संपादकीय
सार्वजनिक जगहों पर राजनीतिक चेतना की आंदोलनकारी कलाकृतियां बनाने के लिए बैंक्सी के छद्मनाम से काम करने वाले इंग्लैंड में बसे एक कलाकार की कलाकृतियां अभी रूसी हमले में तबाह यूक्रेन के ताजा खंडहरों पर दिखाई पड़ी, और इन्हें देखकर ही यह अंदाज लगा कि बैंक्सी यहां आकर गया है। यह फुटपाथी कलाकार एक फक्कड़ मिजाज लगता है, लेकिन इसकी कुछ कलाकृतियां करोड़ों में बिकती हैं। और ऐसा कलाकार राजनीतिक चेतना की पेंटिंग्स सार्वजनिक दीवारों पर मुफ्त में, अपनी सामाजिक जिम्मेदारी मानकर बनाते चलता है। उसकी शिनाख्त उजागर नहीं हुई है, और कुछ लोग रॉबिन गनिंगहैम नाम के एक आदमी को बैंक्सी मानते हैं। यह रहस्य उसकी चर्चित कलाकृतियों को और अधिक खबरों में लाता है। उसने दुनिया भर के युद्ध के खिलाफ, रंगभेद और नस्लभेद के खिलाफ, पूंजीवाद के खिलाफ, मानवाधिकार के हक में अंतहीन काम किया है, और उसकी कुछ सहज और सरल वॉलपेंटिंग्स दुनिया भर में करोड़ों-अरबों बार पोस्ट हो चुकी हैं, वे राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों का पोस्टर बन चुकी हैं। अभी बैंक्सी ने अपने इंस्टाग्राम पेज पर यूक्रेन की तबाह दीवारों पर कई पेंटिंग्स बनाई, और यूक्रेन के हालात को एक बार फिर चर्चा में ला खड़ा किया। उसकी बनाई एक पेंटिंग में एक बच्चा जूडो-कराते के कपड़े पहने हुए एक बड़े आदमी को पटकते हुए दिख रहा है, जो कि रूसी राष्ट्रपति पुतिन की ऐसे कपड़ों में अक्सर दिखने वाली तस्वीरों से मिलता-जुलता दिख रहा है।
खैर, एक कलाकार की इस राजनीतिक चेतना की चर्चा महज उसके संदर्भ में करने का हमारा कोई इरादा नहीं है, बल्कि एक कलाकार की ऐसी जागरूकता के बारे में बात करने का है। राजनीतिक, सामाजिक, और आर्थिक बेइंसाफी तो दुनिया की अधिकतर जगहों पर भरी हुई है। हिन्दुस्तान में इसके साथ-साथ धार्मिक बेइंसाफी और जुड़ जाती है। आज ही सुबह की एक खबर है कि सोमालिया ऐसी भयानक भुखमरी का शिकार है कि अगले एक-दो बरस में वहां पांच लाख से अधिक बच्चों के भूख से मर जाने की आशंका है। दुनिया के अलग-अलग देशों में पूंजीवाद की हिंसा गरीबों का जीना मुश्किल कर रही है, खाने से लेकर दवाई तक के कारोबार में पूंजीवाद गरीब जिंदगियों को खत्म कर रहा है, और खुद दानवाकार हो रहा है। हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में न्याय व्यवस्था कमजोर तबकों की पहुंच के बाहर है, कमजोर और उपेक्षित धर्म और जातियों के लोग सामाजिक जिंदगी के हाशिये पर धकेल दिए गए हैं, लेकिन हिन्दुस्तान की दीवारें गुप्तरोग के इश्तहारों से पटी हुई हैं। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र को जो खुला रोग हो चुका है, उसके इलाज के कोई इश्तहार मुफ्त की दीवारों पर नहीं हैं। ऐसे में लगता है कि थोड़ा सा रंग और एक मामूली कूंची लेकर बेइंसाफी के खिलाफ दीवारों जो प्रतिरोध दर्ज कराया जा सकता है, उससे भी हिन्दुस्तानी कलाकार अनजान हैं, या फिर बेपरवाह हैं। बंगाल में जरूर एक वक्त राजनीतिक चेतना की वॉलग्राफिती, या स्ट्रीटऑर्ट का नजारा होता था, लेकिन वामपंथियों के सूर्यास्त के बाद अब वह सिलसिला भी शायद कमजोर हो गया है, या बंद हो गया है। फिर भी बंगाल के बारे में इतना तो कहना ही होगा कि वहां साल के सबसे बड़े त्यौहार दुर्गापूजा के पंडालों में पूरी दुनिया के राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर राजनीतिक बयान वाली सोच दिखाई पड़ती है। एक से बढक़र एक मिसालें जागरूकता को स्थापित करती हैं। लेकिन बाकी का हिन्दुस्तान इस जागरूकता के पैमाने पर कहां पहुंचता है, इसे हर प्रदेश और समाज के लोगों को सोचना चाहिए।
जो कलाकृतियां कलादीर्घाओं और संग्रहालयों की शोभा बढ़ाती हैं, या कि जो करोड़पति-अरबपति, तथाकथित कलारसिकों के निजी संग्रह में उनके हरम की सुंदरी की तरह कैद रहती हैं, क्या उन्हें सचमुच ही कोई कला कहा जाना चाहिए, या फिर वह दुनिया के कला-कारोबार की एक करेंसी भर है? यह भी समझने की जरूरत है कि अपने आपको कलाकार, साहित्यकार, रचनाकार कहने वाले लोगों का अगर असल जिंदगी के जलते-सुलगते मुद्दों से कोई लेना-देना नहीं है, तो फिर उनका जिंदा रहना भी क्या कोई जिंदा रहना है, उनका काम करना तो न करने से भी गया-बीता है। उन आम लोगों को तो कोई तोहमत नहीं दी जा सकती जिन्हें कोई कलाकृति बनाना नहीं आता। लेकिन जिन्हें आता है, उन पर तो सामाजिक जागरूकता की मिसाल पेश करने की जवाबदेही भी आती है। एक किसान या मजदूर अगर लिखना नहीं जानते, तो संघर्ष के कोई गाने लिखने की जिम्मेदारी उन पर नहीं आती है। लेकिन राजाओं की चाटुकारिता के ग्रंथ लिखने वाले लोगों को तो लिखना आता है, और जब उनके पास सामाजिक इंसाफ की हिमायत में लिखने को कुछ नहीं रहता, तो उनकी सरोकारविहीनता सिर चढक़र बोलती है।
बैंक्सी की यह मिसाल यह सोचने पर मजबूर करती है कि दीवारों पर बहुत मामूली रंगों से, बहुत मामूली कलाकारी से बनाई गई कोई तस्वीर महान इसलिए भी हो जाती है कि वह लगातार राजनीतिक चेतना का झंडा फहराने वाले कलाकार की बनाई हुई एक और राजनीतिक चेतनासंपन्न कलाकृति है। महज नाम ही काफी नहीं है, काम भी जागरूकता का होना जरूरी है। दूसरे देशों के लोगों को अपने-अपने चर्चित कलाकारों, लेखकों, और मूर्तिकारों को देखना चाहिए कि आज समाज की जलती-सुलगती हकीकत, और भूख की भभकती जरूरत के लिए उनकी कला, उनकी रचना में क्या है? अगर वे महज शास्त्रीय रागों में महज कृष्ण, बादलों, और सुंदरियों से प्रेम ही गाते हैं, तो वे मजदूर गीतों को रचने और अपनी खुरदुरी आवाज में गाने वाले लोगों के पांवों की धूल भी नहीं है। वे महज राज्याश्रय में पलने वाले तथाकथित कलाकार हैं, जिनकी तमाम शास्त्रीयता ऐसे कुलीन पैमानों पर गढ़ी, और उनसे बंधी रहती है, कि वह आम लोगों की पहुंच से उसी तरह दूर रहे, जिस तरह शूद्रों के कानों से शास्त्रों के शब्दों को दूर रखा जाता था। राजा और सत्ता के हरम की सुंदरियों की तरह की शास्त्रीय कलाएं जनता के पैसों पर अपना रूप-रंग निखारती हैं, और जनता की जिंदगी से अपने को अनछुआ भी रखती हैं। यूक्रेन की दीवारों पर बनी इन ताजा पेंटिंग्स से दुनिया भर में कला और कलाकारों की सामाजिक जवाबदेही के नए पैमानों पर चर्चा होनी चाहिए, और सरोकार से मुक्त कलाओं का धिक्कार भी होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने अभी केन्द्र सरकार को इस बात को लेकर जमकर फटकार लगाई है कि जजों की नियुक्ति का प्रस्ताव सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने महीनों से केन्द्र सरकार को भेजा हुआ है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों के नाम केन्द्र सरकार मंजूर नहीं कर रही है। अदालत ने इसे लेकर केन्द्र के कानून सचिव को नोटिस भेजकर जवाब मांगा है कि सरकार के पास अभी भी दस नाम पड़े हुए हैं, और उस पर सरकार को न आपत्ति है, न उसकी मंजूरी है। ऐसे में जिन लोगों के नाम जज बनाने के लिए सरकार को भेजे गए थे उनमें से कुछ लोगों ने खुद होकर अपने नाम वापिस ले लिए, ऐसे एक प्रस्तावित व्यक्ति का तो इस इंतजार में निधन भी हो गया। दूसरी तरफ केन्द्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू का कहना है कि आज सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम प्रणाली मेें पारदर्शिता नहीं है, और उसमें जवाबदेही भी नहीं है। कानून मंत्री का यह कहना है कि दुनिया भर में कहीं भी जजों की नियुक्ति जज नहीं करते हैं, जैसा कि हिन्दुस्तान में होता है। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को जब खारिज कर दिया, तब केन्द्र सरकार कुछ दूसरे कदम उठा सकती थी, लेकिन उसने तुरंत ऐसा नहीं किया, अदालत के फैसले का सम्मान किया, लेकिन उसका यह मतलब नहीं है कि सरकार हमेशा ही मौन बैठी रहेगी। कानून मंत्री का यह कहना एक किस्म से सुप्रीम कोर्ट को यह बतलाना भी है कि सरकार उसके फैसले के खिलाफ कोई और कानून भी बना सकती है, और जजों की नियुक्ति में सरकार की दखल बढ़ा सकती है।
सुप्रीम कोर्ट के जज अपने लिए और जज छांटते हैं, और हाईकोर्ट के लिए भी। इनके नाम केन्द्र सरकार को भेजे जाते हैं, और वहां से कोई आपत्ति न हो तो आगे-पीछे इन्हीं में से नए जज बनते हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के जज अपनी पहचान के जजों और वकीलों के साथ भेदभाव करते हैं। और कई लोगों का यह भी मानना है कि इनमें जातियों का भी बोलबाला होता है, पहचान और रिश्तों का भी बोलबाला होता है, और शायद यह भी एक वजह है कि महिलाओं को बराबरी के मौके नहीं मिल पाते। जजों के लिए लोगों को किस आधार पर छांटा गया, या किन जजों को और ऊपर की अदालत तक ले जाना तय किया गया, इसके तर्क आम जनता के सामने कभी नहीं आते। इनके नाम केन्द्र सरकार को जरूर भेजे जाते हैं, और सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम यह उम्मीद करता है कि उसके भेजे तमाम नाम मंजूर कर लिए जाएं, और अधिकतर मामलों में ऐसा होता भी है। सरकार उसे मिले अधिकारों में से एक, देर करने के अधिकार का भरपूर इस्तेमाल करती है, और अपने को नापसंद जजों के नाम को इतना लटकाकर रखती है कि वे खुद होकर अपना नाम वापिस ले लें, या उन्हें जज बनने में, आगे बढऩे में अंधाधुंध देर होती रहे।
सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम प्रणाली के नफा-नुकसान पर गए बिना हम एक अलग प्रणाली की चर्चा करना चाहते हैं जिसके तहत अमरीका में जजों की नियुक्ति होती है। वहां पर राष्ट्रपति अपनी पसंद के किसी व्यक्ति को सुप्रीम कोर्ट के जज के लिए मनोनीत करते हैं, और उसके बाद वहां पार्टियों की मिलीजुली एक संसदीय समिति में उस मनोनीत की सुनवाई होती है। कई-कई दिनों तक सांसद ऐसे व्यक्ति से हजार किस्म के सवाल करते हैं, उनकी निजी मान्यताओं से लेकर नीचे की अदालतों में उनके दिए फैसलों पर भी बात करते हैं, कहीं उनके लिखे हुए, या कहे हुए शब्दों पर भी उनसे जवाब मांगा जाता है, और ऐसी कड़ी और लंबी सुनवाई के बाद उनके नाम को मंजूरी मिल पाती है। इस सुनवाई के दौरान इन व्यक्तियों की निजी सोच, उनके पूर्वाग्रह, उनकी जिंदगी के बारे में सब कुछ उजागर हो जाता है, और यह पारदर्शिता अमरीका को यह जानने में मदद करती है कि किन मुद्दों पर किस जज का क्या रूख रहेगा। हिन्दुस्तान में किसी को हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का जज बनाते समय उनके विवादास्पद पहलुओं पर गौर किया गया है या नहीं, इसका कोई जवाब सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम नहीं देखा। यह उसके विशेषाधिकार, और सरकार के रोकने के विशेषाधिकार के बीच की बात रह जाती है, और जिस जनता का सबसे अधिक हक होना चाहिए, उसे अपने जजों के बारे में बनने के पहले, और बनने के बाद कुछ पता नहीं लगता। हमारे हिसाब से अमरीका में सुप्रीम कोर्ट के जज बनाने का तरीका अधिक पारदर्शी और अधिक जवाबदेह है। हिन्दुस्तान को अपने तरीकों में जनता के प्रति जवाबदेही लानी चाहिए, चाहे वह सुप्रीम कोर्ट का मामला हो, चाहे सरकार का, उन्हें अपने ऐसे फैसलों की वजहों को खुलकर सामने रखना चाहिए। जो लोग इस देश के वर्तमान और भविष्य को प्रभावित करने वाले फैसले देने का अधिकार पाने जा रहे हैं, उनके बारे में देश की जनता को अधिक जानने का बड़ा साफ हक होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट और कानून मंत्री के बीच जिस तरह के मतभेद जजों की नियुक्ति को लेकर सामने आए हैं उनका इस्तेमाल इस मामले पर बहस छेडऩे और आगे बढ़ाने में किया जाना चाहिए।
इन दिनों हिंदुस्तान में लोगों के मतदाता परिचय पत्र को उनके आधार कार्ड से जोड़ने का अभियान चल रहा है। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने आधार कार्ड की ऐसी अनिवार्यता न करने का वायदा किया है, लेकिन हकीकत यह है कि उसे आम लोगों से करवाया ही जा रहा है और जुबानी बातचीत में कर्मचारी लोगों को बताते हैं कि ऐसा न करने पर वोट डालने नहीं मिलेगा। निर्वाचित नेता भी झूठ फ़ैलाने से परहेज नहीं कर रहे। सत्ता से जुड़े लोगों को जनता की निजता ख़त्म करने में बड़ा मजा आता है, उनके हाथ एक हथियार लग जाता है। सरकारी या चुनावी कामकाज से परे भी सरकार किसी भी खरीदी में डिजिटल भुगतान बढ़ाने में दबाव डाल रही है।
कई लोगों की फ़िक्र है कि डिजिटल खरीददारी की बंदिश से लोगों की निजता खत्म होगी और कोई व्यक्ति सरकारी रिकॉर्ड के लिए यह क्यों बताए कि उसने जूते खरीदे हैं या भीतरी कपड़े खरीदे हैं, वे हनीमून पर कहां जा रहे हैं, और तैयारी के लिए क्या सामान लिए हैं? लोगों को यह भी याद होगा कि आधार कार्ड को जिस तरह से हर चीज में अनिवार्य किया जा रहा है, उससे भी यह नौबत आ रही है कि लोगों की निजी जिंदगी की हर बात सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज होती जाएगी, और यह तो जाहिर है ही कि सरकारें, न सिर्फ हिन्दुस्तान की, बल्कि सभी जगहों की, अपने हाथ आई जानकारी का बेजा इस्तेमाल करती ही हैं। जब दूसरों की जिंदगी, कारोबार, खरीददारी, इन सबमें ताकझांक करने का मौका सरकारों को मिलता है, तो वह अपने लालच पर काबू नहीं पा सकतीं।
दस-पन्द्रह बरस पहले अमरीका की एक फिल्म आई थी, एनेमी ऑफ द स्टेट। इस फिल्म में सरकार एक नौजवान वकील के पीछे पड़ जाती है, क्योंकि उसके हाथ सरकार के एक बड़े ताकतवर नेता के कुछ सुबूत लग जाते हैं। अब इन सुबूतों को उससे छीनने के लिए सरकार जिस तरह से टेलीफोन, इंटरनेट, खरीदी के रिकॉर्ड, रिश्तेदारियों के रिकॉर्ड, और उपग्रह से निगरानी रखने की ताकत, जासूस और अफसर, टेलीफोन पर बातचीत और घर के भीतर खुफिया कैमरों से निगरानी रखकर जिस तरह इस नौजवान को चूहेदानी में बंद चूहे की तरह घेरने की कोशिश करती है, वह अपने आपमें दिल दहला देने वाली घुटन पैदा करती है। भारत में जो लोग आधार कार्ड को हर जगह जरूरी करने के कानून के खिलाफ हैं, उनका भी मानना है कि इससे निजता खत्म होगी। भारत में आज जिस तरह आधार कार्ड को जरूरी कर दिया गया है, उससे सरकार हर नागरिक की आवाजाही, सरकारी कामकाज, भुगतान और बैंक खाते, खरीददारी, सभी तरह की बातों पर पल भर में नजर रख सकती है।
और फिर जो बातें बैंकों और निजी कंपनियों के रिकॉर्ड में आती जाती हैं, उनका इस्तेमाल तो बाजार की ताकतें भी करती ही हैं। यह एक भयानक तस्वीर बनने जा रही है जिसमें भारत की सरकार लोगों से यह उम्मीद करती है कि वे अपनी हर खरीद-बिक्री, हर टिकट, हर रिजर्वेशन को कम्प्यूटरों पर दर्ज होने दें। आने वाले दिनों में किसी एक राजनीतिक कार्यक्रम के लिए किसी शहर में पहुंचने वाले लोगों की लिस्ट रेलवे से पल भर में निकल आएगी, और सत्तारूढ़ पार्टी के कम्प्यूटर यह निकाल लेंगे कि ऐसे राजनीतिक कार्यक्रमों में पहुंचने वाले लोग पहले भी क्या ऐसे ही कार्यक्रमों में जाते रहे हैं, और फिर उनकी निगरानी, उनकी परेशानी एक बड़ी आसान बात होगी।
आज जो दुनिया के सबसे विकसित और संपन्न देश हैं, वहां भी नगद भुगतान उतना ही प्रचलन में है जितना कि क्रेडिट या डेबिट कार्ड से भुगतान करना। भुगतान के तरीके की आजादी एक बुनियादी अधिकार है, और भारत सरकार आज कैशलेस और डिजिटल के नारों के साथ जिस तरह इस अधिकार को खत्म करने पर आमादा है, उसके खतरों को समझना जरूरी है।
आपातकाल को याद करें जब संजय गांधी अपने को नापसंद हर हिन्दुस्तानी को मीसा में बंद करने पर आमादा था। अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी यह याद रखना चाहिए कि उनकी पार्टी के लोग भी आपातकाल में बड़ी संख्या में जेल भेजे गए थे। उस वक्त अगर संजय गांधी के हाथ यह जानकारी होती कि किन-किन लोगों ने क्या-क्या सामान खरीदे हैं, तो उस जानकारी का भी बेजा इस्तेमाल हुआ होता। आज भारत में निजी जिंदगी की प्राइवेसी या निजता पर चर्चा अधिक नहीं हो रही है, और यह अनदेखी अपने आपमें बहुत खतरनाक है।
राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने दो महीने से अधिक का सफर तय कर लिया है और वह अब तक आधा दर्जन राज्यों से गुजर चुकी है। इसके बाद आधा दर्जन से अधिक राज्य और दो महीने से अधिक का वक्त अभी बाकी है। कुल मिलाकर 3570 किलोमीटर पैदल चलकर यह यात्रा कन्याकुमारी से कश्मीर पहुंचेगी और इसे औपचारिक रूप से तो कांग्रेस पार्टी ने शुरू किया है लेकिन यह मोटेतौर पर साम्प्रदायिकता विरोधी राजनीतिक दलों, और गैरराजनीतिक लोगों की एक मिलीजुली कोशिश हो रही है। कांग्रेस ने इसे देश में कट्टरता और नफरत की राजनीति से लडऩे की एक मुहिम बनाया है, और मोटेतौर पर यह राहुल गांधी की अकेले की कोशिश की तरह शोहरत पा रही है। राहुल ने किसी तरह से अपने को कांग्रेस के ऊपर लादने की कोशिश नहीं की है, लेकिन उनके व्यक्तित्व की शोहरत ने कांग्रेस को अपने आप इस यात्रा में पीछे कर दिया है, इस यात्रा के मुखिया ही इस मकसद के झंडाबरदार की तरह उभरकर सामने आए हैं। दिलचस्प बात यह है कि बहुत से राजनीतिक विश्लेषक इसे कांग्रेस की एक और नासमझी बता रहे हैं क्योंकि जब हिमाचल और गुजरात में चुनाव हैं, तब यह यात्रा उन प्रदेशों से दूर चल रही है, और राहुल गांधी इन प्रदेशों में चुनाव प्रचार से अलग भी हैं। वे इस यात्रा में भी कांग्रेस को एक पार्टी की तरह बढ़ावा देने के बजाय, यात्रा के मकसद पर टिके हुए हैं, और शायद यह एक बड़ी वजह है कि इसे शोहरत मिल रही है। ऐसा भी नहीं है कि हिमाचल और गुजरात में दोनों में ही कांग्रेस की संभावनाएं शून्य देखते हुए यह यात्रा, और राहुल गांधी, इसके चुनावी इस्तेमाल से दूर हैं। सच तो यह है कि हिमाचल में कांग्रेस भाजपा के मुकाबले टक्कर देते दिख रही है, और वहां तो इस यात्रा का कोई चुनावी इस्तेमाल हो सकता था, लेकिन कांग्रेस के भीतर कुछ लोगों की समझदारी अभी बची हुई है जो भारत के जोडऩे के इसके मकसद को किसी राज्य के चुनावी नफे से ऊपर लेकर चल रही है।
राहुल गांधी की रोजाना कई तस्वीरें उनके सोशल मीडिया पेज पर सामने आती हैं, और इस यात्रा में उनके साथ चलने वाले बहुत से गैरकांग्रेसी लोग, गैरराजनीतिक लोग, और दूसरी पार्टियों के लोग भी उन तस्वीरों को आगे बढ़ा रहे हैं। मोटेतौर पर आज यहां लिखने की वजह 65 दिनों से अधिक तक रोजाना ही राहुल की कई तस्वीरों को देखना है। इन तस्वीरों में उनका एक अलग ही व्यक्तित्व उभरकर सामने आया है जो कि राजनीति से परे का है, और राह चलते साथ आने वाले लोगों को सचमुच ही भारत जोड़ो की तरह जोडऩे वाला है। जिस तरह से शहर, गांव, कस्बों में औरत, बच्चे, लड़कियां, बूढ़े, मजदूर दौड़-दौडक़र उनके साथ कुछ दूरी तक पैदल चलने की कोशिश कर रहे हैं, वह देखने लायक है। आज का वक्त कांग्रेस के लिए बहुत निराशा का दौर है क्योंकि इस पार्टी ने पिछले कई चुनावों में महज खोया ही खोया है। और कुछ हफ्ते पहले तक इस पार्टी की जवाबदारी राहुल और उनकी मां पर ही थी। ऐसे निराशा के दौर में देश की आज की नंबर एक की सबसे बुनियादी जरूरत को लेकर राहुल गांधी अगर इतने लंबे सफर पर निकले हैं, तो यह खुद के सामने रखी गई एक अभूतपूर्व और अनोखी चुनौती भी है। जिस तमिलनाडु में राजीव गांधी के हत्यारों को कल सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जेल से छोड़ा गया है, उसी तमिलनाडु में अपना पिता खोने वाले राहुल गांधी वहां से पैदल चलकर, लगभग बिना किसी हिफाजत के, जनसैलाब से घिरे हुए निकलकर दूसरे प्रदेशों में पहुंचे हैं, वह देखने लायक है। जहां देश के बड़े से लेकर छोटे-छोटे नेताओं तक को अपनी हिफाजत के इंतजाम की दीवानगी रहती है, वहां पर राहुल गांधी जिस बेफिक्री से राह चलते लोगों से मिल रहे हैं, उनकी मोहब्बत का जवाब दे रहे हैं, बच्चों से लेकर बड़ों तक को लिपटा रहे हैं, वह बेफिक्री और वह इंसानियत देखने लायक है। देखने लायक इसलिए भी है कि हिन्दुस्तान की राजनीति में यह आमतौर पर देखने नहीं मिलती है। किसी नेता की जिंदगी के किसी एक दिन में घंटे भर अगर यह दिख भी जाए, तो भी वह बड़ी बात रहती है, और राहुल महीनों से इसी जिंदगी को जी रहे हैं, और देश के सबसे बड़े अभिनेता भी इतने महीनों तक चेहरे पर मासूम मुस्कुराहट लिए हुए, बिना थके हुए, बिना बौखलाए और चिढ़े हुए, बिना नफरत बिखेरे हुए नहीं चल सकते। आज जहां हिन्दुस्तानी राजनीति में लोग एक दिन में कई-कई बार भारत तोडऩे की कोशिश करते हैं, नफरत का सैलाब छोडऩे की कोशिश करते हैं, जहां लोगों का दिन नफरत की बातों के बिना गुजरता नहीं है, लोगों को नफरत का लावा फैलाए बिना रात नींद नहीं आती, वहां पर एक आदमी (भारतीय राजनीतिक भाषा में नौजवान), लगातार महीनों तक अगर सिर्फ जोडऩे की बात और काम कर रहा है, महज मोहब्बत बिखरा रहा है, और हर किसी की मोहब्बत को बांहों में भर रहा है, तो यह भारतीय राजनीति में इंसानियत का एक नया दौर है। और सोशल मीडिया पर अनगिनत लोग, अमूमन ऐसे लोग जो कि कांग्रेसी नहीं हैं, वे अगर राहुल गांधी पर फिदा हो रहे हैं, तो यह छोटी बात नहीं है। आज के दौर में तो लोग नेताओं से नफरत बहुत आसानी से कर सकते हैं, मोहब्बत किसी से करने की गुंजाइश नहीं रहती।
राहुल गांधी के ये महीने किसी भी चुनावी पैमानों पर नापने से परे के हैं, वे कांग्रेस के भी एक पार्टी की तरह काम से परे के हैं। यह हिन्दुस्तान के लोगों को इतने करीब से, पैदल चलते हुए, उनके हाथ थामे उनसे बातें करते हुए, उनके कांधों पर हाथ रखे उनकी आंखों में झांकते हुए इस मुल्क को इतने भीतर से देखने का एक नया सिलसिला है, आज के नेताओं के बीच तो यह अनोखा है ही, हिन्दुस्तान के इतिहास में भी यह अपनी किस्म की एक सबसे लंबी कोशिश है, और यह अपने अब तक की शक्ल में एक नया इतिहास गढ़ते दिख रही है। जहां वोट पाने का कोई मकसद ठीक सामने खड़ा न हो, जहां कोई चुनाव प्रचार न हो, और जहां देश को जोडऩे के लिए मोहब्बत की बातें की जाएं, वह पूरा सिलसिला नफरत का सैलाब फैलाने के मुकाबले कम नाटकीय तो लगेगा ही, कम सनसनीखेज भी लगेगा, इस पर तालियां भी कम बजेंगीं, और वोटरों को उस हद तक रूझाया नहीं जा सकेगा, जिस हद तक नफरत उन्हें अपनी तरफ खींच सकती है, लेकिन यह देश को जोडऩे की एक कोशिश जरूर है। यह ऐसी कोशिश है जिसने प्रशांत भूषण सरीखे उन जागरूक लोगों को भी अपनी तरफ खींचा है जो कि कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार को गिराने के दौर में एक प्रमुख आंदोलनकारी थे, आज उन्हें भी देश को जोडऩा अधिक जरूरी लग रहा है, और इसलिए वे कांग्रेस में न रहते हुए भी, कांग्रेस के समर्थक भी नहीं रहते हुए, इस यात्रा में राहुल गांधी के साथ चलते दिखे हैं।
आज हिन्दुस्तान में नफरत और हिंसा का गंडासा लेकर लोगों के बीच सद्भाव के टुकड़े-टुकड़े करने की जो कामयाब कोशिश जारी है, उसका यह एक अहिंसक और शांतिपूर्ण जवाब है जो कि गांधी की गौरवशाली परंपरा के मुताबिक है। दूसरा गांधी बनना किसी के लिए भी आसान बात नहीं है, लेकिन गांधी की बताई राह पर चलना उतना मुश्किल भी नहीं है, और राहुल गांधी आज इसी बात को साबित करने में लगे हुए हैं। लोग महज इतना याद करके देखें कि क्या उन्होंने हिन्दुस्तान में किसी राजनेता की लगातार महीनों की हजारों ऐसी तस्वीरें देखी हैं जिनमें से एक में भी बदमिजाजी नहीं है, बेदिमागी नहीं है, नफरत नहीं है, हिंसा नहीं है, सिर्फ मोहब्बत है। यह आसान नहीं है, खासकर तब जब आपके माथे पर एक पार्टी की नाकामयाबी की तमाम तोहमत धरी हुई है, और जब आपके सिर पर पार्टी को उबारने की चुनौती भी रखी गई है, वैसे में पार्टी को पूरी तरह छोडक़र, महज देश को जोडक़र चलने की यह कोशिश असाधारण है। एक बात यह जरूर लगती है कि 2014 का चुनाव हारने के बाद राहुल गांधी और उनकी पार्टी ने अगर ऐसी जनयात्रा निकाली होती, तो शायद वह पार्टी के डूबते भविष्य को कुछ बचा सकती थी। लेकिन यह बात भी है कि भारत को जोडऩे की जरूरत 2014 में शायद उतनी नहीं लग रही थी, जो इन बीते बरसों में अब खड़ी हो चुकी है, और शायद इसीलिए यह यात्रा योगेन्द्र यादव से लेकर दूसरे गैरकांग्रेसी लोगों को अपनी तरफ खींच रही है। राहुल गांधी की इस शानदार कोशिश पर कहने के लिए हमारे पास बस दो शब्द हैं-मोहब्बत जिंदाबाद!
फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया पर एक ऐसा वीडियो तैर रहा है जिसमें गैरकानूनी पिस्तौल बेचने वाले लोग पिस्तौल दिखाकर उसकी खूबियां गिना रहे हैं, और ग्राहक ढूंढ रहे हैं। जाहिर है कि जब ऐसा वीडियो खबरों में आ रहा है तो वह सरकार की एजेंसियों की नजरों में तो आना ही चाहिए। सोशल मीडिया पर दूसरे कई किस्म की हिंसा की धमकियों को लेकर भी हम हर कुछ महीनों में यह मुद्दा उठाते हैं कि आईटी एक्ट के तहत किसी कार्रवाई के लिए जिन सुबूतों की जरूरत पड़ती है वे सुबूत ऐसे इंटरनेट और सोशल मीडिया जुर्म के मामलों में बड़ी आसानी से हासिल रहते हैं, और पुख्ता भी रहते हैं। लेकिन ऐसे मामलों में सजा की खबरें भूले-भटके ही कभी सामने आती हैं। ऐसा लगता है कि राज्यों की पुलिस और केन्द्रीय एजेंसियां जुर्म तो तेजी से दर्ज कर लेती हैं, लेकिन मुजरिमों को सजा दिलाने में उनकी यह तेजी गायब हो जाती है।
और बात सिर्फ सोशल मीडिया पर धमकियों की नहीं है, इन दिनों ईमेल और मोबाइल फोन के एसएमएस पर तरह-तरह के झांसे रोज आते हैं। किसी में लॉटरी मिलने की खबर रहती है, तो किसी में मोटी तनख्वाह पर काम पर रखने के लिए छांटने की बात रहती है। इन पर तो संदेश भेजने वाले नंबर भी रहते हैं, लेकिन हिन्दुस्तानी पुलिस और जांच एजेंसियां इन नंबरों को भी नहीं रोक पातीं, और इनके पीछे के लोगों को पकड़ नहीं पातीं। कानून कड़ा है, लेकिन उस पर अमल ढीला है। नतीजा यह है कि इन दिनों खासा वक्त सोशल मीडिया या मोबाइल फोन पर गुजारने वाले लोग बड़े पैमाने पर धोखाधड़ी और जालसाजी का शिकार हो रहे हैं, लेकिन न तो उनके नुकसान की भरपाई हो पाती है, और न ही मुजरिम पकड़े जाते हैं। इन दिनों छत्तीसगढ़ में ऑनलाईन सट्टेबाजी का एक एप्प खूब खबरों में है, लेकिन उसके लिए काम करने वाले छोटे-छोटे लोगों को तो पुलिस पकड़ रही है, लेकिन उसके पीछे के बड़े लोग शायद कुछ ताकतों की मेहरबानी से पकड़ से परे हैं। लोगों का अंदाज है कि ऐसी ऑनलाईन सट्टेबाजी के इस अकेले एप्लीकेशन में अब तक लोग हजारों करोड़ गंवा चुके हैं, और यह जारी ही है।
ऑनलाईन जुर्म परंपरागत जुर्म से कई मायनों में अलग है। दुनिया में कहीं भी बैठे लोग किसी भी देश में जालसाजी और धोखाधड़ी कर सकते हैं, लोगों को ठग सकते हैं। और भारत जैसे देश में जहां पर सरकार लगातार लोगों के बैंक खाते, और दूसरे तमाम किस्म के लेन-देन को आधार कार्ड से जोड़ रही है, कई किस्म की मोबाइल बैंकिंग को बढ़़ावा दे रही है, उसके चलते टेक्नालॉजी और उपकरणों की कम समझ रखने वाले लोग भी इनके इस्तेमाल को मजबूर हो रहे हैं, और अपनी जानकारी ऑनलाईन आ जाने से वे तरह-तरह की धोखाधड़ी का शिकार हो रहे हैं। डिजिटल लेन-देन और कैशलेस खरीद-बिक्री के इतने सारे तरीके आज प्रचलन में आ गए हैं कि लोगों को अपने मोबाइल फोन के लिए उतनी हिफाजत जुटाना अभी नहीं आया है। जहां तक साइबर मुजरिमों का सवाल है, वे पुलिस और दूसरी एजेंसियों से कई कदम आगे चलते हैं, और जब तक लाठी-बंदूक वाली पुलिस उनका ऑनलाईन पीछा कर पाती है, तब तक वे कई बैंक खाते खाली करके आगे बढ़ चुके रहते हैं।
हिन्दुस्तान में आज केन्द्र और राज्य की एजेंसियों को संगठित साइबर-जुर्म करने वाले लोगों की तुरंत शिनाख्त के तरीके सोचने और लागू करने होंगे। जब तक बड़ी संख्या में लोग लुट नहीं जाते, तब तक तो पुलिस तक बात भी नहीं पहुंच पाती है। ऐसी नौबत को बदलने के लिए केन्द्र सरकार को उसे मिले हुए निगरानी रखने के अधिकारों का इस्तेमाल करना चाहिए, और ऐसे मोबाइल नंबर आसानी से पकड़े जा सकते हैं जो कि नौकरी या ईनाम, बैंक के खातों की जानकारी जैसे संदेश बड़े पैमाने पर लोगों को भेजते हैं। जब किसी नंबर से सैकड़ों-हजारों लोगों को एक सरीखे संदेश जाते हैं, तो उनकी पहचान करना अधिक मुश्किल नहीं होना चाहिए। इसके अलावा सरकारों को जनता से भी इसकी जल्द शिकायत पाने के तरीकों को बढ़ावा देना चाहिए ताकि ऐसे संदेश पहुंचें, और कोई न कोई उसकी शिकायत पुलिस को करे। आज ऑनलाईन कारोबार और लेन-देन जितना बढ़ रहा है, उसमें अगर सावधानी नहीं बरती गई, तो लोगों का नुकसान बहुत बड़ा होगा, और पुलिस के हाथ भी शिकायतों से भर जाएंगे। इसलिए बचाव को ही असली हिफाजत मानकर उसके तरीकों को लागू करना चाहिए।
दूसरी तरफ सोशल मीडिया पर भी सरकारी एजेंसियों की नजर रहनी चाहिए ताकि वहां पर कोई कानून तोडऩे वाली बात पोस्ट करें, तो उन पर तुरंत कार्रवाई की जा सके, बजाय किसी शिकायत के आने का इंतजार करने के। इनमें से कोई भी बात ऐसी नहीं है जो सरकारों की सामान्य समझबूझ में न आए, लेकिन आज सरकारों तक शिकायत पहुंचने के पहले कोई कार्रवाई शुरू होते नहीं दिखती है। ऑनलाईन सट्टेबाजी के जिस एप्लीकेशन से जुड़े हुए छोटे-छोटे महत्वहीन मुजरिमों को बड़ी संख्या में गिरफ्तार करना जब शुरू हो चुका था, उसके बाद भी इस सट्टेबाजी के इश्तहार कम से कम एक बड़े अखबार में छपना जारी था, जबकि केन्द्र सरकार ने इसके कुछ दिन पहले ही ऐसे इश्तहारों के खिलाफ चेतावनी जारी की थी। ऐसे इश्तहारों में टेलीफोन नंबर या एप्लीकेशन डाउनलोड करने की जानकारी, और उन पर सट्टे का दांव लगाने के लिए बैंक खातों की जानकारी रहती है, लेकिन भारत सरकार इस पर कोई कार्रवाई करती नहीं दिख रही है।
किसी भी किस्म के जुर्म के लिए कानून को बहुत कड़ा बना देने से जुर्म में कमी नहीं आ सकती, यह तो कम कड़े कानून पर भी अधिक मजबूत अमल से आ सकती थी, जो कि नहीं आई, क्योंकि पिछले कानूनों का ही ठीक से इस्तेमाल नहीं किया गया। केन्द्र और राज्य सरकारों को मिलकर और अलग-अलग भी तुरंत ही ऑनलाईन जुर्म के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए, नहीं तो टेक्नालॉजी की सबसे कम समझ रखने वाले लोग सबसे बुरी तरह लुटते चले जाएंगे।
सोशल मीडिया न हो तो परंपरागत मीडिया में किनारे रह गई खबरें लोगों तक पहुंच भी न पाएं। अभी महाराष्ट्र के सांगली में एक घटना हुई, जो खबरों में कम और सोशल मीडिया पर ज्यादा आई। एक लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता सुधा मूर्ति की सांगली के एक घोर विवादास्पद हिन्दूवादी सामाजिक नेता संभाजी भिड़े से मुलाकात का विवाद सोशल मीडिया पर बहुत लोगों को खींच रहा है। संभाजी भिड़े लंबे समय से अपने आक्रामक हिन्दुत्व की वजह से खबरों में रहते हैं, और उससे भी अधिक विवादों में। कुछ बरस पहले भीमा-कोरेगांव में हुई हिंसा के मामले में उनके खिलाफ पुलिस में केस भी दर्ज है। वे पहले आरएसएस से जुड़े थे, बाद में उन्होंने अपना समानांतर हिन्दूवादी संगठन बनाया, और कई जगहों पर आक्रामक हिन्दुत्व का मुद्दा लेकर उनके समर्थक हिंसा भी करते आए हैं। अपने इलाके में वे भिड़े गुरूजी के नाम से चर्चित हैं, और 2014 के आम चुनाव के प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी ने भी भिड़े से मुलाकात की थी, और उनके बारे में सोशल मीडिया पर बड़ी बातें लिखी थीं। अभी जब सुधा मूर्ति अपनी किताबों के प्रचार के एक कार्यक्रम में सांगली गईं, तो वहां संभाजी भिड़े उनसे मिलने पहुंचे, और मुलाकात की इन तस्वीरों को देखकर सोशल मीडिया पर लोगों ने सुधा मूर्ति की इस बात के लिए आलोचना की कि वे ऐसे घोर साम्प्रदायिक आदमी से मिल रही हैं। सुधा मूर्ति वैसे भी अपने पति, इन्फोसिस के संस्थापक और मालिक नारायण मूर्ति की वजह से भी जानी जाती हैं, लेकिन अब ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक की सास होने की वजह से भी उनकी यह मुलाकात एक अलग विवाद की वजह बन गई है। ब्रिटेन के लोकतांत्रिक संगठन और वहां की संवैधानिक संस्थाएं पहले से भारत में साम्प्रदायिक तनाव को लेकर फिक्र जाहिर करते आई हैं, और अब ब्रिटिश प्रधानमंत्री की सास का ऐसे हमलावर तेवरों वाले हिन्दुत्व आंदोलनकारी के पांव छूना खबरों में अहमियत की बात हो गई है। अभी यह खबर से अधिक सोशल मीडिया पर है, और वहां इसे लेकर तरह-तरह की बहस चल रही है।
अब सार्वजनिक जीवन में जो लोग हैं उन्हें सार्वजनिक सभ्यता और संस्कृति के कुछ बुनियादी शिष्टाचार मानने भी पड़ते हैं। सुधा मूर्ति किसी वामपंथी विचारधारा की नहीं हैं जो उन्हें संभाजी भिड़े जैसे व्यक्ति के आने पर भी उनसे मिलने से परहेज होना चाहिए, और उम्र का इतना फासला होने पर उन्होंने अगर पैर छू लिए, तो यह भी बहुत बड़ा जुर्म नहीं है। सुधा मूर्ति देश में धर्मनिरपेक्षता की आंदोलनकारी भी नहीं हैं, और अपनी किताबों के मराठी संस्करणों के प्रचार के काम में इस प्रमुख मराठी व्यक्ति से मुलाकात से कुछ फायदा भी हो सकता है। इतना तो हुआ ही है कि इस विवाद के चलते लोगों को उनकी किताबों की कुछ अधिक जानकारी हुई है, और उनके मराठी संस्करणों की खबर भी हुई है। जिस कारोबार में प्रचार की जरूरत होती है वहां शोहरत और बदनामी में अधिक फर्क नहीं होता है, क्योंकि दोनों से ही चर्चा होती है। इसलिए सुधा मूर्ति का एक विवादास्पद बुजुर्ग से मिलना अटपटा नहीं रहा। यह जरूर है कि सोशल मीडिया पर लोग यह पूछने का हक रखते हैं कि सुधा मूर्ति ने भीमा-कोरेगांव हिंसा के मुख्य अभियुक्त संभाजी भिड़े के साथ मुलाकात की अपनी तस्वीर क्यों ट्वीट की?
