर्सेज नाम की एक विवादास्पद किताब लिखी थी, तो दुनिया के मुस्लिम और इस्लामिक देशों से भी पहले भारत ने उस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया था। हर देश की अपनी संवेदनाएं होती हैं, सहनशीलता के अलग-अलग पैमाने होते हैं, और धार्मिक मान्यताएं भी समय के साथ-साथ कम या अधिक नाजुक होती रहती हैं। ऐसे में सरकार को अपने देश-प्रदेश में अधिक तनाव होने के पहले ही चीजों पर रोक-टोक लगानी पड़ती है। बहुत किस्म के साम्प्रदायिक तनाव ऐसे रहते हैं जिनको बढऩे के पहले ही रोका जा सकता है। एक बार साम्प्रदायिक तनाव या धार्मिक उन्माद फैल गया तो उसके बाद फिर काबू करना बड़ा मुश्किल रहता है। और अभी पुणे के इस मामले में तो एक बात यह अच्छी है कि इसमें महज धार्मिक भावनाएं आहत होने की शिकायत है, और सभी लोग एक ही धर्म के हैं, अगर इनमें कोई गैरहिन्दू होते तो यह बवाल अधिक बड़ा हो गया रहता।
भारत में बहुसंख्यक हिन्दू धर्म के भी अनगिनत सम्प्रदाय हैं, और हर सम्प्रदाय की प्रचलित कहानियां भी कई-कई किस्म की हैं। हिन्दुओं के बीच भी कहीं रामचरित मानस को लेकर, तो कहीं किसी और कहानी को लेकर मतभेद चलते रहते हैं। तुलसीदास और उनके रामचरितमानस को लेकर कितने ही तरह के विवाद बिहार से लेकर तमिलनाडु तक चलते रहते हैं, और हिन्दू धर्म से जुड़ी हुई जिस सनातनी संस्कृति, या उसकी मान्यताओं को आज सबसे ऊपर मान लिया गया है, वे भी हिन्दुओं के बीच एक तबके की मान्यताएं हैं, और हिन्दुओं के बहुत से दूसरे तबके उनसे सहमत नहीं हैं। ऐसे में कोई भी एक तबका अगर राम-सीता जैसे किरदार को लेकर कोई प्रयोग करता है, तो उसे ऐसे खतरे झेलने के लिए तो तैयार रहना ही पड़ेगा। लोगों को याद होगा कि एक वक्त देश के एक सबसे बड़े कलाकार मकबूल फिदा हुसैन ने हिन्दू देवियों की जो तस्वीरें बनाई थीं, उनके खिलाफ इतने मुकदमे दायर हुए थे कि वे अपने आखिरी के कई बरस देश के बाहर रहने को, और वहीं मरने को मजबूर हो गए थे।
हमारा ख्याल है कि हिन्दुस्तान में आज धार्मिक भावनाएं बारूद के ढेर पर बैठी हुई हैं, और ऐसे में समझदारी तो यही है कि अभिव्यक्ति की किसी स्वतंत्रता के तहत धार्मिक मुद्दों को न छुआ जाए। धर्म को लेकर एक गंभीर और ईमानदार लेखन भी आज भारी पडऩे लगा है, ऐसे में धर्म से मसखरे अंदाज में कोई प्रयोग करना एक बहुत ही अनावश्यक तनाव खड़ा करेगा, जिसके लिए मसखरों को देश के अलग-अलग कई प्रदेशों में मुकदमे झेलने पड़ सकते हैं, और उसके बाद किसी बड़ी अदालत से जमानत पाकर चुपचाप घर बैठना पड़ सकता है। आज कला की आजादी का दावा करने का वक्त नहीं है। आज धर्म पर किसी गंभीर व्याख्या और विश्लेषण का भी वक्त नहीं है, और खतरा झेलकर ही वैसा किया जा सकता है। अदालतों का रूख भी धार्मिक भावनाओं का हिमायती दिख रहा है। ऐसे में हर किसी को अपनी खाल बचाकर चलना चाहिए। दस-बीस बरस पहले तक जितने हास्य और व्यंग्य धार्मिक किरदारों को लेकर खप जाते थे, अब उसका वक्त नहीं रह गया है। और ऐसा करने पर कट्टर धर्मान्धता को तो स्टेज पर पहुंचने का मौका मिलता ही है, ऐसी धार्मिक एकजुटता साम्प्रदायिक होने का खतरा भी खड़ा करती है। इसलिए अभिव्यक्ति की ऐसी किसी स्वतंत्रता को बढ़ाने की कोशिश नहीं करना चाहिए जिसे लोग कट्टरता बढ़ाने के लिए इस्तेमाल कर सकें। धर्म के नाम पर बोलने, लिखने, और कलात्मक आजादी लेने वाले लोग किसी मासूमियत का दावा नहीं कर सकते क्योंकि देश में आज हवा का रूख दिखाने वाला कपड़ा सारे वक्त फडफ़ड़ाते रहता है, सबको मालूम है कि कौन सी बातों को लेकर एक गैरजरूरी उपद्रव हो सकता है, इसलिए अपनी कलात्मक रचनात्मकता को दूसरे विषयों पर खर्च करना चाहिए।
योगी आदित्यनाथ के उत्तरप्रदेश में अभी बजरंग दल (एक दूसरे समाचार में इसे विश्व हिन्दू परिषद बताया गया है) के कुछ कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया जो अपने इलाके के पुलिस थाना प्रभारी को हटवाने के लिए इलाके में तनाव खड़ा करके माहौल बनाना चाह रहे थे। यहां तक तो मामला ठीक था, लेकिन इसके लिए बजरंग दल के मुरादाबाद जिला प्रमुख और इस संगठन के कुछ और पदाधिकारियों ने एक गाय कटवाई, और उसके बदन के हिस्से इस थाने के इलाके में जगह-जगह रखवाए ताकि तनाव खड़ा हो, और थाना प्रभारी को हटाया जाए। इसके साथ-साथ इन लोगों ने एक ऐसे मुस्लिम का नाम बताकर उसे गिरफ्तार करने की मांग की जिसका इस मामले से कुछ लेना-देना नहीं था, और बजरंग दल के लोगों ने अपने साथ जिस मुस्लिम को रखा हुआ था, उसने पुलिस को बयान और सुबूत सब दे दिए। इस खबर की संवेदनशीलता को देखते हुए इसके नामों पर गौर करने की जरूरत है। साम्प्रदायिकता के मामले में अत्यंत संवेदनशील यूपी के मुरादाबाद जिले में बजरंग दल और वीएचपी से जुड़े हुए सुमीत बिश्नोई ने स्थानीय थानेदार पर दबाव बनाने के लिए यह साजिश रची थी क्योंकि बिश्नोई बहुत से गैरकानूनी काम करता था, और पुलिस उसमें कभी-कभी आड़े आती थी। उसने दूसरे दो हिन्दू दोस्तों के साथ मिलकर एक मुस्लिम के साथ यह साजिश रची, एक गाय काटकर फेंकी गई, और इलाके के थानेदार को हटाने के लिए एक अभियान छेड़ा गया ताकि जुर्म में बाधा बनने वाले पुलिस अफसर राह से हटा दिए जाएं। इसके बाद साजिश में शामिल मुस्लिम नौजवान, शाहबुद्दीन ने अपने एक निजी रंजिश वाले महमूद नाम के आदमी का नाम, उसकी फोटो ऐसी अगली गाय की लाश के साथ प्लांट कर दी ताकि गोहत्या में वह फंस जाए। सुमीत बिश्नोई थानेदार को हटाने और इस महमूद को गिरफ्तार करने की मांग करते हुए प्रदर्शनों में भी शामिल रहा। एक गाय की लाश कांवर पथ पर डाली गई जो कि धार्मिक यात्राओं वाला रास्ता है। अब वहां के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक हेमराज मीणा ने इस पूरी साजिश का भांडाफोड़ करते हुए बताया कि इसी थाने के एक सबइंस्पेक्टर नरेन्द्र कुमार को इन अभियुक्तों के साथ मिलीभगत के लिए निलंबित किया गया है। चूंकि यूपी में योगीराज है, और इस मामले की जांच करने वाले सारे अफसर हिन्दू हैं, इसलिए कोई यह आरोप भी नहीं लगा सकते कि किसी दूसरे धर्म के लोगों ने हिन्दू संगठनों के लोगों को फंसा दिया है।
देश में और भी कुछ जगहों पर ऐसा हुआ है कि किसी मुस्लिम या गैरहिन्दू को फंसाने के लिए कुछ हिन्दुओं ने ही गाय कटवाई, और दूसरों के नाम उलझाए। यह मामला खतरनाक इसलिए है कि हिन्दुस्तान आज हिन्दू-गैरहिन्दू धर्मों के बीच बहुत बुरी तरह बंटा हुआ है, और लोगों की साम्प्रदायिक भावनाओं की लपटें आसमान छू रही हैं। ऐसे में जहां कहीं किसी तरह का साम्प्रदायिक तनाव खड़ा करने की साजिश होती है, वहां पर हमारे हिसाब से अनिवार्य रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम लागू करना चाहिए क्योंकि देश में आज साम्प्रदायिक तनाव खड़ा करने की साजिश राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरे से कम नहीं है। यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ का हिन्दूवादी रूख कोई छुपा हुआ नहीं है। इसके पहले कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र बन सके, यूपी को वे एक हिन्दू प्रदेश बनाने पर आमादा हैं, और हज-हाऊस को भी वे भगवा-केसरिया रंग से पुतवा चुके हैं। वीएचपी और बजरंग दल जैसे हिन्दू संगठनों को अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं के बारे में भी सोचना चाहिए कि वे किस तरह के धंधों में लगे हुए हैं। मुरादाबाद पुलिस ने बताया है कि इस साजिश के मुखिया सुमीत बिश्नोई के खिलाफ पहले से अवैध धंधों के कई मामले दर्ज हैं, कई मामलों में उसे कैद हो चुकी है, जिनमें हत्या, दंगे भडक़ाना जैसे जुर्म शामिल हैं। और इस मामले में पुलिस ने मोबाइल टेलीफोन के कॉल डिटेल्स सहित यह पूरी तरह से स्थापित कर दिया है कि किस तरह वीएचपी-बजरंग दल के ये पदाधिकारी शाहबुद्दीन नाम के मुस्लिम के साथ मिलकर गौहत्या करने, और उसकी तोहमत किसी और पर थोपने, और तनाव खड़ा करके इलाके के पुलिस अफसर को हटाने की साजिश कर चुके थे, उस पर अमल कर चुके थे।
यह नौबत इसलिए भयानक है कि आज देश में जगह-जगह धर्म के नाम पर लोगों को आपस में लड़वाना बड़ा आसान हो गया है। गाय देश में एक सबसे संवेदनशील मुद्दा है, और इसे लेकर किसी भी मुस्लिम या ईसाई पर तोहमत धरी जा सकती है, उसकी भीड़त्या की जा सकती है। आज बहुसंख्यक हिन्दू तबका जिस तरह के धार्मिक उन्माद में झोंका जा रहा है, उसका सबसे बड़ा नुकसान उसे खुद को हो रहा है। ऐसा करने वाले नेताओं के परिवारों के बारे में तो हम नहीं जानते, लेकिन ऐसा कर रही भीड़ के बारे में यह साफ दिखता है कि वह बेरोजगार भीड़ है जिसे धार्मिक भावनाओं के नाम पर शहादत के अंदाज में झोंक दिया जा रहा है, और उसकी पूरी जवानी झंडे-डंडे के साथ खत्म हुई जा रही है। चूंकि यह मामला एक हिन्दू प्रदेश यूपी के हिन्दू मुख्यमंत्री योगी की पुलिस के हिन्दू अफसरों द्वारा उजागर किया गया है, इसलिए इसे आंख खोलने लायक मामला मानना चाहिए। अगर पुलिस ने ईमानदारी के साथ जांच करके बारीकी से सुबूत पेश न किए होते, तो यह भी हो सकता था कि इसमें वह बेकसूर मुस्लिम फंस गया रहता जिसका नाम गाय की लाश के साथ जोड़ा गया था। अब सवाल यह उठता है कि कितने प्रदेशों में कहां-कहां की पुलिस कड़ाई और ईमानदारी के साथ काम कर सकेगी जब थाने से अफसरों को हटाने के लिए हिन्दू नेता ही थाना-इलाके में गाय कटवाकर उसके टुकड़े फैलाते रहें? हमारा ख्याल है कि ऐसा जुर्म करने वालों के लिए जो सजा कानून में तय की गई है, उससे कई गुना अधिक सजा इस तरह की झूठी साजिश के लिए होनी चाहिए जिसमें किसी बेकसूर को फंसाने के लिए वह जुर्म किया जा रहा है।
इस बात को इसका सुबूत भी मानना चाहिए कि हर जगह साम्प्रदायिक तनाव की घटनाएं जरूरी नहीं हैं कि वैसी हों जैसी कि दिखती हों। इसलिए लोगों को भडक़ने के लिए कुछ सब्र रखना चाहिए, और आग में घी डालने का काम नहीं करना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ सरकार ने कल मंत्रिमंडल की एक बैठक में संविदा नियुक्ति के लिए पिछली भूपेश बघेल सरकार के नियमों में किए गए एक बदलाव को पलट दिया। इस बदलाव के चलते 2012 में राज्य सरकार द्वारा बनाए गए संविदा नियमों में फेरबदल करके 2023 में यह संशोधन किया गया था कि किसी अधिकारी के खिलाफ विभागीय जांच के चलते हुए, या अदालत में मुकदमे चलते हुए भी उन्हें संविदा नियुक्ति दी जा सकेगी। इस प्रावधान के बाद भूपेश बघेल सरकार के लिए यह रास्ता खुल गया था कि वह विभागीय जांच झेल रहे, या अदालत में मुकदमे झेल रहे अफसरों को भी रिटायर होने के बाद संविदा नियुक्ति दे सके। और भूपेश सरकार ने ऐसा किया भी था। पिछली सरकार के कुछ सबसे विवादास्पद अफसरों को संविदा नियम-2012 में किए गए बदलाव का फायदा जाहिर तौर पर भ्रष्ट दिखने वाले, विभागीय जांच और अदालती मुकदमे झेलने वाले लोगों को देने के लिए किया गया था, और वही हुआ भी। मुख्यमंत्री विष्णु देव साय की अगुवाई में कल राज्य मंत्रिमंडल ने 2023 के इस संशोधन को खारिज कर दिया, और 2012 के संविदा नियम ज्यों के त्यों लागू करने का फैसला लिया है। 2012 में उस वक्त के मुख्य सचिव रहे सुनिल कुमार ने इन संविदा नियमों को तैयार किया था, जिनमें 2023 में छेडख़ानी करके इसमें भ्रष्ट लोगों की जगह निकाली गई थी। हैरानी की बात यह थी कि भूपेश-मंत्रिमंडल ने जब संविदा नियम में संशोधन किया, तो सरकारी कामकाज के नियमों के खिलाफ इस संशोधन का न तो मंत्रिमंडल में किसी ने विरोध किया था, और न ही कैबिनेट के फैसले की जानकारी मिलने पर राज्यपाल ने ही इसमें कोई आपत्ति लगाई थी। वर्तमान भाजपा सरकार ने इस भ्रष्ट संशोधन को खत्म करके सही फैसला लिया है, और इससे सरकार में ऐसे अफसरों की संविदा नियुक्ति होना थमेगा जो कि पहले ही भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं। उल्लेखनीय है कि भूपेश सरकार ने जब ऐसे अफसरों को संविदा पर नियुक्ति दी, तो उसके बाद इनके हाथों और भी ढेरों भ्रष्टाचार हुआ, और शायद भ्रष्टाचार की वह क्षमता ही उनकी काबिलीयत थी।
कोई भी सरकार जब बहुत ही बदनाम और भ्रष्ट अफसरों को किसी भी तरह से सेवा में रखने पर आमादा रहती है, तो उससे वैसी सरकारों की अपनी नीयत भी उजागर हो जाती है। वैसे तो किसी मंत्रिमंडल में बैठने वाले बाकी अफसरों की भी यह जिम्मेदारी होती है कि सरकार के नियमों के खिलाफ अगर कोई फैसला लिया जा रहा है, तो उसे कैबिनेट की जानकारी में लाए, और मुख्यमंत्री-मंत्रियों को बताए कि ऐसा फेरबदल या संशोधन कानून या नियम के खिलाफ रहेगा। लेकिन ऐसा लगता है कि राजनीतिक दबदबे की वजह से अफसर भी दबंग नेताओं के सामने मुंह नहीं खोलते, और गलत काम शुरू करने और आगे बढ़ाने का सिलसिला चल निकलता है। आज भूपेश बघेल सरकार के खिलाफ जितने किस्म के मामले अदालतों में गए हैं, या जिनके खिलाफ एफआईआर हुई है, उनको अगर देखें तो यह साफ है कि अखिल भारतीय सेवाओं के बड़े-बड़े अफसर इसमें नेताओं के साथ गिरोहबंदी करके जुर्म कर रहे थे। इनमें ऐसे अफसर भी थे जो कि अपने मामले-मुकदमे के बाद भी संविदा नियुक्ति पर थे, या सबसे अधिक ताकतवर थे। यह देश और दूसरे प्रदेशों की बहुत सी सरकारों के इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है कि जब चुने गए नेताओं के साथ अफसर भागीदारी कर लेते हैं, तभी अदालत तक पहुंचने लायक भ्रष्टाचार हो पाता है। अगर अफसर ही फाइलों पर नियमों का हवाला देकर गलत काम रोकने लग जाएं, तो फिर कोर्ट-कचहरी और जेल के लायक भ्रष्टाचार और जुर्म हो भी नहीं पाएंगे।
सरकार में गलत कामों की एक गुंजाइश इससे भी निकलती है कि तरह-तरह की जांच और मुकदमों से घिरे हुए अफसरों को भी प्रमोशन देने पर आमादा नेता इसमें कामयाब हो जाते हैं, और इस प्रक्रिया में शामिल अफसर भी सत्ता के दबाव के सामने दंडवत हो जाते हैं। हिन्दुस्तान की नौकरशाही में ऐसी मिसालें कम नहीं हैं कि ईमानदार अफसरों ने सरकार को बड़ी गलतियां करने से रोक ही दिया। लेकिन इसके लिए अफसरों की खुद की साख अच्छी होनी चाहिए, और उनके हाथ कालेधन से रंगे हुए नहीं होने चाहिए। हम इस बात को कई बार उठा चुके हैं कि राज्यों में आने वाली नई सरकारें पिछली सरकारों से दो किस्म के सबक ले सकती हैं, पहला सबक तो यह कि कैसे-कैसे काम न किए जाएं ताकि नई सरकार को भी जेल जाने की जरूरत न पड़े, और दूसरा सबक यह कि पिछली सरकार द्वारा भ्रष्टाचार के जो रास्ते निकाले गए हैं, उन पर तेज रफ्तार से आगे बढक़र खुद भी कैसे नए फ्लाईओवर बनाए जा सकते हैं। हर सरकार को इन दो में से किसी एक किस्म के सबक को लेने की आजादी रहती है। हर सरकार को यह भी पता रहता है कि पिछली सरकार के किन अफसरों ने कैसे-कैसे गलत काम करके नेताओं की भी कमाई करवाई, और खुद भी पैसा बनाया। कुछ नए नेता ऐसे तजुर्बे का खुद भी इस्तेमाल करने लगते हैं, लेकिन जो समझदार होते हैं, वे यह कसम भी खा सकते हैं कि भ्रष्ट तरीकों से दूर कैसे रहा जाए।
हमारा मानना है कि सरकार को जांच और मुकदमों में घिरे हुए अफसरों और कर्मचारियों को दुबारा काम पर नहीं रखना चाहिए क्योंकि इससे जनता को बहुत ही खराब सरकार मिलती है। सरकार को खुद भी यह तय करना चाहिए, और अगर राज्यपाल के संवैधानिक अधिकारों में आए, तो उन्हें भी इस मुद्दे को उठाना चाहिए ताकि सरकार संदिग्ध निष्ठा वाले अफसरों की मोहताज न रहे। वैसे भी हमारा मानना है कि संविदा नियुक्ति किसी अधिकारी पर भी एक किस्म का अहसान होती है, और अगर सरकार को संविदा नियुक्ति देनी ही है, तो उसके लिए ऊंची साख और ईमानदार ट्रैक रिकॉर्ड वाले अफसर-कर्मचारी को ही छांटना चाहिए। यह काम उतना मुश्किल भी नहीं रहता, और सरकार के अपने ढांचे में आई गंदगी को धीरे-धीरे करके कम किया जा सकता है, या फिर धीरे-धीरे ढील देकर शासन को पूरा बर्बाद भी किया जा सकता है।
छत्तीसगढ़ सरकार ने पिछली सरकार का यह संशोधन खत्म करके ठीक किया है, और इसका फायदा पाने वाले अफसरों के कामकाज का मूल्यांकन करना चाहिए कि कैसे लोगों को बढ़ावा देकर पिछली सरकार ने कैसे-कैसे काम किए थे। और अगर किसी सरकार का यह मानना है कि उसका काम किसी अफसर के बिना चल ही नहीं सकता है, और उस अफसर के खिलाफ जांच चल रही है, तो यह सरकार के हाथ में रहता है कि जांच को तेजी से पूरा करे, और उसके बाद जांच में बेकसूर निकलने पर उस अफसर को संविदा नियुक्ति दे। लेकिन नजरों का इतना सा पर्दा भी न रखना तो बड़ा ही शर्मनाक है।
पाकिस्तान के एक मशहूर गायक राहत फतेह अली खां का एक वीडियो अभी चारों ओर फैल रहा है जिसमें वे अपनी एक बोतल को लेकर एक घरेलू कामगार को बुरी तरह पीट रहे हैं, अपने जूते-चप्पल से उसे मारे जा रहे हैं कि उसने उसकी बोतल कहां रख दी? सोशल मीडिया पर उनके घर के भीतर के इस वीडियो के साथ लोगों ने लिखा है कि वे नशे में धुत्त भी दिख रहे थे, और शराब की बोतल मांग रहे थे जो कि नौकर से कहीं इधर-उधर हो गई थी। इस पर इस गायक ने यह सफाई दी है कि वह बोतल किसी पीर साहब का पानी था, और वे उसके न मिलने पर अपने ही एक शागिर्द को पीट रहे थे। उन्होंने उस शागिर्द और उसके पिता से माफी मांगने का वीडियो भी पोस्ट किया है, और जिसे वो शागिर्द कह रहे हैं वह उनकी बात में हामी भर रहा है। लोगों का कहना है कि यह सफाई पूरी तरह फर्जी और झूठी है, और वे राहत फतेह अली खां के एक पुराने वीडियो को भी पोस्ट किया है जिसमें वे नशे में टुन्न बकवास करते दिख रहे हैं।
उनका घरेलू नौकर या शागिर्द, जो भी हो, उसकी ऐसी बेरहमी से हिंसक पिटाई किसी धार्मिक पानी के लिए तो होते नहीं दिख रही है, बाकी मालिक या गुरू की बात में हामी भरना गरीब और कमजोर की मजबूरी सभी जगह रहती है। इसे देखकर सोशल मीडिया पर लोगों ने लिखा है कि इस मशहूर गायक की गायकी के लिए मन में इज्जत अब खत्म हो गई है। लोगों को याद होगा कि कई बरस पहले भारतीय फिल्मों के एक गायक और संगीतकार अनु मलिक का एक वीडियो सामने आया था जिसमें वे दुबई में दाऊद इब्राहिम की एक दावत में दाऊद की तारीफ में गाने गाते दिख रहे थे। यह वीडियो उस वक्त का था जब दाऊद भारत में मुम्बई बम विस्फोट में सैकड़ों लोगों की जान लेने के बाद भारत छोडक़र बाहर जा बसा था, और उसके बाद जिस अंदाज में वह वहां ऑलीशान दावतें करता था, उसमें मुम्बई फिल्म इंडस्ट्री के लोग जाते थे, वह बात हिन्दुस्तानी जनता को समझकर ऐसे कलाकारों का बहिष्कार करना था, लेकिन अनु मलिक नाम का यह आदमी आज भी टीवी रियलिटी शो में जज बना दिखता है, और लोग कोई बहिष्कार नहीं करते। दरअसल सामूहिक जनचेतना एक किस्म की मृगतृष्णा है जो असल में होती नहीं है, उसकी बस चर्चा होती है, उसकी बस कल्पना होती है। लोग यह मानकर चलते हैं कि जनता के बीच कोई जागरूकता आ सकती है। अब अभी राहत फतेह अली खां के बहिष्कार की बातें चार लोग लिख रहे हैं, लेकिन चार हजार लोग उनके नाम की चर्चा होने पर उनके पुराने गाने ढूंढकर देखने-सुनने लगेंगे। शायद इसीलिए मनोरंजन की दुनिया, और सार्वजनिक किस्म के कारोबार के बारे में कहा जाता है कि बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ?