हम संभाजी भिड़े की सोच और उनके तौर-तरीकों से पूरी असहमति रखते हुए भी इस बात को जायज मानते हैं कि अलग-अलग विचारधाराओं के लोगों के बीच बातचीत का सिलसिला चलते रहना चाहिए। लोगों को याद होगा कि महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे और गांधी के एक बेटे के बीच इस हत्या के पीछे की सोच को लेकर लंबा पत्र व्यवहार हुआ था, दोनों ने एक-दूसरे से कई बातें पूछी थीं, और कई बातें बताई थीं। लोगों को यह भी याद होगा कि 2008 में प्रियंका गांधी ने तमिलनाडु की वेल्लूर जेल जाकर राजीव गांधी की हत्या की सजा काट रही उम्रकैदी नलिनी से मुलाकात की थी जो कि 26 बरस से जेल में थी। इससे अधिक विपरीत सोच और क्या हो सकती है कि हत्यारे या हत्यारे के परिवार से मृतक के परिवार के लोग बातचीत करें, और एक-दूसरे को समझने की कोशिश करें। लोकतंत्र का तकाजा यही होता है कि अलग-अलग विचारधाराओं के लोगों के बीच बातचीत का रिश्ता खत्म नहीं होना चाहिए, फिर चाहे उनमें से एक तबका गांधीवादी अहिंसकों का हो, और दूसरा तबका साम्प्रदायिक संगठनों, या हथियारबंद नक्सलियों का हो। तमाम लोगों के बीच बातचीत जारी रहनी चाहिए, क्योंकि किसी की निंदा या भत्र्सना से उसकी सोच को नहीं बदला जा सकता, बातचीत से ही बदला जा सकता है। सुधा मूर्ति के मन में अगर भिड़े की हिंसक सोच को बदलने की बात भी होगी, तो भी उसके लिए बातचीत ही एक जरिया हो सकता है। प्रियंका गांधी ने जेल में नलिनी से मुलाकात में यही पूछा था कि उनके पिता को क्यों मारा गया, जो भी वजह थी उसे बातचीत से भी सुलझाया जा सकता था। गांधी के बेटे और गोपाल गोडसे के बीच लंबा पत्र व्यवहार हुआ था, और दोनों ने परस्पर सम्मान के साथ एक-दूसरे की सोच को समझने की कोशिश की थी।
इसलिए आज सुधा मूर्ति की एक विवादास्पद आक्रामक हिन्दुत्ववादी बुजुर्ग से मुलाकात को ही आलोचना का सामान बना लेना ठीक नहीं है। वे लिखने-पढऩे वाली महिला हैं, सार्वजनिक कार्यक्रमों में जाती हैं, और उनसे जगह-जगह इस मुलाकात के बारे में कई सवाल किए जा सकते हैं, लोग सोशल मीडिया पर उनके और उनकी मुलाकात के बारे में लिख भी रहे हैं, और लोकतंत्र में एक-दूसरे को प्रभावित करने का यही जरिया होना चाहिए। अब विचारधारा के आधार पर किसी को अछूत करार देना ठीक नहीं है, किसी के काम अगर उसे अछूत बनाने लायक हैं, तो उन कामों पर उनसे चर्चा होनी चाहिए, और उनकी सोच को बदलने की कोशिश होनी चाहिए। लोगों के पास आज सोशल मीडिया एक बड़ा जरिया है, और उसके इस्तेमाल से कल तक के बेजुबान लोग भी आज अपनी बात दूर-दूर तक पहुंचा सकते हैं। आज लोकतंत्र में तो इतनी गुंजाइश भी है कि ब्रिटेन में प्रधानमंत्री ऋषि सुनक को अपनी सास की इस मुलाकात पर सवालों का सामना करना पड़ सकता है। लोकतंत्र को वैसा ही लचीला रहने देना चाहिए।
जस्टिस डी.वाई. चन्द्रचूड़ देश के पचासवें मुख्य न्यायाधीश बने हैं, और अपने पिछले मुख्य न्यायाधीश के मुकाबले उनके पास खासा लंबा समय है। यू.यू. ललित कुल 75 दिन के सीजेआई थे, और चन्द्रचूड़ दो बरस तक रहेंगे। चन्द्रचूड़ के बारे में चर्चा इस जिक्र के बिना पूरी नहीं होती कि उनके वी.वाई. चन्द्रचूड़ देश में सबसे लंबे समय तक रहे सीजेआई थे, और वे सवा सात साल से अधिक इस ओहदे पर रहे। दिलचस्प बात यह भी है कि बेटे ने दशकों पहले के अपने पिता के दिए एक फैसले को पलट दिया था, और इस नाते वे पिता के साये के बाहर काम करने वाले व्यक्ति भी माने जा सकते हैं। लेकिन ऐसी निजी बातें और ऐसी इक्का-दुक्का मिसालें बहुत मायने नहीं रखती हैं, और हिन्दुस्तान के हर मुख्य न्यायाधीश से सभी की बहुत सी उम्मीदें रहती हैं, और हमारी भी हैं।
हम उन मामलों से परे जाकर बात करना चाहते हैं जो कि देश के कानून के जानकार कर रहे हैं कि नए सीजेआई अपनी सोच के मुताबिक देश के सबसे चर्चित और महत्वपूर्ण कुछ मामलों में क्या रूख अख्तियार करेंगे। वह तो अपनी जगह अहमियत रखता ही है, लेकिन हम उससे परे भी बात करना चाहते हैं। देश का मुख्य न्यायाधीश कानून मंत्री के माध्यम से केन्द्र सरकार से न्याय व्यवस्था के ढांचे पर लगातार बात कर सकता है, और करता भी है। चूंकि चन्द्रचूड़ का कार्यकाल दो बरस का है, इसलिए वे कुछ गंभीर कोशिशें कर सकते हैं, और सुप्रीम कोर्ट के सामने कटघरे में खड़े हुए मामलों से परे जाकर भी देश की न्याय व्यवस्था के बारे में कुछ बुनियादी बातें कर सकते हैं। और ये बुनियादी बातें कम नहीं हैं। ये बातें निचली जिला अदालतों से शुरू होती हैं, और न्याय व्यवस्था की इस पहली सीढ़ी की बदहाली के सवाल उठाती हैं। हम लगातार इस बात को देखते हैं कि छोटी अदालतों के लिए जज और मजिस्ट्रेट बनाने के जो तरीके हैं, वे बाबूगिरी के मामूली और बेदिमाग इम्तिहानों के हंै। लोग राज्य के लोकसेवा आयोग की प्रतियोगी परीक्षाओं में अधिक नंबर पाकर न्यायिक सेवा में आ जाते हैं, और उनकी किसी तरह की सामाजिक-राजनीतिक हकीकत की समझ नहीं आंकी जाती। वे कानून को बहुत ही क्रूर तरीके से समझकर आते हैं, और समाज की उनकी बेरहम नासमझी की वजह से वे अपने दिए गए किसी आदेश या अपने सुनाए गए किसी फैसले के पहले भी पूरी अदालती प्रक्रिया में भारतीय समाज की धर्म और जाति की व्यवस्था, उसके लैंगिक पूर्वाग्रह का शिकार रहते हैं। उनकी सोच में इंसाफ नहीं रहता है, और न ही निचली अदालत की सुनवाई में उसकी जरूरत मानी जाती है। आंखों पर पट्टी बांधे जिस तरह इंसाफ की देवी की प्रतिमा दिखाई जाती है, निचली अदालतें उसी तरह से फैसले देती हैं। लेकिन हम उनके फैसलों पर अभी टिप्पणी नहीं कर रहे हैं, फैसलों तक पहुंचने का सुनवाई का जो सिलसिला रहता है, वह देश के सबसे कमजोर तबकों, और गरीबों, महिलाओं के खिलाफ जितनी बेइंसाफी से भरा रहता है, उसे नए सीजेआई को खत्म करने की कोशिश करनी चाहिए। हमारा ख्याल है कि देश के दर्जन-दो दर्जन सबसे जलते-सुलगते अदालती मामलों पर फैसलों से अधिक महत्वपूर्ण बात शायद यह होगी कि न्याय व्यवस्था की पहली सीढ़ी को गरीब के चढऩे लायक बनाया जाए। आज न्याय व्यवस्था जो कि पुलिस जांच से शुरू होती है, और जिला या निचली अदालत से पहला फैसला पाती है, वह पूरी की पूरी कमजोर लोगों के खिलाफ है, उसके पीछे समाज का पूरा पूर्वाग्रह काम करता है, और हिन्दुस्तानी भ्रष्टाचार देश में सबसे अधिक हिंसक अगर कहीं है, तो वह निचली अदालतों में है। जस्टिस चन्द्रचूड़ के सामने यह एक ऐतिहासिक मौका है अगर वे केन्द्र और राज्य सरकारों को इस बात के लिए सहमत करा सकें कि राज्य स्तर की न्यायिक सेवा के अधिकारियों को कैसे अधिक संवेदनशील बनाया जा सकता है, कैसे उन्हें सामाजिक सरोकारों की समझ दी जा सकती है। आज जो लोग भारत की सामाजिक हकीकत को जानते हैं, वे यह बात अच्छी तरह समझते हैं कि देश के अल्पसंख्यक तबकों, दलित और आदिवासी, गरीब और महिला को लेकर निचली अदालतों का रूख बहुत ही सामंती, पुरूष प्रधान, और हिंसक पूर्वाग्रहों से लदा रहता है, सामाजिक हकीकत की उनकी समझ शून्य रहती है। यह तस्वीर बदलने की जरूरत है।
आज हिन्दुस्तान की छोटी अदालतों में कमजोर और गरीब तबकों की एक पूरी पीढ़ी मुकदमे लड़ते खप जाती है, अगर वे किसी ताकतवर के खिलाफ इंसाफ के लिए जाते हैं। और ऐसे ताकतवर का कोई इंसान होना भी जरूरी नहीं रहता, राज्य सरकारें पांच लीटर दूध में मिलावट साबित करने के लिए तीस-तीस बरस तक मुकदमे लड़ती हैं, और उसके बाद जाकर दूध वाले को कुछ महीनों की कैद होती है, जिससे खासा अधिक वक्त वह इन दशकों में अदालत जाते-आते लगा चुका होता है। जस्टिस चन्द्रचूड़ को न्याय व्यवस्था को समाज के सबसे कमजोर लोगों के प्रति संवेदनशील बनाना चाहिए, वरना अपने सामने अपनी बेंच में आए हुए मामलों पर फैसला देना तो सुप्रीम कोर्ट में रोजमर्रा का काम है, वैसे फैसले किताबों में जिक्र पा सकते हैं, लेकिन देश की तीन चौथाई आबादी की दुआ नहीं पा सकते। हम नए मुख्य न्यायाधीश के आने पर सामने खड़े हुए चर्चित मामलों की फेहरिस्त पर चर्चा करने के मुकाबले इस बुनियादी बात को उठाना जरूरी समझते हैं, और सुप्रीम कोर्ट में जनहित के मामलों को लेकर लडऩे वाले कुछ प्रमुख वकीलों को भी नए सीजेआई के सामने इन बातों को किसी तरह से रखना चाहिए ताकि सबसे कमजोर लोगों को इंसाफ मिलने की थोड़ी सी गुंजाइश तो पैदा हो सके। आज केन्द्र और राज्य सरकारों में कहीं भी इस बुनियादी सुधार को लेकर कोई चर्चा नहीं है, इसलिए हम अपनी बात को एक बिल्कुल ही अकेली सलाह के रूप में देख रहे हैं, लेकिन हम इसे कम महत्वपूर्ण सलाह नहीं मान रहे। सुप्रीम कोर्ट के जज जिन अखबारों को पढ़ते हैं, वहां पर लिखने वाले कानून के जानकार भी न्याय व्यवस्था के बुनियादी ढांचे की बेहतरी का मुद्दा उठा सकें, तो ही अदालत पर एक वजन पड़ता है। जनहित याचिकाओं को लेकर जानकार वकीलों का तजुर्बा यह है कि जब तक इनके मुद्दे जनचर्चा में नहीं आते हैं, तब तक अदालत भी इन्हें जनहित का नहीं मानती है, और जनहित याचिका के जगह पाने की गुंजाइश भी नहीं रहती। इसलिए कई लोगों को अदालती नींव में सुधार की बात को बढ़ाना होगा, और इसीलिए हम यहां यह चर्चा छेड़ रहे हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कोरिया की लाखों महिलाओं को सेक्स-गुलाम बनाकर रखने वाले जापान ने अपने इस ऐतिहासिक अपराध के लिए वह कोरिया से माफी माँगी थी। युद्ध के दौरान सैनिकों के सुख के लिए न सिर्फ जापान में, बल्कि दुनिया के कुछ और देशों ने भी ऐसे जुर्म सरकारी फैसलों के तहत किए हुए हैं। इससे इतिहास में दर्ज एक जख्म का दर्द कुछ हल्का हुआ। हिटलर ने जो यहूदियों के साथ किया, अमरीका ने जो जापान पर बम गिराकर किया, वियतनाम में पूरी एक पीढ़ी को खत्म करके किया, और अफगानिस्तान से लेकर इराक तक जो किया, अमरीका के माफीनामे की लिस्ट दुनिया की सबसे लंबी हो सकती है। लेकिन बात सिर्फ एक देश की दूसरे देश पर हिंसा की नहीं है। देश के भीतर भी ऐतिहासिक जुर्म होते हैं, और उनके लिए लोगों को, पार्टियों को, संगठनों को, जातियों और धर्मों को माफी मांगने की दरियादिली दिखानी चाहिए। ऑस्ट्रेलिया की एक मिसाल सामने है जहां पर शहरी गोरे ईसाईयों ने वहां के जंगलों के मूल निवासियों के बच्चों को सभ्य और शिक्षित बनाने के नाम पर उनसे छीनकर शहरों में लाकर रखा था, और अभी कुछ बरस पहले आदिवासियों के प्रतिनिधियों को संसद में बुलाकर पूरी संसद में उनसे ऐसी चुराई-हुई-पीढ़ी के लिए माफी मांगी। पोप ने पादरियों के हाथों बच्चों के यौन शोषण पर माफ़ी माँगी।
अब हम भारत के भीतर अगर देखें, तो गांधी की हत्या के लिए कुछ संगठनों को माफी मांगनी चाहिए, जिनके लोग जाहिर तौर पर हत्यारे थे, और हत्या के समर्थक थे। इसके बाद आपातकाल के लिए कांग्रेस को खुलकर माफी मांगनी चाहिए, 1984 के दंगों के लिए फिर कांग्रेस को माफी मांगनी चाहिए, इंदिरा गांधी की हत्या के लिए खालिस्तान-समर्थक संगठनों को बढ़ावा देने वाले लोगों को माफी मांगनी चाहिए, बाबरी मस्जिद गिराने के लिए भाजपा को और संघ परिवार के बाकी संगठनों को माफी मांगनी चाहिए, गोधरा में ट्रेन जलाने के लिए मुस्लिम समाज को माफी मांगनी चाहिए, और उसके बाद के दंगों के लिए नरेन्द्र मोदी और विश्व हिन्दू परिषद जैसे लोगों और संगठनों को माफी मांगनी चाहिए। इस देश के दलितों से सवर्ण जातियों को माफी मांगनी चाहिए कि हजारों बरस से वे किस तरह एक जाति व्यवस्था को लादकर हिंसा करते चले आ रहे हैं। और मुस्लिम समाज के मर्दों को औरतों से माफी मांगनी चाहिए कि किस तरह एक शहबानो के हक छीनने का काम उन्होंने किया। इसी तरह शाहबानो को कुचलने के लिए कांग्रेस पार्टी को भी माफी मांगनी चाहिए जिसने कि संसद में कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटा। और बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि हिंदुस्तानी सुप्रीम कोर्ट को भी अपने बहुत से फ़ैसलों के लिए माफी माँगनी चाहिए।
दरअसल सभ्य लोग ही माफी मांग सकते हैं। माफी मांगना अपनी बेइज्जती नहीं होती है, बल्कि अपने अपराधबोध से उबरकर, दूसरों के जख्मों पर मरहम रखने का काम होता है। दुनिया के कई धर्मों में क्षमायाचना करने, या जुर्म करने वालों को माफ करने की सोच होती है, लेकिन ऐसे धर्मों को मानने वाले लोग भी रीति-रिवाज तक तो इसमें भरोसा रखते हैं, असल जिंदगी में इससे परे रहते हैं। लेकिन नए साल के करीब आने के मौके पर हमने अभी-अभी यहां पर लिखा था कि लोग कौन से संकल्प ले सकते हैं। इसमें आज की हमारी यह चर्चा भी जुड़ सकती है क्योंकि बीती जिंदगी की गलतियों और गलत कामों से अगर उबरना है, एक बेहतर इंसान बनना है, तो उन गलत कामों को मानकर, उनके लिए माफी मांगे बिना दूसरा कोई रास्ता नहीं है।
आज जब संयुक्त राष्ट्र संघ औपचारिक रूप से यह कहता है कि रूस अपनी फ़ौजों को विग्राया देकर भेज रहा है कि उसके सैनिक यूक्रेनी महिलाओं से बलात्कार करें, तो पुतिन के बात के रूस के लिए यह एक मुद्दा रहेगा माँफी माँगने के लिए। और हिंदुस्तान में इस दौर में मुस्लिमों, दलितों, आदिवासियों के साथ जो हो रहा है, उसके लिए माफ़ी माँगना तो यह मुल्क अगले सौ बरस में भी नहीं सीख पाएगा, माफ़ी माँगने के लिए सभ्य होने की ज़रूरत होती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
नए साल के आने की खुशी में हर तबका अपने-अपने तरीके से जश्न या खुशियां मनाता है। इसमें सरकार या प्रशासन के नियम यह तय करते हैं कि कोई दावत कितने बजे तक चले। मुम्बई में ऐसी दावतों के लिए पुलिस ने रात डेढ़ बजे तक का वक्त तय किया हुआ है। इसके खिलाफ होटल वालों ने हाईकोर्ट में अपील की थी और वहां से यह आदेश हुआ था कि पार्टियां सुबह पांच बजे तक चल सकेंगी। इस पर देश के एक बड़े संविधान विशेषज्ञ वकील हरीश साल्वे ने ट्वीट किया था कि यह कैसी नौबत आ गई है कि शराबखानों और पार्टियों को बंद करने का वक्त अदालतों को तय करना पड़ रहा है, राजनीतिक व्यवस्था अलोकप्रिय फैसले लेने से बचते हुए जिम्मेदारी की जगह अदालतों के लिए खुद खाली कर रही है।
हिन्दुस्तान आजादी के बाद से एक ऐसी अजीब से तानाशाह सरकारी इंतजाम का शिकार रहा है जिसमें सरकार हर किस्म के हक अपने हाथ में रखते हुए लोगों की जिंदगी को, कारोबार को, जीने के तौर-तरीकों की लगाम अपने हाथों में रखने की शौकीन रही है। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम हर बरस एक-दो बार इस बारे में लिखते हैं कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ही पुलिस रात साढ़े दस बजे से लाठियां लहराकर, गालियां देकर, पानठेलों तक को बंद करवाने पर उतारू हो जाती है। आधी रात काम से लौटते किसी मजदूर को, किसी रिक्शेवाले को कहीं भी एक प्याली चाय भी नहीं मिल सकती। दूसरी तरफ जो महंगे होटल हैं, उनको अपने सितारा दर्जे के नियमों के मुताबिक चौबीसों घंटे चाय-कॉफी और नाश्ते का इंतजाम रखना पड़ता है, और उतना खर्च उठाने की ताकत रखने वाले कोई भी वहां जाकर खा-पी सकते हैं। बेदिमाग और बददिमाग शासन और प्रशासन को यह समझ नहीं आता कि बाजार में काम करने वाले न सिर्फ कारोबारी-कर्मचारी, बल्कि खुद कारोबारी ही रात नौ-दस बजे के पहले अपने खुद के घर नहीं लौट पाते, और फिर अगर वे चाहें कि परिवार के साथ कुछ देर बाहर निकलें, तो उनको एक चाय ठेला भी खुला नहीं मिल सकता।
आज जब शहरीकरण की वजह से लोगों का रात-दिन काम करना होता है, तो फिर उनकी जरूरतों को भी रात-दिन पूरी होने से रोकने का हक किसी सरकार को नहीं है। जनता के हक के खिलाफ सरकारें अपनी बददिमागी दिखाती हैं, और चूंकि आम जनता संगठित नहीं है, इसलिए उसके रोज के हक को कुचलने के खिलाफ भी वह अदालत नहीं जा पाती। जिस कारोबार को सरकारी रोक से नुकसान हो रहा था, वह कारोबार मुम्बई में तो अदालत तक चले गया, बाकी जगहों पर भी देश का वही कानून लागू है, और देश के कानून में अमीर और गरीब ग्राहकों के बीच कोई फर्क भी नहीं है। इसलिए जब छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में सरकार यह तय करती है कि शराबखानों में किस रेट से सस्ती शराब नहीं बेची जाएगी, तो फिर ऐसा नियम सस्ती शराब पीने की ही ताकत रखने वाले तबके के हक के खिलाफ है। लेकिन जनता में जागरूकता न होने से पुलिस अपने अंदाज में रात साढ़े दस बजे से बाजार का कर्फ्यू लगा देती है, और आम लोग अपने परिवार सहित बाहर निकलकर जिंदगी जीने का हक भी खो बैठते हैं। ठेले-खोमचे वालों को रात साढ़े दस बजे से लाठियों से भगा दिया जाता है, और बड़े होटलों में खाने को कुछ न कुछ तो चौबीसों घंटे मिलता है।
शहरीकरण और पर्यटन की मामूली समझ रखने वाले लोग भी यह समझ सकते हैं, कि जिस प्रदेश या शहर में रात कुछ खाने-पीने भी न मिले, वहां पर बाहर से आए हुए लोग उस जगह को किस तरह मरघटी सन्नाटे वाली पाते होंगे। अगर किसी देश-प्रदेश, शहर या इलाके को पर्यटकों को बढ़ावा देना है, कारोबार को बढ़ाना है, रोजगार के मौके बढ़ाने हैं, दिन के ट्रैफिक जाम के घंटों की भीड़ को रात तक फैलाना है, तो उसके लिए हर शहर में रात की जिंदगी को जीने का हक देना होगा। छत्तीसगढ़ सहित देश के बाकी जिस हिस्से में भी ऐसी रोक लगती है, उसके खिलाफ स्थानीय जनता या स्थानीय कारोबार अदालतों में जाकर सरकारी मनमानी के खिलाफ इंसाफ पा सकते हैं। यह बात लोकतंत्र में अतिसरकारीकरण, या अतिनियंत्रण है, और इसे खत्म किया जाना चाहिए।
छत्तीसगढ़ के बारे में हम यह सकते हैं कि यहां बाहर से आने वाले पर्यटक कुछ गिनी-चुनी जगहों को देखने के अलावा रात में सब-कुछ मुर्दा पाते हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। अगर रात में बाजार और मनोरंजन के घंटे बढ़ेंगे, तो उससे कर्मचारियों के नए रोजगार भी खड़े होंगे, और शाम की भीड़ देर रात तक खिसककर सडक़ों से ट्रैफिक जाम भी कम करने में मदद करेगी। जो लोग यह सोचते हैं कि रात में बाजार जल्द बंद करवाने से जुर्म कम होते हैं, उनको यह रिकॉर्ड देख लेना चाहिए कि जब तक सडक़ों पर चहल-पहल रहती है, कारोबार जारी रहता है, तब तक जुर्म कम होते हैं। जुर्म उस समय बढ़ते हैं, जब सडक़ों और बाजारों में सन्नाटा छा जाता है। वैसे भी आज के ऑनलाइन मार्केट के मुक़ाबले स्थानीय बाज़ार को जि़ंदा रखने के लिए उसे चौबीसों घंटे खुले रखने की इजाज़त देनी चाहिए। राज्यों में किसी को इस बात को समझना चाहिए, और जनता को देर रात तक अपने परिवार के साथ बाहर निकलकर कुछ खाने-पीने के लिए ठेले या रेस्तरां नसीब होने देना चाहिए, या जो लोग देर रात खऱीददारी करना चाहते हैं, दुकान चलाना चाहते हैं, उनको भी इसकी आज़ादी देना चाहिए। व्यापार संगठन जो ऑनलाइन कारोबार के ख़िलाफ़ लगे रहते हैं, उन्हें भी बाज़ार रात-दिन खुले रहने की छूट माँगनी चाहिए। जितना हक़ पैसेवालों का महँगे होटलों में देर रात खाने का है, उतना ही हक़ मज़दूर का भी फुटपाथ पर तमाम रात चाय-नाश्ता पाने का होना चाहिए।
केरल सरकार अपने राज्यपाल से बुरी तरह थक गई है। लंबी जिंदगी कांग्रेस में गुजारने वाले आरिफ मोहम्मद खान जब मोदी सरकार की तरफ से केरल के राज्यपाल बनाए गए, तो उन्होंने संघ और जनसंघ के लोगों के भी मुकाबले अधिक कट्टर रूख दिखाया, और राज्य सरकार की फजीहत करने वाले राज्यपालों की फेहरिस्त में अपना नाम जल्द ही लिखा लिया। लोगों को याद होगा कि हाल के बरसों में ही राज्यपाल से एक सबसे बड़ा टकराव पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी का वहां के जगदीप धनखड़़ के साथ चला जो कि बरसों तक चला, सार्वजनिक रूप से चला, और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर दोनों तरफ से एक-दूसरे पर हमले होते रहे। ऐसा नहीं कि इसके पहले मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के टकराव का कोई इतिहास नहीं है, लेकिन बंगाल के बाद अब केरल, यह टकराव कुछ अधिक बड़ा होते दिख रहा है। जगदीप धनखड़ तो उपराष्ट्रपति बन गए, लेकिन केरल अभी तक आरिफ मोहम्मद खान को भुगत रहा है। अब ऐसी खबर है कि केरल की वामपंथी सरकार इस राज्यपाल के मनमाने फैसलों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जा सकती है। केरल में यह टकराव इसलिए भी अधिक है कि आरिफ मोहम्मद मोदी सरकार के मनोनीत हैं, और केरल की सडक़ों पर वामपंथियों और आरएसएस के लोगों के बीच हिंसक टकराव चलते ही रहता है। यह टकराव संवैधानिक और सरकारी मुद्दों से आगे बढक़र निजी हमलों तक भी आ गया है, और पिछले हफ्ते राज्यपाल ने मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा कि उनका कार्यालय राज्य में तस्करी को संरक्षण दे रहा है। उन्होंने एक चर्चित सोना-तस्करी मामले के मुख्य आरोपियों में से एक महिला द्वारा लिखी किताब के हिस्से की चर्चा की जिसमें विजयन और उनके परिवार के सदस्यों के खिलाफ कई आरोप लगाए गए हैं। दूसरी तरफ कुछ महीने पहले तमिलनाडु में सत्तारूढ़ डीएमके ने राज्यपाल आर.एन. रवि के इस्तीफे की मांग की है।
हम केरल के इस मामले की खूबी और खामी पर जाना नहीं चाहते क्योंकि हम किसी एक राज्य से परे एक सैद्धांतिक बात पर चर्चा करना चाहते हैं। भारत में राजभवनों की परंपरा खत्म करने की जरूरत है। एक पुरानी संवैधानिक व्यवस्था के तहत केन्द्र सरकार राज्यों के राज्यपाल नियुक्त करती है जो कि राज्य सरकारों से सभी तरह के जवाब मांग सकते हैं, और वे खुद केन्द्र सरकार के गृहमंत्रालय को रिपोर्ट करते हैं, उसके तहत काम करते हैं। जब केन्द्र और राज्य दोनों में एक ही पार्टी की सरकार रहती है, तब तो काम किसी तरह चल जाता है, लेकिन जब इन दोनों जगहों पर परस्पर विरोधी विचारधारा की सरकारें रहती हैं, तब राज्यपाल केन्द्र सरकार के औजार और हथियार की तरह काम करते हैं, और राज्य सरकारों का जीना हराम करने का काम आते हैं। राज्य सरकारों द्वारा तैयार विधेयकों को राज्यपाल की मंजूरी के लिए भेजना एक संवैधानिक अनिवार्यता रहती है, और राजभवन ऐसे प्रस्तावों को, विधानसभा में पारित विधेयकों को भी बिस्तर के नीचे दबाकर उस पर चैन से सोते रहते हैं, क्योंकि उन्हें और कोई काम रहता नहीं है। जब-जब राज्यपालों के खिलाफ कोई राज्य सरकार अदालत तक जाती है, शायद हर मामले में राज्यपाल के खिलाफ ही आदेश होता है। और बहुत से मामलों में तो राज्य सरकार को अस्थिर करने के लिए, सत्तारूढ़ पार्टी के बागी विधायकों की सरकार बनाने के लिए, विधानसभा अध्यक्ष के खिलाफ आदेश देने के लिए राज्यपालों का इस्तेमाल होते ही रहता है। केन्द्र सरकार के एजेंटों की तरह काम करने वाले राज्यपालों को प्रदेश का संवैधानिक प्रमुख, और प्रथम नागरिक कहना एक फिजूल की सामंती व्यवस्था है, और यह व्यवस्था खत्म की जानी चाहिए।
बहुत पहले से यह सोच चली आ रही है कि राज्यपाल का पद खत्म किया जाए। वैसे भी राज्यपाल केन्द्र सरकार की तरफ से राज्य सरकार को हलाकान करने के अलावा निहायत गैरजरूरी जलसों का सामान रहते हैं, और उन पर लंबी-चौड़ी फिजूलखर्ची होती है। राजभवन केवल समारोह की जगह बने रहते हैं, और राज्यपाल मुख्यमंत्रियों की रैगिंग लेने के बाद बचे हुए समय में पुलिस बैंड बजवाते हुए अपने पसंदीदा चापलूसों, रिश्तेदारों, और उन्हें मनोनीत करने वाली सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं से घिरे रहने का काम करते हैं। ऐसे कामों के लिए सैकड़ों कर्मचारियों वाले राजभवन पर हर महीने करोड़ों का खर्च क्यों किया जाना चाहिए? जहां तक मुख्यमंत्री या मंत्रियों को शपथ दिलाने की बात है, तो वह काम तो हाईकोर्ट के जज भी कर सकते हैं।
और जिस तरह के लोगों को राज्यपाल बनाया जाता है, वह भी सबके सामने है। केन्द्र मेें सत्तारूढ़ पार्टी के नाकामयाब नेताओं को उनकी जाति या उनके धर्म, उनके प्रदेश के आधार पर बारी-बारी से मौका देते हुए लोगों को राज्यपाल बनाया जाता है। इन लोगों की किसी संवैधानिक समझ की कोई बाध्यता नहीं होती, और न ही इनके संसद या विधानसभाओं के किसी तजुर्बे की। केन्द्र सरकार रिटायर होने वाले जिस जज से खुश रहती है, उसे भी राज्यपाल बना देती है, साम्प्रदायिक इतिहास वाले लोग भी राज्यपाल बन जाते हैं, और कई ऐसे राज्यपाल बन जाते हैं जिनका पूरा परिवार राजभवन से राज्य सरकार में दलाली करने का काम करता है। राजभवनों का कैसा-कैसा बेजा इस्तेमाल होता है यह देखना हो तो छत्तीसगढ़ के राजभवन के इतिहास को देखा जा सकता है जहां से एक राज्यपाल ने बहुत सारा सामान अपने प्रदेश अपने घर भेज दिया था, यहां पर एक दूसरे राज्यपाल एक दूसरे रिटायर्ड फौजी अफसर के साथ दारू पीते पड़े रहते थे, और उनके दबाव में राज्य सरकार के किए गए गलत फैसले सुप्रीम कोर्ट तक जाकर मुंह की खाकर आए थे। एक और राज्यपाल इस राजभवन में अपने साम्प्रदायिक इतिहास की गौरवगाथा खुद ही सुनाते रहते थे। और एक के बाद एक कई राज्यपाल इस राज्य में ऐसे हुए जिन्होंने आदिवासियों के बारे में उन्हें मिले अतिरिक्त संवैधानिक अधिकारों का कभी इस्तेमाल नहीं किया। बिहार में एक ऐसे राज्यपाल हुए जिनके बेटे राजभवन को दलाली का अड्डा बना चुके थे। और आन्ध्र के राजभवन में एक ऐसे बुजुर्ग कांग्रेसी खुफिया कैमरे का शिकार होकर वहां से निकले जो कि 83 बरस की उम्र में तीन-तीन लड़कियों के साथ एक साथ कैमरे पर रिकॉर्ड हुए थे। ऐसी तमाम गंदगी को राजभवनों में क्यों रखा जाना चाहिए, और संविधान का नाम ऐसे भवनों के साथ जोडक़र लोगों की संविधान पर आस्था क्यों खत्म करनी चाहिए?
यह पूरा सिलसिला खत्म करने की जरूरत है। आज केन्द्र और राज्य के संबंधों को बर्बाद करने के लिए, देश के संघीय ढांचे को खत्म करने के लिए जिस आलीशान और सामंती भवन का इस्तेमाल होता है, वह खत्म होना चाहिए। केन्द्र की सत्तारूढ़ पार्टी देश भर की राजधानियों के राजभवनों को अपने लोगों के वृद्धाश्रमों की तरह इस्तेमाल करती है, वह भी खत्म होना चाहिए। भारतीय लोकतंत्र में राज्य सरकारों का पर्याप्त सम्मान होना चाहिए, और केन्द्र की तरफ से ऐसे तैनात किए गए अड़ंगे खत्म होने चाहिए। जिस तरह देश की राजधानी में राज्यों के अपने कमिश्नर होते हैं जो कि केन्द्र सरकार में उस राज्य के कामकाज करवाते हैं, उसी तरह हर राज्य में केन्द्र के कोई अफसर कमिश्नर की तरह रह सकते हैं, जिनका कोई संवैधानिक दर्जा नहीं हो, और जो प्रदेश की जनता की छाती पर बोझ न हों, और एक संपर्क-अधिकारी की तरह काम करें। देश के संघीय ढांचे में इससे अधिक कोई जरूरत नहीं होना चाहिए। राजभवनों का यह सिलसिला राज्यों के खर्च पर केन्द्र के एजेंटों की अय्याशी और साजिश के अलावा कुछ नहीं है, और यह फिजूल का संस्थान खत्म किया जाना चाहिए, बिना देर किए।
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उत्तर भारत में अभी ठंड ठीक से शुरू हुई भी नहीं है कि राजधानी दिल्ली का पूरा इलाका जहरीली हवा से भर गया है। लगातार तीसरे दिन वायु प्रदूषण का स्तर इतना खराब है कि सुप्रीम कोर्ट को दखल देनी पड़ रही है, दिल्ली सरकार स्कूलें बंद कर रही है, और दिल्ली के बाजारों के अलग-अलग समय पर खुलने की पहल की जा रही है, दिल्ली में अनिवार्य सेवाओं से परे बाकी की गाडिय़ों के घुसने पर रोक लगाई गई है, और दिल्ली सरकार ने आधे कर्मचारियों को घर से काम करने को कहा है। दिल्ली के इस प्रदूषण को बरसों गुजर गए हैं, वहां बसे लोगों के फेंफड़े खराब होते चल रहे हैं, सांस से जुड़ी बीमारियां बढ़ती चल रही हैं, और हर बरस के कई हफ्तों के तरह-तरह के प्रतिबंधों से दिल्ली का कारोबार भी चौपट हो रहा है। राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र, एनसीआर, के तहत हरियाणा और यूपी के भी कुछ हिस्से आते हैं, और हर बरस की तरह पंजाब से इस बार भी फसलों के ठूंठ (पराली) जलाने की वजह से दिल्ली की तरफ आया प्रदूषण इस बार भी जारी है, और कल यह दिल्ली के प्रदूषण में 38 फीसदी का हिस्सेदार गिना गया था।
जो लोग दिल्ली पर रहम करना चाहते हैं, उन्हें दिल्ली के विकेन्द्रीकरण की जरूरत है जो कि होते नहीं दिख रहा, बल्कि उसका उल्टा हो रहा है। दिल्ली से लगे हुए उत्तरप्रदेश के हिस्से में एक नया अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट बन रहा है जिससे दिल्ली के आसपास के हवाई मुसाफिरों की गिनती कितनी भी बढ़ सकती है। यह हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा एयरपोर्ट बनने जा रहा है जो कि दिल्ली के अलावा यूपी और हरियाणा से भी हाईवे से जुड़ा रहेगा। कुल मिलाकर इस एयरपोर्ट से दिल्ली के मौजूदा एयरपोर्ट की भीड़ तो कम होगी, लेकिन दिल्ली शहर की भीड़ कम होने का कोई आसार इससे नहीं रहेगा, वह और अधिक बढ़ सकती है।
हिन्दुस्तान में शहरी योजनाशास्त्रियों की सोच घूम-फिरकर पहले से बसे हुए शहरों के इर्द-गिर्द ही आकर टिक जाती है। ऐसे किसी एयरपोर्ट को दिल्ली के करीब बनाने के बजाय दिल्ली के विकल्प के रूप में एक किसी नए शहर को काफी दूरी पर बसाया जाना चाहिए था, और वहां सरकार खुद जाने की एक पहल करती। केन्द्र सरकार के सैकड़ों ऐसे संस्थान हैं जिनका दिल्ली में रहना कोई जरूरी नहीं है, इनको ऐसे किसी नए शहर में ले जाया जा सकता है। हमने इसी जगह पहले भी यह सलाह दी है कि तमाम प्रदेशों से यह प्रस्ताव मांगने चाहिए कि वे अपने प्रदेश में केन्द्र सरकार के किन संस्थानों के लिए जमीनें देने को तैयार हैं, और उन जमीनों के आसपास एयरपोर्ट या शहरी ढांचा कितना है। देश भर से ऐसे प्रस्ताव बुलाकर केन्द्र सरकार को दिल्ली के सरकारी हिस्से का विकेन्द्रीकरण करना चाहिए। अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग दफ्तर रहने से देश भर से दिल्ली पहुंचने वाले लोग उन अलग-अलग प्रदेशों में जाएंगे, और ऐसी आवाजाही से राष्ट्रीय एकता भी बढ़ेगी। यह बात दिल्ली की स्थानीय केजरीवाल सरकार को नहीं सुहाएगी, लेकिन स्थानीय सरकार की ताकत और मर्जी से दिल्ली का प्रदूषण कम नहीं हो रहा। जहां सुप्रीम कोर्ट के जज खुद लाठी लेकर बैठे हैं, और बरसों से ठंड के मौसम में दर्जनों सुनवाई इस प्रदूषण पर कर रहे हैं, लेकिन उससे भी समस्या का समाधान नहीं दिख रहा है। देश की सरकार को दिल्ली से परे देखना होगा, उसे एक छत के नीचे केन्द्र सरकार और सार्वजनिक उपक्रमों के हर दफ्तरों को रखने का तंगनजरिया खत्म करना होगा, इसके बिना आज से 25 बरस बाद भी हो सकता है कि दिल्ली ऐसी ही प्रदूषित रहे, या इससे भी अधिक प्रदूषित हो जाए।
बाहर के लोग जब दिल्ली जाते हैं तो वहां गाडिय़ों की भीड़ देखकर हक्का-बक्का रह जाते हैं। बम्पर से बम्पर सटी हुई गाडिय़ां घंटों ट्रैफिक जाम में फंसी रहती हैं, गाडिय़ां खड़ी करने को जगह नहीं रहती है, और दिल्ली के लोगों ने मानो इसी तरह की जिंदगी जीना सीख लिया है। लेकिन यह नौबत अच्छी नहीं है। बुरे हालात में चुप रहकर जीना सीख लेना उन हालात को जारी रखने के लिए एक बढ़ावा होता है। केन्द्र सरकार और उससे जुड़े हुए अधिक से अधिक दफ्तर दिल्ली के बाहर ले जाए जा सकें तो दिल्ली में दम घुटना कुछ कम होगा। एक वक्त केन्द्रीय मंत्री रहे माधवराव सिंधिया ने ग्वालियर को देश की उपराजधानी बनाने का एक अभियान चलाया था। ग्वालियर दिल्ली से न बहुत करीब है, और न ही बहुत दूर। इस किस्म के और भी शहर ढूंढे जा सकते हैं, और दिल्ली के दफ्तरों और वहां की आबादी के एक हिस्से को बाहर ले जाकर उनकी भी जिंदगी बढ़ाई जा सकती है, और दिल्ली में बच गए लोगों की जिंदगी भी बचाई जा सकती है। जहां बरस-दर-बरस प्रदूषण का जहर ऐसा स्थाई हो गया है, वहां पर लंबे समाधान की तरफ देखना जरूरी है।
प्रदूषण काबू में करने के सारे तरीकों का इस्तेमाल भी जब लोगों की जिंदगी नर्क सरीखी बनाए हुए है, तो फिर आगे और खराब हालत के बारे में सोचकर एक तैयारी करना जरूरी है जिस पर अमल में कुछ दशक भी लग सकते हैं। केन्द्र सरकार दिल्ली में खुलने वाले निजी दफ्तरों पर भी एक बड़ा टैक्स लगा सकती है, ताकि वे इस शहर से परे दूसरी जगह छांटें, और दिल्ली के प्रदूषण में इजाफा न करें। केन्द्र सरकार को दिल्ली में अपने किसी भी निर्माण पर सौ फीसदी रोक लगा देनी चाहिए, क्योंकि वह अगर अपने कुछ दफ्तर बाहर ले जाएगी, तो उसकी इमारतें उसके अपने अमले की जरूरतें लंबे समय तक पूरी कर सकेंगी। केन्द्र सरकार को अलग-अलग राज्यों में जरूरत के सार्वजनिक ढांचे देखकर वहां की राज्य सरकारों से बात करके अपने विकेन्द्रीकरण की तैयारी तुरंत करनी चाहिए, और आज ऐसा आसान इसलिए भी है कि केन्द्र और अधिकतर राज्यों में एनडीए की सरकारें हैं, वैसे तो बाकी राज्यों की सरकारें भी केन्द्र के दफ्तरों के आने का स्वागत ही करेंगी।
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पश्चिम के किसी टीवी रियलिटी शो की तर्ज पर हिन्दुस्तान में पिछले कई बरस से बिग बॉस नाम का एक शो टीवी पर आता है जो देश के एक सबसे बड़े फिल्म सितारे, सलमान खान के हाथों पेश होता है, और इस पर तरह-तरह के चर्चित और आमतौर पर विवादास्पद लोग आते हैं, और किसी बनावटी घर में रहने का नाटक करते हुए एक-दूसरे के खिलाफ गंदी से गंदी, ओछी से ओछी बातें करते हैं। रियलिटी के नाम पर ऐसी गढ़ी हुई सनसनीखेज हकीकत के इस कार्यक्रम के बारे में अधिक कुछ कहना बेकार है, सिवाय इसके कि इसमें शामिल लोग हिन्दुस्तानी दर्शकों के बीच गंदगी के लिए एक चाहत को भुनाते हैं, और गंदगी के नए-नए रिकॉर्ड कायम करते हैं। गलाकाट मुकाबले में लगे मीडिया के बीच इस गंदगी को सुर्खियों में परोसकर पाठक या दर्शक पाने की होड़ लगी रहती है, और कभी-कभी यह लगता है कि टीवी और बाकी मीडिया एक-दूसरे की गंदगी पर परजीवी की तरह जीने में लगे रहते हैं।
कई बार यह भी लगता है कि वो कौन से लोग हैं जिनकी वजह से बीमार दिमाग का लगता ऐसा शो कामयाब होता है, वो कौन से दर्शक हैं जो कि ऐसी साजिशों और ऐसी गंदगी को चाट-चाटकर देखते हैं, मजा लेते हैं? मनोरंजन इस तरह बेहूदा भी हो सकता है, यह बात कुछ अविश्वसनीय भी लगती है, लेकिन यह सच होगा, तभी तो दुनिया के कई देशों में इसी ढांचे में ढले हुए स्थानीय कार्यक्रम बनते हैं, और चलते हैं। शायद टीवी का माध्यम ऐसा है कि वह विवादों और सनसनी पर पलता है, जिस पर जब करण जौहर अपने कॉफी शो में हार्दिक पटेल से उनकी सेक्स-जिंदगी की गंदगी उगलवाते हैं, और उसे सबसे अधिक दर्शक मिलते हैं, तो वह बहुत बड़ी बाजारू कामयाबी रहती है। जिस तरह उत्तर भारत के कुछ राज्यों से स्थानीय सार्वजनिक कार्यक्रमों में बाजारू गानों पर अश्लील नाच करते हुए नोट बटोरने में लगी डांसरों का हाल दिखता है, हिन्दुस्तानी मनोरंजन टीवी, और अब तो समाचार टीवी, का हाल भी उतना ही बुरा दिखता है, फिर भी बिग बॉस जैसी गंदगी शायद ही दूसरे टीवी कार्यक्रमों में हो।