लोगों ने देखा हुआ है कि सलमान खान की गाड़ी ने मुम्बई मेें रात फुटपाथ पर सोने वाले लोगों को कुचला था, और फिर जैसा कि बड़े लोगों के हर मामले में साबित हो जाता है कि गाड़ी वे खुद नहीं चला रहे थे। इसी तरह बरसों गुजर गए हैं सलमान पर काले हिरण के शिकार का मुकदमा चल रहा है, लेकिन इससे फिल्म दर्शकों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। मशहूर लोग कुछ भी कर सकते हैं, और उनकी शोहरत की चकाचौंध में लोग बंधे रह जाते हैं। बहुत से सांसद और विधायक, मंत्री और दूसरे नेता सार्वजनिक हिंसा करते दिखते हैं, हिंसक फतवे देते दिखते हैं, बलात्कार जैसे जुर्म में फंसते हैं, लेकिन उनके इलाके के वोटर हैं जो कि उन्हें बार-बार चुनते चले जाते हैं। देश में कई ऐसे दबंग और मवाली नेता हैं जो कि पार्टी के भीतर और मतदाताओं के बीच बराबरी से महत्व पाते हैं, और अतिआत्मविश्वास से भरे हुए जुर्म भी किए चले जाते हैं।
पूरी दुनिया का यही हाल है, पश्चिम के अमरीका और ब्रिटेन जैसे देश बहुत से बेकसूर देशों पर बमबारी करते हैं, हजारों लोगों को मार डालते हैं, लेकिन उनके सामानों के बहिष्कार की कोई बात नहीं हो पाती। और तो और इन देशों से आने वाले कोका कोला जैसे गैरजरूरी सामान की बिक्री पर भी किसी मुस्लिम देश में भी फर्क नहीं पड़ता, जबकि ये देश इराक, अफगानिस्तान, सीरिया, और न जाने कितने दूसरे मुस्लिम देशों पर हमला करते रहते हैं, और वहां के मुस्लिम हैं कि इनका कोका कोला तक पीते रहते हैं, जो कि कम्प्यूटर या मोबाइल फोन सरीखी टेक्नॉलॉजी नहीं है, जिंदा रहने के लिए जरूरी नहीं है। तकरीबन तमाम दुनिया में लोग इतने आत्मकेन्द्रित और मतलबपरस्त रहते हैं कि किसी का मुजरिम होना उन्हें बहिष्कार के लायक नहीं बनाता। दुनिया के बड़े-बड़े जंगखोर मुल्क भी घुटनों पर आ जाएं अगर बाकी दुनिया उनका आर्थिक बहिष्कार करने लगे, लेकिन ऐसा होता नहीं है। और तो और जिस हिटलर की फौज के लिए फौजीवर्दियां सिलने वाला उसका कारोबारी दोस्त ह्यूगो बॉस नाजी सेना का काम करते हुए संपन्नता के आसमान पर पहुंचा, आज भी उसका फैशन ब्रांड पूरी दुनिया में चलता है, और किसी को इससे फर्क नहीं पड़ता कि यह कंपनी हिटलर की सेवा करती थी। हिन्दुस्तान के गुजरात से लेकर छत्तीसगढ़ के दुर्ग तक हिटलर नाम की दुकानें खुली हुई हैं, और इनसे बात करके भी हमने देखी, इनकी सेहत पर इसका फर्क नहीं पड़ता कि हिटलर ने दुनिया में लाखों बेकसूरों का नस्लवादी कत्ल किया था। उन्हें एक चर्चित नाम से अपनी दुकान मशहूर करने की संभावना अधिक प्यारी है, और वे हिटलर जैसे मुजरिम के नाम से भी परहेज नहीं करते।
दुनिया में अच्छे और बुरे के बीच फर्क करने के लिए जिस राजनीतिक चेतना और सामाजिक सरोकार की जरूरत रहती है, वह गिने-चुने लोगों में ही दिखते हैं। आबादी का बाकी तकरीबन तमाम हिस्सा जिम्मेदारी के ऐसे बोझ से आजाद रहता है, और उसे न कातिलों से परहेज रहता, न बलात्कारियों से। दहेज हत्या की तोहमत जिन परिवारों पर लगती है, उनके साथ भी जात-पात के रिश्ते तोडऩे को लोग तैयार नहीं होते, और उनके घर भी रोटी-बेटी के रिश्ते कायम रखते हैं। ऐसा लगता है कि दुनिया में इंसानियत नाम का जो शब्द है, उसकी काल्पनिक खूबियों पर गर्व करते हुए लोग उसकी इज्जत जरूरत से हजार गुना अधिक करते हैं, जबकि इसी इंसानियत के भीतर हिंसानियत भी छुपी रहती है, जिसकी तोहमत लोग इंसान से परे हैवान नाम के किसी काल्पनिक पिशाच पर मढ़ते रहते हैं। अगर कोई राहत फतेह अली खां के गानों के दर्शकों की गिनती में फर्क ढूंढ पाए, तो यही दिखेगा कि बदनाम हुए तो क्या नाम नहीं हुआ? उनके दर्शक हिंसक वीडियो सामने आने के बाद बढ़े ही होंगे, घटे नहीं होंगे।
देश में स्कूल-कॉलेज के इम्तिहान शुरू होने के पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें इम्तिहान के तनाव से बचाने के लिए टीवी प्रसारण में मां-बाप को सुझाया कि वे अपने बच्चों के रिपोर्ट कार्ड को अपना विजिटिंग कार्ड न बनाएं। उनका कहना था कि जो मां-बाप अपनी जिंदगी में बहुत सफल नहीं हो पाते, वे अपने बच्चों को कामयाबी की मिसाल बनाना चाहते हैं ताकि वे औरों के बीच उसकी चर्चा कर सकें। उन्होंने यह बात ठीक कही कि मां-बाप बच्चों पर एक गैरजरूरी तनाव खड़ा कर देते हैं। हम भी बरसों से यह लिखते आए हैं कि मां-बाप अपने अपूरित सपनों और हसरतों को बच्चों में पूरे होते देखना चाहते हैं, और इससे बच्चों के अपने रूझान के खिलाफ जाकर भी किसी विषय को पढऩे, या किसी कॉलेज में दाखिला पाने का एक निहायत गैरजरूरी और नाजायज दबाव पैदा होता है। कल जब प्रधानमंत्री देश भर के चुनिंदा बच्चों से टीवी पर बात भी कर रहे थे, और अपने सुझाव भी रख रहे थे, ऐन उसी समय राजस्थान में कोचिंग इंडस्ट्री कहे जाने वाले कोटा में एक छात्रा ने खुदकुशी कर ली, और मां-बाप के लिए यह लिखकर छोड़ा कि वह जेईई नहीं कर सकतीं, इसलिए वह खुदकुशी कर रही है, वह असफल है, और उसके लिए यही आखिरी विकल्प है। अब इस कोचिंग इंडस्ट्री में हफ्ते भर में यह दूसरी खुदकुशी है, और पिछले एक बरस में यहां दो दर्जन से अधिक छात्र-छात्राओं ने खुदकुशी की थी। पिछली अशोक गहलोत सरकार ऐसी मौतों पर हड़बड़ा गई थी, और सरकारें आमतौर पर दिखावे के लिए जो करती हैं, वैसा ही गहलोत सरकार ने भी किया था, कोचिंग इंडस्ट्री चलाने वाले लोगों के साथ बैठकें की थीं, और बच्चों का तनाव कम करने का रास्ता ढूंढने का नाटक भी किया था। यहां इस बात का जिक्र जरूरी है कि कोटा में तनाव का हाल यह है कि वहां छात्र-छात्राओं की रहने की जगहों पर छत के पंखे नहीं लगाए जाते क्योंकि बच्चे उनसे लटककर आसानी से जान दे सकते हैं। अभी कल जिस लडक़ी ने खुदकुशी की है, वह तीन बहनों में सबसे बड़ी थी, उसके पिता बैंक में गार्ड हैं, और मां घरेलू महिला है, ऐसे परिवार ने इंजीनियरिंग दाखिले की कोशिश और तनाव में अपनी एक बच्ची खो दी। लोगों को याद होगा कि कुछ महीने पहले भी हमने जब ऐसी ही आत्महत्याओं के मुद्दे पर इसी जगह लिखा था, तो उसमें देश में एक जगह खुदकुशी करने वाले छात्र के पिता ने भी अंतिम संस्कार के बाद खुद भी आत्महत्या कर ली थी।
हिन्दुस्तान में सरकारी और निजी, बड़े-बड़े कॉलेज तो खुल गए हैं, बड़े-बड़े कोचिंग संस्थान भी फैक्ट्रियों की तरह चल रहे हैं, लेकिन किसी विषय को पढऩे, या किसी दाखिला इम्तिहान की तैयारी करने की बच्चों की क्षमता का अंदाज लगाना हिन्दुस्तान में चलन में नहीं है। मां-बाप अपने सपने पूरे करने के लिए बच्चों पर नाजायज बोझ डाल देते हैं, और जितने बच्चे खुदकुशी करते हैं, उससे हजारों गुना बच्चे हीनभावना का शिकार भी होते ही होंगे कि वे मां-बाप के कर्ज से कोचिंग लेते हुए, पढ़ते हुए भी उनकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं। देश की शिक्षा व्यवस्था एक ऐसी भेड़ चाल में फंसी हुई दिखती है कि गिने-चुने कुछ प्रचलित, लोकप्रिय, और महत्वाकांक्षी कोर्स में जाने के लिए कुछ बच्चे खुद भी आमादा रहते हैं, और अधिकतर के मां-बाप उस पर जिद पर अड़े रहते हैं। नतीजा यह होता है कि बच्चों की पसंद, उनका रूझान, और उनकी क्षमता कहीं प्राथमिकता नहीं रखतीं। हमारा तो यह मानना है कि स्कूल के दौरान ही इन बातों का लगातार आंकलन होते रहना चाहिए, और ऊंची पढ़ाई के लिए उन्हीं बच्चों की बारी आनी चाहिए जो कि वैसे पाठ्यक्रम पढऩे के लायक हैं। दरअसल किताबी पढ़ाई को ही इस देश में सब कुछ मान लिया गया है, और स्कूल-कॉलेज की कम पढ़ाई के बाद कमाई का कोई रोजगार करने वाले लोगों का भी सम्मान नहीं रहता है, बल्कि पढ़े-लिखे बेरोजगार जो कि मां-बाप की छाती पर मूंग दलते रहते हैं, उन्हें बेहतर समझा जाता है। समाज की इस सोच को भी बदलना होगा क्योंकि औसत दर्जे की पढ़ाई करके लोग कोई उत्पादक काम नहीं पा सकते, और ऐसे शिक्षित-बेरोजगार देश की उत्पादकता में कुछ जोड़ नहीं सकते।
केन्द्र और राज्य सरकारें अलग-अलग किस्म की अधकचरी कोशिशें करती रहती हैं, जिनमें कोचिंग को लेकर भी पिछले दिनों कुछ नियम खबरों में आए थे। सरकारों को स्कूल-कॉलेज, पढ़ाई, और इम्तिहान खिलवाड़ के सबसे ही आसान सामान लगते हैं, और जब जिस सरकार को जैसा ठीक लगे, वैसा फेरबदल इनमें होते चलता है। आज दुनिया, और इस देश में भी, बदलती जरूरतों के मुताबिक न शिक्षा नीति बदल रही है, और न परीक्षा नीति। फिर देश में संपन्न और विपन्न तबकों के बीच साधनों का जो बहुत बड़ा फर्क खड़ा हो गया है, वह भी आगे की जिंदगी के मौकों पर असर डालता है। जो लोग महंगी कोचिंग से तैयारी करते हैं, वे कई बड़े दाखिला इम्तिहानोंं में कामयाबी की अधिक गुंजाइश रखते हैं। आज इन्हीं सब वजहों से देश में समान अवसर की बात कागजों पर भी नहीं रह गई है, असल जिंदगी में तो यह दूर-दूर तक कहीं नहीं हैं। ऐसे में गरीब तबके से निकलकर आए हुए इक्का-दुक्का कामयाब लोगों की मिसालें देकर लोग साबित करने की कोशिश करते हैं कि संपन्नता ही सब कुछ नहीं होती, लेकिन जब व्यापक नतीजों को देखें, तो यह समझ आता है कि संपन्नता ही बहुत मायने रखती है।
लेकिन बाकी तमाम बातों से परे सबसे जरूरी बात यह है कि बच्चों पर उनकी मर्जी और उनके रूझान के खिलाफ कोई दबाव नहीं डालना चाहिए क्योंकि आत्महत्या की एक-एक खबर तनाव के कगार पर खड़े बहुत से और बच्चों के लिए एक असर लेकर आती है। यह नौबत किसी भी कीमत पर टालनी चाहिए।
ऐसा लगता है कि आम जिंदगी में चारों तरफ से आने वाली खबरों से लोगों ने सबक न लेना तय कर लिया है। इसीलिए लगातार खबरें छपती हैं, हाईकोर्ट नाराजगी दिखाते रहता है, लेकिन न लोग लाउडस्पीकर की चीख-चिल्लाहट कम करते, और न ही अफसर उस पर कोई कार्रवाई करते दिखते। यहां तक कि छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट शोरगुल पर काबू पाने में पूरी तरह निराश होने के बाद यह तक कह चुका है कि ऐसा लगता है कि अफसर यह करना ही नहीं चाहते, इसके बाद भी हालत नहीं सुधर रही। अधिकतर इलाकों में सुबह से रात तक लाउडस्पीकर चलते रहते हैं, प्रशासन इम्तिहान चलने का हवाला देकर रोक लगाने के लिए टीम बनाता है, लेकिन होता कुछ नहीं है। इसी तरह यातायात सुधार सप्ताह के नाम पर कुछ गाडिय़ों का चालान हो जाता है, कुछ महंगी मोटरसाइकिलों में शौक में लगाए गए शोर करने वाले साइलेंसर जब्त कर लिए जाते हैं, और उन्हीं तमाम जगहों पर दुबारा यही सब होने लगता है। आम जिंदगी में बदअमनी और अराजकता फैलाने को लोगों ने लोकतांत्रिक स्वतंत्रता मान लिया है, और इसका इस्तेमाल करते रहते हैं।
अभी एक सरकारी स्कूल में हेडमास्टर ने बच्चों को बौद्ध धर्म अपनाने की शपथ दिलाई, और बौद्ध शपथ के मुताबिक उन्हें हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा न करने की कसम भी दिलाई। अब सरकारी स्कूल के हेडमास्टर को देश के कानून की इतनी आम समझ न हो, यह कल्पना से परे की बात है, लेकिन ऐसा जगह-जगह हो रहा है। स्कूलों में खासकर बहुत से शिक्षक शराब के नशे में पहुंच रहे हैं, और ऐसी खबरें तभी बाहर आती हैं जब मास्टर फर्श पर पड़े दिखते हैं, या कोई उनके वीडियो बनाते हैं। यह सिलसिला भयानक इसलिए है कि हमारा अंदाज है कि सामने आने वाली ऐसी हर खबर के मुकाबले सौ-सौ गुना खबरें दबी रह जाती होंगी, और बच्चों का उन पर कैसा असर पड़ता होगा यह अंदाज लगाना अधिक मुश्किल नहीं है।
देश भर में स्कूली बच्चों का जो सर्वे हुआ है, वह बताता है कि ऊंची कक्षाओं में पहुंच चुके बच्चे भी नीची कक्षाओं के बच्चों जितनी भी पढ़ाई नहीं कर पाते, न किताब पढ़ सकते, न ठीक से जोड़-घटाना कर सकते। देश का यह हाल न सिर्फ स्कूलों में हैं, बल्कि हर किस्म की सरकारी और सार्वजनिक जगह पर से उत्कृष्टता गायब है। अदालतों में कामकाज की रफ्तार नहीं है, जज और मजिस्ट्रेट के सामने बैठे बाबू खुलेआम हर वकील और मुवक्किल से रिश्वत लेते हैं, और अदालत पहुंचकर हर किसी को सबसे पहले यही लगता है कि वे एक सबसे भ्रष्ट जगह पर आ गए हैं, जहां पर वे मुजरिम रहें, या शिकायतकर्ता, हर पेशी पर रिश्वत देनी ही है। सरकारी अस्पतालों में इसी तरह का हाल दिखता है, मशीनें हैं तो चलाने वाले डॉक्टर और टेक्नीशियन नहीं हैं, कहीं पर ये लोग हैं, तो मशीनें नहीं हैं, दोनों हैं तो मशीनों में लगने वाले केमिकल की किट नहीं हैं, दूसरे सामान नहीं हैं, सर्जन हैं तो बेहोश करने वाले डॉक्टर नहीं हैं, बेहोश करने वाले डॉक्टर हैं तो सर्जन नहीं हैं। और इन विभागों में इतना संगठित भ्रष्टाचार चलता है कि वहां लोगों की जान कैसे बचती है इस पर सोचें तो ईश्वर पर भरोसा होने लगता है।
हर नए अफसर और नेता कहीं बगीचों में फौव्वारे लगवाते हैं, तो कहीं तालाबों में बोट चलवाते हैं, और जब से स्मार्ट सिटी की योजना आई है, तब से तो हर स्मार्ट सिटी में सैकड़ों करोड़ रूपए सालाना की बर्बादी की गारंटी सी हो गई है। अफसर स्मार्ट सिटी में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के बिना अपनी मर्जी से अंधाधुंध खर्च करते हैं, और ऐसा लगता है कि अधिक से अधिक भ्रष्ट खर्च करना ही उन्हें काम करने की ताकत देता है। दूसरी तरफ जिलों में कलेक्टरों के हाथ में जिला खनिज न्यास के दर्जनों या सैकड़ों करोड़ रूपए रहते हैं, और उनमें नेता, अफसर, और सप्लायर मिलकर अधिक से अधिक बर्बादी करने का सामान जुटाते रहते हैं। सत्ता के सभी भागीदार स्मार्ट सिटी और डीएमएफ को कमाई का एक जरिया बनाकर चलते हैं। अभी छत्तीसगढ़ में कई मामलों की जांच कर रही ईडी ने जिला खनिज न्यास, डीएमएफ, के घोटाले के खिलाफ राज्य की एसीबी-ईओडब्ल्यू में एफआईआर की है, और जब केन्द्र सरकार की इन जांच एजेंसी राज्य के बड़े-बड़े अफसरों के खिलाफ ऐसी रिपोर्ट कर रही है, जो कि केन्द्रीय सेवाओं के अफसर हैं, तो फिर इसकी गंभीरता को समझना चाहिए।
रोज के अखबार उठाकर देखें तो उनका खबरों का तकरीबन हर पन्ना जनता और सरकार दोनों की अराजकता और भ्रष्टाचार की खबरों से भरा रहता है। ऐसे में यह लगता है कि लोगों के लिए सकारात्मक प्रेरणा की कोई खबर कैसे मिल सकती है? यह हैरानी होती है कि खबरों को पढऩे वाले लोग अगर सिर्फ यही देख पाएंगे कि देश में कितना भ्रष्टाचार है, लोग कितने अराजक हैं, चारों तरफ थूक और मूत रहे हैं, सडक़ पर चाकूबाजी कर रहे हैं, दारू के लिए पैसा मांगने पर न मिले तो राह चलते को भी चाकू भोंक रहे हैं, तो लगता है कि कानून व्यवस्था से लेकर जनता की सोच तक ऐसी भयानक गिरावट आई है कि इस देश के सुधरने की कोई गुंजाइश नहीं है। हम ऐसी खबरों का व्यापक असर देखते हैं, और आज देश भर में धर्म और जाति का तनाव, क्षेत्र और भाषा का तनाव हिंसक होते जा रहा है, और इनका भी असर लोगों पर होता ही है।
आज ही की एक दूसरी खबर दिख रही है कि प्रेमसंबंध में असफल एक नाबालिग ने दूसरे नाबालिग का कत्ल कर दिया! एक तरफ नाबालिग बच्चों के किए जुर्म बढ़ते चले जा रहे हैं, तो दूसरी ओर नाबालिग बच्चों के अश्लील वीडियो पोस्ट करने वाले लोग आए दिन गिरफ्तार होते दिखते हैं, और आज की ही एक दूसरी खबर है कि भारत सरकार के आंकड़े बताते हैं कि पिछले 6 बरसों में बच्चों के देहशोषण के मामले बढक़र दो गुना हो गए हैं। हर जुर्म की खबर दूसरे कुछ संभावित मुजरिमों को रास्ता दिखाती है, और फिल्में और टीवी के कई किस्म के सीरियल हिंसा को अंधाधुंध बढ़ा भी रहे हैं। हमारा यह भी मानना है कि हिंसा की सीमा तक पहुंचने वाले नाबालिग और बालिग लोगों के दिमाग में यह भी रहता है कि देश में आज प्रेरणा की खबरें कहीं से नहीं आती हैं, और हिंसा की खबर हर तरफ से आती हैं। कल ही इस अखबार के संपादक ने अपने साप्ताहिक कॉलम, ‘आजकल’ में रोहन बोपन्ना के इतनी उम्र में पहुंचकर, इतने दर्जन बार कोशिश करने के बाद ग्रैंड स्लैम टाइटिल पाने पर लिखा, तो उस पर दर्जनों लोगों ने संदेश भेजे कि कम से कम एक सकारात्मक बात पढऩे मिली जिससे दिल-दिमाग को राहत मिली, और हौसला मिला। चारों तरफ से अगर हिंसा, नफरत, धर्मान्धता, और जुर्म की खबरें आएंगी, मारने या मर जाने की खबरें रहेंगी, तो उससे ऐसी घटनाएं और बढ़ती चली जाएंगी। इसलिए दुनिया को लगातार कुछ बेहतर बनाने की कोशिश होती रहनी चाहिए, ताकि बेहतर मामलों की खबरें लोगों की सोच को बेहतर बना सकें।
दो खबरें जिनका आपस में एक-दूसरे से कोई लेना-देना न हो, उनका किस तरह एक-दूसरे से लेना-देना हो सकता है, इसकी एक मिसाल अभी इसी पल सूझी है। दो अलग-अलग मामलों पर आज इस जगह लिखने की एक संभावना बन रही थी, इनमें से एक तो छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की एक अदालती खबर है जिसमें एक नौजवान को उम्रकैद हुई है। इसने साल भर पहले घर पहुंचकर मां से पूछा था कि क्या सब्जी बनी है, और जब उसे पता लगा कि उसे नापसंद सब्जी बनी है, तो इस पर उसने फावड़ा उठाकर मां को मार डाला था। मां-बाप के साथ रहने वाला नौजवान किस तरह मां का कातिल हो सकता है, कितनी सी बात पर हो सकता है, इसकी यह एक भयानक मिसाल है, और बहुत से लोगों को अपने कलेजे के टुकड़ों से रिश्ते तय करते हुए, रखते हुए, निभाते हुए ऐसी कुछ मिसालों को याद रखना चाहिए। अभी कुछ ही दिन हुए हैं कि पास की ही एक खबर थी कि एक नौजवान ने शराब पीने को पैसे मांगे, और न मिलने पर बाप को मार डाला। रिश्ते किस तरह खराब हो सकते हैं, बिना बात के भी खराब हो सकते हैं, इसकी मिसाल हम कुछ पारिवारिक मामलों से शुरू भर कर रहे हैं, इसके बाद यह मिसाल आज की सबसे बड़ी राजनीतिक घटना तक चली जाती है जिसमें बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कुछ दिनों से चली आ रही खबरों के मुताबिक राजभवन से इस्तीफा देकर निकले, और उन्होंने कहा कि गठबंधन की सरकार खत्म हो गई है, और एक पिछला गठबंधन था, उसके लोग मिलकर अगर कुछ तय करते हैं, तो उस बारे में सोचा जाएगा। लोगों को याद होना चाहिए कि बिहार का पिछला विधानसभा चुनाव नीतीश ने भाजपा के साथ मिलकर लड़ा था, और फिर लालू और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बना ली थी। अब ऐसा जाहिर है कि वे लालू और कांग्रेस का साथ छोडक़र एक बार फिर भाजपा के साथ मिलकर या तो आज सरकार बना लेंगे, या हो सकता है कि नया गठबंधन विधानसभा को भंग करके आने वाले लोकसभा चुनाव के साथ बिहार के विधानसभा चुनाव की सिफारिश भी कर दे। अभी हम ऐसी संभावनाओं पर कुछ कहना नहीं चाहते, लेकिन जिस तरह से नीतीश ने बिना किसी जाहिर या ठोस वजह के इस गठबंधन को तोड़ा, अपनी ही सरकार गिराई, और पहले की अपनी ऐसी ही कुछ बार की हरकत को दोहराया, उससे हमें लगा कि क्या इसकी तुलना किसी तरह मां के कत्ल की घटना से की जा सकती है?