अब क्या यह समाज का एक दर्पण है जो कि लोगों की असली पसंद पर कामयाब हो रहा है, या फिर यह मेले में लगने वाली नुमाइश में रखे गए उन आईनों की तरह का है जिनमें लोग अपने आपको मोटा, लंबा, या आड़ा-तिरछा देखकर खुश होते हैं? अगर यह आईना लोगों की बीमार सोच को सही-सही दिखाने वाला एकदम सपाट आईना है, तो लोगों को यह सोचना चाहिए कि वे घर बैठे किस तरह की गंदगी देखते हैं, और उनके साथ बैठे, या वहां पर आते-जाते बच्चे किस तरह की विकृत चीजों को देखेंगे, और उनसे क्या सीखेंगे? यह सिलसिला अधिक खतरनाक इसलिए है कि ऐसे कार्यक्रम पोर्नो नहीं हंै जो कि गैरकानूनी भी होते हैं, और परिवारों के बीच नहीं देखे जाते हैं, ऐसे कार्यक्रमों पर न तो कोई कानूनी रोक है, और न ही इन्हें घर बैठे देखने के खिलाफ कोई जागरूकता है। नतीजा यह है कि किसी एक व्यक्ति के चक्कर में पूरा परिवार ऐसी गंदगी चखकर देखने लगता है, और अगली पीढ़ी को न सिर्फ यह एक कार्यक्रम, बल्कि ऐसे बहुत से कार्यक्रम बर्दाश्त के लायक लगने लगते हैं, और पारिवारिक संस्कारों के तहत मंजूरी मिले हुए। खतरा सिर्फ इस कार्यक्रम का नहीं है, खतरा ऐसे कार्यक्रमों के प्रति लोगों की पसंद विकसित हो जाने का है, जिससे आगे ऐसे और कार्यक्रम बनते रहेंगे, और आगे ऐसे दूसरे कार्यक्रमों के भी दर्शक जुटते रहेंगे। इलेक्ट्रॉनिक माध्यम में लोगों को बर्बाद करने की अपार क्षमता है, अभी कुछ समय पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने एकता कपूर के किसी सीरियल को लेकर काफी कड़ी जुबान में फटकार लगाई थी, हम अभी उस सीरियल की खूबी-खामी पर टिप्पणी नहीं कर रहे, सिर्फ इतना कह रहे हैं कि बिग बॉस से परे एकता कपूर के ढेर से सीरियल ऐसे हैं जो कि परिवारों के भीतर तनाव खड़ा करने में लगे रहते हैं, लोगों के बीच घर के एक छततले किस तरह की साजिशें हो सकती हैं, उसी का बखान करने में लगे रहते हैं। और ऐसे सीरियलों का जो भी दर्शक तबका है वह बर्बाद हो रहा है। लोकतंत्र में ऐसी गंदगी को कोई छन्नी लगाकर नहीं रोका जा सकता, लेकिन समाज के बीच ऐसी जागरूकता पैदा करने की जरूरत है कि किन चीजों को न देखा जाए। और इसके साथ-साथ इस बात की जागरूकता की भी जरूरत है कि किन चीजों को देखा जाए। लोगों की जिंदगी में टीवी देखने के घंटे तो सीमित रहते हैं, और ऐसे में उन घंटों में अगर अच्छा-अच्छा देखने की आदत पड़ जाए, तो बुरा-बुरा देखने का वक्त ही कम बचेगा। इसके अलावा परिवारों को भी यह सोचना चाहिए कि घर के भीतर देखी गई गंदगी एक किस्म से उस गंदगी को पारिवारिक स्तर पर दी गई मंजूरी रहती है, इससे पूरे परिवार की संस्कृति खत्म होती है, और खासकर बच्चे अगर यही माहौल देखकर बड़े होते हैं, तो वे तरह-तरह की हिंसा और विकृतियों वाले व्यक्तित्व बनते हैं। हिन्दुस्तान की टीवी संस्कृति के बारे में कुछ अधिक बहस होनी चाहिए, आज दिक्कत यह है कि जो लोग ऐसी वैचारिक बहस करने के लायक हैं, वे टीवी पर गंदगी देखते नहीं, और जो टीवी पर गंदगी देखते हैं वे किसी भी वैचारिक बहस के लायक नहीं है। इसलिए इस मुद्दे पर कोई गंभीर चर्चा हो नहीं पाती है, यह नौबत बदलनी चाहिए।
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ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक को लेकर हिन्दुस्तानियों में जश्न और गर्व अधिक दिनों तक नहीं चल पाया क्योंकि उन्होंने मंत्रिमंडल के अपने सबसे महत्वपूर्ण तीन विभाग तय करते हुए उस भारतवंशी महिला को फिर से गृहमंत्री बनाया जो भारत से ब्रिटेन पहुंचने वाले प्रवासियों के खिलाफ कुछ हफ्ते पहले ही पिछले मंत्रिमंडल में इसी विभाग को सम्हालते हुए बयान दे चुकी थी। मतलब यह कि एक भारतवंशी पत्नी के रहते हुए भी ब्रिटिश प्रधानमंत्री की हैसियत से ऋषि सुनक की प्राथमिकता किसी भी तरह से हिन्दुस्तान नहीं है, और शायद होनी भी नहीं चाहिए। भारत में जिन लोगों को कुछ बातों को लेकर ऋषि सुनक पर गर्व होता है, उनकी नजर में उनके पूर्वजों का अखंड भारत की जमीन से अफ्रीका जाना था, और वहां से ऋषि के माता-पिता ब्रिटेन गए, और वहीं उनके बच्चे हुए, जिनमें से एक आज वहां का प्रधानमंत्री है। अब हिन्दुस्तान की आजादी के बहुत पहले पाकिस्तान वाले हिस्से से जो परिवार अफ्रीका गया, उस पर गर्व करने का हक आज के हिन्दुस्तान को है, या आज के पाकिस्तान को है, यह एक अलग सोचने की बात है। ऋषि सुनक के हिन्दू होने से ही अगर भारत के लोग उस पर गर्व करने के हक का दावा करते हैं, तो पाकिस्तान में बसे हुए उन दसियों लाख हिन्दुओं का क्या कहा जाए जो वहां की सरकार, पुलिस, फौज सबमें काम कर रहे हैं, और वफादार पाकिस्तानी हैं। इस बात पर भी भारत का गर्व फिजूल है कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री की पत्नी भारतवंशी है, और भारत की एक सबसे बड़ी कंपनी के मालिक की बेटी है, उसकी शेयर होल्डर है, और इस नाते वह ब्रिटेन में शायद वहां के राजा से भी अधिक दौलतमंद है।
इस मामले को ब्रिटेन की नजर से देखने की जरूरत है तो हर बात जायज लगेगी। ब्रिटेन के पास ऋषि सुनक के प्रधानमंत्री बनने के बाद गर्व की कई वजहें हैं, जिनमें एक यह है कि दूसरे महाद्वीप से वहां पहुंचने वाले प्रवासी परिवार का बेटा आज वहां का प्रधानमंत्री है, मतलब यह कि वहां किसी के लिए भी ऊपर पहुंचने की अपार संभावनाएं हैं। यह संभावना ब्रिटिश राजनीति और संसद में एक दूसरी तरह से भी दिखती है कि वहां के मूल निवासियों से परे दूसरे देशों से वहां पहुंचने वाले लोगों में से धीरे-धीरे करके अब बहुत से लोग संसद में पहुंचे हुए हैं, और यह बात छोटी नहीं है, यह भी ब्रिटिश समाज में बर्दाश्त की एक मिसाल है, क्योंकि वोटरों में तो अभी भी ब्रिटिश लोगों का बहुमत है, और उनके वोटों से चुनकर अफ्रीकी या एशियाई मूल के लोग संसद पहुंच रहे हैं, और ये तमाम उन देशों के लोग हैं जो कि एक वक्त ब्रिटेन के गुलाम थे। भारत-पाकिस्तान की जिस जमीन से ऋषि सुनक के पूर्वज पूर्वी अफ्रीका गए थे, वह जमीन भी उस वक्त अंग्रेजों की गुलाम थी, और पूर्वी अफ्रीका भी। इस तरह गुलाम देशों से आए हुए और गुलाम नस्लों के एक नौजवान को ब्रिटेन ने अपना प्रधानमंत्री चुना है। यह बात ब्रिटेन के लिए गर्व की है कि वहां की एक संकीर्णतावादी पार्टी, कंजरवेटिव पार्टी ने अपने सांसदों और वोटरों के गोरे बहुमत के बावजूद एक ऐसे भारतवंशी को प्रधानमंत्री चुना है जो कि कुल सात बरस पहले ही पहली बार सांसद बना था। ब्रिटेन में कंजरवेटिव की विरोधी पार्टी, लेबर पार्टी प्रवासियों के लिए अधिक हमदर्द मानी जाती है, उसके कई सांसद भी प्रवासी मूल के हैं, लेकिन कंजरवेटिव लोगों के लिए यह एक नई और अटपटी बात थी, और शायद उनका अपनी इस उदारता पर गर्व करने का एक मौका यह बनता है। हिन्दुस्तान ने तो अपना मिजाज उस वक्त बता दिया था जब सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने के आसार आए थे, और संसद में भाजपा की एक सबसे बड़ी सांसद ने ऐसा दिन आने पर सिर मुंडाने और जमीन पर सोने और चने खाकर गुजारा करने की घोषणा की थी। आज उसी महिला सांसद की पार्टी के लोग ऋषि सुनक के ब्रिटिश पीएम बनने पर सबसे अधिक गर्व कर रहे हैं जो कि सोनिया गांधी के नाम से भी नफरत करते हैं। ऐसे में किसी देश में किसी दूसरे देश के वंश के प्रधानमंत्री बनने पर यहां के उन लोगों को गर्व करने का क्या हक होना चाहिए? यह हक तो ब्रिटिश लोगों को होना चाहिए। आज जिन लोगों को ऋषि सुनक हिन्दुस्तान का दामाद लग रहा है, और इस वजह से भी उस पर गर्व करना सूझ रहा है, उन लोगों को अभी कुछ बरस पहले का ताजा इतिहास देखना चाहिए जब सानिया मिर्जा ने एक पाकिस्तानी खिलाड़ी शोएब मलिक से शादी की थी, और इसे लोगों ने हिन्दुस्तान के साथ गद्दारी करार दिया था, सोशल मीडिया पर सानिया के खिलाफ क्या-क्या नहीं लिखा गया था। रिश्तों की परिभाषा में देखें तो शोएब मलिक भारत का उतना ही दामाद है जितना दामाद ऋषि सुनक है। एक से नफरत, और दूसरे पर गर्व, ऐसा हिन्दुस्तानी ही कर सकते हैं।
ब्रिटिश लोगों को यह गर्व करने का भी मौका है कि उनके देश की अधिक संकीर्णतावादी पार्टी ने भी गोरे और अंग्रेज उम्मीदवारों के मुकाबले एक प्रवासी परिवार की संतान को प्राथमिकता दी, पहले सांसदों के बीच हुए चुनाव में उन्हें बहुमत मिला, और फिर एक सरकार गिरने के बाद उन्हें पूरी पार्टी ने ही प्रधानमंत्री मनोनीत किया है। दुनिया के जिन देशों में बाहर से आई हुई प्रतिभाओं को लेकर ऐसा बर्दाश्त रहता है, वे ही देश आगे बढ़ते हैं। अमरीका इसकी सबसे बड़ी मिसाल है जहां पर तकरीबन तमाम बड़ी कंपनियों के मुखिया दूसरे देशों से आए हुए लोग हैं, जहां पर पहले काले राष्ट्रपति बराक ओबामा के पूर्वज भी अफ्रीका से आए हुए थे। जिन देशों में स्थानीय नस्ल, स्थानीय रंग या धर्म को लेकर दुराग्रह रहता है, उनके आगे बढऩे की संभावनाएं उसी अनुपात में घटती चलती हैं। हिन्दुस्तान को पहले अपने बीच एक मिसाल पेश करनी होगी, यहां बाहर से सैकड़ों बरस पहले आए हुए लोगों के रक्त संबंधियों को अपना मानना होगा जो कि सैकड़ों बरस से इसी जमीन पर पैदा हो रहे हैं, उसके बाद, दीवार फिल्म के डायलॉग की तरह, उसके बाद मेरे भाई तुम दुनिया के जिस भारतवंशी पर गर्व करोगे, मैं उसे जायज मान लूंगा।
भारत एक अजीब सा देश है जो अपने किसी योगदान के बिना भी दूसरे देशों की वजह से आगे बढ़े हुए लोगों की कामयाबी में हिस्से का दावेदार बने रहता है। उसे यह भी सोचना चाहिए कि काबिल और कामयाब लोग इस देश में आगे बढ़ पाने की संभावनाएं न देखने की वजह से भी बाहर जाते हैं, और वहां पर अधिक बराबरी का माहौल मिलने से वे आगे बढ़ते हैं। वे भारत की वजह से आगे नहीं बढ़ते, बल्कि भारत के बावजूद आगे बढ़ते हैं। इस फर्क को समझने वाले लोग झूठे गौरव के शिकार होकर एक नाजायज नशे में डूबे नहीं रहेंगे।
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छत्तीसगढ़ में माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के किसान संगठन ने कल पहली नवंबर को राज्य के स्थापना दिवस पर राज्य सरकार और कोल इंडिया के खिलाफ प्रदर्शन किया क्योंकि राज्य के साथ-साथ कल कोल इंडिया का भी स्थापना दिवस था, और सीपीएम इन दोनों की रोजगार संबंधी नीतियों के खिलाफ आवाज उठा रही थी। सीपीएम के बयान में कहा गया कि उसने कोयला खदानों के इलाकों में काला दिवस मनाया। इस प्रदर्शन के अधिक मुद्दों पर चर्चा आज का मकसद नहीं है, लेकिन काला दिवस शब्द पर कुछ चर्चा करने की हसरत है। विरोध-प्रदर्शन के लिए किसी जगह किसी नेता के पहुंंचने पर उसे काले झंडे दिखाने की घोषणा होती है, और लोग अपने कपड़ों के भीतर काले झंडे छुपाकर आमसभा या जुलूस के रास्ते पर पहुंचते हैं, और काले झंडे दिखाते हैं जिन्हें पुलिस छीनने की कोशिश करती है। कुछ और लोग कुछ दूरी से काले गुब्बारे हवा में छोड़ते हैं, और वहां तक पुलिस की लाठियां नहीं पहुंच पातीं, जिनके खिलाफ प्रदर्शन होता है वे उसे अनदेखा करने की कोशिश करते हैं, और प्रेस-फोटोग्राफरों के कैमरे उन्हीं पर जा टिकते हैं। जिन दफ्तरों में या कारखानों में विरोध जाहिर करना होता है, वहां लोग बांह पर काली पट्टी बांधकर काम करते हैं, या कमीज के सामने पिन से काली रिबिन का टुकड़ा लगाते हैं। सरकार से जब किसी कानून को वापिस लेने की मांग होती है, तो काला कानून वापिस लेने का नारा लगाया जाता है। जब किसी के खिलाफ और अधिक आक्रामक प्रदर्शन करना रहता है, तो उसके मुंह पर कालिख मली जाती है, या काली स्याही पोती जाती है।
काला रंग प्रतिकार का प्रतीक बना हुआ है, और कई दूसरे किस्म की नकारात्मक बातों के लिए काले रंग का इस्तेमाल किया जाता है। भ्रष्टाचार या जुर्म से कमाया गया पैसा, या टैक्स चुराकर बचाया गया पैसा कालाधन कहलाता है, पश्चिमी दुनिया में मौत की जो छवि बनाई गई है वह काला लबादा ओढ़े हुए रहती है, हिन्दू धर्म में यमराज काले भैंसे पर सवार होकर चलता है। पश्चिम के कॉमिक्स देखें तो उनमें गोरे वेताल या फैंटम का सहयोगी एक अफ्रीकी बौना आदिवासी, गुर्रन होता है, और इसी तरह कॉमिक्स के एक दूसरे किरदार मैन्ड्रेक का सहयोगी एक अफ्रीकी राजकुमार लोथार होता है। ये दोनों ही काले सहयोगी गोरों के मातहत काम करने वाले वफादार सेवक की तरह रहते हैं, और इन कॉमिक्स को पढऩे वाले बच्चों के दिल-दिमाग में बचपन से ही यह बात घर कर जाती है कि काले लोग गोरों की सेवा के लिए बने रहते हैं। ऐसी अनगिनत मिसालें हैं जो कि कहावत और मुहावरों के दिनों से शुरू हुई हैं, और आज हिन्दुस्तान में सबसे जागरूक राजनीतिक दल सीपीएम के नारों तक जारी हैं, अब हिन्दुस्तानी जनचेतना में किसी रंग का ऐसा बेइंसाफ राजनीतिक इस्तेमाल खटकता भी नहीं है, क्योंकि भारत सहित बाकी दुनिया का समाज भी रंगों की राजनीति को समझने में नाकामयाब रहा है।
हम पहले भी यह लिख चुके हैं कि हिन्दी बोलने वाले बच्चों को बचपन से ही यह गाना सुनने और गाने मिलता है कि नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए, बाकी जो बचा काले चोर ले गए...। हिन्दी और हिन्दुस्तानी में किसी के कुकर्मों की चर्चा होती है तो कहा जाता है कि इतिहास में उसके काम काली स्याही से दर्ज होंगे, जबकि सारा का सारा इतिहास काली स्याही से ही दर्ज होता है, किसी मुजरिम का भी, और किसी महान का भी, दुनिया की तकरीबन तमाम किताबें काली स्याही से ही छपती हैं। किसी घर के बहुत शानदार बनने पर उसे लोगों की नजर लग जाने का खतरा रहता है तो लोग उसके सामने एक काली हंडी टांग देते हैं, बच्चों के चेहरे पर काजल का काला टीका लगा दिया जाता है, उनके गले, हाथ, या कमर पर काला डोरा बांध दिया जाता है। ट्रकों और दूसरी गाडिय़ों के पीछे लोग लिख देते हैं, बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला। कोई जुर्म करते हैं तो उनके बारे में कहा जाता है कि खानदान या मां-बाप के नाम पर कालिख पोत दी। किसी के लिए काली नीयत की चर्चा होती है, किसी के काले धंधे, किसी की काली कमाई गिनाई जाती है। हिन्दुओं के शुभ मौकों पर काले कपड़ों से परहेज किया जाता है, गहनों में कोई काला पत्थर न लगा रहे यह देखा जाता है। और यह फेहरिस्त अंतहीन है, यह कितनी भी लंबी हो सकती है। और ऐसा भी नहीं है कि इंसानों की जुबान में ही काले रंगों का ऐसा नकारात्मक इस्तेमाल हुआ है। ईश्वर, या कुदरत, जो कोई भी इंसानों को बनाने के लिए जिम्मेदार है उसने कई बीमारियां भी ऐसी बनाई हैं जो कि काले लोगों को अधिक प्रभावित करती हैं। अभी एक ऐसा स्तन-कैंसर मिला है जो गोरी महिलाओं के मुकाबले काली महिलाओं को न सिर्फ अधिक होता है, बल्कि काली महिलाओं की मौत भी गोरी महिलाओं से 28 फीसदी अधिक होती है, अब वैज्ञानिक इसके पीछे के जिम्मेदार जींस का पता लगा रहे हैं।
इस पूरी बात का मकसद यह है कि योरप और अमरीका जैसे गोरे देशों में अफ्रीका से आए हुए लोगों के साथ जिस तरह का रंगभेद होता है, कुछ उसी किस्म का रंगभेद दुनिया की जुबान में अपने-अपने इलाकों के काले लोगों के खिलाफ होता है, फिर चाहे वह झंडों, शब्दों, और कहावतों की शक्ल में ही क्यों न होता हो। दुनिया में भाषा की राजनीति हमेशा से ही हिंसक रही है, और बेइंसाफ भी, इसलिए उसकी मरम्मत करने की जरूरत है, और इस जागरूकता की जरूरत है कि आज की भाषा को रंगभेद से किस तरह आजाद कराया जाए। हिन्दुस्तानियों की काले रंग से नफरत जगजाहिर है, खासकर इस देश में उन लोगों की, जो कि इस देश के काले लोगों के मुकाबले कम काले हैं या गोरे हैं। हिन्दुस्तानी अखबारों में शादी के इश्तहार देखें तो वे गोरी दुल्हन की चाह से लदे रहते हैं, काली लडक़ी से शादी करना मानो कोई जुर्म हो। यह पूरी सोच कतरा-कतरा नहीं बदल सकती, इसे राजनीतिक नारों से लेकर, मजदूर संगठनों के झंडों तक, और कहावत-मुहावरों तक में सुधारना होगा, तब कहीं जाकर दो-चार सदी में समाज की सोच बदल पाएगी। जिसे टैक्स चोरी या भ्रष्टाचार का कालाधन कहा जाता है, वह भी होता तो लाल और हरे नोटों की शक्ल में है, या सुनहरे बिस्किटों की शक्ल में, उनमें से किसी का भी रंग काला नहीं होता, और दुनिया की कोई गाली गोरी नहीं होती। यह सिलसिला खत्म करने की जरूरत है। ऐसा भी लगता है कि गोरी दुनिया में, या भारत जैसे देश में भाषा का इस्तेमाल पहले गोरे लोगों ने शुरू किया होगा, और उसी वक्त से बुरी, नकारात्मक, या गलत बातों के लिए काले शब्द को बढ़ावा दिया गया होगा। बाद में काले लोगों की तो यह बेबसी हो गई होगी कि वे इन गालियों को ढोते रहें। और धीरे-धीरे सदियां पार होते-होते काले लोगों का भी यह अहसास खत्म हो गया होगा कि विरोध और नकारात्मकता के लिए काले रंग का इस्तेमाल दरअसल उनके खिलाफ एक साजिश थी जिसे उन्होंने स्वाभाविक मान लिया। लोगों को अपने-अपने दायरे में दायरे में काले रंग से जुड़ी हुई बेइंसाफ बातों की शिनाख्त करनी चाहिए, और उनका इस्तेमाल खत्म करना चाहिए, सोशल मीडिया पर जहां-जहां काले रंग का ऐसा इस्तेमाल दिखे, उसका विरोध करना चाहिए। गोरे रंग पे न इतना गुमान कर, यह गाना बना कैसे, काले रंग पर गुमान का तो कोई गाना अब तक बन नहीं पाया है। काले रंग के लिए तो बस यही गाना बना है- हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं, मानो काले रंग वालों का दिल तो हो ही नहीं सकता!
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अपने प्रदेश गुजरात में एक सैलानी-पुल के गिरने से 141 मौतें हो चुकी हैं, और नदी के पानी में बाकी लोगों की तलाश की जा रही है। कल ही मोदी गुजरात के कुछ और कार्यक्रमों में शामिल हुए थे, और वहां से उन्होंने इस हादसे पर अफसोस भी जाहिर किया था। लेकिन उस कार्यक्रम में भी मोदी जिस तरह से हैट लगाकर तस्वीरें खिंचवा रहे थे उस पर लोग नाराज और निराश दोनों थे। अब हादसे वाले मोरबी शहर के अस्पताल की तस्वीरें आई हैं जहां भर्ती लोगों को देखने के लिए मोदी आज पहुंच रहे हैं, और इसके पहले अस्पताल को दर्शनीय बनाने के लिए गुजरात सरकार रात भर रंग-पेंट करने, नए टाईल्स लगाने में लगी हुई है। सरकार की क्षमता अपार होती है, इमारत को बाहर-भीतर रंगा जा रहा है, और छत के नीचे भी उखड़े पेंट को हटाकर दुबारा पुट्टी-पेंट होते तस्वीरों में दिख रहा है। कांग्रेस ने ऐसी तस्वीरें ट्वीट करते हुए इसे त्रासदी का इवेंट लिखा है, और कहा है कि पीएम मोदी की तस्वीर में कोई कमी न रहे, इसका सारा प्रबंध हो रहा है। उसने लिखा- इन्हें शर्म नहीं आती, इतने लोग मर गए, और ये इवेंटबाजी में लगे हैं। लेकिन कांग्रेस से बढक़र दिल्ली के आम आदमी पार्टी के एक विधायक ने लिखा है- किसी के घर मौत हो जाए तो क्या रंगाई-पुताई करवाई जाती है? अस्पताल के अंदर 134 लाशें पड़ी हैं, और अस्पताल की रंगाई-पुताई चल रही है। एक और ने यह लिखा है कि भाजपा ने अगर 27 बरस में काम किया होता तो आधी रात को अस्पताल चमकाने की जरूरत नहीं पड़ती।
अब यह नरेन्द्र मोदी और अमित शाह का अपना गुजरात है, यहां पर इन दोनों का लंबा राज रहा है, और इनके दिल्ली आने के बाद भी वहां लगातार इनकी पार्टी का ही राज चला है। यह एक बहुत संपन्न प्रदेश है, कारोबार और कारखानों के मामलों में गुजरात देश के अव्वल राज्यों में है, जाहिर है कि सरकार और म्युनिसिपलों की टैक्स से कमाई भी खासी होती होगी, और ऐसे में अस्पतालों पर खर्च का भी बजट रहता ही होगा। लेकिन ऐसे मौके पर जब प्रधानमंत्री वहां रखी सवा सौ से अधिक लाशों के बीच इलाज पा रहे जख्मी लोगों को देखने जा रहे हैं, तो उस वक्त अस्पताल की साज-सज्जा, उसका रंग-रोगन, रात भर जागकर टाईल्स बदलना, यह सब कुछ संवेदना से परे का काम लगता है। ऐसे हादसे के वक्त जब अस्पताल की सारी प्राथमिकता लाशों को पोस्टमार्टम के बाद परिवारों को देना और घायलों का इलाज करना होना चाहिए, उस वक्त अस्पताल प्रधानमंत्री के स्वागत के लिए सजाया जा रहा है। शायद इसीलिए दुनिया के सभी सभ्य लोकतंत्रों में हादसे के तुरंत बाद प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति जैसे लोग कुछ दिन वहां जाने से बचते हैं ताकि बचाव दल, अस्पताल, और स्थानीय अधिकारियों का ध्यान न बंटे। अमरीका में एक बड़े तूफान से हुई तबाही को देखने एक राष्ट्रपति जब कुछ दिन नहीं गए, और लोगों ने उनकी आलोचना शुरू की, तो उन्होंने साफ किया कि वे वहां पहुंचकर बचाव में लगे लोगों का ध्यान बंटाना नहीं चाहते। यह बात बिल्कुल सही है, और हम हमेशा से यह लिखते आए हैं कि अस्पतालों में नेताओं का जाकर मरीजों और घायलों से मिलना पूरी तरह बंद होना चाहिए क्योंकि इससे मरीजों पर तरह-तरह के संक्रमण होने का खतरा बढ़ जाता है। अस्पताल में भर्ती किसी भी जख्मी या मरीज को किसी नेता से कुछ हासिल नहीं हो सकता, सिवाय किसी संक्रमण के। इसलिए बेहतर तो यह होता कि प्रधानमंत्री बिना अस्पताल गए दूर से ही हमदर्दी जाहिर कर देते, बजाय रात भर अस्पतालों की साज-सज्जा के। जिनके परिवारों की लाशें भीतर पड़ी हैं, जख्मी दम तोड़ रहे हैं, उन्हें इस साज-सज्जा से क्या लग रहा होगा यह सोचना बहुत मुश्किल भी नहीं है।
हिन्दुस्तान का लोकतंत्र बस कहने के लिए लोकतंत्र है, इसमें सामंती मिजाज अब तक सदियों पहले का ही चले आ रहा है। किसी राजधानी में विधानसभा का सत्र शुरू होने के पहले विधानसभा की तरफ जाने वाली सडक़ों को फिर से बनाया जाता है, मानो नई चिकनी सडक़ पर जाकर विधायक वहां असुविधा के सवाल नहीं पूछेंगे। किसी भी शहर में प्रधानमंत्री के पहुंचने पर फुटपाथों तक को दुबारा पेंट किया जाता है। पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार के रहते हुए एक ब्रिटिश प्रधानमंत्री जॉन मेजर कोलकाता पहुंचे थे, और प्रदेश की राजधानी को खूबसूरत दिखाने के लिए तमाम सडक़ों के गड्ढे भरे गए थे, फुटपाथों को अवैध कब्जों से खाली कराया गया था, सडक़ किनारे रंग-रोगन किया गया था, लेकिन इससे भी बढक़र, कोलकाता के सारे बेघर लोगों और भिखारियों को शहर के बाहर ले जाकर फेंक दिया गया था। लोगों को याद होगा कि अभी कुछ बरस पहले ही जब अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप हिन्दुस्तान आए थे तो मोदी उन्हें अपने प्रदेश की राजधानी अहमदाबाद ले गए थे। वहां सडक़ किनारे की झोपड़पट्टियों को रातों-रात उजाडऩा मुमकिन नहीं था, इसलिए सडक़ किनारे पक्की और ऊंची दीवार बनाई गई थी ताकि झोपडिय़ां ट्रंप के काफिले से न दिखें। लेकिन विदेशी मेहमानों के लिए किसी समारोह के मौके पर स्वागत करने के लिए कुछ साज-सज्जा तो समझ आती है, लेकिन जिस गुजरात में नरेन्द्र मोदी पिछले बीस बरस से मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की तरह राज कर रहे हैं, वहां पर लाशों के बीच रंगाई-पुताई न सिर्फ गैरजरूरी है, बल्कि नाजायज भी है। यह सिलसिला गुजरात में भी बुरा है, और देश में किसी भी दूसरे प्रदेश में भी बुरा है। ऐसी साज-सज्जा प्रधानमंत्री की तस्वीरों के लिए की जा रही है, या उनकी पार्टी की राज्य सरकार उनके सामने अपनी तस्वीर सुधारना चाह रही है, यह तो इन दोनों के बीच की बात है, लेकिन जो बात सबके सामने है, वह यह है कि यह पूरी हरकत बहुत ही संवेदनाशून्य है, और प्रचलित शब्दों में कहा जाए तो अमानवीय है, हालांकि ऐसी सोच और भावना मानव-स्वभाव का एक हिस्सा ही है, और हम अपनी जुबान में इंसानों की की गई किसी भी बात को अमानवीय नहीं मानते।
प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री, या किसी विदेशी मेहमान के लिए साज-सज्जा पर ऐसा अंधाधुंध खर्च जनता के पैसों का बेरहम इस्तेमाल है। यह सिलसिला पूरी तरह खत्म होना चाहिए, और जहां कहीं भी ऐसा हो, उसका जमकर विरोध होना चाहिए।
गुजरात के मोरबी में कल एक पुल टूटने से अब तक 141 मौतों की खबर है, और एक आशंका यह भी है कि पुल के नीचे नदी में सारा पानी नालों का है जो कि इतना गंदा है कि अंधेरे में बचावकर्मी लाशों को ढूंढ भी नहीं पाए। यह टंगा हुआ पुल डेढ़ सौ बरस से भी अधिक पुराना था, और कई बरस बंद रहने के बाद अभी उसे सुधारकर शुरू किया गया था। इसे एक पर्यटन केन्द्र का दर्जा मिला था, और छठ पूजा होने से वहां शायद अधिक लोग पहुंचे, और पुल पर उसकी क्षमता से शायद चार-पांच गुना लोग चढ़े हुए थे, ऐसा लगता है कि इसी अधिक वजन की वजह से यह पुल टूटा होगा। राज्य और केन्द्र सरकार अपनी पूरी ताकत से लोगों को बचाने में लगी हुई हैं, लेकिन मौतों का अब तक का आंकड़ा भी दिल दहलाने वाला है।
इस हादसे से कई किस्म के सबक लिए जाने चाहिए। हिन्दुस्तान में बहुत से तीर्थयात्राओं के मौकों पर, मंदिरों में और तीर्थ के रेलवे स्टेशनों पर भगदड़ में कई हादसों में बड़ी संख्या में लोगों की मौतें हुई हैं। गैरतीर्थ पर्यटन केन्द्रों पर भी भीड़ और भगदड़ मिलकर बड़ा हादसा खड़ा कर देते हैं, और 1980 में कुतुबमीनार के भीतर पर्यटकों में हुई भगदड़ में 45 लोग मारे गए थे जिनमें से अधिकतर बच्चे थे। हिन्दुस्तान की एक दिक्कत यह भी है कि यहां लोग कुछ चुनिंदा त्यौहारों और छुट्टियों पर तीर्थों और पर्यटन केन्द्रों पर टूट पड़ते हैं, और किसी जगह की क्षमता ऐसी भीड़ के लायक नहीं रहती है। अभी कुछ दिन पहले ही मध्यप्रदेश में एक मंदिर से लौटते हुए ट्रैक्टर ट्रॉली पर सवार तमाम रिश्तेदार शराबी ड्राइवर की मेहरबानी से एक तालाब में जा गिरे थे, और बड़ी संख्या में मौतें हुई थीं। धार्मिक और सामाजिक कार्यक्रमों में सडक़ के कोई नियम लागू नहीं होते, और श्रद्धा और आस्था से भरे हुए लोग पूरी तरह अराजक होकर चलते हैं। नतीजा यह होता है कि थोक में बहुत सी मौतें होती हैं। हाल के बरसों में धर्मान्ध भीड़ रास्ते के बाजारों पर हमले करते भी चलती दिखी है, और यह सिलसिला उन राजनीतिक दलों द्वारा बढ़ावा भी पा रहा है जो कि धार्मिक आधार पर वोटों के ध्रुवीकरण की नीयत रखते हैं।
अब गुजरात का यह हादसा एक अलग किस्म की तकनीकी और प्रशासनिक विफलता का है। पुल पुराना जरूर था, लेकिन वह अभी-अभी मरम्मत के बाद दुबारा शुरू किया गया था, इसलिए कोई वजह नहीं थी कि पुल टूट जाता। लेकिन जैसे कि हर मजबूत चीज की मजबूती की एक सीमा होती है, इस पुल की भी क्षमता अगर सौ लोगों की थी, और उस पर चार-पांच सौ लोग चढ़ गए थे, तो यह स्थानीय प्रशासन की नाकामी थी। कई जगहों पर विसर्जन या किसी दूसरे धार्मिक जुलूस को देखने के लिए किसी पुराने और कमजोर हो चुके मकान के छज्जे पर बहुत से लोग चढ़ जाते हैं, और छज्जा गिरने से एक साथ बहुत सी मौतें होती हैं। कल गुजरात के इस पुल पर जाने वाले लोगों को भी रोकने का पुख्ता इंतजाम होना चाहिए था। अगर ऐसा रोकना मुमकिन नहीं था, तो इस पुल को शुरू ही नहीं करना था। ऐसा हाल बहुत से मंदिरों में होता है, और कई जगहों पर गीली सीढिय़ों पर भीड़ फिसलती है, और लोग कुचलकर मारे जाते हैं। खबरों में आया है कि अजंता घडिय़ां बनाने वाली कंपनी को यह पुल चलाने का ठेका दे दिया गया था, और ऐसा लगता है कि इस कंपनी ने क्षमता से कई गुना अधिक टिकटें बेच दी थीं। इस पर निगरानी की जिम्मेदारी फिर भी अफसरों की होनी चाहिए थी जिन्होंने आपराधिक लापरवाही दिखाई है।
हिन्दुस्तान के बारे में एक बात बहुत साफ समझ लेनी चाहिए कि धर्म से परे भी रोजाना की जिंदगी में हिन्दुस्तानियों को न तो नियम मानने की आदत है, और न ही कतार लगाने की। बिना कतार की भीड़ में किसी का भी काम होने में दुगुना समय लग सकता है, लेकिन लोग भीड़ की शक्ल में रहना पसंद करते हैं, कतार मानो लोगों के अहंकार को चोट पहुंचाती है। इस पुल पर भी जाने वाले लोगों की अगर कोई कतार रहती, अगर क्षमता के बाद लोगों को रोक दिया जाता, तो कोई वजह नहीं थी कि ऐसा हादसा होता। सौ लोगों की क्षमता के पुल ने दो सौ भी झेल लिए थे, तीन सौ लोगों के चढऩे तक भी पुल नहीं टूटा था, शायद चार सौ भी बर्दाश्त हो गए थे, लेकिन उसके बाद फिर किसी समय पुल टूटा। हम रोजाना की जिंदगी में देखते हैं तो लोग छोटी सी मोपेड पर बोरे भर-भरकर सामान ले जाते हैं, तीन सवारियों के लिए बने ऑटोरिक्शा में लोग 15-20 मुसाफिर भरकर ले जाते हैं। जब देश का राष्ट्रीय चरित्र ही ऐसी अराजकता का हो गया है, तो यहां ऐसे हादसे होते ही रहेंगे, और यह अपने आपमें एक हैरानी की बात है कि ऐसे हादसे यहां रोज क्यों नहीं होते हैं?