नीतीश ने 2020 में पिछला विधानसभा चुनाव एनडीए के साथ मिलकर लड़ा था, जिसकी अगुवाई भाजपा करती है। और बाद में उन्होंने 2022 में एनडीए की सरकार गिराकर भाजपा से रिश्ता तोड़ दिया, और बिहार का महागठबंधन नाम के एक गठबंधन में शामिल हो गए, जिसमें लालू यादव की आरजेडी, और कांग्रेस पार्टी शामिल थे। अब डेढ़ बरस बाद इस गठबंधन की सरकार गिराकर नीतीश ने अब से कुछ घंटे बाद भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने के एक समीकरण को जन्म दिया है। इस तरह परस्पर विरोधी खेमों में जाकर, उनकी मदद से मुख्यमंत्री बने रहकर नीतीश अब बिहार के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले नेता हो गए हैं। उन्होंने डेढ़ बरस पहले जब भाजपा-एनडीए वाले गठबंधन की पीठ में छुरा भोंका था, तब बहुत से लोगों को नीतीश बहुत अच्छे लगे थे। अब उन्होंने आज सुबह तक के गठबंधन की पीठ में छुरा भोंका है तो वे लालू और कांग्रेस के विरोधियों को अच्छे लग रहे होंगे। लेकिन जिस तरह बिना किसी मुद्दे के, वे अपने साथियों को धोखा देते हैं, उनकी पीठ में छुरा भोंकते हैं, तो लगता है कि कोई बेटा मां की पीठ में इस तर्क के साथ छुरा भोंक दे रहा है कि मां ने बेटे की पसंद की सब्जी नहीं बनाई है। नीतीश की खूबी यही है कि वह बिना पिए, बिना नशे के भी अपने मातृ-गठबंधन की पीठ में छुरा भोंक सकते हैं, और पसंद की सब्जी की चाहत और संभावना में नई मां बना सकते हैं। यह बात हम आज उनके लालू छोडक़र भाजपा के साथ जाने की संभावना पर नहीं कह रहे हैं, पिछले कुछ बार जिस तरह से उन्होंने बार-बार सब्जी नापसंद होने की आड़ लेकर, उसके बहाने से अपनी उस वक्त की मां की पीठ में छुरा भोंका है, वह भारतीय लोकतंत्र में गजब की मिसाल है। कुछ और पार्टियों के कुछ नेताओं ने अलग-अलग प्रदेशों में कुछ हद तक ऐसा किया है, लेकिन नीतीश उन सबसे भी ऊपर एक अनोखी मिसाल हैं, और इस बार उन्होंने ऐसा लगता है कि बिहार के महागठबंधन के साथ-साथ इंडिया नाम के राष्ट्रीय गठबंधन की पीठ में भी सब्जी नापसंद होने की वजह से छुरा भोंक दिया है।
हम पहले भी बहुत बार यह बात लिखते आए हैं कि लोगों को अपनी अगली पीढ़ी के साथ अपने रिश्ते और लेन-देन तय करते हुए, उन्हें वारिस बनाते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि आज उनकी आंखों के तारे कल मां-बाप को अपनी आंखों की किरकिरी भी महसूस कर सकते हैं, और उस वक्त मां-बाप कहीं के नहीं रह जाते। इसलिए अपना सब कुछ अपनी अगली पीढ़ी को देने के पहले मां-बाप को इतना कुछ अपने लिए बचाकर रख लेना चाहिए कि बकाया लंबी जिंदगी लोगों के सामने हाथ न फैलाना पड़े, भूखों न मरना पड़े, किसी वृद्धाश्रम के रहमोकरम पर न रहना पड़े। नीतीश कुमार ने भारत की राजनीति को कुछ इसी तरह का साबित किया है कि साल-दो साल किसी मातृ-गठबंधन को चूसकर वे सीएम बने रहें, और फिर आगे की बेहतर संभावनाओं को देखते हुए वे मां की पीठ में किसी बहाने से छुरा भोंककर नई मां बना लें, और फिर उस नई मां से बकाया तमाम जिंदगी निभाने के बारे में ऐसी जुबान में दावे करें जो कि लोगों को ईमानदार और सरलता की मिसाल लगे, और जिसका कि इन दोनों से कुछ भी लेना-देना न रहे।
राजनीति में किसी नैतिकता की हमें उम्मीद नहीं रहती, और नीतीश तो लोकतंत्र की एक ऐसी औलाद है जो कि कई बार अनैतिक हो चुके हैं। अब ऐसा लगता है कि वे अगले कुछ बरस नई मां के साथ रह भी सकते हैं, क्योंकि वहां पर पसंदीदा सब्जियों के बनने की संभावना अधिक दिखती है, वहां पर अगले चुनाव में जीतकर आने की संभावना अधिक दिखती है, वहां पर फायदे अधिक दिखते हैं। अगले कुछ घंटों में ऐसी उम्मीद की जा रही है कि बिहार में एक बार फिर एनडीए की सरकार बन जाएगी, और वह इंडिया नाम के गठबंधन की संभावनाओं का एक बड़ा नुकसान रहेगा। लेकिन नीतीश जैसे बेटे के लिए सब्जी बनाने के पहले हर मां को अपनी पीठ पर तवा बांधकर रखना चाहिए, उसे कब कौन सी सब्जी नापसंद हो जाए, और कब उसे किसी दूसरे चूल्हे पर बनी सब्जी अच्छी लगने लगे।
बड़ी अजीब सी बात है कि एक कत्ल और एक सत्तापलट के बीच ऐसी मिसाल सूझ रही है, लेकिन जिंदगी ऐसी ही है, जहां कहीं के निजी रिश्ते, कहीं की राजनीति से मिलते-जुलते दिखते हैं!
छत्तीसगढ़ में ऑनलाईन शेयर खरीद-बिक्री पर रोजाना पांच-दस फीसदी मुनाफे का झांसा देकर एक पति-पत्नी से एक मोबाइल ऐप के माध्यम से 68 लाख रूपए की ठगी हो गई। और एक दूसरी खबर इसी प्रदेश में सेना के एक अफसर से कुछ इसी किस्म का शेयर कारोबार का झांसा देकर 89 लाख रूपए ठग लिए। कल ही के अखबारों में ये दोनों खबरें हैं, और हमारे सरीखे कुछ अखबारनवीसों के वॉट्सऐप नंबर हर हफ्ते ऐसे किसी न किसी शेयर खरीदी-बिक्री के ग्रुप में जोड़े जाते हैं, या क्रिप्टोकरेंसी कारोबार के एक नए झांसे में। इन पर होने वाली अलग-अलग लोगों की चर्चा के पोस्ट देखें तो वे ग्रुप के मुखिया की सलाह पर हर दिन लाखों या दसियों लाख रूपए कमाने की खुशी जाहिर करते रहते हैं, और ऐसा लगता है कि उनके झांसे में आकर और बहुत से लोग पैसा इस तरह लुटा बैठते हैं। ऐसे जालसाज और ठग कई फर्जी वेबसाईटें भी बना लेते हैं, और वहां से भी लोगों को फांसते हैं।
यहां तक तो बात ठीक थी, लेकिन कल ही एक दूसरी खबर यह है कि साइबर-मुजरिमों ने मोबाइल फोन की एक मैसेंजर सर्विस पर यह पोस्ट किया है कि उनके पास भारत के 75 करोड़ लोगों के आधार कार्ड, और उससे जुड़ी हुई तमाम जानकारियां बिक्री के लिए मौजूद हैं। इंटरनेट का जो हिस्सा सिर्फ मुजरिमों के बीच लोकप्रिय है, वहां भी ऐसी जानकारी पोस्ट की गई है। दुनिया की जिस साइबर-सुरक्षा फर्म ने यह जानकारी सामने रखी है, उसने अभी तक इन बेचने वालों की जानकारी को परखा तो नहीं है, लेकिन इस तरह की जानकारी दुनिया के कई देशों में कई कंपनियों या सरकारी सेवाओं से चुराकर बिक्री के लिए सामने रखी जाती हैं।
अब हम भारत में इन दो चीजों को मिलाकर देखें तो अधिकतर लोग धोखा खाने के लिए एक पैर पर खड़े दिखते हैं, उन्हें बस कोई फायदे का सौदा दिख जाए। हमारे सरीखे लोग भी फेसबुक पर दो-तीन सौ रूपए में शानदार शर्ट का इश्तहार देखकर पैसा गंवा चुके हैं। लेकिन जब लोग शेयर कारोबार में अंधाधुंध मोटी कमाई के झांसे में आ जाते हैं, या दुनिया में अभी पूरी तरह अविश्वसनीय क्रिप्टोकरेंसी से फायदा पाने के फेर में ठगे जाते हैं, तो कुछ हैरानी होती है। अगर दुनिया में इतनी कमाई मुमकिन होती, तो लोग कारोबार ही क्यों करते? लेकिन यहां पर एक दूसरा सवाल परेशान करता है कि सरकार की इतनी सारी निगरानी एजेंसियां, और जांच एजेंसियां मिलकर भी ऐसी जालसाजी को पकड़ क्यों नहीं पाती हैं? इनके तौर-तरीके मिलते-जुलते रहते हैं, और इंटरनेट पर उन्हें पकड़ पाना इतना मुश्किल भी नहीं होना चाहिए। अभी ब्रिटेन से स्पेन के लिए रवाना हुए एक नौजवान ने लंदन के एयरपोर्ट पर अपने दोस्तों को मजाक में एक संदेश भेजा था कि वह तालिबान है, और वह विमान को विस्फोट से उड़ाने जा रहा है, तो उसके शब्दों को ही एयरपोर्ट के वाईफाई पर निगरानी एजेंसियों ने पकड़ लिया था, और एक खतरे की आशंका को टाल दिया था। हिन्दुस्तान जैसे काबिल देश में जहां से निकलकर आईआईटी और आईआईएम के लोग दुनिया की सबसे बड़ी टेक्नॉलॉजी कंपनियां चला रहे हैं, उन संस्थानों से निकले हुए हजारों दूसरे लोग देश के भीतर साइबर-ठगी को रोकने की तरकीबें क्यों नहीं निकाल सकते? आज हिन्दुस्तान के कम्प्यूटर विशेषज्ञ बनने वाले नौजवान दुनिया भर में जाकर कामयाबी पा रहे हैं, लेकिन अगर उनकी खूबियों से इस देश में ही साइबर-जुर्म नहीं रूक पा रहे, तो सरकार और जानकार के बीच एक फासले की वजह से ऐसा दिखता है।
दूसरी तरफ भारत में सेक्स के भूखे बहुत से लोगों को जब किसी लडक़ी का संदेश मिलता है कि बाथरूम में पहुंचकर कपड़े उतारो, तो वे लार टपकाते हुए अपने कपड़े उतार देते हैं, और मोबाइल फोन पर कैमरे पर अपने को दिखाते हुए, और सामने किसी पेशेवर ठग लडक़ी को देखते हुए ब्लैकमेल होने का सामान बन जाते हैं। ऐसी ठगी के शिकार देश में हर दिन दसियों हजार लोग हो रहे हैं, और ब्लैकमेल की शिकायत करने वे पुलिस तक भी नहीं जाते क्योंकि उससे उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा खतरे में पड़ सकती है। यह तरीका इतना आम हो चुका है, और इतनी अधिक घटनाएं छप चुकी हैं कि कोई बहुत ही मूढ़ और मूर्ख समाज ही ऐसे झांसे में आ सकता है, लेकिन हिन्दुस्तानी मर्द के दिल-दिमाग में सेक्स की भूख इतनी बैठी रहती है कि महिला का बदन देखते ही वे मानो सम्मोहन का शिकार होकर उसके आदेश पर कपड़े उतार फेंकते हैं। लेकिन अधिक हैरानी इसलिए नहीं होती है कि जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने कहा है कि 90 फीसदी हिन्दुस्तानी बेवकूफ होते हैं, और अब वे 90 फीसदी लोग यह साबित करने में लगे हुए हैं कि वे वेबकूफ भी हैं।
ठगी के कुछ ऐसे बहुत प्रचलित और बहुत छप चुके तरीके भी जब रोके नहीं जा सक रहे हैं, तो हैरानी होती है कि सरकार की इंटरनेट और साइबर सुरक्षा क्या बिल्कुल ही बेअसर है? होना तो यह चाहिए कि कुछ शब्दों को लेकर भारत में सरकारी एजेंसियां निगरानी करती रहें, और आतंक की धमकी या किसी तरह के आर्थिक फ्रॉड का रूख दिखते ही और बारीक जांच की जाए, और मुजरिमों को पकड़ा जाए। कुछ अरसा पहले टेलीफोन फ्रॉड के एक मामले में जब सरकारी एजेंसियों ने जांच की थी, तो बंगाल में एक व्यक्ति के पास 25 हजार सिमकार्ड मिले थे। जब एक-एक सिमकार्ड के लिए कई तरह के पहचान पत्र लगते हैं, आधार कार्ड लगता है, अंगूठे का निशान लिया जाता है, तो फिर इतने सिमकार्ड कैसे बन जाते हैं? लेकिन ठगों के जाल को तोडऩे के लिए सरकारी एजेंसियां समय रहते कुछ नहीं कर पाती हैं, और जब लोगों के खाते खाली हो चुके रहते हैं, उनकी अश्लील फिल्में बन चुकी रहती हैं, तब जाकर सरकार कुछ मुजरिमों तक पहुंचती है। भारत में सरकार ने खुद ही जितने तरह के काम को डिजिटल करवाया है, उसे देखते हुए सरकार को ही सारे डिजिटल ट्रैफिक पर जुर्म रोकने के तरीके निकालने चाहिए, जो कि लोगों को उनकी निजता भंग किए बिना भी बचा सके।
सोशल मीडिया पर धर्म से जुड़ी हुई कुछ आपत्तिजनक, भडक़ाऊ, या किसी धर्म के प्रति अपमानजनक पोस्ट का एक नया सैलाब सामने आया है। इसमें कई धर्मों के लोग शामिल दिख रहे हैं, और बहुत सी जगहों पर बड़ा सार्वजनिक तनाव भी इनको लेकर हुआ है, कुछ लोगों की गिरफ्तारियां भी हुई हैं, और कम से कम एक मामले में एक नाबालिग को भी पकड़ा गया है। दरअसल हिन्दुस्तान में जब कभी धार्मिक भावनाओं का सैलाब आता है, या कोई धार्मिक उन्माद आता है, तो उसकी लहरें लोगों को बहाकर किसी दूसरे धर्म के खिलाफ भी ले जाती हैं, और फिर क्रिया की प्रतिक्रिया होने लगती है, और कई समुदायों के सबसे हिंसक और साम्प्रदायिक लोग अधिक सक्रिय हो जाते हैं, जाहिर तौर पर उनको यह अहसास रहता है कि ऐसे मौके उनके अपने अस्तित्व के लिए जरूरी रहते हैं, अस्तित्व को बनाने के लिए, और फिर उसकी मौजूदगी को साबित करने के लिए। ऐसे माहौल में किसी संदेश वाले ग्रुप में कुछ डाल देना, या किसी सोशल मीडिया पेज पर कुछ पोस्ट कर देना बड़ा तनाव खड़ा कर रहा है।
लेकिन हम इससे जुड़ी हुई कुछ दूसरी चीजों को मिलाकर ही आज इस पर चर्चा करना चाहते हैं। आज दुनिया में कोई भी बड़ी कंपनी, या सरकार के किसी संवेदनशील ओहदे पर अगर किसी की नियुक्ति होनी है, तो बड़ी कंपनियां, या कि सरकारी एजेंसियां सबसे पहले ऐसे उम्मीदवारों के सोशल मीडिया अकाऊंट खंगालती हैं कि इस व्यक्ति की सोच क्या है, वह साम्प्रदायिकता, अश्लीलता, और नैतिकता के पैमानों पर कहां खड़ा होता है, या कहां खड़ी होती हैं। अब मिसाल के तौर पर दो दिन पहले की ही एक खबर है कि ब्रिटेन के नागरिक एक भारतवंशी नौजवान, आदित्य वर्मा को स्पेन की पुलिस ने गिरफ्तार करके एक अदालत में पेश किया है। यह नौजवान 2022 में अपने दोस्तों के साथ लंदन से छुट्टियां मनाने निकला था, और उसने दोस्तों के समूह में यह संदेश पोस्ट किया था कि वह तालिबान का एक सदस्य है, और वह इस उड़ान के दौरान विमान को विस्फोट से उड़ा देगा। लंदन एयरपोर्ट पर वाई-फाई नेटवर्क ने इस संदेश को पकड़ा, और इस विमान के उड़ते हुए इसके साथ स्पेन की वायुसेना के दो लड़ाकू जेट विमान भी पहुंच गए जो कि इसके सुरक्षित उतरने तक साथ रहे। यह नौजवान उस वक्त 18 बरस का था, और गिरफ्तारी के बाद उसने इसे एक मजाक बताया, और अदालत ने उसे जमानत पर रिहा किया। बाद में ब्रिटेन लौटने पर वहां की खुफिया एजेंसियों ने उससे पूछताछ की, और अब वह विश्वविद्यालय में पढ़ाई करते हुए भी स्पेन के मुकदमे और ब्रिटेन की जांच का सामना कर रहा है। ब्रिटिश एजेंसियों ने जब उसके फोन की जांच की, तो पाया कि वह भारत और पाकिस्तान के बीच लड़ाईयों के बारे में सर्च करते रहता है, और इस इलाके में इस्लामिक स्टेट के हमले की संभावनाओं के बारे में भी सर्च और रिसर्च करता है। दोस्तों को भेजे गए एक संदेश से अब हालत यह है कि स्पेन इस नौजवान से करीब एक करोड़ हर्जाना मांग रहा है, जो कि उसके विमानों पर खर्च हुआ था। इस मामले में अभी फैसला आने वाला है। अब यह सोचें कि ऐसे मामले में फंसा हुआ यह नौजवान ब्रिटेन से डिग्री लेकर भी निकलेगा, तो यह बात किसी भी कंपनी या सरकार में नौकरी पाते हुए आड़े आएगी।
देश या दुनिया में जहां कहीं भी लोग नफरत या मजाक में इस तरह की बातें लिखते हैं, भेजते हैं, या पोस्ट करते हैं, वे आत्मघाती काम करने के अलावा कुछ नहीं करते। इससे उनकी जिंदगी का एक स्थाई नुकसान हो जाता है, और जब यह मामला सार्वजनिक साम्प्रदायिक तनाव का सामान बनता है, तो ऐसे लोगों का अपने खुद के इलाके में रहना भी मुश्किल हो जाता है, न उन्हें लोग काम पर रखना चाहते, और न ही उनके साथ कारोबार करना चाहते। दुनिया के बहुत से देशों में इन बरसों में कट्टरपंथी ताकतों की सत्ता पर वापिसी हो रही है, और वे अपनी विचारधारा के मुताबिक कानूनों और उन पर अमल को अधिक कड़ा बनाते चल रहे हैं। पश्चिम के कई देश मतदाताओं का इस तरह का रूझान देख रहे हैं, और आज की तारीख में फिलीस्तीन पर इजराइल का जो हमला चल रहा है, उसके पीछे इजराइली सरकार की नई सोच भी कुछ हद तक जिम्मेदार है, और इजराइल के इतिहास की यह अब तक की सबसे कट्टरपंथी सरकार है। ऐसे में दुनिया के किसी एक देश में एक भडक़ाऊ सोच को आगे बढ़ाने वाले लोग दुनिया के दूसरे देशों में भी अछूत हो सकते हैं। किसी देश के वीजा के लिए, कहीं पर पढ़ाई में दाखिले के लिए, या नौकरी और कारोबार के लिए अर्जी देने पर तमाम चौकन्ने देश लोगों को सोशल मीडिया पर खंगाल डालते हैं, और इंटरनेट पर यह ढूंढ लेते हैं कि उनके बारे में कौन-कौन सी नकारात्मक खबरें मौजूद हैं।
इसलिए हिंसक, भडक़ाऊ, साम्प्रदायिक, सोशल मीडिया पोस्ट या संदेश देश के कानून के शिकंजे में भी आ सकते हैं, और बाकी दुनिया भी ऐसे लोगों को हमेशा के लिए अछूत मान सकती है। जो पढ़े-लिखे, या समझदार, या शातिर लोग खुद अपने हाथों को साफ रखते हुए अपने समर्थकों, या भाड़े की भीड़ को नफरत और धर्मान्धता, या हिंसक धमकियां फैलाने के काम में झोंककर रखते हैं, वे अपने खुद के बच्चों को इस काम से दूर सुरक्षित रखते हैं। इसलिए आम लोगों को यह समझना चाहिए कि सार्वजनिक जीवन और सोशल मीडिया पर किसी भी तरह की गैरजिम्मेदारी दिखाते ही वे अपने भविष्य को भी बर्बाद करते हैं, उनका वर्तमान तो किसी पुलिस या जांच एजेंसी के हाथों अदालत तक पहुंचकर बर्बाद हो ही जाता है। अब यह सोचें कि साम्प्रदायिकता फैलाने वाले लोग अगर विदेशों में बसे हुए अपने बच्चों के पास जाना चाहें, और उन्हें वहां की सरकारें साम्प्रदायिकता की वजह से वीजा देने से मना कर दें, तो क्या वे ऐसे भविष्य की कीमत पर भी हिंसा और साम्प्रदायिकता फैलाना चाहते हैं? फिर लोगों को यह भी याद रखना चाहिए कि किसी देश-प्रदेश की सरकारें अगर उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं भी कर रही हैं, तो भी हो सकता है कि देश-प्रदेश की कोई अदालत किसी दिन अपनी जिम्मेदारी का अहसास करे, और सरकारी अनदेखी से परे जाकर सीधे इनके खिलाफ जुर्म दर्ज करवाए। इसलिए लोगों को तात्कालिक धार्मिक उन्माद पर सवार होकर हिंसक और नफरती बातें नहीं करना चाहिए। कुछ नेता तो ऐसा करके बच भी निकलते हैं क्योंकि उनके पास अदालत को गुमराह करने के लिए देश के सबसे महंगे वकील रहते हैं, लेकिन आम लोग कुछ लापरवाह शब्दों को पोस्ट करके, या किसी वीडियो पर कहकर अपनी जिंदगी के कई बरस जेल में गुजारने का खतरा मोल ले लेते हैं। लोगों को अपने बच्चों को भी ऐसे खतरों से आगाह करना चाहिए।
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बिहार के एक महान जनकल्याणकारी नेता कर्पूरी ठाकुर को उनकी 100वीं जयंती के मौके पर भारतरत्न देने की घोषणा ने मोदी सरकार को देश के पिछड़ों और अतिपिछड़ों के बीच एक वाहवाही तो दिलवा ही दी है, एक और बात उभरकर सामने आई है कि भारतीय राजनीति में ईमानदारी की एक अनोखी मिसाल का भी ऐसा सम्मान हो रहा है। बिहार में दो बार मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर वहां दशकों तक विधायक भी थे, और नाई समाज से आकर वे इतने बड़े नेता बने थे कि वैसी महानता बिहार की राजनीति में किसी और को हासिल नहीं हो पाई। जातिवाद से लदी हुई बिहार की राजनीति में कर्पूरी ठाकुर की जाति की आबादी दो फीसदी से भी कम है, और ऐसे में वे बिहार के एक सर्वाधिक मान्य, और सर्वाधिक सम्मानित मुख्यमंत्री बने, जिन्होंने सबसे कमजोर तबकों और गरीबों के लिए जनकल्याण की ऐसी योजनाएं शुरू कीं, जो कि न उनके पहले सुनाई पड़ी थी, न उनके बाद। मोदी सरकार का यह फैसला चुनावी नफे-नुकसान से परे उसे खुद एक सम्मान दिलाने वाला फैसला है क्योंकि 1988 में उनके गुजरने के बाद से आज तक इन 35 बरसों में किसी केन्द्र सरकार ने यह जहमत नहीं उठाई थी। इसके पीछे मोदी सरकार की चाहे जो राजनीतिक और चुनावी नीयत हो, इस फैसले से शायद ही कोई असहमति जाहिर कर सके।
कर्पूरी ठाकुर के पिता बाल काटने का काम करते थे, और वे खुद मैट्रिक के बाद से स्वतंत्रता संग्राम में उतरे, 26 महीने जेल भुगती, और 1948 से वे राजनीति में आए, और 1970 में मुख्यमंत्री बने। सबसे कमजोर और सबसे गरीब लोगों की भलाई की उनकी सोच अद्भुत थी। उनका एक नारा अक्सर लिखा जाता है- सौ में नब्बे शोषित हैं, शोषितों ने ललकारा है, धन, धरती, और राजपाट में नब्बे भाग हमारा है। उन्होंने बिहार में पिछड़ों और अतिपिछड़ों को आरक्षण दिया, सरकारी कामकाज में हिन्दी को बढ़ावा दिया, और यह मिसाल सामने रखी कि बिना कुनबापरस्ती के ईमानदार राजनीति कैसे की जा सकती है। उनके करीबी बताते हैं कि जब वे सीएम थे, और उनके रिश्ते के बहनोई जाकर किसी नौकरी की मांग करने लगे तो कर्पूरी ठाकुर ने जेब से 50 रूपए निकालकर उन्हें दिए, कहा कि उस्तरा वगैरह खरीद लीजिए, और अपना पुश्तैनी धंधा शुरू कीजिए। उनके सीएम रहते कुछ जमींदारों ने उनके पिता को सेवा के लिए बुलाया, और बीमार होने की वजह से वे नहीं जा पाए तो जमींदार के लठैतों ने जाकर उनके पिता को प्रताडि़त किया, लेकिन जब उन लठैतों को पकड़ा गया, तो कर्पूरी ठाकुर ने उन्हें यह कहकर छुड़वा दिया कि यह तो पूरे प्रदेश में कमजोर तबकों के साथ हो रहा है, और सभी जगह ऐसी ज्यादती के खिलाफ अभियान चलाना चाहिए, सिर्फ सीएम के पिता के खिलाफ जुर्म रोकने से क्या होगा। बिहार के लोग बताते हैं कि दो बार सीएम रहने के बाद भी कर्पूरी ठाकुर रिक्शे से चलते थे क्योंकि कार खरीदने, और चलाने का खर्च उनकी सीमा के बाहर था। वे शायद देश के गिने-चुने ऐसे नेताओं में से होंगे जिन्होंने दशकों की विधायकी, और प्रदेश के मुखिया रहने के बाद भी मरते वक्त अपने परिवार के लिए न एक घर छोड़ा था, न पिता के घर में एक इंच जमीन जोड़ी थी।
समता और सामाजिक न्याय की सोच के उनके बहुत से उदाहरण बिहार में याद रखे जाते हैं, और देश के राजनीतिक इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है। शायद यही वजह रही कि 1952 में पहली बार विधानसभा का चुनाव जीतने के बाद वे कभी चुनाव नहीं हारे। उनकी पहल से बिहार में मिशनरी स्कूलों ने हिन्दी में पढ़ाना शुरू किया, और उन्होंने राज्य में मैट्रिक तक मुफ्त पढ़ाई का इंतजाम किया। बीबीसी की एक रिपोर्ट जानकारी देती है कि उन्होंने बिना मुनाफे वाली जमीन पर किसानों से मालगुजारी लेना बंद करवाया। और मुख्यमंत्री सचिवालय की लिफ्ट में चतुर्थ वर्ग कर्मचारियों को चढऩे की मनाही थी, कर्पूरी ठाकुर ने उसे शुरू करवाया। वे एक सच्चे समाजवादी की तरह अंतरजातीय विवाह के हिमायती थे, और जहां खबर लगती थी उसमें शामिल होते थे। राज्य कर्मचारियों के लिए समान वेतन आयोग को उन्होंने लागू किया था, और जनकल्याण के, सबसे कमजोर तबके की भलाई के बहुत से कार्यक्रम उन्होंने लागू किए, या उसके लिए विपक्ष से आंदोलन करते रहे।
उनकी सादगी और गरीबी का हाल यह था कि एक प्रतिनिधि मंडल ने उन्हें ऑस्ट्रिया जाना था तो उनके पास कोट ही नहीं था, एक दोस्त से लिया तो वह फटा हुआ था। यह किताबों में दर्ज है कि वहां से भारतीय दल यूगोस्लाविया गया तो मार्शल टीटो ने देखा कि उनका कोट फटा है, तो उन्हें एक कोट भेंट किया। एक दूसरा लेख यह भी बताता है कि कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद हेमवंती नंदन बहुगुणा उनके गांव गए थे, तो उनकी पुश्तैनी झोपड़ी देखकर रो पड़े थे। दशकों की सत्ता और विधायकी के बाद भी उन्होंने एक घर तक नहीं बनवाया था, जब सरकार ने विधायकों और पूर्व विधायकों को रियायती जमीन दी, तो भी उन्होंने इसे लेने से इंकार कर दिया। बेटी की शादी में उन्होंने किसी मंत्री को नहीं बुलाया था, और आने से सबको मना भी कर दिया था। उनके बारे में एक घटना लिखने लायक है कि 1977 में वे जयप्रकाश नारायण के जन्मदिन पर अपनी आम टूटी चप्पल, और फटे कुर्ते में ही पहुंच गए थे, तो चन्द्रशेखर ने अपना कुर्ता फैलाकर सभी नेताओं से कर्पूरी ठाकुर के कुर्ते के लिए दान मांगा, उसे देते हुए चन्द्रशेखर ने सीएम को कहा कि इससे धोती-कुर्ता खरीद लीजिए, तो उन्होंने वह रकम मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा कर दी।
हम अपने विचारों वाले इस कॉलम, संपादकीय में अपनी किसी राय के बिना सिर्फ कर्पूरी ठाकुर की जीवनगाथा के कुछ हिस्से सामने रखकर उसे ही अपने विचार मान रहे हैं। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम अपने आसपास भी सरकार के नेताओं और अफसरों से जिस तरह की सादगी और किफायत की अपील बार-बार करते हैं, उसकी एक बहुत बड़ी मिसाल कर्पूरी ठाकुर की जिंदगी की कहानी में दिख रही है। उनके लिए भारतरत्न की घोषणा के इस मौके पर उनकी जिंदगी को याद करना चाहिए, और जो लोग भी उनके प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं, उन्हें सादगी, किफायत, और ईमानदारी की उनकी मिसाल पर भी सोचना चाहिए।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आज शहर के बीच जयस्तंभ चौक पर सरकारी स्कूलों के छात्र-छात्राओं को सुबह 8 बजे पहुंचने का आदेश दिया गया था, और वहां पहुंचे सैकड़ों ऐसे बच्चों को बताया गया था कि नेताजी सुभाष जयंती का आयोजन होने जा रहा है। लेकिन आज की भीगी हुई सुबह में ठंड में जब बच्चे यहां पहुंचे, तो आयोजक संस्था छत्तीसगढ़ युवा संगठन, और नगर निगम के कोई लोग वहां नहीं थे। बच्चे चौराहे पर खड़े हुए थे, और उनके साथ के शिक्षकों ने घंटे भर बाद जब आयोजकों को फोन लगाया तो उन्होंने कुछ देर में आने की बात कही। अब यहां आए हुए बच्चे कई किलोमीटर दूर से पहुंचे थे, और जिला शिक्षा अधिकारी के लिखित आदेश की वजह से स्कूलों के प्राचार्य ने गंभीरता से समय पर बच्चों के वहां पहुंचने की ड्यूटी शिक्षक-शिक्षिकाओं की लगाई थी। घंटे भर बाद जब यह कार्यक्रम शुरू हुआ तो बच्चों को रेलवे स्टेशन की सुभाष प्रतिमा पर ले जाया गया।
पहले स्कूली बच्चों को मंत्रियों के स्वागत में कतार बनाकर खड़ा कर दिया जाता था, और देश भर से खबरें आती थीं कि धूप में या खड़े-खड़े थकान में बच्चे चक्कर खाकर गिर जाते थे। बाद में बड़ी अदालतों के हुक्म से यह सिलसिला तकरीबन थम गया है, लेकिन अभी भी कहीं-कहीं घोषित और अघोषित रूप से बच्चों का ऐसा इस्तेमाल कर लिया जाता है। एक तरफ स्कूलों के शिक्षकों से जनगणना से लेकर चुनावी काम तक, दर्जनों किस्म के सरकारी काम करवाए जाते हैं, और सरकार के आयोजनों में चाहे मंत्री के स्वागत के लिए न सही, लेकिन इस किस्म की किसी रैली के लिए, किसी आयोजन के लिए स्कूली बच्चों की भीड़ इसी तरह की चिट्ठी से भेज दी जाती है कि हर स्कूल से सौ बच्चों की उपस्थिति सुनिश्चित की जाए, फिर चाहे आयोजक खुद ही गायब रहें।
यह मामला बहुत बड़ा नहीं है, लेकिन राज्य शासन और नगर निगम दोनों को अपने संबंधित विभागों के कामकाज को परखने का एक मौका इससे मिल रहा है। कैसे किसी सामाजिक संगठन के साथ मिलकर नगर निगम ऐसा कार्यक्रम कर रहा है जिसमें सैकड़ों बच्चों को सुबह-सुबह जुटा लिया गया है, और आयोजक ही नदारद हैं। राज्य शासन के शिक्षा विभाग को भी देखना चाहिए कि उसके अफसरों ने ऐसे गैरजिम्मेदार आयोजकों के कार्यक्रम में बच्चों को क्यों भेजा? अगर नेताजी सुभाष जयंती ही मनानी थी, तो स्कूली बच्चे अपने स्कूल में मना सकते थे, सडक़ों पर उन्हें रैली में भेजना, घंटों इंतजार करवाना, कई किलोमीटर पैदल चलवाना, और घर से आने-जाने का निजी इंतजाम करना, यह सब मध्यमवर्गीय या गरीब छात्र-छात्राओं पर भारी पडऩे वाला काम है। हमारा ख्याल है कि स्कूली बच्चों को सिर्फ ऐसे आयोजन में शामिल करना चाहिए जो कि किसी सुरक्षित और सुविधाजनक मैदान में पर्याप्त इंतजाम के साथ हो रहे हों, या किसी सभागृह या स्कूल के अहाते में। इस बात की कल्पना आसान है कि कई घंटों के इस इंतजार और कार्यक्रम में, और कई किलोमीटर आने-जाने, और पैदल चलने में स्कूली छात्राओं को अगर किसी शौचालय की जरूरत पड़ेगी, तो उसका तो कोई इंतजाम इस शहर में नहीं है। अभी दो दिन पहले ही एक अखबार ने यह रिपोर्ट छापी है कि किस तरह शहर के सार्वजनिक शौचालय बंद या खराब पड़े हैं, या बहुत बुरी तरह गंदे पड़े हैं। ऐसे में छात्राओं को चौराहे पर जुटाना, और सडक़ों पर घुमाना ठीक बात नहीं है।
प्रदेश के शिक्षामंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने अभी-अभी इन्हीं स्कूलों में से एक स्कूल की छात्राओं के आने-जाने का बंद किया हुआ एक रास्ता खुलवाया है, और वे खुद इसी शहर की आम स्कूलों में पढ़े हुए हैं। उन्हें व्यक्तिगत दिलचस्पी लेकर बच्चों का ऐसा इस्तेमाल बंद करना चाहिए जो कि किसी प्रतिमा पर होने वाले समारोह में भीड़ बढ़ाने की नीयत से किया गया है। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के बारे में किसी भी स्कूल के शिक्षक और बच्चे अपने स्कूल में ही आधे-एक घंटे में पर्याप्त बोल-सुन सकते थे, उन्हें अगर महापुरूषों की प्रतिमाओं पर इस तरह ले जाना चलते रहा, तो साल में उनके दस-बीस दिन इसी में निकल जाएंगे। किसी महान व्यक्ति के सम्मान का यह तरीका ठीक नहीं है कि भीड़ बढ़ाने के लिए बच्चों के घंटों बर्बाद किए जाएं, और उनकी असुविधा के बारे में सोचा भी नहीं जाए। दिखने में छोटी लगने वाली यह बात अफसरों का बच्चों के प्रति रूख बताती है, और यह बात तो सार्वजनिक रूप से दिखने पर हमारे ध्यान में आई है, लेकिन अफसरों की सोच अगर ऐसी ही है, तो वह बच्चों से जुड़े हुए दूसरे मामलों में भी सामने आती होगी। स्कूल शिक्षा मंत्री को पूरे प्रदेश के स्कूलों, खासकर कन्या विद्यालयों की जांच करवानी चाहिए कि वहां लड़कियों के लिए शौचालय का पर्याप्त और ठीक-ठाक इंतजाम है या नहीं, लड़कियों की खास जरूरतों के लिए पानी का इंतजाम है या नहीं।
राजधानी के नगर निगम को भी अपने अफसरों के फैसले और कामकाज को जांचना चाहिए कि जब स्कूली बच्चों को कई किलोमीटर दूर से सुबह-सुबह बुला लिया गया, तो उस वक्त के पहले वहां पर म्युनिसिपल के अफसर, और आयोजक संस्था के लोग मौजूद क्यों नहीं थे, और खासकर छात्राओं के लिए जरूरत के क्या इंतजाम इन लोगों ने किए थे? स्कूली बच्चों को किसी भी कार्यक्रम में झोंकने के पहले यह देखने की जरूरत है कि इससे उनके पढ़ाई के कितने घंटे खराब होने जा रहे हैं, और ऐसे आयोजन में शामिल होना उन बच्चों के हित में है, या महज आयोजकों को भीड़ बढ़ाकर दी जा रही है? राज्य में बच्चों के कल्याण के लिए प्रदेश स्तर की एक परिषद बनी हुई है, और उसे भी न सिर्फ इस घटना को लेकर, बल्कि ऐसे तमाम कार्यक्रमों को लेकर एक अध्ययन करना चाहिए कि कौन से आयोजन स्कूली बच्चों के हित में हैं, और बाकी तमाम किस्म के कार्यक्रमों का विरोध करना चाहिए। वैसे भी इस प्रदेश में छुट्टियां बहुत हैं, पढ़ाई कम होती है, पूरे देश में ही स्कूल शिक्षा का स्तर बहुत ही खराब है, अभी चार-छह दिन पहले की इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट बतलाती है कि किस तरह बड़े-बड़े हो चुके स्कूली बच्चे भी बुनियादी बातें भी नहीं पढ़ पा रहे हैं। स्कूली बच्चों को सिर्फ संख्या की तरह गिनना और इस्तेमाल करना ठीक नहीं है, और देश-प्रदेश की सरकारों को इन बच्चों के समय का इस्तेमाल करते हुए बहुत ही सावधान रहना चाहिए, और विशेषज्ञों से सलाह-मशविरे के बिना बच्चों पर कुछ भी नहीं लादना चाहिए। एक अफसर जिस तरह चिट्ठी लिखकर सरकारी स्कूलों के प्राचार्यों से सौ-सौ बच्चों को तय समय पर किसी जगह भेजने को सुनिश्चित करने को कह रहा है, वह अपने आपमें फिक्र की बात है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए।
अयोध्या में राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के मौके पर पिछले कई दिनों से देश के बहुत से हिस्सों में जो अभूतपूर्व और असाधारण उत्साह बहुसंख्यक हिन्दू तबके में देखने मिल रहा है, उससे एक यह संभावना भी बनती है कि धर्म के नाम पर इतने लोग एकजुट हो सकते हैं। अब सवाल यह है कि धार्मिक आस्था जो आस्थावान लोगों का खुद का भला कर सकती है, लेकिन उससे देश और समाज का भी कुछ भला किया जा सकता है? आज भारत से बहुत से धर्मों के लोग अपने त्यौहारों के मौकों पर सडक़ किनारे भंडारे लगा लेते हैं, जिन पर आते-जाते लोग रूककर छककर खा लेते हैं। कई त्यौहार ऐसे भी रहते हैं जिन पर इतने अधिक भंडारे लगते हैं कि लोगों को कई जगहों पर रूककर खाना पड़ता है। लेकिन क्या उससे सचमुच ही किसी गरीब का कुछ भला होता है? जो भूख मिटती है, क्या वह किसी गरीब की भूख रहती है, या फिर मोटरसाइकिलों को रोक-रोककर लोग खाने में जुट जाते हैं। धर्म में लोगों को जोडऩे की, और दान-धर्म के नाम पर लोगों की जेब से पैसे निकलवाने की भी अपार ताकत है, लेकिन इस ताकत का इस्तेमाल किस काम में किया जाता है, यह देखने की बात है।
आज सडक़ों पर हो रहे आयोजनों से लेकर अखबारों के इश्तहारों तक लोगों का उत्साह देखते ही बन रहा है। चारों तरफ राम जन्म भूमि और रामलला के पोस्टर लगे हैं, झंडे फहरा रहे हैं, और लोग अपनी गाडिय़ों पर ऐसे झंडे लगाकर चारों तरफ घूम रहे हैं। लेकिन उत्सव से परे इसकी कोई उपयोगिता समाज के लिए नहीं है। लेकिन ऐसी संभावना तो है ही। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के मंदिरों की साफ-सफाई का आव्हान किया, तो चारों तरफ मंदिर साफ होते दिखने लगे। लेकिन जब किसी ईश्वर की पूजा-आराधना की बात उठती है, तो महज मंदिर-मस्जिद जैसी जगहें ही ईश्वर से जुड़ी नहीं रहतीं, जिन लोगों को ईश्वर पर आस्था है, वे तो यही मानते हैं कि पूरी दुनिया ईश्वर की बनाई हुई है, और ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। ऐसे में सिर्फ पूजास्थल की सफाई क्यों हो? और दूसरी सार्वजनिक जगहों की भी सफाई हो सकती है, और होनी चाहिए। आज जितने लोग धार्मिक उत्सव के लिए समय निकालकर उस पर समर्पित हैं, उनके पास ऐसा वक्त निकलने की गुंजाइश तो है ही। अब सवाल यह है कि मोदी सरीखे असर वाले कोई नेता, या दूसरे धार्मिक लोग भक्तों के ऐसे रेले को समाजसेवा के जरूरी काम की तरफ किस तरह मोड़ सकते हैं?
हमने कई धर्मों के लोगों को धर्म के नाम पर एकजुट होते, और फिर नेक काम करते भी देखा है। सिक्खों के संगठन दुनिया में कहीं भी कोई मुसीबत आने पर लोगों की मदद को सबसे आगे रहते हैं, और इसमें बहुत कम ऐसे मौके रहते हैं जब सिक्ख खतरे में पड़े हों, आमतौर पर सिक्ख संगठनों की मदद दूसरे धर्मों के लोगों को ही पहुंचती है। दक्षिण भारत में तिरुपति जैसे मंदिर है जहां पर भक्तों को दर्शन तेजी से करने के लिए कुछ अधिक भुगतान करना पड़ता है, लेकिन मंदिर ट्रस्ट ऐसी कमाई का इस्तेमाल अस्पताल और कॉलेज बनाने और चलाने में करता है। कुछ और धर्मों में भी लोग दान करते हैं, लेकिन उनका दान अपने ही धर्म के लोगों तक सीमित रहता है। हम रामभक्तों की अपार भीड़ की ताकत को समाज की व्यापक जरूरत के लिए इस्तेमाल करने की संभावनाओं पर देखना चाहते हैं। भारत जैसे लोकतंत्र में धर्म एक हकीकत है, और उसके नाम पर होने वाली एकजुटता में बड़ी ताकत हो सकती है। कभी यह ताकत किसी दूसरे धर्म के खिलाफ होती है, तो कभी अपने ही लोगों के बीच कट्टरता को बढ़ाने में काम आती है। ऐसी खामियों से परे कई धार्मिक संगठनों को क्षेत्रीय विकास में बड़ी भागीदारी भी करते देखा गया है। दक्षिण में सत्य सांई बाबा का संगठन कई इलाकों में ग्रामीण विकास और पानी की सप्लाई जैसा काम करता था, और पूरी तरह मुफ्त में बच्चों की हार्ट सर्जरी के अस्पताल भी यह धार्मिक-आध्यात्मिक संगठन चलाता है।
हमारा ख्याल है कि हिन्दुओं के बीच जिन लोगों का असर है, उन्हें देश के दसियों करोड़ आस्थावान लोगों को साथ लेकर समाज की कुछ जरूरतों को पूरा करने का बीड़ा उठाना चाहिए। किसी भी धर्म का सम्मान उसके ईश्वर से नहीं बढ़ता, बल्कि इससे बढ़ता है कि उसे मानने वाले लोग कैसे हैं, और वे क्या करते हैं। धार्मिक ग्रंथ तो अपनी जगह रखे रह जाते हैं, लेकिन उनके नाम पर लोग कैसा काम करते हैं इससे उस धर्म और उसके ईश्वर का सम्मान तय होता है। इसलिए भी हर धर्म के लोगों को यह देखना चाहिए कि वे धर्मों की आम नसीहत के तहत जरूरतमंद लोगों का क्या भला कर सकते हैं? बहुत से धर्म लोगों को त्याग सिखाते हैं, जरूरतमंदों के लिए दान देना सिखाते हैं, लेकिन अधिकतर धर्मों के अतिसंपन्न लोग त्याग की यह सोच गरीबों में तो भरते हैं, खुद उस पर अमल नहीं करते। इसलिए जिस धर्म के लोगों पर जिन लोगों का असर हो, उन्हें ऐसे आस्थावानों को समाजसेवा के काम में जोडऩा चाहिए, क्योंकि आस्था और उपासना तो साथ-साथ चल ही सकते हैं।
हम जानते हैं कि इस बात को कहना आसान है, और करना मुश्किल है, लेकिन इसकी छोटी सी मिसाल का जिक्र हम पहले भी कभी कर चुके हैं कि श्रीलंका में बौद्ध धर्म के असर से लोगों के बीच त्याग की जो भावना आई है, उसके चलते श्रीलंका नेत्रदान के मामले में दुनिया में सबसे आगे है, और वहां घरेलू जरूरतों के पूरा होने के बाद दुनिया के बाकी देशों को भी श्रीलंका से निकली आंखें काम आती हैं। भारत में भी धर्म के सामाजिक योगदान की कोशिश करनी चाहिए। इस देश में बहुत से मोर्चों पर त्यागियों और दानदाताओं की जरूरत है, और शायद धर्म के नाम पर उनकी जेब से आसानी से कुछ निकाला जा सके।
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छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में एक ऐसा गजब का हत्याकांड सामने आया है जिसमें एक महिला ने अपने पति की बीमारी और नशे की लत से तंग आकर एक फिल्मी कहानी की तरह उसका कत्ल कर दिया। इसके लिए उसने पति के इलाज के दौरान अस्पताल में दोस्त बने एक कर्मचारी को साथ लिया, और अपने कुछ दूसरे दोस्त, सहेली, पड़ोसी को भी। इसके बाद इन लोगों ने अस्पताल से चुराई गई बेहोश करने की दवा नशे में सोए पति के बदन में इंजेक्शन से डाली, और उसे मार डाला। बदन पर कई जगह इंजेक्शनों के निशानों से शक खड़ा हुआ, और पुलिस ने इस हत्या का भांडाफोड़ किया। खबर के मुताबिक यह पत्नी कुल 22 बरस की है, और उसकी शादी 15 साल की उम्र में हो गई थी, और लगातार पति के नशे से वह परेशान थी।
हत्या के तरीके से परे भी इसके जो दूसरे पहलू हैं उस पर हम लिखना चाह रहे हैं कि किस तरह कम उम्र में समय के पहले कर दी गई शादी का नतीजा इतना बुरा हो सकता है कि वह मरने-मारने तक पहुंच जाए। 15 बरस की लडक़ी भारतीय समाज में शादी के बाद पति के नशे पर काबू कर सके, इसकी कोई गुंजाइश नहीं रहती। कम उम्र में ही बच्चे हो जाने पर महिला उन बच्चों के बोझ से भी लदी रहती है, और पति की लत से भी। ऐसे में परिवार को चलाना ही एक चुनौती रहती है, और आम हिन्दुस्तानी लडक़ी या महिला इसी में दबी रह जाती हैं। साथ-साथ तब नौबत और अधिक खराब हो जाती है जब ऐसी शादीशुदा युवती आर्थिक आत्मनिर्भर नहीं रहती, और परिवार का पेट भरना नशे के आदी पति का मोहताज रहता है। आज जिस तरह भारतीय समाज में लडक़ी और महिलाओं को घर से बाहर निकलने का मौका मिल रहा है, मोबाइल और सोशल मीडिया की मेहरबानी से उसके भी संपर्क बाहर हो पा रहे हैं, इसलिए वह ऐसी नर्क सरीखी जिंदगी से उबरने के कुछ कानूनी और कुछ गैरकानूनी रास्ते भी देखने लगी है। कहीं पर वह तलाक लेकर, या बिना तलाक लिए अलग रहने का हौसला जुटा पाती है, तो कहीं वह हिंसा पर उतरकर अकेले या कुछ लोगों की मदद से ऐसे गैरजिम्मेदार, या किसी किस्म के हिंसक पति को निपटा भी देती है। पाठकों को याद होगा कि कुछ अरसा पहले हमने ऐसे कुछ दूसरे मामलों को लेकर अपने यूट्यूब चैनल इंडिया-आजकल पर उज्जैन में एक महिला के हाथों पति और जेठ के मारे जाने पर एक वीडिटोरियल भी पोस्ट किया था।
लेकिन इस बार कत्ल करने का जो तरीका छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले की इस महिला ने अपने अस्पताल-कर्मचारी दोस्त के साथ मिलकर इस्तेमाल किया है, वह बिना खून बहाए मौत को प्राकृतिक और स्वाभाविक दिखाने की एक बिल्कुल अनोखी साजिश थी, और यह एक भयानक सिलसिला है क्योंकि बेहोशी की ऐसी दवा जुटा लेना कोई दुर्लभ काम नहीं है। किसी फिल्म या अपराधकथा की तरह यह कत्ल अपने इस तरीके से परे भी एक और बात की तरफ ध्यान खींचता है। अस्पताल कर्मचारी तो इस महिला का दोस्त या प्रेमी था, लेकिन इसके एक सहेली, इसका एक पड़ोसी, ऐसे कई और लोग हत्या के इस जुर्म में भागीदार बन गए थे, और इन सबने कहीं न कहीं तो यह पढ़ा होगा कि हत्यारों को आखिर जेल जाना पड़ता है, कैद काटनी पड़ती है। लोग किसी की मदद करते हुए अपने आपकी बाकी जिंदगी को इस तरह और इस कदर खतरे में कैसे डाल लेते हैं, यह हमारी समझ से परे है। हो सके तो सरकार या समाज के कुछ संगठनों को कत्ल जैसे जुर्म के मददगार लोगों का अध्ययन करके समाज के सामने रखना चाहिए कि ये लोग ऐसे गलत काम में पड़े कैसे, और इसका नतीजा कितना खतरनाक भुगतना पड़ा है।
हम बहुत से हादसों और बहुत से ऐसे जुर्म को लेकर यही सोच रखते हैं कि इनका विश्लेषण करके लोगों के सामने रखना चाहिए ताकि बाकी लोग कमअक्ली में, या अतिउत्साह में ऐसे जुर्म में न फंसें। फिर आज जैसी खबरें आती हैं, उन्हें देखकर यह भी समझ नहीं पड़ता कि क्या शराबबंदी करने से इस किस्म के जुर्म घटेंगे? छत्तीसगढ़ में ही एक आईपीएस अफसर, संतोष सिंह अपने खुद के निजी उत्साह से जिस-जिस जिले में रहते हैं, वहां पर नशे के खिलाफ एक बड़ा अभियान, निजात-अभियान छेड़ते हैं। और उनका यह निष्कर्ष है कि नशा जहां पर कम होता है, वहां पर हर किस्म के जुर्म भी कम होने लगते हैं, सडक़ हादसे भी कम होने लगते हैं। उन्होंने इसका विश्लेषण करके जो आंकड़े सामने रखे हैं वे चौंकाते हैं कि एक बरस तक नशे के खिलाफ अभियान चलाने से बलात्कार की घटनाओं में 35 फीसदी कमी आई, हत्याओं में 47 फीसदी की कमी आई, हत्या की कोशिशें 64 फीसदी घटीं, चाकूबाजी आधे से भी कम रह गई, और छेड़छाड़ जैसी घटनाओं में भी 40 फीसदी की कमी आई। अब छत्तीसगढ़ में चूंकि शराब तो सरकार ही बेचती है, इसलिए कोई पुलिस अफसर बाकी किस्म के नशों के खिलाफ ही कार्रवाई कर सकता है, या अवैध शराब के खिलाफ। आज प्रदेश में चारों तरफ से खबरें आती हैं कि तरह-तरह की प्रतिबंधित दवाएं नशे के लिए बाजार में बेची जा रही हैं, और रोजाना ही गांजे से भरी गाडिय़ां पकड़ा रही हैं। ऐसे ही प्रतिबंधित नशे और अवैध शराब के खिलाफ कार्रवाई से अगर किसी जिले में बड़े-बड़े किस्म के जुर्म आधे रह जाते हैं, या एक तिहाई घट जाते हैं, तो वह नशे से होने वाले अपराध का एक बड़ा संकेत और सुबूत है।