हिन्दुस्तानियों के मिजाज में पहले तो कानून के खिलाफ, और फिर नियमों के खिलाफ जिस किस्म की हेठी भर दी गई है, उसी का नतीजा है कि सार्वजनिक जीवन खतरों से भर गया है। और सार्वजनिक नियमों के प्रति सम्मान लोगों में कतरे-कतरे में नहीं आ सकता, वह कुल मिलाकर ही आ सकता है। जो लोग मोटरसाइकिल पर तीन और चार लोग सवार होकर चलते हैं, उनसे दुनिया में कहीं भी कतार लगाने की उम्मीद नहीं की जा सकती, वे कहीं एटीएम के भीतर थूकेंगे, तो कहीं किसी लिफ्ट के भीतर, कहीं वे अंधाधुंध रफ्तार से मोटरसाइकिल चलाएंगे, तो कहीं चलाते हुए मोबाइल पर बात करते रहेंगे। नियमों के प्रति सम्मान, सार्वजनिक जीवन में दूसरों के प्रति सम्मान की सोच जब खत्म हो जाती है, तो लोग मनमाना हिंसक बर्ताव करने लगते हैं। अलग-अलग किस्म के हादसों में जिम्मेदारियां कुछ अलग-अलग हो सकती हैं, लेकिन जिस तरह इस पुल पर पहुंचने वाले पर्यटक गैरजिम्मेदार रहे, उसी तरह इस पुल को नियंत्रित करने वाली स्थानीय म्युनिसिपल भी गैरजिम्मेदार दिखती है जिसने कि सीमित क्षमता वाले पुल पर असीमित लोगों को जाने दिया। जब पूरे समाज में ही नियमों का सम्मान खत्म हो जाता है, तो म्युनिसिपल कर्मचारी भी उसी समाज का हिस्सा तो रहते हैं।
हिन्दुस्तान में लगातार बढ़ती हुई असभ्यता को देखें तो लगता है कि दुनिया के सभ्य देश आगे बढ़ रहे हैं, और हिन्दुस्तान अधिक असभ्य, अधिक अराजक होते चल रहा है। ऐसे समाज में किसी भी हादसे में, हिंसक हमले में, भीड़ के हाथों बेकसूर लोगों की मौत होती ही रहती है। जब तक हिन्दुस्तानियों का आम चरित्र अनुशासन का नहीं होगा, जब तक यहां पर लोग अपनी ड्यूटी की जिम्मेदारी पूरी करने के प्रति गंभीर नहीं रहेंगे, अलग-अलग हादसे होते रहेंगे। ऐसे तकरीबन हर हादसे को बारीकी से देखने पर यह समझ आता है कि ये सब रोके जा सकते थे, जिंदगियों को बचाया जा सकता था, लेकिन हमारे आम राष्ट्रीय चरित्र की वजह से यह संभावना खत्म हो गई है।
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कुछ समर्थक अपने ही नेताओं का जीना हराम किए रहते हैं। अधिक हफ्ते नहीं गुजरे हैं कि राहुल गांधी के मुंह से आटे का भाव गिनाते हुए लीटर शब्द निकल गया था। शायद ही कोई ऐसे नेता होंगे जिनसे किसी तरह की चूक नहीं होती होगी। फिर भी जिन्होंने अपनी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा राहुल गांधी को पप्पू साबित करने को समर्पित किया हुआ है, उन्होंने इस मौके को लपक लिया, और भाजपा के बड़े-बड़े नेता राहुल की इस जुबानी चूक पर टूट पड़े। नतीजा यह हुआ कि लोगों ने कुछ घंटों के भीतर ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर गृहमंत्री अमित शाह तक के ऐसे वीडियो ढूंढ निकाले जिनमें उन्होंने बोलते हुए इससे भी बड़ी-बड़ी दर्जनों गलतियां की थीं। उनकी वह चूक आई-गई हो चुकी थी, लेकिन उनके उत्साही और समर्पित भक्तों ने वैसे दर्जनों वीडियो चारों तरफ फैलाने का एक माहौल बना दिया, और मोदी विरोधी संख्या में चाहे कम हों, वे सोशल मीडिया पर कुछ चीजें तो फैला ही सकते हैं। ऐसे में जितना नुकसान राहुल गांधी का हुआ, उससे हजार गुना नुकसान मोदी-शाह का हो गया। लेकिन उससे कोई सबक लिए बिना अभी हिमाचल के चुनाव प्रचार में भाजपा के एक बड़े नेता ने एक बार फिर आमसभा के भाषण में इसे मुद्दा बनाया। और अब अगर इसके जवाब में भाजपा विरोधी एक बार फिर मोदी-शाह के वीडियो फैलाने लगेंगे, जो कि संख्या में दर्जनों गुना अधिक हैं, तो इससे बड़ा नुकसान भाजपा का ही होगा।
आज इस पर चर्चा की जरूरत इसलिए है कि कर्नाटक की एक भाजपा नेता प्रीति गांधी ने ट्विटर पर कल राहुल की पदयात्रा की एक फोटो पोस्ट की है जिसमें दक्षिण भारत की एक अभिनेत्री उनके साथ चल रही हैं, और राहुल उनका हाथ थामे हुए हैं। प्रीति गांधी ने इस तस्वीर के ऊपर हॅंसते हुए लिखा है- अपने ग्रेट ग्रैंड फॉदर के पदचिन्हों पर। यह बात नेहरू की तरफ एक इशारा है जिनके चाल-चलन की चर्चा करते हुए उनके विरोधियों को ऐसा लगता है कि नेहरू के सारे योगदान को उनके किसी प्रेमप्रसंग के चलते खारिज किया जा सकता है। जब ऐसी चर्चा भाजपा के लोग करते हैं तो उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि नेहरू से भी कहीं अधिक गंभीर किस्म का, सामाजिक रूप से कुछ अधिक आपत्तिजनक प्रेमप्रसंग अटल बिहारी वाजपेयी का था जो कि अपनी महिला मित्र के पूरे परिवार को अपने साथ अपने सरकारी बंगले पर रखते थे, और उसकी बेटी को भारत की कूटनीतिक व्यवस्था में प्रधानमंत्री की बेटी का दर्जा दिया गया था। उस बेटी का पति अटल सरकार के वक्त तरह-तरह के आरोपों से भी घिरा रहता था। लेकिन शायद ही किसी पार्टी के किसी नेता ने अटल बिहारी वाजपेयी की इस अनोखी पारिवारिक व्यवस्था के बारे में कोई लांछन लगाया हो। अब प्रीति गांधी नाम की यह भाजपा नेता नेहरू के चरित्र पर लांछन लगाने के अपने पसंदीदा काम को करते हुए खुली सडक़ पर सैकड़ों लोगों से घिरे हुए पैदल चलते राहुल गांधी के हाथ को थामे चलती एक अभिनेत्री के चरित्र पर भी लांछन उछाल रही है। जाहिर है कि कांग्रेस ने इस पर इतना तो कहना ही था कि एक महिला होकर वे दूसरी महिला को बदनाम कर रही हैं। इस अभिनेत्री पूनम कौर ने प्रीति गांधी की पोस्ट पर लिखा कि यह वे बिल्कुल अपमान कर रही हैं, याद रखें प्रधानमंत्री नारी शक्ति के बारे में बात करते हैं। मैं फिसल गई और लगभग गिरने ही वाली थी, और इस तरह सर (राहुल) ने मेरा हाथ पकड़ लिया, थैंक यू सर। महिला कांग्रेस की सोशल मीडिया प्रभारी नताशा शर्मा ने लिखा- तुम औरत होकर इतना कैसे गिर जाती हो, तुमसे ज्यादा नीच और गिरा हुआ तो मैंने आज तक नहीं देखा, कुछ तो शर्म करो, या फिर शर्म बेच खाई है? कांग्रेस की एक प्रवक्ता ने लिखा- हां, वे अपने परनाना के नक्शेकदम पर चल रहे हैं, और हमारे इस महान देश को एकजुट कर रहे हैं, आपके बचपन के दुख गहरे हैं, और आपके बीमार दिमाग का सुबूत हैं, आपको इलाज की जरूरत है।
लेकिन बात महज जुबानी जमाखर्च पर नहीं रूकी, और एक लडख़ड़ाती महिला का हाथ थामकर उसे सहारा देते राहुल के बारे में लिखी ओछी बात के जवाब में लोगों ने प्रीति गांधी की इसी पोस्ट पर जितने तरह की तस्वीरें लगाई हैं वे देखने लायक हैं। इनमें से एक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की है जिनमें वे एक युवती के टी-शर्ट की बांह पर आटोग्राफ दे रहे हैं। इंटरनेट पर सर्च करने पर यह फोटो बॉक्सिंग में विश्व चैंपियन बनकर लौटी निकहत (या निखत) जरीन की है। इसके अलावा लोगों ने बहुत सी ऐसी तस्वीरें पोस्ट की हैं जिनमें मोदी अपने सामाजिक परिचय की महिलाओं से सार्वजनिक रूप से उनके हाथ थामे हुए बात कर रहे हैं, जिनमें आपत्तिजनक तो कुछ नहीं है लेकिन जो प्रीति गांधी की पोस्ट की गई गंदी नीयत का एक राजनीतिक जवाब जरूर बन सकती हैं, बनी हैं। लोग देख रहे हैं कि राहुल गांधी इन महीनों में लगातार पैदल चलते हुए छोटे-छोटे बच्चों से लेकर बुजुर्ग महिलाओं और आदमियों तक की मोहब्बत पा रहे हैं, लोग उनसे लिपट रहे हैं, उनके हाथ थामकर उनके साथ चल रहे हैं, और किसी को इसमें गंदगी की कोई बात नहीं लगी। अब भाजपा की एक नेता जिसकी अपनी बहुत सी तस्वीरें मोदी के साथ उसने खुद ही पोस्ट की हुई हैं, वह राहुल की एक सार्वजनिक तस्वीर को लेकर अगर उनके परनाना पर इस तरह का ओछा हमला कर रही है, तो यह समझ लेने की जरूरत है कि हिन्दुस्तान के अधिकांश जनता इस दर्जे के नफरत की तारीफ नहीं करती। जो लोग ऐसी घटिया नफरत फैलाना चाहते हैं, जो दूसरों के चरित्र पर ऐसा लांछन लगाना चाहते हैं, वे मुंह की खाते हैं, और उनकी गंदी हरकतों का भुगतान उनके नेता और उनकी पार्टी को करना होता है।
सोशल मीडिया का जमाना लांछन उछालो और भाग निकलो, जैसा नहीं है, अब यहां पर की गई हरकतों का भुगतान भी करना पड़ता है। यह एक अलग बात है कि भाड़े के भोंपुओं को अधिक संख्या में रखने वाले लोग अपने विरोधियों पर हमला अधिक तेजी से कर सकते हैं, लेकिन दूसरे लोग भी जवाबी हमला कुछ हद तक तो कर ही सकते हैं। पार्टियों और संगठनों को अपने लोगों को काबू में रखना चाहिए, वरना एक व्यक्ति की नीचता उसके संगठन को भारी पड़ सकती है।
मुस्लिमों की तरफ इशारा करते हुए एक समुदाय के पूरे आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार करने का सार्वजनिक फतवा देने वाले भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा अभी अपने उस बयान के विवाद से उबरे नहीं हैं कि अब उनका एक नया विवाद सामने आ गया है। छठ पूजा के लिए दिल्ली में यमुना के पानी की सफाई के लिए दिल्ली जलबोर्ड द्वारा उसमें डाले जा रहे केमिकल पर प्रवेश वर्मा ने जमकर आपत्ति की, और जलबोर्ड के अफसर से सार्वजनिक रूप से खूब बदसलूकी की। उनका जो वीडियो तैर रहा है, और अखबारों में जो समाचार आए हैं, उनके मुताबिक उन्होंने अफसर को कहा-‘नदी साफ करना तुझे आठ सालों में याद नहीं आया? तुम यहां लोगों को मार रहे हो, पिछले आठ सालों में यमुना साफ नहीं कर पाए। उन्होंने अफसर से कहा- यह केमिकल तेरे सिर पर डाल दूं, बकवास कर रहा है, बेशर्म और घटिया आदमी।’ दिलचस्प बात यह है कि नेता आमतौर पर जनता जो कि ऐसे मौके पर नेता की हां में हां मिलाती है, इस मामले में खुलकर अफसर के साथ रही, और वहां मौजूद लोगों ने भाजपा सांसद के बर्ताव का जमकर विरोध किया। उन्होंने कहा कि वे देख रहे हैं कि अफसर यहां काम कर रहे हैं, और आपकी पार्टी का यहां कोई नहीं आता। लोगों ने इस पर आपत्ति की कि सांसद किसी अफसर से ऐसे बात कैसे कर सकते हैं।
यह मामला अपने किस्म का कोई बहुत अनोखा मामला नहीं है। मध्यप्रदेश में तो बहुत से मंत्री अफसरों को पीटते नजर आए हैं, और दूसरे भी कई प्रदेशों में ऐसा होता है। छत्तीसगढ़ में भी पिछली भाजपा सरकार में एक ताकतवर मंत्री रहे रामविचार नेताम ने सर्किट हाऊस के एक कमरे को लेकर एक डिप्टी कलेक्टर को ही पीट दिया था। इंदौर का मामला अदालत तक पहुंचा था जिसमें भाजपा के दिग्गज नेता कैलाश विजयवर्गीय के विधायक बेटे आकाश विजयवर्गीय ने क्रिकेट की बैट से एक अफसर को दिनदहाड़े खुली सडक़ पर पीटा था, और चारों तरफ दूसरे अफसर यह देख रहे थे, लेकिन इस वीडियो के बावजूद जब मामला अदालत पहुंचा तो उस अफसर ने यह कह दिया कि उन्होंने मारने वाले को नहीं देखा था, जबकि मार खाते हुए वे खुली आंखों से आकाश विजयवर्गीय को देख रहे थे। अफसरों की हालत नेताओं के सामने इसी किस्म की रहती है कि जबरा मारे भी, और रोने भी न दे। यह बात समझ से परे है कि कर्मचारियों और अधिकारियों के बहुत से संगठन होते हैं, अखिल भारतीय सेवाओं के अफसरों के भी एसोसिएशन होते हैं, लेकिन जब नेता इनसे बदसलूकी करते हैं, तो इनमें से कोई भी उसका कानूनी जवाब देने की हिम्मत नहीं दिखाते। बहुत कम ऐसे मामले होते हैं जिनमें कलेक्टर स्तर के किसी अफसर की बड़ी पैमाने की बदसलूकी का विरोध किया जाता है, लेकिन मंत्री और मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री या सांसद की बदसलूकी का विरोध कर्मचारी और अधिकारी आमतौर पर नहीं कर पाते।
अब सरकारी अमले को लेकर दो किस्म की बातें हैं, एक तो यह कि कुछ लोग भ्रष्टाचार करने के आदी रहते हैं, जमकर कमाई करने की कुर्सी की ताक में रहते हैं, और वे किसी महत्वहीन या कमाईविहीन कुर्सी पर जाने से डरते हैं, और इसलिए नेताओं को जवाब देने के बजाय उनकी बदसलूकी झेलते हैं। एक दूसरा तबका ऐसा भी रहता है जो कि रिश्वतखोर नहीं रहता है, लेकिन जो अपने परिवार के साथ चैन की जिंदगी गुजारते रहता है, और उसे देश-प्रदेश में किसी दूर की जगह फेंक दिए जाने का डर रहता है, और परिवार के साथ रहने के लालच में, बच्चों की पढ़ाई एक ही जारी रहने के लालच में वे राजनीतिक गुंडागर्दी का विरोध नहीं कर पाते। कुछ लोग सरकारी नौकरी में रगड़े खा-खाकर यह बात समझ चुके रहते हैं कि अगर उन्हें नौकरी में कामयाबी पाने वाला लंबी रेस का घोड़ा बनना है, तो उन्हें सत्ता की बदमिजाजी को बर्दाश्त करना सीखना होगा। और अपनी लंबी नौकरी को ध्यान में रखते हुए वे छोटी-मोटी बदतमीजी को अनदेखा करना सीख लेते हैं।
लेकिन दिल्ली के जिन लोगों ने इतने वजनदार भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा की बदसलूकी का खुलकर विरोध किया, उन्होंने बाकी देश की जनता के लिए भी एक राह दिखाई है। उन्होंने यह साबित किया है कि बिना ताकत वाले आम लोग भी जुल्म और बदसलूकी के खिलाफ आवाज उठा सकते हैं, और उस वक्त भी आवाज उठा सकते हैं जब निशाने पर वे नहीं हैं, कोई सरकारी अधिकारी या कर्मचारी है। यह एक भारी सामाजिक परिपक्वता की बात है कि जनता अपने अफसरों को राजनीतिक बदतमीजी से बचाने के लिए इस तरह खुलकर सांसद के सामने खड़ी हो रही है। बाकी देश में जनता के पास अगर ऐसा हौसला नहीं है, अगर ऐसी राजनीतिक जागरूकता नहीं है, तो उन पर धिक्कार है। सार्वजनिक जगह पर कोई भी व्यक्ति गलत काम कर रहे हैं, तो उसका विरोध करने का हौसला एक लोकतांत्रिक जिम्मेदारी की बात है। बुरे अफसरों का भी लोगों को सार्वजनिक विरोध करना चाहिए, और बुरे नेताओं का भी। भारत जैसे लोकतंत्र में निर्वाचित नेताओं का ऐसा कोई अधिकार नहीं होता कि वे अधिकारियों और कर्मचारियों के साथ गुंडागर्दी करें। हमारा ख्याल यह है कि ऐसे वीडियो सुबूत रहने पर यह आम जनता का भी हक है कि ऐसे नेताओं के खिलाफ मानवाधिकार आयोग, या अदालत तक जाकर शिकायत करें। जिस देश-प्रदेश में जनता जितनी जागरूक होती है, वहां पर अफसर और नेता उतने ही काबू में भी होते हैं। केरल जैसे शिक्षित राज्य में नेता या अफसर न तो जनता से ऐसी बदसलूकी कर सकते हैं, और न ही एक-दूसरे से। और यह बात सिर्फ शिक्षा से जुड़ी हुई नहीं है, यह राजनीतिक जागरूकता से जुड़ी हुई है जो लोगों को उनके अधिकारों की जानकारी देती है। दूसरी तरफ उत्तर भारत के राज्यों में हाल बुरा है जहां पर नेता और अफसर सभी तानाशाह की तरह काम करते दिखते हैं, लोगों को हिकारत से देखते हैं, गैरकानूनी काम करते और करवाते हैं, और कानून की तरफ से, लोकतांत्रिक मूल्यों की तरफ से बेपरवाह रहते हैं। कुल मिलाकर लोकतंत्र में लोगों की मनमानी को खत्म करने का अकेला जरिया यही रहता है कि लोग सरकारी गुंडागर्दी के सामने एकजुट होकर खड़े हों। देश के बहुत से प्रदेशों से ऐसे वीडियो भी सामने आए हैं जिनमें गैरजिम्मेदार मंत्री और दूसरे नेता जब किसी इलाके में पहुंचते हैं, तो वहां जनता की भीड़ उन्हें धक्के देकर बाहर हकाल देती है। हम किसी तरह की हिंसा की हिमायत नहीं कर रहे, लेकिन सार्वजनिक बहिष्कार की जागरूकता एक लोकतांत्रिक अधिकार है, और जनता को तानाशाह नेताओं और अफसरों के खिलाफ इसका इस्तेमाल करना चाहिए।
महीनों से हवा में तैर रहा ट्विटर का सौदा आज शायद पूरा हो गया है, और अमरीका के एक सबसे बड़े कारोबारी एलन मस्क ने दुनिया के इस सबसे बड़े सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को आसमान छूते दाम देकर खरीद लिया है। इसके साथ ही अमरीका के बड़े और भरोसेमंद अखबारों में यह खबर भी आई है कि नए मैनेजमेंट ने ट्विटर के भारतवंशी मुखिया पराग अग्रवाल के साथ-साथ दो और बड़े अधिकारियों को नौकरी से निकाल दिया है, इनमें भी एक भारतवंशी महिला विजया गडे हैं। नए मालिक एलन मस्क का मुख्य कारोबार टेस्ला नाम की बैटरी से चलने वाली कार बनाना है जो कि ऐसी कार बनाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी है। इसके अलावा वे अंतरिक्ष में सैलानियों को भेजने का एक नया कारोबार शुरू कर चुके हैं। अभी उन्होंने यह कहा है कि उन्होंने ट्विटर इसलिए खरीदा है क्योंकि वे मानवता की मदद करना चाहते हैं, और ऐसा प्लेटफॉर्म मानव सभ्यता के भविष्य के लिए जरूरी है जहां विभिन्न मतों को स्वस्थ तरीके से बिना हिंसा के उठाया जा सके। मस्क ने इस बात को भी इस सौदे के विवाद के दौरान एक सार्वजनिक मुद्दा बनाया था कि ट्विटर पर जो फर्जी अकाउंट हैं, जिन्हें स्पैम अकाउंट कहा जाता है, वे उन्हें हटाना चाहते हैं, और इस प्लेटफॉर्म पर बोलने की आजादी को बचाना चाहते हैं। उनका लगातार यह बयान आते रहा कि ट्विटर पर फर्जी अकाउंट कंपनी के बताए आंकड़ों के मुकाबले बहुत ज्यादा हैं।
दुनिया के किसी बड़े कारोबार का मालिकाना हक बदलने में इस जगह पर लिखने लायक कुछ नहीं रहता लेकिन दुनिया के लोकतंत्रों और तानाशाहियों के बीच आज ट्विटर हर तरह की विचारधारा से जुड़े समाचार और विचार का एक बड़ा मंच बन गया है, और दुनिया के सूचनातंत्र में, दुनिया के लोकतंत्रों में इसकी भूमिका और इसके महत्व को कम नहीं आंका जा सकता। एलन मस्क अपनी कार कंपनी या रॉकेट कंपनी की तरह की दस-बीस कंपनियां भी खरीदते, तो भी यहां लिखने की जरूरत नहीं रहती। लेकिन मीडिया और सोशल मीडिया से जुड़ा हुआ कारोबार लोगों को उनकी ग्राहकी के अलावा भी कई दूसरे किस्म से प्रभावित करता है, और इसीलिए इस मुद्दे पर यहां पर बात जरूरी है। आज जब एक सनकी की शोहरत रखने वाले एक कारोबारी ने बेदिमाग दाम देकर जब इस कंपनी को शायद खरीद लिया है, और जब वह अभिव्यक्ति की आजादी की अपनी परिभाषा इस्तेमाल करते हुए वहां पर डोनल्ड ट्रंप सरीखे झूठे, मक्कार, और नफरतजीवी इंसान के स्वागत की भी बात करता है, तो अभिव्यक्ति की ऐसी आजादी परेशान करने वाली बात रहती है। कल ही हिन्दुस्तान की एक जिला अदालत ने यूपी के एक बड़े मुस्लिम नेता आजम खान को नफरत भरे एक भाषण देने के जुर्म में तीन बरस की कैद सुनाई है। हालांकि इस समाजवादी नेता के पास अभी ऊपर की अदालतों तक जाने का विकल्प बाकी है, लेकिन नफरत को लेकर इन दिनों हिन्दुस्तान में सुप्रीम कोर्ट की ताजा रूख भी खतरनाक है, नफरतजीवियों के लिए। ऐसे में ट्विटर पर अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर यह नया सनकी मालिक अगर उसे नफरत की और अधिक आजादी का मंच बना देता है, तो यह दुनिया के लिए बहुत फिक्र की बात होगी। दुनिया के इतिहास में पहले भी, जब सोशल मीडिया नहीं था, और जब मीडिया ही सब कुछ था, तब भी लोगों ने यह देखा हुआ है कि किसी दूसरे कारोबार की कमाई पर चलने वाले मीडिया मालिक मीडिया को अपनी सनक के साथ इस्तेमाल करते हैं। दुनिया के सबसे अधिक लोगों के इस्तेमाल किए जाने वाले इस सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के साथ आज यह खतरा खड़ा हो गया है कि इसका मालिक एक तानाशाह सरीखी सनक के साथ इसके बारे में फैसले कर सकता है। हिन्दुस्तान के संदर्भ में तो हम जानते ही हैं कि इसकी मौजूदा आजादी से भी यहां के करोड़ों भाड़े के भोंपुओं, या समर्पित लोगों की नफरत का सबसे बड़ा मंच बना हुआ है, और अब अमरीका के हिंसाजीवी लोग भी इस नए मालिक से बड़ी उम्मीदें लगाए हुए हैं, और अगर इसकी नीतियों में, इसके कम्प्यूटरों में अगर ऐसी नफरती ‘आजादी’ के लिए और अधिक छूट दी जाती है, तो यह हिन्दुस्तान के हिंसक और नफरतजीवी लोगों के लिए एक जश्न की बात होगी।
वैसे तो दुनिया के किसी कारोबारी पर किसी वैचारिक प्रतिबद्धता की बात लागू नहीं होती है, और फेसबुक जैसे एक दूसरे सबसे बड़े सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को लेकर कई तरह की तोहमतें लगती हैं कि वहां पर किसी खास विचारधारा के लोगों को अधिक महत्व दिया जाता है, उन्हें अपनी बात अधिक लोगों तक पहुंचाने की छूट दी जाती है। अब इन कंपनियों के कम्प्यूटर एल्गोरिद्म एक बंद रहस्य रहते हैं, इसलिए बाहर के लोग यह नहीं समझ पाते कि वहां पर बदनीयत से किसी को बढ़ावा दिया जाता है, या ऐसी कोई साजिश नहीं होती है। लेकिन ऐसे आरोप लगते ही रहते हैं। और फिर जब दुनिया में पैसों की ताकत के साथ-साथ एक सनक भी रखने वाले लोग अपने आपको मानवता के लिए जनकल्याणकारी बताते हुए ऐसे नाजुक धंधे पर कब्जा करते हैं, तो दुनिया के लिए फिक्र की बात तो रहती ही है। दुनिया का इतिहास बताता है कि जनकल्याणकारी तानाशाह जैसी कोई चीज हो नहीं सकती है, जो सच ही जनकल्याणकारी होंगे, वे तानाशाह नहीं हो सकते, और जो तानाशाह हैं, वे जनकल्याणकारी नहीं हो सकते। ऐसे में एलन मस्क का ट्विटर का मालिक बनना दुनिया में सूचना और विचार के प्रवाह को बेहतर भी बना सकता है, और उसे प्रदूषित भी कर सकता है। आने वाला वक्त बताएगा कि अरबों लोगों के बीच संपर्क का एक बड़ा साधन बना हुआ ट्विटर नए मालिक के हाथों में कैसी शक्ल लेता है।
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कई बरस पहले से जापान के शहरों की सार्वजनिक जगहों की ऐसी तस्वीरें आती हैं जिनमें लोग पखाने में बैठे हैं, और उनके आसपास के एक तरफ से देखे जा सकने वाले कांच से वे तो फुटपाथ, सडक़, या दूसरी जगहों को देख सकते हैं, लेकिन बाहर से उन्हें देखना मुमकिन नहीं रहता क्योंकि कांच एक ही तरफ से काम करता है। अब मान लें कि ऐसे पखाने का शीशा एकाएक टूट जाए तो भीतर बैठे इंसान को दुनिया बिना कपड़ों देख लेगी। ऐसा ही कुछ कल अरविंद केजरीवाल के साथ हुआ है जब उन्होंने मोदी सरकार से यह मांग की कि हिन्दुस्तानी नोटों पर गांधी के साथ-साथ लक्ष्मी-गणेश की फोटो भी छापी जाए। यह मांग दीवाली के ठीक अगले दिन हुई है जब देश के बहुत बड़े हिस्से में अधिकतर लोग लक्ष्मी की पूजा करते हैं, और यह मांग गुजरात चुनाव के ठीक पहले आई है जो कि अगले कुछ हफ्तों में होने जा रहे हैं। केजरीवाल को बरसों से लोग भाजपा और आरएसएस की बी टीम की तरह पाते हैं, और वे भाजपा के खिलाफ जितनी भी बयानबाजी करें, वे बयान चुनावों में भाजपा को नुकसान नहीं पहुंचाते, और ठीक उसी तरह केन्द्र सरकार आम आदमी पार्टी के नेताओं पर जितनी भी कार्रवाई करते दिखे, वह दिखती अधिक है, होती कम है। इसलिए लोग यह मानते हैं कि भाजपा किसी भी चुनाव में अपने मजबूत विपक्षी दल के वोट बंटवाने के लिए केजरीवाल का इस्तेमाल करती है, और इस बार केजरीवाल ने भाजपा का इस्तेमाल कर लिया दिखता है, उन्होंने भाजपा के हिन्दुुत्व के मुद्दे पर उससे भी चार मील आगे बढक़र दिखा दिया जब हिन्दू देवी-देवता की तस्वीरें नोटों पर छापने की मांग उन्होंने की है।
दरअसल केजरीवाल अन्ना हजारे के उस आंदोलन से सामने आए हैं जो कि निहायत फर्जी किस्म के मुद्दों को लेकर चलाया गया था, और अधिकतर राजनीतिक विश्लेषकों ने बाद में उसे आरएसएस की उपज बताया था। देश के चुनिंदा कथित भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर अन्ना हजारे का गिरोह देश में बाकी सभी और बड़े भ्रष्टाचार को अनदेखा भी कर रहा था, और लोगों का ध्यान उस तरफ से हटा भी रहा था। इस आंदोलन में कर्नाटक से शामिल होने वाले जस्टिस हेगड़े और श्रीश्री रविशंकर जैसे लोगों को उसी वक्त कर्नाटक में चल रही येदियुरप्पा सरकार में रेड्डी बंधुओं के अंधाधुंध भ्रष्टाचार नहीं दिखते थे, और वे दिल्ली आकर यूपीए सरकार के खिलाफ डेरा डालकर बैठे थे। गांधी टोपी लगाए हुए, खादी पहने हुए, सत्याग्रह का अनशन करते हुए अन्ना हजारे ने गांधीवाद को भी खूब दुहा, और सरकार को भरपूर बदनाम किया। इसके बाद से अब तक अन्ना हजारे अपने गांव जाकर सोए हैं, और अब चूंकि दिल्ली में कांग्रेस की सरकार आठ बरस से नहीं है, दो बरस और नहीं रहेगी, इसलिए उन्हें उठने की कोई जल्दी नहीं है। उसी आंदोलन की उपज अरविंद केजरीवाल थे जिन्होंने अन्ना हजारे के साथ मिलकर जनलोकपाल बनाने के लिए आक्रामक आंदोलन चलाया था, और उसके बाद से अब तक उस मुद्दे को छुआ भी नहीं है।
अरविंद केजरीवाल एक शहर वाले राज्य दिल्ली के निर्वाचित मुख्यमंत्री हैं, और उन्होंने एक शहरी म्युनिसिपल कमिश्नर जैसा ही काम किया है। मोहल्ला क्लीनिक और बेहतर स्कूलों का काम दुनिया भर में बेहतर म्युनिसिपल कमिश्नर करते ही हैं, और केजरीवाल ने बस उतना ही किया। देश के और जितने जलते-सुलगते मुद्दे उनके राजनीतिक जीवन में देश को घेरकर रखे चले आ रहे हैं, उन पर उन्होंने कभी मुंह नहीं खोला। देश में बड़ी-बड़ी साम्प्रदायिक सुनामी आती रही, लेकिन केजरीवाल अपने टापू में महफूज बैठे रहे, होठों को सिलकर, आंखों को बंद करके। अब गुजरात और हिमाचल के चुनाव में केजरीवाल भाजपा और कांग्रेस के मुकाबले उतरे हुए हैं, और आम आदमी पार्टी को इन दोनों राज्यों में कम या अधिक संभावना दिख रही है, ऐसे में उन्होंने भाजपा से भी आगे जाकर लक्ष्मी-गणेश की तस्वीरें नोटों पर छापने की मांग कर डाली है। केजरीवाल आईआईटी से पढ़े हुए हैं, यूपीएससी से निकलकर इंकम टैक्स में ऊंची नौकरी कर चुके हैं, और देश के कानून को अच्छी तरह समझते हैं। इसके बावजूद वे इस धर्मनिरपेक्ष में किसी एक धर्म के देवी-देवताओं की तस्वीरों को नोटों पर छापने की मांग कर रहे हैं, तो इसके पीछे उनकी नीयत समझी जा सकती है। उन्हें भी मालूम है कि हिन्दुस्तान में ऐसा नहीं किया जा सकता, लेकिन वे एक जुमला उछालकर भाग निकलने में माहिर आदमी हैं, और उन्होंने इस बार भी वही किया है। अब सवाल यह उठता है कि अमूमन भाजपा-आरएसएस की रणनीति को आगे बढ़ाने के लिए चुनावों में उतरती आम आदमी पार्टी इस बार क्या भाजपा के परंपरागत वोटों को भी अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर रही है? क्या पंजाब के बाद उसकी महत्वाकांक्षा दूसरे राज्यों की तरफ बढ़ रही है? क्या वह अब भाजपा के शामियाने वाले की तरह काम करना बंद कर रही है? या फिर इन दोनों पार्टियों के बीच किसी और किस्म की रणनीतिक साझेदारी हुई है?