रायगढ़ में अभी हुई इस ताजा हत्या का मामला पति के नशे से थकी हुई पत्नी का है, और कानूनी या गैरकानूनी नशा किस तरह परिवारों को खत्म करता है, उसका यह बड़ा सुबूत है। अब ऐसे जोड़ों में एक मर जाए, दूसरे को जेल हो जाए, तो जाहिर है कि उनके बच्चों की जिंदगी भी खत्म हो जाती है। हम पारिवारिक हिंसा के पीछे की कई वजहों में से नशे को एक बड़ी वजह पाते हैं, और इस पहलू से भी समाजशास्त्रीय अध्ययन होना चाहिए। महज जुर्म, जांच, मुकदमा, और सजा, इससे समाज में कोई सुधार नहीं आ सकता, ऐसे जुर्म और ऐसी हिंसा की वजहों को समझना और उन्हें दूर करना जरूरी है। ऐसे पहलू बहुत से हैं, लेकिन हमने उनमें से कुछ की चर्चा आज यहां की है, लोग अपने आसपास इस तरह के तनाव से गुजर रहे परिवारों की मदद करने की कोशिश भी कर सकते हैं।
ओडिशा की एक खबर है कि वहां गंजाम में एक स्कूटर और मोटरसाइकिल की आमने-सामने टक्कर हो गई, दोनों पर तीन-तीन लोग सवार थे, चार लोग मौके पर मारे गए, एक की मौत अस्पताल के रास्ते पर हुई, और बचे एक व्यक्ति की हालत गंभीर है। ये सारे लोग 30 से 43 बरस उम्र के बताए जाते हैं। आज ही छत्तीसगढ़ के जांजगीर की एक खबर है कि आमने-सामने दो मोटरसाइकिलों की टक्कर हो गई, एक की मौत हुई है, और दो गंभीर हैं। ओडिशा के इस सडक़ हादसे को हादसा कहना पता नहीं कितना जायज होगा क्योंकि जब दुपहिया पर तीन बड़े लोग चल रहे हैं, और रात के धुंध में सफर कर रहे हैं, और टक्कर इतनी जोरों की हुई है कि चार लोग मौके पर ही मर जा रहे हैं, तो इसे हादसे के बजाय लापरवाही और गैरजिम्मेदारी से हुई मौत कहना बेहतर होगा। इनमें से कई मौतें तो टाली जा सकने वाली रही होंगी, और अगर दुपहिए पर दो-दो लोग ही चलते, और चारों लोग हेलमेट लगाए रहते, रफ्तार काबू में रहती, तो हो सकता है कि मौतें कम हुई होतीं, या नहीं हुई होतीं। हम अपने अखबार में सडक़ दुर्घटनाओं को कम करने के लिए लगातार जनजागरण अभियान चलाते हैं, और लोगों को दुपहिए पर चलते हुए हेलमेट लगाने को कहते हैं, अपने यूट्यूब चैनल पर भी हर एक दिन की आड़ से इसकी अपील करते हैं। और सडक़ों पर दुपहिए वालों की जितनी मौतें हम देखते हैं, उनमें से शायद ही किसी में हेलमेट दिखता हो, और सिर दिमाग का सबसे नाजुक हिस्सा रहता है, और उसमें लगी गंभीर चोट के बाद बचने की कोई गुंजाइश नहीं रहती है।
अभी सडक़ सुरक्षा का राष्ट्रीय सप्ताह मनाया जा रहा है, और छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री ने हेलमेट के साथ एक आयोजन में इस सप्ताह की शुरूआत की। वैसे भी बीच-बीच में कुछ जिलों के एसपी ने लोगों को हेलमेट भेंट भी किए, लेकिन कुल मिलाकर हमारा देखा हुआ है कि किसी मुहिम की तरह हेलमेट को लागू किया जाता है, और शायद दो-चार हफ्तों के भीतर ऐसी मुहिम ठंडी पड़ जाती है। जनता का एक बड़ा हिस्सा गैरजिम्मेदार रहता है, या सस्ती राजनीति करने वाले लोग उसे गैरजिम्मेदार बनाए रखने का काम करते हैं, ऐसे लोग हेलमेट को लागू करने का अभियान जब भी चलता है, उसके खिलाफ आवाज उठाने लगते हैं, और गैरजिम्मेदार जनता को उकसाने भी लगते हैं। इस राज्य में हमने पिछली चौथाई सदी में बार-बार देखा है कि जो पार्टी सत्ता पर रहती है वह तो हेलमेट का विरोध कुछ कम करती है, लेकिन जो पार्टी विपक्ष में रहती है, वह हेलमेट का विरोध इस अंदाज में करने लगती है कि जनता के सिर और दिमाग को बचाने की तानाशाही सरकार कैसे कर सकती है, वे जनता को उकसाने लगते हैं कि हेलमेट की जरूरत नहीं है, और वे अफसरों को मजबूर देंगे कि वे ऐसा अभियान बंद करें। और ऐसा होता भी है। आमतौर पर ऐसे गैरजिम्मेदार अभियान वे नेता चलाते हैं, जो खुद तो सुरक्षित बड़ी-बड़ी कारों में चलते हैं, और लोगों पर हेलमेट का नियम लागू करने का विरोध करते हैं। किसी अफसर ने अपने जिले या शहर में ऐसा अभियान शुरू किया, तो उसके तबादले की बात भी होने लगती है। कई बार सत्तारूढ़ पार्टी को लगता है कि हेलमेट से नाराज जनता अगले चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी को हरा देगी।
अब ट्रैफिक का यह नियम सरकार की कमाई करने के लिए नहीं बना है, न ही यह पुलिस महकमे की जिंदगी बचाने के लिए बना है, बल्कि यह आम लोगों को जागरूक करके उनके अपने सिर को बचाने के लिए बना है, और मानो यह सुरक्षा राजनीतिक दलों को खटकने लगती है, और वे सिरों को खतरे में डालने पर आमादा हो जाते हैं। कुछ ऐसा ही कारों में सीट बेल्ट लगाने को लेकर, गाड़ी चलाते मोबाइल पर बात न करने को लेकर भी होता है जिसमें स्थानीय नेता अपनी ताकत दिखाने के लिए पुलिस के अभियान के खिलाफ उठकर खड़े हो जाते हैं, और जनता की अराजकता को बचाने वाले बनने लगते हैं। जहां लोगों की जिंदगी बचानी चाहिए, वहां ऐसे नेता लोगों की अराजकता को बचाना शोहरत पाने का एक जरिया बना लेते हैं। हमारा तो यह मानना है कि ट्रैफिक सुरक्षा के लिए साल में कोई एक हफ्ता मनाना कुछ वैसा ही है जैसा साल में एक हफ्ता साफ हवा का मनाना होगा, मानो बाकी 360 दिन प्रदूषित में कोई बुराई नहीं है। जब सडक़ों पर ट्रैफिक 365 दिन रहता है, तो उसकी सुरक्षा का कोई हफ्ता कैसे हो सकता है? दूसरी बात यह भी है कि अगर सडक़ों पर नियम किसी एक गाड़ी के लोग तोड़ते हैं, तो उससे दूसरे लोगों की जिंदगी भी खतरे में पड़ती है, और ऐसा खतरा खड़ा करने की आजादी पुलिस किसी को भी कैसे दे सकती है? पुलिस के पास ऐसा अधिकार कैसे आ सकता है कि नियम तोडऩे वाले लोगों पर कार्रवाई न करे? किसी नियम को लागू न करने से अगर बाकी लोगों की जिंदगी भी खतरे में पड़ती है, तो कुछ चुनिंदा लोगों की लापरवाही और गैरजिम्मेदारी को अनदेखा कैसे किया जा सकता है?
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लेकिन आमतौर पर देखने में यही आता है कि सडक़ों पर लापरवाही रोकने के काम को एक मुहिम या अभियान की तरह चलाया जाता है, और बाकी वक्त अराजकता को आजादी दे दी जाती है। अब पता नहीं बात-बात पर लोगों को अदालत तक जाने की सलाह देना कितना जायज है या नहीं है, लेकिन ऐसा लगता है कि जिस तरह लाउडस्पीकरों पर रोक के लिए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को दखल देनी पड़ती है, उसी तरह ट्रैफिक की हिफाजत लागू करने के लिए भी अदालत लगेगी। सरकारें अपने हिस्से का काम करना तब तक जरूरी नहीं मानतीं जब तक हाईकोर्ट या उससे बड़ी अदालत लाठी लेकर उसे लागू करवाने पर उतारू न हो जाएं। यह नौबत ठीक नहीं है, अदालतों को इसलिए नहीं बनाया गया है कि वे सरकारों से उनकी न्यूनतम जिम्मेदारी पूरी करवाने के लिए उन्हें कटघरे में खड़ा करवाएं। छत्तीसगढ़ सहित चार और राज्यों में अभी नई सरकारों ने काम संभाला है, अभी कई किस्म की नई बातें यहां लागू हो सकती हैं, और हमारी सलाह यह है कि हेलमेट, सीट बेल्ट लागू करवाने, और वाहन चलाते मोबाइल पर रोक जैसे एकदम बुनियादी नियमों को तुरंत पूरी कड़ाई से लागू करना चाहिए, और हिन्दुस्तान के ही जिन शहरों में ये नियम एक बार ठीक से लागू हो गए हैं, तो वहां पर उन पर अमल चलते ही रहता है।
दुनिया के रईसों से गरीबों के भले की खबर भूले-भटके ही आती है। ऐसे में अभी दाओस में होने जा रहे वल्र्ड इकॉनॉमिक फोरम के सम्मेलन के सामने जब दुनिया के सैकड़ों खरबपतियों और अरबपतियों ने एक चिट्ठी लिखकर भेजी है कि दुनिया के अतिसंपन्न लोगों पर टैक्स बढ़ाया जाए, और उन्हें अधिक टैक्स देकर खुशी होगी। इसके लिए प्राउड टू पे मोर नाम की एक वेबसाइट भी बनाई गई है, और उसमें अतिसंपन्न लोगों के इस समूह ने अपना बड़ा सीधा-सरल संदेश पोस्ट किया है- निर्वाचित नेताओं को हम पर, अतिसंपन्न लोगों पर अधिक टैक्स लगाना चाहिए, हमें ऐसा करके फख्र हासिल होगा। इन कारोबारियों ने यह भी लिखा है कि अपने इस बड़े सीधे और सरल सुझाव को वे तीन बरस से दुहरा रहे हैं कि आप अतिसंपन्न टैक्स लोगों पर टैक्स कब बढ़ाएंगे? उन्होंने कहा कि अगर दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के निर्वाचित जनप्रतिनिधि दुनिया में आर्थिक असमानता में खुद चुकी गहरी और चौड़ी खाई को कम करने के लिए कदम नहीं उठाएंगे, तो इससे समाज तबाही की तरफ बढ़ेगा। उन्होंने इस खुली चिट्ठी में लिखा है कि न्यायसंगत टैक्स की हमारी कोशिश कोई बहुत क्रांतिकारी सोच नहीं है, बल्कि यह आज की आर्थिक स्थितियों के एक आंकलन पर आधारित समानता की तरफ एक कदम भर है। इस चिट्ठी में कहा गया है कि आर्थिक असमानता ऐसे भयानक स्तर पर पहुंच गई है कि इससे अर्थव्यवस्था, समाज, और पर्यावरण का संतुलन सभी कुछ खतरे में पड़ गया है, और ये खतरा हर दिन बढ़ते चल रहा है। इस चिट्ठी में लिखा गया है कि हम एक बड़ी सरल और आसान अपील कर रहे हैं, समाज के हमारे जैसे सबसे रईस लोगों पर टैक्स बढ़ाया जाए। इससे हमारे जीवनस्तर पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, न ही इससे हमारे बच्चों का हक छिनेगा, न इससे हमारे देशों की आर्थिक प्रगति को नुकसान होगा, बल्कि इससे कुछ लोगों में सीमित अनुत्पादक निजी संपत्ति सार्वजनिक लोकतांत्रिक भविष्य में इस्तेमाल हो सकेगी। इस चिट्ठी में यह भी लिखा गया है कि अतिसंपन्न लोग दान देकर, या समाज सेवा करके ऐसा समाधान नहीं पा सकते, अलग-अलग लोगों की अलग-अलग कोशिशें आज की दानवाकार असमानता को कम नहीं कर सकती। हमारी सरकारों और हमारे नेताओं को पहल करने की जरूरत है, और हम एक बार फिर आपके पास यह अर्जेंट अनुरोध लेकर आए हैं कि आप कार्रवाई करें, अपने राष्ट्रीय स्तर पर भी, और एक अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी। चिट्ठी में आगे लिखा गया है कि इसमें होने वाली देर का हर पल मौजूदा खतरनाक आर्थिक यथास्थिति को और मजबूत करते चल रहा है, और लोकतांत्रिक मूल्यों को खतरे में डाल रहा है, और इस नौबत को हमारे बच्चों और उनके बच्चों तक जारी रख रहा है। इन सैकड़ों अरब-खरबपतियों ने लिखा है- कि हम न सिर्फ अपने पर अधिक टैक्स चाहते हैं, बल्कि हम यह मानते हैं कि हम पर अधिक टैक्स लगाया ही जाना चाहिए। हम ऐसे देशों में रहने पर गर्व महसूस करेंगे जहां हमारे निर्वाचित नेता ऐसा करके असमानता को पाटेंगे, और पूरे समाज का बेहतर भविष्य बनाएंगे।
सैकड़़ों अतिसंपन्न अरब-खरबपतियों की इस चिट्ठी में लिखा गया है- हमें भयानक असमानता को दूर करने के लिए अधिक टैक्स देकर फख्र हासिल होगा। हम अधिक टैक्स देकर दुनिया के कामकाजी लोगों की जिंदगी के खर्च को घटाना चाहेंगे। हम अगली तमाम पीढ़ी को बेहतर शिक्षा देने के लिए भी अधिक टैक्स देना चाहते हैं। हम इसलिए भी अधिक भुगतान करना चाहते हैं कि दुनिया में इलाज अधिक आसानी से हासिल हो, दुनिया का बेहतर ढांचा बन सके, पर्यावरण को बचाए रखकर विकास किया जा सके।
जैसा कि इस चिट्ठी से पता लगता है कि इस ढाई सौ से अधिक लोगों के दस्तखत हैं, और इसमें दुनिया की सबसे चर्चित कंपनियों, और सबसे चर्चित अतिसंपन्न लोगों के नाम हैं। इनमें से कुछ लोगों ने यह कहा है कि उन्हें विरासत में दौलत का यह भंडार मिला है, और उसकी शक्ल में उन्हें असीमित ताकत मिली है, जिसके लिए उन्होंने खुद कोई मेहनत नहीं की है। ऐसी एक ऑस्ट्रेलियन महिला ने कहा कि उन्हें अपनी दादी की वसीयत से अरबों-खरबों की दौलत मिल गई, और सरकार उस पर कोई टैक्स लगाना नहीं चाहती है। मार्लिन एंजलहॉर्न नाम की यह महिला स्विटजरलैंड के दाओस में वल्र्ड इकॉनॉमिक फोरम के आयोजन के दौरान अतिसंपन्न लोगों के एक समूह में शामिल होकर अधिक टैक्स की मांग करते हुए विरोध-प्रदर्शन करने वाली हैं। ऑक्सफैम नाम की संस्था की एक रिपोर्ट में बताया गया है-दुनिया में दो हजार से अधिक खरबपति हैं, जो कि 2020 के मुकाबले अभी और संपन्न हो गए हैं। दूसरी तरफ पूरी दुनिया में पांच अरब से अधिक लोग पहले से गरीब हो गए हैं।
भारत जैसी सोच को देखें तो यह कल्पना भी नहीं हो सकती कि ऐसे ढाई सौ अतिसंपन्न लोगों में हिन्दुस्तान के भी कोई होंगे। यहां के कारोबारी, उद्योगपति और व्यापारी, टैक्स सलाहकारों की मदद लेकर सरकार से एक-एक बूंद रियायत निचोड़ लेना चाहते हैं, और उसके बाद फिर समाज सेवा के नाम पर पहले से तैयार रखे गए कैमरों के सामने वे छोटा-मोटा दान करते हैं। दो-चार ऐसे बड़े कारोबारी भी हैं जिन्होंने अपनी दौलत के आधे हिस्से को समाज के लिए देना तय किया है, लेकिन वे भी अपनी पसंद के दायरों में समाज सेवा करते हैं, और सरकार के रास्ते आम और गरीब जनता का एक व्यापक फायदा उससे नहीं हो पाता है। यह एक अलग बात है कि सरकार के माध्यम से समाज सेवा करना लोगों को इसलिए जायज नहीं लगता है कि सरकारी ढांचे में दान और समाज सेवा का भी एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार में निकल जाता है, भारत जैसे देश में यह भी एक वजह है कि सचमुच के ही समाजसेवी लोग भी अपने ट्रस्ट बनाकर समाज सेवा करते हैं, बजाय सरकार को दान देने के। हिन्दुस्तान में लोग सरकार को अधिक टैक्स भी देना नहीं चाहते कि उसका एक बड़ा हिस्सा भी भ्रष्टाचार में ही खत्म हो जाएगा। लेकिन हिन्दुस्तानी अतिसंपन्न तबके को देखें, तो उसमें अपने पर टैक्स बढ़ाने की मांग करने वाले नहीं दिखेंगे। लोग कोई भी त्याग उसी व्यवस्था के तहत करना चाहते हैं, जो भ्रष्टाचार और गबन में डूबी हुई न हो। इसलिए भारत के संदर्भ में इस बारे में अधिक बात मुमकिन नहीं दिखती है, लेकिन दुनिया के जिन देशों में सरकारें ईमानदार हैं, वहां पर अगर अतिसंपन्न लोगों पर टैक्स बढ़ाकर समाज में आर्थिक समानता लाई जा सकती है, तो वह एक बड़ी बात होगी। और संपन्न लोगों की इस मिसाल को हिन्दुस्तान के उस दर्जे के लोगों को देखना चाहिए, और उससे कुछ सीखना चाहिए। सरकार पर भरोसा न हो तो खुद के ट्रस्ट बनाकर, टैक्स-छूट पाने से परे भी गरीबों का भला करना चाहिए। आर्थिक असमानता को दूर करना पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के लिए भी एक बेहतर नौबत रहती है, और कारोबारी दुनिया को भी उसे समझना चाहिए।
भारत के पड़ोस में एकाएक देशों के बीच तनातनी बढ़ी हुई दिख रही है जिससे हिन्दुस्तान सीधे तो प्रभावित नहीं हो रहा है, लेकिन यह जटिलता अगर और बढ़ती है तो हिन्दुस्तान के लिए कुछ गंभीर सोच-विचार की नौबत आ खड़ी होगी। ईरान अभी अपने से लगे हुए तीन देशों पर चुनिंदा ठिकानों पर हमले किए, और उसे आतंकियों पर हमला करार दिया जो कि ईरान के भीतर आतंकी हमले कर रहे थे। पाकिस्तान में उसने बलूचिस्तान में एक ऐसे आतंकी समूह पर ड्रोन और मिसाइल से हमला किया जिस पर उसका शक है कि उसने ईरानी सैनिकों को मारा है, और अभी दिसंबर में ही एक ईरानी थाने पर आतंकी हमले में 11 पुलिस अधिकारी मारे गए थे। इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हुए ईरान ने बलूचिस्तान में बसे हुए जैश-अल-अदल नाम के इस सुन्नी आतंकी समूह पर हमला किया है। इसके जवाब में आज पाकिस्तान ने ईरान के एक हिस्से में बसे हुए ऐसे बलूच लोगों पर हमला किया है जिन पर पाकिस्तानी सीमा के भीतर आतंकी हमले करने का आरोप है। दोनों ही देशों में तनातनी इतनी बढ़ी है कि एक-दूसरे देश से राजदूत वापिस बुला लिए गए हैं। ईरान ने पाकिस्तान के अलावा सीरिया और इराक में भी चुनिंदा ठिकानों को फौजी निशाना बनाया है, और ईरान का यह कहना है कि इन दोनों जगहों पर बसे हुए आतंकी ईरान में आतंकी हमले कर रहे थे। इस पूरी तनातनी को इस बात से भी जोडक़र देखने की जरूरत है कि अभी ईरान के पास के फिलीस्तीन-इजराइल के बीच जंग सी छिड़ी हुई है, और ऐसे आरोप हैं कि फिलीस्तीन पर काबू वाले हमास नाम के हमलावर संगठन को ईरान से मदद मिलती है, और इसी मदद से वह इजराइल से लड़ रहा है, यह एक अलग बात है कि इन दोनों की फौजी ताकत का कोई मुकाबला नहीं है, और इजराइल की बहुत मजबूत फौज के मुकाबले कुछ हजार हमास लड़ाके ही मामूली और हाथ से बनाए हुए हथियारों से लड़ रहे हैं। इसी के साथ-साथ एक तीसरे मोर्चे को भी समझने की जरूरत है जिसमें यमन में बसे हुए हूथी नाम के हथियारबंद आतंकी संगठन ने उसके पास से गुजरने वाले मालवाहक समुद्री जहाजों पर छांट-छांटकर हमले करना जारी रखा है जो कि उसके हिसाब से इजराइल से जुड़े हुए कारोबारी जहाज हैं, और इन हमलों को रोकने के लिए अमरीकी और ब्रिटेन की फौज ने यमन में हूथी अड्डों पर अभी हवाई हमले किए हैं, और इनसे यह खतरा भी खड़ा हो रहा है कि इजराइल-फिलीस्तीन संघर्ष इस इलाके में कुछ दूसरे देशों को भी खींच सकता है।
इस पूरे मामले को बारीकी से देखें, तो ईरान अमरीका का जानी-दुश्मन है, और उसे कुछ या अधिक हद तक रूस और चीन का समर्थन हासिल है क्योंकि इन दोनों बड़े देशों की अमरीका के साथ हमेशा ही कई किस्म की तनातनी चलती रहती है। ईरान और आसपास के कुछ दूसरे मुस्लिम और इस्लामिक देशों में एक धार्मिक तनातनी भी बनी रहती है क्योंकि ईरान एक शियाबहुल इस्लामी देश है, और अड़ोस-पड़ोस के दूसरे देश सुन्नी मुस्लिम देश हैं। फिर अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, पाकिस्तान जैसे कई देशों में अमरीका की सीधी फौजी दिलचस्पी है, और कुछ देशों में अमरीका के फौजी ठिकाने भी है। चीन और रूस भी इन देशों में तरह-तरह की दखल रखते हैं। इस तरह आज जितने मोर्चे इस इलाके में खुल गए हैं, उसमें दुनिया की तीन सबसे बड़ी फौजी ताकतें कुछ या अधिक हद तक उलझ गई हैं, और इसे कम जटिल नहीं समझना चाहिए। हम खासकर भारत जैसे देश को लेकर यह बात करना चाहते हैं क्योंकि उसके अमरीका और इजराइल से भी बड़े गहरे रिश्ते हैं, रूस से भी भारत ने अपने संबंध यूक्रेन की जंग के बावजूद सामान्य बनाकर रखे हैं, और पाकिस्तान के खिलाफ ईरान की फौजी कार्रवाई होते ही भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर ईरान पहुंच भी गए हैं, और ईरानी मिसाइल हमले का समर्थन किया है। अब यह पूरा मामला अभी तक इन तमाम फौजी मोर्चों में शामिल न रहने वाले हिन्दुस्तान के लिए भी कुछ जटिल नौबत है, क्योंकि भारत पाकिस्तान को आतंकियों की पनाहगाह कहते आया है, और अगर ईरान यही बात कहते हुए पाकिस्तान के कुछ ठिकानों पर हमला कर रहा है, तो यह एक किस्म से भारत को माकूल बैठने वाली बात है। मध्य-पूर्व के पूरे इलाके में आज तनाव जिस तरह फैल रहा है, और ईरान के एक साथ तीन पड़ोसी देशों पर हमले मामूली संयोग नहीं है, बल्कि इसे यमन में हूथी ठिकानों पर हुए पश्चिमी फौजी हमले की रौशनी में भी देखा जाना चाहिए। अभी एक पहलू को हम नहीं छू रहे हैं, इजराइल के बगल में लेबनान के हिजबुल्ला नाम के एक संगठन पर भी इजराइल का निशाना है, और फिलीस्तीन के हमदर्द हिजबुल्ला के खिलाफ इजराइल एक फौजी मोर्चा खोल सकता है।
ऐसी तमाम जटिलताओं की कोई आसान व्याख्या अभी संभव नहीं है। दूसरी तरफ यह बात जाहिर है कि ईरान और इजराइल लंबे समय से एक-दूसरे के खात्मे की हसरत पाले हुए हैं। ऐसा भी माना जा रहा है कि इजराइल पहला मौका मिलते ही ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमला करना चाहेगा, ताकि ईरान इजराइल के अस्तित्व पर एक खतरा बना हुआ न रहे। फिर इस नौबत को रूस और यूक्रेन में चल रही जंग से भी जोडक़र देखने की जरूरत है जो कि कुछ दिनों या कुछ हफ्तों में खत्म हो जाने वाली मानी जा रही थी, और उसे चलते हुए एक बरस से अधिक कब का हो चुका है। उस जंग में यूक्रेन के कंधों पर बंदूक धरकर तमाम नाटो देश जिस तरह रूस को खोखला करने में लगे हुए हैं, उस प्रॉक्सीवॉर को समझने की जरूरत है। कुछ उसी तरह का प्रॉक्सीवॉर हमास, हिजबुल्ला और हूथी जैसे संगठनों की फौजी मदद करके ईरान सरीखे कुछ देश चला रहे हैं, और यह इजराइल की फौजी और आर्थिक ताकत को उलझाने का एक काम है। मध्य-पूर्व का यह इलाका अमरीका-इजराइल गठबंधन को उलझाकर उसे कमजोर करने का एक काम भी हो सकता है, जिस तरह यूक्रेन की मदद करके नाटो देश रूस को खोखला कर रहे हैं। इन तमाम मोर्चों पर अमरीका ने अपने फौजियों को अलग रखा है ताकि कहीं से ताबूत घर न लौटें। लेकिन फौजी और दीगर मदद करके गाजा को भी अमरीका एक कब्रिस्तान में बदल चुका है, उसे दुनिया का सबसे बड़ा मलबा भी बना चुका है, और हिटलर के जुल्मों के बाद शायद गाजा जुल्म का सबसे बड़ा शिकार दिख रहा है।
दुनिया के लोगों को जंग और हमलों की, आतंकी कारनामों की जटिलताओं को ठीक से समझना होगा, इन बातों को टुकड़़ा-टुकड़ा समझना मुश्किल होगा, और इनमें से हर जंग को दुनिया के कारोबारी मुकाबलों से भी जोडक़र देखना होगा।
अभी भारत में खबरों और सोशल मीडिया का एक हिस्सा एक ऐसे विमान में मुसाफिर के बनाए गए वीडियो पर है जिसमें करीब 12 घंटे लेट हो चुकी उड़ान के थके हुए मुसाफिरों में से एक ने और अधिक देर की घोषणा करते हुए पायलट पर हमला कर दिया था। कुछ लोगों का कहना है कि मुसाफिर इस असाधारण देरी से थके हुए थे जिसमें उन्हें घंटों विमान के भीतर बैठना पड़ा था। देश के लोग इस वीडियो के साथ तरह-तरह की बातें लिख रहे हैं जिनमें विमान सेवाओं के खराब होने की बात भी है। जिस विमान कंपनी की उड़ान में यह घटना हुई है वह कंपनी आमतौर पर अपनी उड़ानों के समय पर चलने के लिए जानी जाती है। लेकिन इन दिनों मौसम की वजह से पूरे देश में सैकड़ों उड़ानें देर से चल रही हैं, कई लोग प्लेन छोडक़र ट्रेन से जाना चाह रहे हैं, तो रेलगाडिय़ां रद्द हैं, और सडक़ के रास्ते जा रहे हैं तो धुंध और कोहरे में बहुत से एक्सीडेंट भी हो रहे हैं। कुछ लोगों ने यह सलाह भी सोशल मीडिया पर दी है कि जब तक टालना मुमकिन हो, इस मौसम में सफर न किया जाए। लोग पूरे-पूरे दिन एयरपोर्ट पर फंसे हैं, रवाना किसी शहर के लिए होते हैं, विमान को किसी दूसरे शहर पर उतरना पड़ता है, और यह सलाह सचमुच मायने रखती है कि अगर टाला जा सके तो सफर न करें, लोग घर से निकलते तो उर्दू के सफर (यात्रा) पर हैं, लेकिन उन्हें अंग्रेजी का सफर (यातना झेलना) करना पड़ता है।
अब उड़ानों में देर तो ठीक है, लेकिन हिन्दुस्तान में पिछले कुछ बरसों में देश भर में हर दिन दर्जनों रेलगाडिय़ां रद्द हो रही हैं, और यह बात कोहरे के मौसम की वजह से नहीं है, यह पिछले कुछ बरसों से लगातार चल रहा है। हमारे पास अभी आंकड़े नहीं हैं, लेकिन हजारों रेलगाडिय़ां रद्द हो रही हैं, और मजे की बात यह है कि जो चल रही हैं, वे भी घंटों देर से चल रही हैं, दिन की गाड़ी रात में आती है, और रात की गाड़ी दिन में। फिर हर मुसाफिर से अधिक से अधिक उगाही कीसरकारी और निजी साजिश के चलते स्टेशन पर लेट ट्रेन के मुसाफिरों को वेटिंग हॉल में बैठने का हर घंटे भुगतान करना पड़ता है, उन्हें छोडऩे आए लोगों को अतिरिक्त प्लेटफॉर्म टिकट लेनी पड़ती है। अब अगर ट्रेन के कोई मुसाफिर बौखलाकर ट्रेन के ड्राइवर या गार्ड पर हमला करने लगें, तो क्या होगा? एयरपोर्ट के मुकाबले स्टेशनों की हालत अधिक तकलीफदेह रहती है, और मौसम की सबसे बुरी मार प्लेटफॉर्म पर सीधे पड़ती है। ऐसे में एक प्लेन के मुकाबले एक ट्रेन में कई गुना अधिक मुसाफिर रहते हैं, और हमले के ऐसे खतरे और अधिक हो सकते हैं, लेकिन होते नहीं हैं। ऐसा शायद इसलिए है कि हवाई मुसाफिरों की संपन्नता उन्हें रेलगाड़ी के मुसाफिरों के मुकाबले अधिक आक्रामक बना देती हैं, उनकी ताकत भी अधिक रहती है, और मुसीबत पर बचने की उनकी क्षमता भी अधिक रहती है। इस वजह से हवाई जहाजों में ऐसी घटनाएं अधिक दिखाई और सुनाई पड़ती हैं, और ट्रेन के गरीब मुसाफिर जानते हैं कि किसी मुसीबत की नौबत में उनके लिए बचना मुश्किल रहेगा।
दूसरी तरफ हवाई मुसाफिरों में गिनती कम रहने पर भी उसके लोग अधिक बड़े ओहदों पर बैठे हुए रहते हैं, वे अधिक ताकतवर रहते हैं, और उन्हें आम जुबान में अधिक महत्वपूर्ण भी कहा जाता है। इसलिए दर्जनों ट्रेनें रद्द होने की खबर जितनी बड़ी नहीं बनती, उतनी बड़ी खबर एक उड़ान के रद्द होने से बन जाती है, वहां एयरपोर्ट से वीडियो और तस्वीरें भेजने वाले लोग मीडिया में असर रखने वाले रहते हैं, और उनकी तकलीफ मीडिया के सिर चढक़र बोलती है। एक उड़ान की गड़बड़ी से ऐसा माहौल बनने लगता है कि पूरा देश गड़बड़ा गया है, दूसरी तरफ ट्रेनों में डिब्बे घटते जा रहे हैं, ट्रेनें रद्द होती जा रही हैं, उनका कोई वक्त नहीं रह गया है, टिकटों सहित और किस्म की चीजों के रेट बढ़ते जा रहे हैं, लेकिन मीडिया के लिए एयरपोर्ट और उड़ान अधिक बड़ी खबरें रहती हैं। यह दुनिया का रिवाज ही है कि ताकतवर का दर्द अधिक बड़ा रहता है, और बहुत अधिक ताकतवर के मां-बाप गुजरें, तो भी चापलूस लोग अपना सिर मुंडाने लगते हैं। अब मीडिया के कई लोगों को चापलूस शब्द बुरा लग सकता है, लेकिन जब वर्गहित की बात देखें, तो यह समझ आता है कि मीडिया का वर्ग देश के दलित, शोषित, और गरीब तबके के लोग नहीं हैं, उसका वर्ग विज्ञापनदाता तबका है, और उसी के हितों के लिए मीडिया अधिक फिक्रमंद रहता है।
देश के तमाम सांसदों, और विधायकों को जिस तरह मुफ्त में हवाई सफर का हक हासिल है, उसका भी नतीजा है कि देश और प्रदेश की पंचायतों में जिन मुद्दों को उठना चाहिए, उनमें रेलगाडिय़ों के बारे में अधिक बात नहीं होती है। सत्ता पटरियों पर नहीं चलती, सत्ता महज उड़ती है। न निर्वाचित नेता, और न ही बड़े अफसर, इनमें से कोई ट्रेन का सफर नहीं करते, यही वजह है कि हजारों रेलगाडिय़ां रद्द होने पर भी देश में यह मुद्दा नहीं है, क्योंकि जिस मीडिया को मुद्दे तय करना होता है, वह खुद भी ट्रेन से नहीं चलता, उसके नामी-गिरामी से लेकर आम लोगों तक, तमाम लोग प्लेन से चलते हैं, और उनके लिए वहां का सुख सुख है, और वहां का दुख दुख। इस नौबत को एक दूसरे तरीके से भी देखने की जरूरत है कि देश की संसद और विधानसभाओं में धीरे-धीरे करके जिस तरह करोड़पति और अरबपति भरते चले गए हैं, उसकी वजह से भी अब गरीबों और मध्यमवर्ग के लोगों की दिक्कतों की समझ सदन और विधानसभा में घटती चली गई है। लोकतंत्र का अब यही तौर-तरीका बच गया है, क्योंकि कम संपन्न उम्मीदवारों का टिकट पाना कम हो गया है, जीत पाना तो और भी कम हो गया है। इस हाल में आम लोगों की दिक्कतें कहां तक पहुंचेंगीं, और क्या वे कभी सुलझ भी पाएंगी, यह अंदाज लगा पाना मुश्किल है। फिलहाल उडऩे वाले लोग हवा में धूल होने की शिकायत करते रहें, और पटरियों पर रेंगने वाले बेजुबान लोग चुपचाप मीडिया की बेरुखी देखते रहें।
छत्तीसगढ़ के जांजगीर जिले में दो नाबालिग स्कूली लडक़ों का कत्ल करने वाले तीन नाबालिग सहपाठियों, और दो बालिग लोगों को गिरफ्तार किया गया है। एक क्राइम सीरियल देखकर इनमें से एक नाबालिग ने कत्ल की यह साजिश रची थी, जिसमें कुछ और लोगों को साथ लेकर उसने स्कूल के अपने ही सहपाठियों को मार डाला, और लाश को एक नहर में छुपा दिया। यह पता लगा है कि एक मृतक छात्र का स्कूल की ही एक नाबालिग छात्रा से प्रेम था। और हत्यारा लडक़ा भी उसी लडक़ी को चाहता था। ऐसे में हत्यारे ने एक रात मृतक को प्रेमिका से मिलवाने के नाम पर बुलवाया, और अपने दो नाबालिग, और दो बालिग साथियों के साथ वहां हत्या के लिए तैयार रहा। मृतक छात्र अपने एक साथी के साथ वहां पहुंच गया, इसलिए इन दोनों को कत्ल करके नहर में लाशों को छुपा दिया गया, और उनकी मोटरसाइकिल दूर फेंक दी गई। पुलिस ने कत्ल करने के सभी सामानों सहित इन पांच लोगों को पकड़ लिया है। नहर में पानी छोड़ा गया था जिसकी वजह से उसमें छिपाई गई लाशें बहकर सामने आईं, और इन गायब लडक़ों का पता लगा।
अब यह एकतरफा मोहब्बत अधिक भयानक इसलिए हो जाती है कि इसमें हत्यारे लडक़े भी नाबालिग स्कूली सहपाठी ही हैं। हिन्दुस्तान के आम कस्बाई माहौल में जहां लडक़े-लड़कियों के ठीक से मिलने का भी माहौल नहीं रहता है, वहां लुकाछिपी में होने वाले प्रेमसंबंध, या कि एकतरफा चाहत इस हद तक पहुंच जाए, और अपराध सीरियल से तरीका सीख-समझकर ऐसे भयानक कत्ल किए जाएं, यह इस उम्र के बच्चों के हिसाब से असाधारण खतरे और फिक्र की बात है। इससे इस घटना से परे भी कुछ बुनियादी सवाल खड़े होते हैं कि भारत में किशोर उम्र के बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास का सामाजिक माहौल के साथ तालमेल बिठाना कितना जरूरी है, और उसकी कितनी कमी भी है। यह बात साफ दिखती है कि दुनिया के जिन देशों में किशोरावस्था के लडक़े-लड़कियों को साथ उठने-बैठने की छूट है, वहां न तो इस दर्जे की कोई हिंसा होती, और न ही हिंसा के पहले तक की कुंठा ही होती होगी, जो कि हिन्दुस्तान जैसे देश में समझ नहीं पड़ती है।
दुनिया के किसी भी देश में किशोर-किशोरियों के तन-मन की जरूरतों के मुताबिक अगर उन्हें समय रहते शिक्षा नहीं मिलती है, तो फिर वे पोर्नोग्राफी जैसे क्रूर और हिंसक तरीकों से सेक्स की जानकारी पाते हैं, और क्राइम सीरियल के तरीकों से अपने मन की भड़ास निकालते हैं। जिन लोगों को तथाकथित हिन्दुस्तानी संस्कृति पर गर्व करने से फुर्सत नहीं है, उन्हें यह भी समझना चाहिए कि वेलेंटाइन डे को मातृ-पितृ दिवस मनाने का फतवा देने वाला आसाराम किस तरह अपने भक्त की नाबालिग स्कूली बच्ची के साथ रेप करते पकड़ाया था, और बरसों से कैद काट रहा है। जिन हिन्दुस्तानी बेवकूफों को वेलेंटाइन डे जैसे प्रेम के प्रतीक दिवस से परहेज और नफरत है, उन्हें इस देश में पश्चिमी संस्कृति के आने के सैकड़ों बरस पहले के लिखे गए संस्कृत के श्रंृगार रस के साहित्य को पढऩा चाहिए, और यहां की सामाजिक-धार्मिक संस्कृति के एक सबसे बड़े प्रतीक कृष्ण की प्रेमलीलाओं का वर्णन पढऩा चाहिए, और उन पर सैकड़ों बरस पहले बनी पेंटिंग्स भी देखना चाहिए। जिन जाहिलों को यह लगता है कि हिन्दुस्तान बिना प्रेम के ही एक संस्कृति बन गया, वे ब्रम्हचारी-बलात्कारी धर्मगुरूओं के अतिशुद्धतावादी पाखंड के शिकार हैं, और वे इंसानी जिंदगी को प्रेम से पूरी तरह अलग करके बालिगों के बीच संबंधों को निष्ठुर बना देने पर आमादा रहते हैं। मोहब्बत से ऐसी नफरत के बाद तो लगता है कि हिन्दुस्तानियों की जो पीढिय़ां बढ़ी हैं, वे औरत-मर्द एक-दूसरे को महज सेक्स मशीन की तरह इस्तेमाल करते थे, करते हैं, और उसमें प्रेम की कोई जगह नहीं है। दूसरी तरफ यह देश पोर्नोग्राफी से पटा हुआ है, और कोई दिन ऐस नहीं गुजरता जब देश में कोई न कोई व्यक्ति बच्चों की पोर्नोग्राफी को पोस्ट करते हुए गिरफ्तार न होता हो। दुनिया में निगरानी रखने वाली एजेंसियां वयस्क लोगों की पोर्नोग्राफी पर नजर नहीं रखती हैं, और सिर्फ बच्चों की पोर्नोग्राफी को एक अंतरराष्ट्रीय निगरानी के तहत पकड़ती हैं, इसलिए हिन्दुस्तान में हर बरस महज कुछ सौ लोग इसमें पकड़ाते हैं। ऐसी ही निगरानी अगर वयस्क पोर्नोग्राफी की होने लगे, तो हर बरस दसियों लाख लोग पकड़ाएंगे। कुल मिलाकर हमारा तजुर्बा यह है कि इस देश की कभी न हुई तथाकथित संस्कृति के झंडाबरदार देश के बच्चों को उनके अपने तन-मन, सामाजिक और पारिवारिक संबंध, और अच्छे और बुरे स्पर्श जैसी तमाम जानकारियों से दूर रखना चाहते हैं क्योंकि उनकी नजरों में तन-मन की शिक्षा पश्चिम के एक बुरे असर वाली सेक्स-शिक्षा है। यह नौबत किशोरावस्था के बच्चों को बाजार में मौजूद सबसे क्रूर और हिंसक, सबसे अश्लील और भौंडे पोर्नोग्राफी के हवाले कर देती है, और प्रेम की वैसी ही बच गई कल्पना का नतीजा यह है कि स्कूली बच्चे कातिलों का गिरोह बनकर अपने ही सहपाठी को मार रहे हैं, मानो इससे हत्यारे लडक़े को उसकी पसंदीदा लडक़ी का प्रेम हासिल हो जाएगा।
चूंकि पश्चिमी संस्कृति का लेबल लगाकर इस देश में किशोरावस्था की एक बड़ी जरूरत, तन-मन की शिक्षा को खारिज कर दिया गया है, इसलिए यह एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा हो गया है। देश की पार्टियां सेक्स-शिक्षा को किसी दूसरे नाम से भी छूने से डरती हैं कि मतदाताओं के जिस वर्ग को सेक्स नाम के शब्द से भी दूर रखा गया है, वह बिदक न जाए। आज हालत यह है कि परिवार के भीतर के लोग अपने ही बच्चों से बलात्कार कर रहे हैं, कल ही एक खबर थी कि चार बरस की एक बच्ची से उसके ही नाबालिग भाईयों ने बलात्कार किया, हिन्दुस्तान को ऐसी तमाम घटनाएं मंजूर हैं, लेकिन उसे बच्चों को परिपक्व बनाना मंजूर नहीं है। आज विकसित दुनिया में जिस उम्र के बच्चे अपने तन-मन की जरूरतों को समझकर जिंदगी में कामयाबी की तरफ बढ़ते हैं, उस उम्र में हिन्दुस्तानी बच्चे कुंठा और तनाव में बड़े होने का संघर्ष करते हैं। हिन्दुस्तान का समाज अपने बच्चों के व्यक्तित्व विकास का सबसे बड़ा दुश्मन हो गया है। और एक दिक्कत यह भी है कि भारतीय संस्कृति का झंडा और नारा बुलंद करने वाले जो संपन्न और ताकतवर नेता हैं, उनके अपने बच्चे महंगे स्कूलों में पढ़ते हैं जहां उन्हें परामर्शदाता भी हासिल रहते हैं, और उनकी मानसिक उलझनों का हल निकलते रहता है। लेकिन संस्कृति, नैतिकता, और शुद्धता के पैमाने आम लोगों की ऐसी भीड़ पर लादे जाते हैं जिन्हें एक काल्पनिक भारतीय संस्कृति के गौरव में जीने की अफीम लगातार चटाई जाती है, और वे उस गौरव से परे अपने बच्चों का भला-बुरा भी नहीं समझ पाते। और ऐसा भी नहीं कि किशोरावस्था की जरूरतों के पूरे न होने से सिर्फ उस दौर में बच्चों का नुकसान होता है। दरअसल इस उम्र में जब व्यक्तित्व विकास कुंठाओं से भरा रहता है, तो फिर ऐसे बच्चे आगे जाकर उत्पादकता की अपनी पूरी संभावनाओं तक नहीं पहुंच पाते, और औसत दर्जे के रह जाने का खतरा अधिक रहता है।
कर्नाटक में दुकानों के अंग्रेजी बोर्ड के खिलाफ एक आंदोलन शुरू हुआ है जिसमें कहा जा रहा है कि नाम कन्नड़ में लिखे जाएं। दक्षिण भारत में तमिलनाडु में भी इस किस्म का एक आंदोलन पहले छिड़ चुका है जिसमें हिन्दी के खिलाफ उग्र भावनाएं सामने आती थीं, लेकिन कर्नाटक तो देश में अंतरराष्ट्रीय कारोबार का एक शहर है जहां बड़ी-बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनियां बसी हुई हैं, और देश और दुनिया से लोगों का यहां आना-जाना लगे रहता है। कर्नाटक कारोबारियों के अलावा दूसरे प्रदेशों से आने वाले लाखों छात्र-छात्राओं का ठिकाना भी है, और हर बरस शायद दसियों लाख पर्यटक कर्नाटक पहुंचते होंगे। खुद दक्षिण भारत में हर राज्य की अपनी एक मजबूत क्षेत्रीय भाषा है, उसकी अपनी लिपि है, और दक्षिण भारत के राज्य भी एक-दूसरे की भाषा में काम नहीं करते हैं। ऐसे में कर्नाटक जैसे एक विकसित प्रदेश, और बाहरी लोगों की आवाजाही के केन्द्र में अगर ऐसा भाषा विवाद शुरू हो रहा है जिससे स्थानीय कन्नड़ भाषियों का कोई नफा नहीं दिख रहा, बल्कि प्रदेश की अर्थव्यवस्था का इससे नुकसान भी हो सकता है, तो इस बारे में कर्नाटक का भला चाहने वाले लोगों को सोचना चाहिए।
यह आंदोलन अभी राजधानी बेंगलुरू से शुरू हुआ है, लेकिन प्रदेश में भाषाई क्षेत्रवाद का एक पुराना इतिहास रहा है। जो राज्य कामयाब और संपन्न रहते हैं, वे अपनी भाषा में काम करने की क्षमता भी विकसित कर लेते हैं, और स्थानीय कारोबार में उसका भरपूर इस्तेमाल भी होता है। कर्नाटक का एक इतिहास बताता है कि यहां अंग्रेजी से पहले हिन्दी, तमिल, उर्दू, और संस्कृत जैसी भाषाओं का भी विरोध होते रहा है, और बेंगलुरू मेट्रो से हिन्दी हटाने का आंदोलन भी हो चुका है। हालत यह है कि जिस अंग्रेजी भाषा से कर्नाटक के लाखों बेहतर रोजगार जुड़े हुए हैं, उस भाषा का भी स्थानीय कन्नड़वादी विरोध कर रहे हैं।
देश में जहां कहीं भी उग्र क्षेत्रवाद होता है, वह उस इलाके की विकास की संभावनाओं को घटा देता है। और कई मामलों में ऐसे उग्र क्षेत्रवाद से राजनीतिक दलों को चुनावी फायदा मिलता है, लेकिन कहीं-कहीं पर नुकसान भी मिलता है। अभी छत्तीसगढ़ में निपटे विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की करारी शिकस्त के विश्लेषण में बहुत से लोगों का यह भी अंदाज है कि पिछले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सरकार के स्तर पर जितना घनघोर छत्तीसगढ़वाद खड़ा किया था, वह सांस्कृतिक रूप से छत्तीसगढ़ के सिर्फ मैदानी इलाकों की संस्कृति थी, और राज्य के दक्षिण और उत्तर के आदिवासी इलाकों को वह छू भी नहीं गई, जहां कांग्रेस की करारी शिकस्त हुई। जिन मैदानी इलाकों में यह छत्तीसगढ़ी संस्कृति थी, वहां भी यह संस्कृति जिन जातियों पर केन्द्रित थी, उससे परे के लोग कांग्रेस से बिदक गए, और चुनाव में उसका नुकसान हुआ। यह सिर्फ लोगों का विश्लेषण है, क्योंकि वोट डालते हुए मतदाता की क्या सोच रहती है, उसका तो कोई रिकॉर्ड दर्ज होता नहीं है।
कर्नाटक में कन्नड़ भाषा पढ़ाई से लेकर सरकारी और अदालती कामकाज तक एक मजबूत औजार है, और इन जगहों पर कन्नड़ के खिलाफ कोई कुछ सोच भी नहीं सकते। दूसरी तरफ सडक़ों और दीवारों के बोर्ड, मेट्रो स्टेशनों के नाम, इन सबका इस्तेमाल स्थानीय लोगों से परे बाहर से आए हुए, या आने-जाने वाले गैरकन्नड़भाषी लोग भी करते हैं, और यहां पर अंग्रेजी का विरोध इस प्रदेश के ही व्यापक और दीर्घकालीन हितों के खिलाफ जा सकता है। लोगों को यह भी समझना चाहिए कि धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता की तरह राष्ट्रवाद और क्षेत्रवाद अपनी आक्रामकता को भी बढ़ाते चलते हैं, और नए-नए निशाने भी ढूंढते रहते हैं। हिंसा की भूख लगातार बढ़ती रहती है, और उसे नए-नए मुद्दों की तलाश रहती है। यह बात हम उन तमाम देशों में देखते हैं जहां पर धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता का बोलबाला रहता है। जब कभी लोकतंत्र की व्यापक समझ, और किसी देश-प्रदेश या समाज की व्यापक बेहतरी की सोच पर कोई वाद हावी हो जाता है, तो फिर संभावनाएं धरी रह जाती हैं, और आशंकाएं मंडराने लगती हैं। 21वीं सदी में पहुंचने के बाद अगर कर्नाटक जैसे विकसित, कामयाब, और संपन्न राज्य में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय आवाजाही की जरूरतों को अनदेखा करते हुए अगर सार्वजनिक जगहों पर बोर्ड और नाम कन्नड़ में करने की एक जिद और धुन लोगों पर सवार हुई है, तो यह अलोकतांत्रिक और आक्रामक क्षेत्रवाद है, और इसका नुकसान सबसे अधिक उसी क्षेत्र को होगा। दुनिया में वही देश सबसे अधिक विकास करते हैं, जो कि दुनिया भर की संस्कृतियों के साथ अलग-अलग देशों से आए हुए लोगों का स्वागत करते हैं, धर्म और नस्ल को बराबरी का दर्जा देते हैं, तमाम लोगों को बराबरी की संभावनाएं देते हैं। अमरीका इसकी एक बेहतरीन मिसाल है जिसे एक ऐसा मेल्टिंग-पॉट कहा जाता है जिसमें अलग-अलग देशों और संस्कृतियों से आई हुई धातुएं पिघलकर एक मिश्रित धातु बन जाती हैं, और देश को एक असाधारण विकास मुहैया कराती हैं।
दक्षिण भारत के अलग-अलग राज्यों में समय-समय पर उठने वाले क्षेत्रीय मुद्दों के पीछे भारत में उत्तर और दक्षिण के बीच का एक अघोषित विभाजन भी है, और दक्षिण को हमेशा यह लगता है कि केन्द्र सरकार उससे जो टैक्स वसूलती है, उसे पिछड़े राज्यों को देने के नाम पर उत्तर के राज्यों को अनुपातहीन तरीके से दिया जाता है। मतलब यह कि दक्षिण मेहनत करके कमाई करता है, और उस पर जो केन्द्रीय टैक्स दिया जाता है, उसका इस्तेमाल केन्द्र सरकार दूसरे पिछड़े राज्यों को बराबरी पर लाने के लिए करती है। अब अगले कुछ बरसों में देश में संसदीय सीटों का जो डी-लिमिटेशन होना है, उसमें भी आज दक्षिण को आशंका है कि उसकी सीटें घट सकती हैं, क्योंकि उसने अपनी आबादी काबू में रखी है, और दूसरी तरफ उत्तर के लापरवाह राज्यों की सीटें बढ़ सकती हैं, क्योंकि वहां पर आबादी अंधाधुंध बढ़ी है। ऐसी भावनाओं को लेकर हिन्दी का विरोध तो दक्षिण भारत में होते रहता था, लेकिन कर्नाटक सरीखे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संबंधों वाले राज्य में सार्वजनिक जगहों पर नामों में अंग्रेजी का विरोध पूरी तरह उग्र क्षेत्रवाद का नतीजा है, जो कि अलग-अलग कई किस्म की शक्लों में देश में खड़ा हो सकता है। देश को एक रखना एक बड़ी जिम्मेदारी रहती है, आज कर्नाटक को बाकी देश के साथ बनाए रखना, पता नहीं कौन कर पाएंगे।
अभी कुछ दिन पहले हमने एक कामयाब कारोबारी महिला के बारे में इसी जगह लिखा था जिसने अपने चार बरस के बच्चे का कत्ल कर दिया था। अब पुलिस पूछताछ में जब और बातें सामने आई हैं तो पता लग रहा है कि पति के साथ उसकी तनातनी चल रही थी, और अदालत में बच्चे को पाने के लिए दोनों के बीच मामला चल रहा था, इस बीच पति को अदालत ने हर कुछ दिनों के बाद बेटे से मिलने की इजाजत दी थी लेकिन पत्नी उसे मिलने नहीं दे रही थी कि बाप का बच्चे पर बुरा असर पड़ रहा है। इस महिला का लिखा हुआ एक नोट भी बरामद हुआ है जिसमें उसने पति को हिंसक बताते हुए कहा है कि वह बेटे का इस्तेमाल कर रहा है, और वह (पत्नी) अब और बर्दाश्त नहीं कर सकती। उसने पति पर बेटे को बुरे संस्कार सिखाने की तोहमत भी लगाई।
तलाक और बच्चों का हक पाने के मुकदमे बहुत बुरी नौबत पर पहुंचते हैं। तलाक देने के लिए, या न देने के लिए पति-पत्नी की तरफ से सच्चे और झूठे, कई किस्म के ओछे आरोप लगाए जाते हैं, और बहुत से मामलों में तो सार्वजनिक बदनामी से बचने के लिए दो में से कोई एक साथी हथियार डाल देते हैं, और नाजायज समझौता भी मंजूर कर लेते हैं। इसके अलावा बहुत से मामलों में यह भी देखने आता है कि भूतपूर्व पति, या भूतपूर्व पत्नी तलाक की कार्रवाई पूरी हो जाने के बाद भी एक-दूसरे के पीछे लगे रहते हैं, और मानो उनकी जिंदगी का मकसद भूतपूर्व साथी का जीना हराम करना ही हो जाता है। ऐसे में अगर किसी एक साथी को सत्ता या पैसों की ताकत भी हासिल रहती है, तो वे इस हिंसक प्रताडऩा को करते हुए एक मजा भी लेने लगते हैं। इस बात को भी लोग भूल जाते हैं कि ऐसी तमाम गंदी हिंसा का बच्चों पर क्या असर पड़ेगा।
अब शादीशुदा जोड़ों से परे अगर देखें, तो इंसान का मिजाज ही अपने भूतकाल के साथ जीते हुए, अपने को नापसंद लोगों के वर्तमान और भविष्य को तबाह करने का रहता है। कई लोगों के पास इसके लिए वक्त रहता है, कई लोगों के पास वक्त के साथ-साथ ताकत भी रहती है, और कई लोग बेबस और कमजोर रहते हैं जो कि चाहकर भी अपने भूतकाल के संबंधों का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। लोग अपने भूतपूर्व प्रेमी, या प्रेमिका, भूतपूर्व मालिक, या नौकर, भूतपूर्व भागीदार, या दोस्त, किसी भी भूतपूर्व के साथ सामान्य नहीं रह पाते। बहुत से भूतपूर्व मालिक इस बात में लगे रहते हैं कि उनकी नौकरी छोड़े हुए लोगों को कहीं और काम न मिले। कई भूतपूर्व कर्मचारी पिछले मालिक के राज खोलते हुए उसे बदनाम करने, और मुमकिन हो तो बर्बाद करने, को ही अपना मकसद बना लेते हैं। आज सोशल मीडिया के जमाने में इस तरह का हिसाब चुकता करना बहुत आम बात है। किसी एक वक्त अच्छे दोस्त रहे लोग भी अगर आज साथ नहीं रह गए, तो वे एक-दूसरे की बर्बादी चाहते हैं, और अच्छे वक्त में साझा की गई जानकारी का जमकर बेजा इस्तेमाल करने पर उतारू रहते हैं।
इंसान की फितरत मालिकाना हक की अधिक रहती है, जिस तरह लोग जर, जोरू, और जमीन के मालिकाना हक का दावा करते हैं, उसी तरह का दावा लोग किसी भी तरह के संबंधों में करने लगते हैं कि साथ नहीं रह गए, तो दूसरे को रहने ही नहीं देना है। खासकर शादीशुदा रिश्तों में ऐसे स्थाई तनाव का सबसे बुरा असर बच्चों पर पड़ता है जिनके सामने अलग-अलग रह रहे मां-बाप अमूमन एक-दूसरे को खराब मिसाल बताते रहते हैं। किसी वक्त भागीदार रहे लोग भी अलग हो जाने पर एक-दूसरे के धंधे के खिलाफ पुराने राज निकालकर बांटने लगते हैं। जिन लोगों के बीच किसी वक्त मोहब्बत रहती है, उसके खत्म होने पर वे लोग एक-दूसरे का चेहरा भी देखना नहीं चाहते, और ऐसे लोगों के अंतरंग पलों की तस्वीरें, और वैसे वक्त बनाए गए वीडियो इन दिनों रिवेंज-पोर्न, बदला निकालने के लिए फैलाए गए निजी पोर्न की शक्ल में आए दिन फैलते रहते हैं। अब न रह गए भूतपूर्व संबंधों को ऐसी हिंसा और जुर्म तक ले जाना आम बात सरीखी हो गई है। भूतपूर्व के लिए इस्तेमाल होने वाले एक्स शब्द की जगह लोग कुल्हाड़े के लिए इस्तेमाल होने वाले एक्स शब्द में बदल डालते हैं, और किसी भी किस्म के भूतपूर्व संबंधों, और संबंधियों पर कुल्हाड़ा चलाने लगते हैं।
इसके पीछे लोगों की यह खुशफहमी भी जिम्मेदार रहती है कि जिंदगी में सब कुछ स्थाई रहता है। प्रेम, शादी, नौकरी, भागीदारी, या किसी पार्टी से वफादारी, जो लोग इनको जिंदगी भर के लिए स्थाई मानकर चलते हैं, उनमें से बहुत से लोगों को कई बार निराशा हाथ लगती है क्योंकि लगातार बदलने वाली जिंदगी, स्थितियों, और लोगों के बीच किसी भी तरह के संबंध स्थाई या हमेशा के लिए नहीं हो पाते। यही वजह है कि शादी का वायदा करके सेक्स-संबंध बनाने, और फिर मुकर जाने की पुलिस रपट आए दिन होती रहती है। जबकि लोगों का यह मानना बुनियादी तौर पर गलत रहता है कि प्रेमसंबंध अनिवार्य रूप से शादी तक पहुंच ही जाने चाहिए। जिस तरह दोस्तियां टूटती हैं, उसी तरह प्रेमसंबंध भी, टूट सकते हैं, टूटते हैं। ऐसे में बालिगों को देहसंबंध के पहले इतनी समझदारी दिखानी चाहिए कि रिश्ते आगे न बढऩे के खतरे को देखते हुए ही वे देहसंबंध बनाएं। लेकिन होता यह है कि लोग मोहब्बत को शादी मान बैठते हैं, और वायदे, या बिना वायदे, जैसा भी सच्चा-झूठा हो, देह को दांव पर लगा देते हैं। इसके बाद कुछ लोग पुलिस में रपट लिखाते बैठते हैं, तो कुछ लोग रिवेंज-पोर्न पोस्ट करते हुए।
आज यहां इस मुद्दे पर लिखने का मकसद यही है कि लोगों को भविष्य की अपनी कल्पना को गारंटी मानकर अपने वर्तमान को दांव पर नहीं लगाना चाहिए, वरना वे बाकी जिंदगी भूतकाल के मलाल में गुजारने के लायक रह जाते हैं, और यह मलाल बहुत से मामलों में इस हद तक हिंसक हो जाता है, कि एक कामयाब कारोबारी महिला अपने अलग हो रहे पति से चार बरस के बेटे को न मिलने देने के लिए उसका कत्ल ही कर देती है। इससे अधिक तकलीफदेह और क्या हो सकता है?
छत्तीसगढ़ के बस्तर में कांकेर जिले के एक स्थानीय भाजपा नेता की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी, और अब पता लगा है कि इस कत्ल का ठेका उस नगर पंचायत के कांग्रेसी अध्यक्ष ने एक कांग्रेसी पार्षद के साथ मिलकर कुछ लोगों को दिया था, और उन्होंने देसी पिस्तौल खरीदकर यह कत्ल किया। चूंकि बस्तर में बहुत सी नक्सल हत्याएं होती रहती हैं, और पिछले बरसों में भाजपा के कई नेताओं-कार्यकर्ताओं को नक्सलियों ने मारा है, इसलिए पहली नजर में इस मामले को भी नक्सल-हिंसा समझ लिया गया था, लेकिन बस्तर के आईजी ने पोस्टमार्टम के पहले से ही ऐसा शक जताया था कि यह निजी रंजिश से किया गया हमला हो सकता है क्योंकि कुछ बरस पहले भी इस भाजपा नेता पर निजी रंजिश से ऐसा हमला हो चुका था जिसमें वह बच गया था। अब स्थानीय नगर पंचायत के कांग्रेसी अध्यक्ष के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने वाले इस भाजपा नेता से कांग्रेस के अध्यक्ष और पार्षद नाराज चल रहे थे, इसलिए उन्होंने अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के पहले यह कत्ल करवाया।
यह पूरा मामला भयानक इसलिए है कि छोटी सी नगर पंचायत में अगर अविश्वास प्रस्ताव जैसे किसी लोकतांत्रिक कदम के खिलाफ अगर ठेका देकर कत्ल करवाने जैसी हिंसा होती है, तो फिर प्रदेश में तो इससे बड़े-बड़े सैकड़ों राजनीतिक मुकाबले होते हैं। छत्तीसगढ़ जैसे छोटे से राज्य में विधानसभा और लोकसभा की सीटें ही सौ से अधिक हैं, और म्युनिसिपल और पंचायतों की गिनती करें तो वे हजारों में हैं। अब राजनीति में जीत-हार भी लगी रहती है, और किसी भी निर्वाचित संस्था में अविश्वास प्रस्ताव या उस किस्म की दूसरी प्रक्रिया भी रहती है। ऐसे में यह तो एक बहुत बड़ी अलोकतांत्रिक बात भी है कि निर्वाचित संस्थाओं को लेकर ऐसी राजनीतिक हत्या करवाई जाए। छत्तीसगढ़ आमतौर पर शांत रहने वाला प्रदेश है, और यहां दूसरे किस्म के जुर्म के लिए कत्ल जरूर होते रहते हैं, लेकिन राजनीतिक विवाद पर कत्ल के गिने-चुने मामले ही आज तक हुए हैं। इसके पहले का एक चर्चित कत्ल मुख्यमंत्री अजीत जोगी के कार्यकाल का है जिसमें कांग्रेस से अलग होकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में जाने वाले विद्याचरण शुक्ल के साथी और उनकी पार्टी के कोषाध्यक्ष रामावतार जग्गी को दिनदहाड़े खुली सडक़ पर लोगों की आवाजाही के बीच गोली मार दी गई थी, और मारने वाले अजीत जोगी और उनके बेटे अमित जोगी के करीबी लोग थे। बाद में अमित जोगी, और उनके साथ के लोगों पर इस कत्ल का मुकदमा भी चला था, जिसमें जिला अदालत से बाकी सबको सजा हुई थी।
महज सात लाख रूपए खर्च करके अगर एक स्थानीय नेता का इस तरह से खुलेआम कत्ल करवाया जा सकता है, तो यह सिलसिला बहुत भयानक हो सकता है। बहुत से लोगों की एक-दूसरे से कई किस्म की दुश्मनी रहती है, और अगर इतने सस्ते में ठेके पर हत्या हो सकती है, तो बहुत से लोगों के दिमाग में हिंसक खयाल आ सकते हैं। लेकिन जैसा कि इस मामले में पुलिस ने हफ्ते भर के भीतर ही सुबूत जुटाकर लोगों को गिरफ्तार कर लिया है, उसे देखकर भी हिंसा की हसरत रखने वाले लोगों को यह समझना चाहिए कि आज मोबाइल फोन के कॉल डिटेल्स, उसकी लोकेशन, और जगह-जगह लगे हुए सीसीटीवी कैमरों के बाद अब मुजरिमों का बचना तकरीबन नामुमकिन भी होते चल रहा है। करीब-करीब हर मामले में लोग पकड़ा जाते हैं, और एक समय पुलिस के कुत्ते को जिस तरह मुजरिम पकडऩे की शोहरत थी, वह शोहरत आज मोबाइल फोन और कैमरों को हासिल हो गई है। इसलिए टेक्नॉलॉजी ने मुजरिमों को किसी भी कोने से अधिक होशियार नहीं बनाया है, उन्हें अधिक बेवकूफ ही बनाकर छोड़ा है कि वे पुराने वक्त की तरह पुलिस से बच जाने की उम्मीद रखें।
अब इससे बिल्कुल अलग एक दूसरी खबर यह है कि बिहार के नवादा जिले में पुलिस ने एक ऐसे गिरोह का भांडाफोड़ किया है जो कि लोगों को ऑल इंडिया प्रेग्नेंट जॉब सर्विस के नाम से बेवकूफ बनाता था, और उन्हें कहता था कि उन्हें महिलाओं से मुफ्त में सेक्स करने मिलेगा, और अगर उससे वे महिलाएं गर्भवती हो जाएंगी तो उन्हें लाखों रूपए का और भुगतान होगा। यह गिरोह लोगों को समझाता था कि जिन महिलाओं के बच्चे नहीं हैं, वे ऐसी सेवाओं के एवज में मोटा भुगतान करती हैं। और फिर इन्हें इस स्कीम में शामिल होने के लिए कुछ पैसा जमा करने कहा जाता था। इन्होंने अब तक सैकड़ों लोगों को ठगा है। यह बात समझने की है कि शर्म की वजह से ये लोग पुलिस के पास नहीं जाते थे, लेकिन अब इस गिरोह के 8 लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार किया है।
इन दो अलग-अलग जुर्म पर हम एक साथ इसलिए लिख रहे हैं कि एक में मोबाइल टेक्नॉलॉजी का इस्तेमाल करके लोगों को ठगा जा रहा है, और दूसरे में मोबाइल टेक्नॉलॉजी का इस्तेमाल करके पुलिस मुजरिमों को तेजी से पकड़ रही है। टेक्नॉलॉजी वही है, उसका अलग-अलग किस्म का इस्तेमाल अनोखा है। हिन्दुस्तान में हर दिन लाखों लोग किसी न किसी किस्म के झांसे में फंसाकर ठगे जा रहे हैं, वे अपने फोन पर आने वाले ओटीपी को देते हैं, और उनके बैंक खाते खाली हो जाते हैं। यह दो किस्म की डिजिटल-जागरूकता का मामला है, एक जिससे अनजान लोग ठगी का शिकार होते हैं, और दूसरे वे जो कि इसके पदचिन्हों के निशान से अनजान होकर कई किस्म के जुर्म करते हैं। भारत में डिजिटल-जागरूकता की कमी से ये दोनों काम हो रहे हैं, और इसे हम जागरूक इसलिए नहीं कह रहे हैं कि इसकी कमी से मुजरिम पकड़ा रहे हैं, बल्कि इसलिए कह रहे हैं कि इस टेक्नॉलॉजी से शिनाख्त के खतरों से अनजान लोग जुर्म का हौसला कर रहे हैं। उनमें अगर जागरूकता होती, तो वे ऐसे जुर्म का हौसला नहीं करते, और हिन्दुस्तान में निजी हिंसा से हत्या वाले अधिकतर मामले संभावित मुजरिमों के पहले ही सहम जाने से हुए ही नहीं रहते। लोगों को जुर्म का शिकार होने से बचने के लिए भी डिजिटली-जागरूक होना चाहिए, और जुर्म करने से बचने के लिए भी। डिजिटल-टेक्नॉलॉजी और उस पर चलने वाले मोबाइल फोन जैसे निजी उपकरण अब तकरीबन पूरी आबादी के हाथ हैं, और यह नौबत इन तमाम लोगों को ठगी के खतरे में भी डालती है, और कोई चूक करने पर पकड़े जाने के खतरे में भी।
कर्नाटक के अलग-अलग इलाकों से साम्प्रदायिकता की भयानक खबरें आ रही हैं। साम्प्रदायिक हिंसा वहां के लिए कोई नई बात नहीं है, लेकिन अटपटी बात इस हिसाब से है कि यह राज्य शिक्षित लोगों से भरा हुआ है, यहां के लोग देश-विदेश की कंपनियों में काम करते हैं, राजधानी बेंगलुरू में अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के कामकाज की आवाजाही चलती रहती है। ऐसे माहौल के बीच प्रदेश के लोगों में हिन्दू-मुस्लिम तनातनी आए दिन हिंसा तक पहुंचती रहती हैं। और यह हिंसा गुंडों के गिरोहों तक रहती, तो भी कोई बात नहीं थी, यह वहां के नौजवान जोड़ों को अलग-अलग धर्मों का होने पर मिलने से रोकती है, उनके साथ हिंसा करती है। अभी कुछ दिन पहले एक ही परिवार की दो बहनों के बेटे-बेटी किसी रजिस्ट्रेशन के लिए पहुंचे थे, और वहां देर लगने से वे किसी सार्वजनिक जगह पर बैठकर इंतजार कर रहे थे। एक का परिवार हिन्दू था, और नौजवान ने तिलक लगा रखा था, और लडक़ी की मां ने मुस्लिम से शादी की हुई थी, इसलिए उसने हिजाब बांधा हुआ था। रिश्ते के भाई-बहन होने पर भी हुलिए से हिन्दू और मुस्लिम दिखने पर इनके साथ मुस्लिम समाज के नौजवानों ने हिंसा की। अब कल की खबर है कि राज्य में एक हिन्दू-मुस्लिम प्रेमीजोड़ा एक होटल के कमरे में मिल रहा था, और वहां पहुंचकर नौजवानों के एक गिरोह ने उन्हें घसीटकर बाहर निकाला, और उस महिला को एक सुनसान जगह पर ले जाकर छह लोगों ने बलात्कार किया, उनके वीडियो बनाए गए ताकि वे रिपोर्ट दर्ज न करवा सकें। ऐसे साम्प्रदायिक हमले, और ऐसे भयानक गैंगरेप को भी धर्म के नाम पर किया जा रहा है, अलग-अलग धर्मों के लोगों को मिलने से रोका जा रहा है, और साम्प्रदायिकता इस प्रदेश में सिर चढक़र बोल रही है।
देश में अगर किसी धार्मिक आस्था को चोट पहुंचाने की वजह से कोई धार्मिक या साम्प्रदायिक तनाव खड़ा होता, तो भी उसकी बुनियाद समझ में आ सकती थी। आज अगर 21वीं सदी में देश के नौजवान जोड़ों को अलग धर्म या अलग जाति के होने पर इस तरह हिंसा का शिकार होना पड़ रहा है, तो उसका मतलब यही है कि साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता मिलकर अब एक बड़े संगठित जुर्म तक पहुंच गए हैं, और अलग-अलग धर्मों के नफरती-मुजरिमों को एक-दूसरे से बढ़ावा भी मिलता है। फिर बात किसी एक राज्य तक सीमित नहीं रहती, लोग दूसरे प्रदेशों में भी ऐसी मिसालों से हौसला पाते हैं, और धीरे-धीरे अलग धर्मों के बीच खड़ी की गई नफरत अलग-अलग जातियों तक भी फैलती है, और फिर परिवारों के भीतर ऑनरकिलिंग के मामले होने लगते हैं। भारत सरकार के आंकड़े बताते हैं कि हर बरस देश में 25 या उससे अधिक जोड़े परिवार के ही हाथों ऑनरकिलिंग के नाम पर मारे जाते हैं। एक तरफ तो भारत में सरकार दलित और गैरदलित के बीच शादी पर नगद पुरस्कार देती है ताकि समाज से छुआछूत खत्म हो सके, दूसरी तरफ किसी भी तरह की अलग-अलग जाति में होने वाली शादियों पर लोगों को कड़ा सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ता है, मोटा जुर्माना चुकाना पड़ता है, उनसे उनकी जाति के लोग ही रोटी-बेटी का रिश्ता तोड़ लेते हैं। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में कुछ जातियों की पंचायतें या संगठन इतने ताकतवर हैं कि अगर अंतरजातीय विवाह करने वाले लोगों से उनका बाकी परिवार भी संबंध रखता है, तो पूरे के पूरे परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है, और परिवार के बाकी लोगों की जाति के भीतर शादी असंभव हो जाती है। छत्तीसगढ़ में ऐसे मामलों को लेकर एक अलग कानून बनाना पड़ा है जो कि बहिष्कार करने वाले लोगों के लिए सजा वाला है, लेकिन हकीकत यह है पुलिस तक शिकायत लेकर जाना पूरी की पूरी जाति से टकराव लेने सरीखा होता है, और बहुत कम लोग इतना हौसला कर पाते हैं।
देश में हिन्दू लड़कियों के मुस्लिम लडक़ों से शादी करने पर उसे हिन्दू संगठन लवजेहाद कहकर उसका हिंसक विरोध करते हैं, लेकिन कर्नाटक में बहुत से ऐसे मामले हैं जिनमें लडक़ी मुस्लिम है, और उसका प्रेमी हिन्दू है, और ऐसे जोड़ों के साथ भी हिंसा वहां पर आम बात है। वहां की बहुत सी खबरें आती हैं जिनमें बाजार में घूमते, किसी रेस्त्रां में बैठे, या किसी दुपहिए पर चलते हुए अलग-अलग धर्मों के दिखने वाले जोड़ों को पकडक़र पीटा जाता है, और कल की घटना बताती है कि किस तरह ऐसे धर्मान्ध गुंडे गैंगरेप तक करते हैं, और पूरी जिंदगी ब्लैकमेल करने के हिसाब से उसके वीडियो भी बनाकर रखते हैं। हमारा ख्याल है कि कर्नाटक की कांग्रेस सरकार प्रदेश के ऐसे अराजक-साम्प्रदायिक माहौल पर काबू नहीं कर पा रही है, और ऐसे मामलों पर अधिक सख्ती, तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए, और इन पर साम्प्रदायिक हिंसा फैलाने की दफाएं भी लगनी चाहिए, और जरूरत हो तो साम्प्रदायिक मामलों की सुनवाई के लिए अलग अदालत भी बननी चाहिए।
लोगों को याद होगा कि इसी कर्नाटक में किस तरह 2015 में एमएम कालगुर्गी नाम के एक भूतपूर्व कुलपति को गोलियों से भून दिया गया था, जो कि हिन्दू धर्म के भीतर अंधविश्वासों के खिलाफ सार्वजनिक अभियान चलाते थे, और उन पर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के आरोप लगते थे। वे एक बहुत ही विद्वान और साहसी समाज सुधारक थे, और उन्हें उस वक्त की कांग्रेस सरकार से शिकायत के बाद भी हिफाजत नहीं मिली थी। एक सुबह दो लोगों ने उनके घर पहुंचकर उन्हें आमने-सामने से गोलियां मार दीं। लोगों को इसी तरह महाराष्ट्र के एक अंधविश्वास-विरोधी नरेन्द्र दाभोलकर की याद होगी जिन्हें 2013 में सुबह की सैर पर दो लोगों ने आमने-सामने से गोलियां मार दी थीं, वे भी लगातार अंधविश्वास के खिलाफ काम करते थे।
अंधविश्वास, धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता, इन सबके बीच थोड़ा-थोड़ा सा ही फासला होता है। और जब लोगों का भरोसा लोकतंत्र और संविधान से उठ जाता है, जब उनकी वैज्ञानिक सोच कमजोर होने लगती है, तो उन्हें हिंसा बहुत सी बातों का जवाब लगने लगती है। कर्नाटक में ये तमाम बातें साथ-साथ चल रही हैं, इनका मिलाजुला असर वहां सब कुछ खत्म कर रहा है, और कर्नाटक की मिसाल देश में दूसरी जगहों पर भी धर्मान्ध, हिंसक, और साम्प्रदायिक लोगों का हौसला बढ़ाएगी।
राम जन्मभूमि ट्रस्ट की तरफ से भेजे गए न्यौते को नामंजूर करते हुए कांग्रेस पार्टी ने साफ कर दिया है कि वह रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा में शामिल नहीं होगी। इसके पहले जब कांग्रेस को यह न्यौता देने की बात हुई थी तब पार्टी के एक सबसे बड़े नेता के.सी.वेणुगोपाल ने कहा था कि पार्टी 22 जनवरी को अपना फैसला बताएगी, लेकिन 10-12 दिन पहले ही कांग्रेस ने अपना रूख साफ कर दिया है। अपने अधिकृत बयान में कांग्रेस ने कहा है- भगवान राम की पूजा-अर्चना करोड़ों भारतीय करते हैं। धर्म मनुष्य का व्यक्तिगत विषय होता आया है, लेकिन भाजपा और आरएसएस ने वर्षों से अयोध्या में राम मंदिर को एक राजनीतिक परियोजना बना दिया है। स्पष्ट है कि एक अर्धनिर्मित मंदिर का उद्घाटन केवल चुनावी लाभ उठाने के लिए ही किया जा रहा है। 2019 के अदालत के फैसले को मंजूर करते हुए, और लोगों की आस्था के सम्मान में, मल्लिकार्जुन खडग़े, सोनिया गांधी, एवं अधीररंजन चौधरी भाजपा और आरएसएस के इस आयोजन के निमंत्रण को ससम्मान अस्वीकार करते हैं।
कांग्रेस पार्टी का यह रूख पार्टी के ही बहुत से लोगों को निराश करेगा, और गुजरात कांग्रेस के एक बड़े नेता अर्जुन मोडवाडिया ने इस फैसले की आलोचना की है, और कहा है कि राम मंदिर आस्था और विश्वास का मामला है, इसमें कांग्रेस को राजनीतिक निर्णय नहीं लेना चाहिए। एक दूसरे कांग्रेस नेता आचार्य प्रमोद कृष्णन ने कहा है कि राम मंदिर के निमंत्रण को ठुकराना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और आत्मघाती फैसला है, आज दिल टूट गया। भाजपा में यह जाहिर ही है कि इस फैसले की आलोचना में जो-जो कहा जा सकता था, कहा है। देश के दूसरे राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया भी इस कार्यक्रम को लेकर अलग-अलग है, भाजपा-एनडीए से परे की कई पार्टियों ने वहां न जाना तय किया है, और कई बड़े नेताओं, और उनकी पार्टियों को प्राण-प्रतिष्ठा का न्यौता भी नहीं मिला है। सीपीएम ने पहले ही एक औपचारिक बयान जारी करके इसे भाजपा का राजनीतिक कार्यक्रम बताया था, और इसमें न जाने की घोषणा की थी। अब सवाल यह उठता है कि राम मंदिर को लेकर विश्व हिन्दू परिषद, आरएसएस, और भाजपा की जो रणनीति है, उसमें भारतीय-चुनावी लोकतंत्र में शामिल और पार्टियों को क्या करना चाहिए था, क्या करना चाहिए?
अयोध्या का मंदिर दशकों से देश का एक सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा रहते आया है। भाजपा के दूसरे नंबर के सबसे बड़े नेता लालकृष्ण अडवानी ने बाबरी मस्जिद के खिलाफ, और उस जगह पर राम मंदिर बनाने के लिए एक बड़ा आंदोलन छेड़ा था जिसमें 1990 के दशक में एक अपरिचित चेहरा लिए हुए नरेन्द्र मोदी भी शामिल हुए थे, और बाद में उनके गुजरात के मुख्यमंत्री बनने पर पुरानी तस्वीरों में उनका चेहरा पहचाना गया। अडवानी की रथयात्रा ने बाबरी मस्जिद को गिराने का रास्ता साफ किया था, और उसके दाम भाजपा ने अपनी कुछ राज्य सरकारें गंवाकर चुकाए थे। यह बात कोई लुकी-छिपी नहीं है कि भाजपा शुरू से ही राम मंदिर के मुद्दे को लेकर चल रही थी, बाबरी मस्जिद के खिलाफ उससे जो कुछ हो सकता था, उसने किया था, और उस वक्त की उसकी भागीदार शिवसेना भी बाबरी मस्जिद गिराने में जोर-शोर से शामिल थी। यह एक अलग बात है कि शिवसेना के मुखिया बाल ठाकरे के परिवार वाली शिवसेना को आज अयोध्या का न्यौता भी नहीं मिला है, जबकि कम्युनिस्टों को यह न्यौता पहुंचा है। इसलिए राम जन्म भूमि ट्रस्ट गैरराजनीतिक आधार पर काम कर रहा हो, ऐसा भी नहीं है। एक आदिवासी महिला राष्ट्रपति को जिस प्राण-प्रतिष्ठा में बुलाया भी नहीं गया है, उसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तमाम धार्मिक अनुष्ठान के मुखिया रहने वाले हैं। इसलिए अगर देश के राजनीतिक दल प्राण-प्रतिष्ठा समारोह को राजनीतिक करार देते हुए उस पर राजनीतिक फैसला ले रहे हैं, तो यह बात तर्कसंगत है। अब यह बात लोकतांत्रिक-चुनावसंगत है या नहीं, यह एक अलग बात है।
कांग्रेस का आज का फैसला देश की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी पार्टी का फैसला है, और कुछ महीने बाद के लोकसभा चुनावों में भाजपा के लिए चुनौती देने का काम कांग्रेस की अगुवाई वाला गठबंधन ही करते दिखता है, फिर चाहे उस चुनौती का नतीजा जो भी हो। ऐसे में चुनाव एक हकीकत है, और चाहे देश के राजनीतिक और सामाजिक वातावरण का कितना ही ध्रुवीकरण क्यों न हो गया हो, कांग्रेस और उसके साथीदल इसी के बीच तो चुनाव लडऩे जा रहे हैं। ऐसे में यह समझने की जरूरत है कि प्राण-प्रतिष्ठा के न्यौते को नामंजूर करना सैद्धांतिक ईमानदारी तो हो सकती है, क्या वह चुनावी-समझदारी भी है? हम कांग्रेस के ही शब्दों पर जा रहे हैं, और कांग्रेस जब धर्म को मनुष्य का व्यक्तिगत विषय बता रही है, तो क्या उस पार्टी के लिए यह बेहतर नहीं होता कि वह अपने नेताओं को व्यक्तिगत फैसला लेने की छूट देती? हालांकि कांग्रेस ने इसे अस्वीकार करते हुए तीन नेताओं का ही जिक्र किया है, और हो सकता है कि इन्हीं तीनों को न्यौता मिला हो, लेकिन हम यह सोचकर हैरान हैं कि क्या एक समझदार पार्टी को मंजूर और नामंजूर करने के खेल में पडऩे के बजाय एक सैद्धांतिक बात कहकर इसे खत्म नहीं करना चाहिए था कि पार्टी के नेता-कार्यकर्ता इस पर खुद फैसला लें कि उन्हें क्या करना है? क्या एक राजनीतिक दल को लोगों की निजी आस्था कहते हुए भी उस पर एक पार्टी के रूप में फैसला लेकर उसकी घोषणा करनी चाहिए थी? क्या सार्वजनिक रूप से इस समारोह का बहिष्कार करना जरूरी था, या कि एक विनम्र चतुराई से इस बात को सुलझाया जा सकता था? हमारी सीमित राजनीतिक समझ यह कहती है कि कांग्रेस का यह बयान उसके एक ऐसे फैसले की घोषणा करता है जिसे कि लेने के बाद भी घोषित करने की कोई जरूरत नहीं थी। ऐसा लगता है कि पार्टी चुनाव तो लडऩा चाहती है, लेकिन उसे अपनी सैद्धांतिक ईमानदारी को उजागर करते हुए मतदाताओं के एक बड़े तबके की भावनाओं की परवाह नहीं है। हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में आज चुनाव लडऩा वामपंथियों सरीखी सैद्धांतिक साफगोई का काम नहीं रह गया है। कांग्रेस पार्टी को इससे बेहतर कोई तरीका निकालना था। इस आयोजन को कांग्रेस और भाजपा का आयोजन करार देने से कांग्रेस पार्टी ने इसकी किसी भी तरह की संभावित कामयाबी का सेहरा खुद ही भाजपा के सिर बांध दिया है।
हम किसी भी तरह की सैद्धांतिक बेईमानी नहीं सुझा रहे, लेकिन सार्वजनिक-राजनीतिक जीवन में, और लोकतांत्रिक-चुनावी राजनीति में सामान्य समझबूझ और चतुराई से दुश्मनी रखना जरूरी नहीं होता। कांग्रेस पार्टी के बयान में कुछ अंतरविरोध भी हैं, जो कि धर्म को निजी आस्था बता रहे हैं, और साथ-साथ पार्टी के तमाम नेताओं की तरफ से प्राण-प्रतिष्ठा के इस न्यौते को नामंजूर भी कर रहे हैं। किसी बहुत अनुभवी पार्टी को इस असुविधाजनक फैसले की नौबत में इससे बेहतर शब्द तलाशने चाहिए थे। मंदिर के मुद्दे पर भाजपा से किसी भी तरह यह मुकाबला जीता नहीं जा सकता था, लेकिन अपनी लाठी को पटक-पटककर इस तरह तोडऩे से तो बचा तो जा ही सकता था। पता नहीं कांग्रेस इस जनधारणा के नुकसान से कैसे उबर पाएगी। राम मंदिर, जो कि देश की कई अदालतों से होते हुए, सुप्रीम कोर्ट की एक संविधानपीठ के सर्वसम्मत फैसले के बाद लाखों-करोड़ों दानदाताओं के पैसों से बन रहा है, उसे पूरी तरह आरएसएस और भाजपा का काम बताना, राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी को एक अनावश्यक श्रेय देने सरीखा भी है। इस मुद्दे पर कांग्रेस का नुकसान छोड़ कुछ भी नहीं होना था, चाहे वह कोई भी फैसला लेती, लेकिन उस नुकसान को कम करने की जो संभावना थी, कांग्रेस ने उसे पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया है, ऐसा लगता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ में मिट्टी और रेत की अवैध खुदाई को लेकर हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका पर शासन के खनिज सचिव से व्यक्तिगत हलफनामा मांगा है। पूरे प्रदेश में नदियों से रेत की अवैध खुदाई का हाल यह है कि बड़ी-बड़ी मशीनों को लगाकर दानवाकार डम्परों को रेत से भरा जाता है, और उसकी न सिर्फ प्रदेश में अवैध बिक्री होती है, बल्कि पड़ोसी राज्यों में भी उसे ले जाकर बेचा जाता है। पिछली सरकार के कार्यकाल के पूरे पांच बरस रेत की अवैध खुदाई के रहे, और नदियों वाले जिलों में कलेक्टरों ने रेत खदान की लीज पाने वाले लोगों पर दबाव डालकर सत्ता के पसंदीदा लोगों को उसमें भागीदार बनवाया था। इसके अलावा हर रेत खदान की लीज पर दस्तखत करने के पहले बहुत से कलेक्टर लाखों रूपए नगद रखवाते थे। जाहिर है कि राजनीतिक भागीदार को आधी कमाई देना, कलेक्टरों को लाखों रूपए देना, और हर ट्रिप पर खनिज विभाग को बंधी हुई रिश्वत देना, इन सबका नतीजा था कि प्रदेश में रेत अंधाधुंध महंगी बिक रही थी, और निर्माण लागत बढ़ गई थी। सत्तारूढ़ नेताओं के मुंह रेत खदानों का यह खून लग गया था, और अब भाजपा सरकार आने के बाद देखना है कि सत्तारूढ़ पार्टी के स्थानीय विधायकों, और नेताओं को किस तरह इस भागीदारी-संस्कृति से अलग रखा जा सकेगा। जिला प्रशासन के स्तर पर भ्रष्टाचार का हाल यह था कि कई जगहों पर तो रेत खदान की नीलामी में उसे पाने वाले लीजधारक की खुदाई रोकने का आदेश दे दिया जाता था, और सत्ता के पसंदीदा लोग वहां से दुगुनी रफ्तार से अवैध खुदाई करते थे। पता नहीं इतनी भ्रष्ट हो चुकी नौबत को मुख्यमंत्री विष्णु देव साय किस तरह सुधार पाएंगे, क्योंकि वे सीएम होने के साथ-साथ खनिज मंत्री भी हैं।
प्रदेश में यह सिलसिला बहुत लंबे समय से चल रहा है कि रेत, मुरूम, मिट्टी की अवैध खुदाई हो, उसकी रायल्टी चोरी हो, और किसी की भी खाली पड़ी जमीन को मशीनों से खोदकर उसे खाई बना दिया जाए। यह बात बिल्कुल साफ है कि खनिज विभाग, पुलिस, और जिला प्रशासन के कई लोगों की सहमति के बिना यह जुर्म नहीं हो सकता। ये लोग रिश्वतखोरी के लिए भी अवैध खुदाई में शामिल हो जाते हैं, और सत्तारूढ़ राजनीतिक दबाव के चलते भी। एक तरफ तो प्रदेश में किसी भी तरह की खदान की पर्यावरण मंजूरी के लिए एक बहुत ही जटिल और भ्रष्ट व्यवस्था चल रही है जिसके तहत लोगों को छांट-छांटकर मंजूरी दे दी जाती है, और बहुत से लोगों की अर्जियां महीनों तक पड़े रहती हैं। लेकिन जो खदानें पूरी तरह से अवैध हैं, उनका तो किसी तरह का पर्यावरण का आंकलन भी नहीं हो पाता, और उससे नदियों को, दूसरी खदानों को होने वाले नुकसान का कोई अंदाज भी नहीं रहता।
अभी हाईकोर्ट ने जो जनहित याचिका सुनी जा रही है, उसमें बिलासपुर की अरपा नदी में अवैध रेत खुदाई से बने गड्ढों में डूबकर तीन बच्चियों की मौत का जिक्र है, और उसी वजह से मुख्य न्यायाधीश खबरों को देखकर यह सुनवाई कर रहे हैं। सिर्फ अवैध खनिज खुदाई के खिलाफ सुनवाई से परे भी यह बात तारीफ के लायक है कि हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जनहित के कई और मामलों में भी खबरों का नोटिस ले रहे हैं, और किसी अस्पताल को लेकर या लाउडस्पीकरों के शोर के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर रहे हैं। इस अदालती पहल की जरूरत इसलिए भी है कि सामाजिक कार्यकर्ता या जनसंगठन सरकार जैसी ताकत के मुकाबले लड़ नहीं सकते। फिर अदालतों में कभी-कभी ऐसे जज भी आ जाते हैं जो कि लकीर के फकीर रहते हैं, और जिन्हें जनहित के मुद्दों की गंभीरता छू नहीं जाती है। ऐसे में अगर अदालत खुद होकर सरकार को कटघरे में खड़ा कर रही है, तो इससे दूसरे विभागों के अफसर भी चौकन्ने होंगे, और मीडिया का हौसला भी बढ़ेगा कि ताकतवर तबकों को नाराज करते हुए जो खबरें छापी जाती हैं, वे एक तर्कसंगत और न्यायसंगत अंत तक पहुंचती हैं। जब बात सिर्फ सरकारों पर छोड़ दी जाती है, तो अखबारों में छपी आलोचना को अनदेखा करना भी एक आम बात रहती है, ऐसे में हाईकोर्ट की दखल देश में व्यापक जनहित के मुद्दों को उठाने के लिए समाज और अखबार, दोनों का उत्साह भी बने रहेगा। हमारा ख्याल है कि हाईकोर्ट को जनता से व्यापक जनहित के मुद्दों को बुलवाना चाहिए, अगर उनमें कोई कानून भी तोड़ा जा रहा है। और हाईकोर्ट जनहित के लिए उत्साही वकीलों की एक टीम बनाकर उनसे इन मामलों पर राय ले सकता है, और कुछ जनहित याचिकाओं को खुद भी दर्ज कर सकता है। ऐसी न्यायिक सक्रियता व्यापक जनहित के मुद्दों को लेकर जरूरी है।
छत्तीसगढ़ में आज जिन लोगों को नदियों की अंधाधुंध और अवैध खुदाई के खतरे समझ नहीं आ रहे हैं, उन्हें तब समझ आएगा जब नदियों में कहीं बाढ़ आने लगेगी, और कहीं नदियों के किनारे सूखा पडऩे लगेगा। कहने के लिए तो सुप्रीम कोर्ट से लेकर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल तक बहुत सी जगहों से पर्यावरण को लेकर कई आदेश हैं, जिनमें नदियों को लेकर तो बड़ी कड़ी व्यवस्था की गई है, लेकिन जिला स्तर पर प्रशासन की भागीदारी से माफिया अंदाज में अवैध खुदाई चलती है। अच्छा होगा कि ऐसी अवैध खुदाई के वीडियो सामने आते रहें, और हाईकोर्ट से इसके लिए जिम्मेदार कुछ अफसरों को जेल भी हो, तो शायद यह जुर्म कुछ घटेगा।
न सिर्फ छत्तीसगढ़ में, बल्कि देश में जगह-जगह खदान और खनिज माफिया का हाल यह है कि वह कई अफसरों को गाडिय़ों से कुचलकर मार चुका है, कई अफसरों को गोलियां मार चुका है। छत्तीसगढ़ में अभी तक ऐसे कत्ल नहीं हुए हैं, लेकिन खनिज माफिया एक बहुत ही संगठित ताकत की तरह स्थापित हो चुका है। सत्ता बदलने से हो सकता है कि इस माफिया के चेहरे बदल जाएं, लेकिन अवैध खुदाई पर काबू पाने के लिए राज्य सरकार में एक पक्का इरादा लगेगा, देखना है कि यह सरकार पटरी से उतरी हुई कानून-व्यवस्था को कितना सुधार सकती है।
हिन्दी फिल्मों की मेहरबानी से लोगों के मन में एक बात बड़ी गहरी बैठी रहती है कि खून के रिश्ते से बढक़र और कुछ नहीं होता। लोग यह मान लेते हैं कि अपना खून तो अपना ही होता है, और यही अंतिम सत्य मानकर लोग अपना सब कुछ दांव पर लगा देते हैं। हो सकता है कि यह बात सौ में से नब्बे मामलों में सही हो, लेकिन कुछ ऐसे मामले भी हो सकते हैं जिनमें यह बात पूरी तरह से गलत साबित होती हों। अब अभी भारत में ही एक महिला अपने चार बरस के बेटे के साथ गोवा पहुंची, और वहां से जब निकली, तो साथ में बेटा नहीं था। जिस जगह वह ठहरी थी वहां खून का निशान मिला, और लोगों ने कैमरों की रिकॉर्डिंग से यह पाया कि जाते समय उसका बेटा साथ नहीं था। ऐसे में पुलिस और टैक्सी के रास्ते से होते हुए यह महिला पकड़ाई तो उसके बैग में उसके बच्चे की लाश थी। अब कौन कल्पना कर सकते थे कि एक मां अपने चार बरस के बच्चे का कत्ल करेगी, और उसकी लाश को बैग में लेकर सफर करेगी? इस तरह के अलग-अलग पारिवारिक हिंसा के बहुत से मामले सामने आते हैं जिनमें बाप के बेटी से बलात्कार के भी कई मामले रहते हैं। कौन कल्पना कर सकते हैं कि जिन बेटियों को बाप के लिए बहुत खास माना जाता है, उनसे भी बाप बलात्कार कर सकते हैं? आए दिन कहीं न कहीं की खबर रहती है कि शराबी बेटे ने मां-बाप से पीने के लिए पैसे मांगे, और न मिलने पर उनका कत्ल कर दिया।
हम किसी भी कोने से परिवार व्यवस्था के प्रति भरोसा खत्म करना नहीं चाहते, क्योंकि ऐसे कुछ अपवादों के बावजूद पारिवारिक ढांचा हिन्दुस्तान जैसे समाज में सबसे मजबूत व्यवस्था है, और इससे लोगों की जिंदगी सहूलियत से चलने, मुसीबत में मदद मिलने, और भावनात्मक साथ मिलने का काम होता है। इसलिए समाज व्यवस्था के भीतर कहीं-कहीं होने वाली ऐसी हिंसा को देखकर परिवार पर से भरोसा नहीं छोडऩा चाहिए। हमारे लिखने का मकसद यही है कि परिवार व्यवस्था को सौ फीसदी महफूज मानकर उस पर अंधविश्वास करना भी ठीक नहीं है। अभी-अभी देश के एक बड़े औद्योगिक घराने, रेमंड के मालिक सिंघानिया परिवार में बेटे ने पहले तो बाप को घर से निकाल दिया था, और अब अपनी बीवी को भी घर से निकाल दिया है। आज आम हिन्दुस्तानी परिवारों में मां-बाप अपने बेटों के लिए सब कुछ करने को तैयार रहते हैं, और उनकी पढ़ाई-लिखाई, या कामकाज के लिए अपनी जमीन-जायदाद भी देते हैं, अपने गहने भी दे देते हैं। ऐसा करते हुए उनके मन में एक अनकहा भरोसा रहता होगा कि बुढ़ापे में तो आल-औलाद ही ख्याल रखेंगे, और हर मामले में ऐसा होता नहीं है। हम पहले भी इस जगह पर यह बात लिख चुके हैं कि सरकार को ही एक ऐसा कानून बनाना चाहिए कि मां-बाप अपने बच्चों के नाम जब अपनी संपत्ति करें, तो उसका इतना बड़ा एक हिस्सा उनके नाम पर बचा रहे जो कि उनके अपने जिंदा रहने के लिए जरूरी हो। लोग अपनी पूरी संपत्ति बच्चों को अपने जीते-जी न दे सकें, और अपनी जिंदगी पूरी होने के बाद ही आखिरी का हिस्सा वसीयत से बच्चों या किसी और को दे सकें। बहुत से परिवारों में हमने देखा है कि मां-बाप आल-औलाद को सब कुछ देने के बाद उनके रहमोकरम के मोहताज हो जाते हैं।
हमने बात शुरू तो की थी मां के हाथों छोटे से बेटे के कत्ल से, और साथ में हमने परिवार के भीतर होने वाले बलात्कार का जिक्र किया, बेटे के हाथ मां-बाप के कत्ल के मामले याद किए। इन सब बातों को देखते हुए लोगों को परिवार के ढांचे को अहिंसक और सुरक्षित बनाए रखने के तरीकों के बारे में सोचना चाहिए। दुनिया के कोई भी रिश्ते एक सावधान और चौकन्ने रखरखाव के बिना ठीक से नहीं चल पाते। हर रिश्ते को जिंदा रखने के लिए उस पर कुछ मेहनत भी करनी होती है, और उस रिश्ते का कोई नाजायज फायदा न उठा ले, इसके लिए कुछ किस्म की सावधानी भी बरतनी पड़ती है। और यह बात सिर्फ परिवारों के सिलसिले में हम नहीं कह रहे, लोगों के प्रेमसंबंध, दोस्ती, या कि कामकाज के रिश्ते भी तभी निभते हैं जब उनको सावधानी से सींचा जाता है, और उन्हें खतरे की सीमा में दाखिल होने के पहले काबू कर लिया जाता है। कोई अगर यह सोचें कि रिश्ते स्थाई रहते हैं, तो यह बात गलत रहती है। रिश्ते किसी पौधे या बेल को जिंदा रखने की तरह, उसे बढ़ाने की तरह की मेहनत मांगते हैं। न सिर्फ परिवार के भीतर बल्कि आसपास के दायरे में भी लोग अगर ऐसी तकलीफ से गुजर रहे हैं कि वे करीबी लोगों को मारने की सोच लें, या उनमें आत्मघाती विचार आने लगें, तो उनकी भी समय रहते मदद करना आसपास के लोगों की जिम्मेदारी रहती है। जो लोग हिंसा की ऊंचाई तक पहुंचते हैं, उनके स्वभाव में, बातचीत में, बर्ताव से ऐसे कई संकेत मिलते हैं कि उनके साथ सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। ऐसे में आसपास के लोग लोगों को हिंसा तक पहुंचने से रोक सकते हैं।
हर किस्म के जुर्म पुलिस नहीं रोक पाती है। बहुत से जुर्म समाज और परिवार के रोके रूक सकते हैं, अब भला एक महिला जहां ठहरी है, वहां बंद कमरे में अपने ही चार बरस के बच्चे का कत्ल कर दे, और लाश बैग में लेकर आगे सफर पर रवाना हो जाए, तो उसकी इस हिंसा को आसपास के लोग तो पहचान सकते थे, दुनिया की कोई भी पुलिस ऐसे जुर्म को नहीं रोक सकती। इसलिए जो परिवार व्यवस्था समाज को मजबूती से चलाती है, उस परिवार व्यवस्था को महफूज बनाए रखने की जिम्मेदारी भी समाज के हर सदस्य की है। आज लोग जुर्म को महज पुलिस और अदालत का मामला मानने लगे हैं। जबकि अधिकतर जुर्म परिवार और समाज की किसी न किसी किस्म की नाकामयाबी का सुबूत भी रहते हैं, और यही वह मोर्चा है जो कि समाज को अधिक सुरक्षित बनाने में सबसे अधिक कारगर हो सकता है।