इस देश में बहुसंख्यक हिन्दू समाज का एक तबका वैसे भी धर्मान्धता, और साम्प्रदायिकता में झोंका जा चुका है, और केजरीवाल की यह मांग उस बात को और आगे ही बढ़ाएगी। बहुत से लोगों को यह सलाह सही लगेगी कि धन और वैभव के देवी-देवताओं की तस्वीर इस हिन्दू-बहुसंख्यक देश में नोटों पर क्यों न छापी जाए? जिन लोगों को अखबारों में छपे हुए देवी-देवताओं की तस्वीरों वाले पुराने कागज पर मांसाहारी खानपान बांधकर देने पर दंगा करना जरूरी लगता है, वे हिन्दू देवी-देवताओं की नोटों पर छपी तस्वीरों को कसाई के पास, शराबखाने में, वेश्याओं के पास जाने पर क्या महसूस करेंगे? धर्मान्धता को आगे बढ़ाने का खतरा यह रहता है कि उसकी भूख बढ़ते चलती है, और धीरे-धीरे इन नोटों को लेकर दूसरे धर्म के कारोबारियों के पास न जाने का फतवा भी कल का कोई केजरीवाल जारी करने लगेगा। यह सिलसिला इस देश के धार्मिक और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को और आगे तक ले जाएगा, और देश के बाकी धर्मों के लोगों को लगेगा कि वे यहां दूसरे दर्जे के नागरिक हैं। चुनाव जीतने के लिए केजरीवाल कुछ और राज्यों में संभावना देखकर उस वक्त यह मांग भी कर सकते हैं कि हिन्दुस्तान को हिन्दू राष्ट्र घोषित किया जाए। यह आदमी लोकतंत्र का मसीहा बनने का नाटक करते हुए राजनीति में आया, और आज यह लोकतंत्र की सारी भावना को कुचलकर चुनावी जीत हासिल करने की मक्कारी पर आमादा है। इस देश में जिन लोगों को राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों की समझ नहीं है, उन्हें एक म्युनिसिपल कमिश्नर सरीखे नेता को भी सब कुछ बना देने में कुछ गलत नहीं लगता। ऐसे ही लोगों की मेहरबानी से इस देश में तानाशाही खप रही है। केजरीवाल की ऐसी बकवास को जमकर धिक्कारने की जरूरत है।
एक भारतवंशी कहे जा रहे ऋषि सुनक के ब्रिटिश प्रधानमंत्री बनने से ब्रिटेन में एक नया इतिहास बना है कि दक्षिण एशियाई मूल का कोई व्यक्ति वहां पीएम बना है, और वह भी एक ऐसी पार्टी से जो कि गोरों के दबदबे वाली कंजरवेटिव पार्टी है। ऋषि सुनक के दादा-दादी आज के पाकिस्तान के गुजरांवाला से अफ्रीका गए थे, और वहां ऋषि सुनक के माता-पिता पैदा हुए थे। फिर वे ब्रिटेन गए और वहां पर उनके बच्चे हुए जिनमें से एक ऋषि सुनक भी थे। इस तरह इस परिवार का दो पीढ़ी पहले का आज के पाकिस्तान के पंजाब से उस वक्त रिश्ता था। उनका भारत से और दो किस्म का रिश्ता है, एक तो यह कि वे धर्म को मानने वाले हिन्दू हैं, और सांसद की शपथ उन्होंने गीता पर हाथ रखकर ली थी। दूसरी बात यह कि उनकी पत्नी भारत के एक सबसे बड़े कारोबारी, नारायणमूर्ति की बेटी हैं, और उनकी कंपनी इन्फोसिस की एक शेयरहोल्डर होने के नाते ब्रिटेन की सबसे संपन्न महिलाओं में से हैं। यह भी कहा जाता है कि वे ब्रिटेन की महारानी से भी अधिक दौलतमंद हैं। इन तमाम वजहों से ऋषि सुनक को भारतवंशी मानकर भारत में बड़ी खुशियां मनाई जा रही हैं। कई लोग तो यह मानकर चल रहे हैं कि वे हिन्दुस्तान के साथ अपनी वफादारी दिखाएंगे, और भारत से वहां गया कोहिनूर वापिस दिलवाएंगे।
हिन्दुस्तानी भी गजब के रहते हैं। दुनिया में जहां कहीं कामयाबी दिखे वहां वे भारत से उसका रिश्ता तेजी से जोड़ लेते हैं। कमला हैरिस अमरीकी उपराष्ट्रपति बनीं, तो भारत में ऐसी खुशियां मनाई गईं कि अब अमरीका पर भारत का ही राज होगा, भारतीयों की खूब चलेगी। आज हालत यह है कि हिन्दुस्तान में अगर कोई अमरीकी वीजा के लिए अर्जी लगाए, तो सारे कागजात देने के साढ़े सात सौ दिन बाद इंटरव्यू की तारीख मिल रही है, वीजा मिले न मिले यह तो बाद की बात है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से सार्वजनिक रूप से अधिक घरोबा दिखने की वजह से हिन्दुस्तान के उनके समर्थक अमरीकी राष्ट्रपति रहे डोनल्ड ट्रंप के नाम पर बावले हो गए थे, और जब ट्रंप ने चुनाव लड़ा, तो हिन्दुस्तान में जगह-जगह उनकी जीत के लिए हवन करवाए जा रहे थे। यह एक अलग बात है कि वही ट्रंप अमरीका में प्रवासियों के सबसे अधिक खिलाफ थे, जिनमें हिन्दुस्तानी भी शामिल थे। उनसे हिन्दुस्तान का एक धेला भला नहीं हुआ, लेकिन लोगों को वे अपने फूफा लग रहे थे। अब ऋषि सुनक के डीएनए के अलावा उनका हिन्दुस्तान, और तकनीकी रूप से आज के पाकिस्तान से और कुछ लेना-देना नहीं है, लेकिन लोग ऐसे मजे से खुशियां मना रहे हैं कि अब लंदन जाने पर प्रधानमंत्री निवास में ही ठहरना होगा। सच तो यह है कि उन्होंने आते ही भारतीय मूल की एक सांसद सुएला ब्रेवरमैन को गृहसचिव (मंत्री) बनाया है जिन्होंने हफ्ते भर पहले ही पिछले मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया था। उन्होंने भारत से ब्रिटेन पहुंचने वाले लोगों के खिलाफ टिप्पणी की थी। वे भारत के गोवा में पैदा हुई थीं, और अपनी इस टिप्पणी के लिए ये विवाद से घिरी थीं।
जिन लोगों ने दुनिया को नहीं देखा है, लोकतंत्र को नहीं देखा है, विकसित और सभ्य समाजों को नहीं देखा है, उनके लिए हिन्दी फिल्मों के डायलॉग की तरह खून का रिश्ता सबसे मजबूत होता है। हिन्दुस्तानी (या पाकिस्तानी) डीएनए आज अगर अमरीकी प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचा है, तो उसमें डीएनए से परे इन देशों का क्या योगदान है, इस पर कोई चर्चा करना नहीं चाहते। हिन्दुस्तान में काम की बेहतर संभावनाएं न रहने पर ऋषि सुनक के दादा-दादी पूर्वी अफ्रीका गए थे, कमला हैरिस की मां अमरीका गई थीं, और गूगल के आज के मुखिया सुन्दर पिचाई बेहतर भविष्य के लिए अमरीका गए थे। ऐसे में उनके जन्म के देश के यह भी समझना चाहिए कि इस देश की वजह से ये लोग आगे बढ़े, या इस देश के बावजूद वे बाहर जाकर इतना आगे बढ़ पाए। आज जब ऋषि सुनक की खुशियों से हिन्दुस्तान का एक तबका लबलबा रहा है, तब एक दूसरी खबर यह है कि सुन्दर पिचाई की अगुवाई वाली कंपनी गूगल पर भारत में प्रतिस्पर्धा आयोग ने 936 करोड़ रूपये का जुर्माना लगाया है क्योंकि यह कंपनी गूगल प्ले स्टोर बाजार में अपने दबदबे का गलत तरीके से फायदा उठा रही थी। अब भारतीय बाजार में अगर गूगल का कामकाज इतने बड़े जुर्माने के लायक समझा गया है, तो यह भारत के साथ सुन्दर पिचाई की किसी खास रियायत का सुबूत नहीं है। जो लोग इस दुनिया के बीच एक कुएं में जीते हैं, वे यह नहीं समझ पाते कि अपने जन्म के देश के साथ वफादारी निभाते हुए लोग उन देशों के साथ गद्दारी या धोखेबाजी नहीं कर सकते, जहां वे पले-बढ़े हैं, या पढ़े हैं, और काम कर रहे हैं। वे जहां के नागरिक हैं, उनकी पहली जिम्मेदारी वहां के लिए है, और हिन्दुस्तान के लिए उनकी कोई वफादारी नहीं बनती है। हिन्दुस्तान के कुछ चैनल अपनी आदत और नीयत के मुताबिक यह साम्प्रदायिकता भडक़ाने में लग गए हैं कि ऋषि सुनक के दादा-दादी गुजरांवाला से पूर्वी अफ्रीका इसलिए गए थे कि वे वहां पर हिन्दू-मुस्लिम तनातनी से डरे हुए थे। मतलब यह कि ऋषि सुनक को अपना साबित करने के लिए उसे भारतवंशी बताना भी जरूरी है, लेकिन साथ-साथ आज के पंजाब में मौजूद गुजरांवाला को बदनाम करने के लिए उसे हिन्दू-मुस्लिम तनाव वाला बताना भी जरूरी है। ऐसी नीयत के साथ जो लोग गौरव पर कब्जा करना चाहते हैं, वे खुद भी आगे नहीं बढ़ सकते, क्योंकि वे झूठे गौरव के साथ खुश रहना सीख चुके रहते हैं।
हिन्दुस्तान के भीतर काबिल लोगों को अच्छे कॉलेजों में दाखिले से रोकना, नौकरियों से रोकना, उनके कारोबार में तरह-तरह से अड़ंगे लगाना, ऐसी हरकतों वाला देश दुनिया में कहीं कामयाबी पर दावा करते हुए अपने आपको हॅंसी का हकदार बना देता है। हिन्दुस्तानी इसमें बहुत माहिर हैं। वे कोहिनूर का रास्ता देख रहे थे, और उन्हें भारतविरोधी बयान देने वाली मंत्री बनाने वाली ऋषि सुनक की खबर मिली है। लोगों को गर्व और गौरव के लिए अपनी ठोस कामयाबी और उपलब्धि तलाशनी चाहिए, कहीं और की कामयाबी जो किन्हीं और वजहों से हुई है, उन पर दावा जताना खोखले लोगों का काम होता है।
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गुजरात के गृहमंत्री ने 21 से 27 अक्टूबर तक किसी का भी ट्रैफिक चालान काटने से मना कर दिया है। उन्होंने दीवाली के मौके पर इसे जनता को तोहफा कहा है, और चुनाव के करीब पहुंच रहे गुजरात में इसे वहां की बड़ी हिन्दू आबादी को लुभाने वाला एक फैसला कहा जा रहा है। उन्होंने मंच और माईक से सार्वजनिक घोषणा करते हुए कहा कि इस एक हफ्ते गुजरात टै्रफिक पुलिस कोई जुर्माना नहीं वसूलेगी। कल ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक बार फिर अपनी मुफ्त की रेवड़ी वाली बात को दुहराते हुए दिखे, और उन्होंने मध्यप्रदेश में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा कि टैक्स देने वाले जब यह देखते हैं कि उससे वसूले गए टैक्स से मुफ्त की रेवड़ी बांटी जा रही है, तो टैक्सपेयर सबसे ज्यादा दुखी होते हैं। उन्होंने कहा- मुझे गर्व है कि देश में एक बड़ा वर्ग है जो देश को रेवड़ी कल्चर से मुक्ति दिलाने के लिए कमर कस रहा है।
ये दोनों ही बातें कल की हैं, दोनों ही बातें गुजरात से निकले लोगों की कही हुई है। गुजरात के गृहमंत्री हर्ष संघवी चालान से छूट की देश की यह अपने किस्म की पहली रेवड़ी जब बांट रहे थे, तभी गुजरात से निकलकर देश के प्रधानमंत्री बने नरेन्द्र मोदी एक दूसरे मंच से रेवड़ी कल्चर के खिलाफ बोल रहे थे। पिछले कुछ महीनों में रेवड़ी कल्चर का यह एक नया जुमला नरेन्द्र मोदी की तरफ से शायद इसलिए आया कि हिमाचल और गुजरात में चुनाव होने जा रहे हैं, इन दोनों ही राज्यों में आम आदमी पार्टी ताल ठोंकते हुए चुनाव में उतरी हुई है, और इस पार्टी का पुराना इतिहास रहा है कि यह तरह-तरह की लुभावनी रियायतों और तोहफों वाला चुनावी घोषणापत्र लाती है, और शायद उसे काफी हद तक पूरा भी करती है। ऐसी चुनावी घोषणाओं पर रोक लगाने के लिए भाजपा के एक बड़े नेता जो कि सुप्रीम कोर्ट के वकील भी हैं, वे एक जनहित याचिका लेकर अदालत में हैं, और अदालत ने केन्द्र सरकार, राजनीतिक दलों, और चुनाव आयोग से इस पर उनकी राय भी पूछी है। मोदी के उछाले गए रेवड़ी-कल्चर शब्दों का मौका इन विधानसभा चुनावों के ठीक पहले का भी था, और सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चलने के बीच भी था। लेकिन अब यह भी समझने की जरूरत है कि हिन्दुओं के साल के एक सबसे बड़े त्यौहार पर अगर कानून तोडऩे की छूट का यह चुनावपूर्व तोहफा गुजरात में दिया जा रहा है, तो आने वाले बरसों और चुनावों में इसका क्या असर होगा?
अगर इस घोषणा को गैरकानूनी करार देते हुए इस पर रोक नहीं लगाई गई, इस पर अदालती फटकार नहीं लगी, तो फिर बाकी राजनीतिक दलों के लिए, और बाकी प्रदेशों के लिए मैदान खुला रहेगा। और फिर वह मैदान चुनाव के पहले के महीनों में ही नहीं खुलेगा, वह बारहमासी और पांचसाला हो जाएगा। बंगाल में दुर्गा पूजा के हफ्ते में चालान नहीं होंगे, गोवा में क्रिसमस से नए साल तक न सडक़ों पर चालान होंगे, और न ही पिये हुए लोगों पर कोई कार्रवाई होगी, और मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान के पंजाब में तो ऐसी रियायत पूरे पांच बरस देनी होगी। और जैसा कि आज के हिन्दुस्तान का हाल सुप्रीम कोर्ट ने अभी दो दिन पहले के अपने ताजा फैसले में लिखा है, यह तो जाहिर है ही कि देश के तकरीबन तमाम प्रदेशों में ये रियायतें हिन्दू त्यौहारों पर ही मिलेंगी, और बाकी धर्मों के लोग अपने-अपने फिलीस्तीन जहां चाहें वहां ढूंढ लें।
कल जब गुजरात के मुख्यमंत्री दीवाली का यह तोहफा दे रहे थे, तो सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला आए भी दो दिन हो चुके थे, पूरा फैसला लोगों के सामने था जो कि कह रहा था कि अगर नफरत फैलाने वाले बयानों पर किसी प्रदेश में खुद होकर कार्रवाई नहीं की गई, तो उसे सुप्रीम कोर्ट की अवमानना माना जाएगा, और वहां के अफसरों को कटघरे में बुलाया जाएगा। वह बात नफरत की थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ किया था कि आज देश में, देश में जगह-जगह, या देशभर में देश का लोकतांत्रिक चरित्र खत्म किया जा रहा है, और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है। निशाना बनाने का यह काम इस तरह भी हो सकता है कि केन्द्र और राज्य सरकारें गले-गले तक किसी एक धर्म को मनाने में लग जाएं, सरकारी खजाना उस धर्म की भक्ति में झोंक दिया जाए, और बिना कुछ कहे बाकी धर्म हाशिए पर धकेल दिए जाएं। गुजरात का यह ताजा फैसला उसी तरह का है। यह अल्पसंख्यकों के बारे में, या गैरहिन्दू धर्मों के बारे मेें कुछ नहीं कह रहा, लेकिन हिन्दू त्यौहार के मौके पर यह गैरकानूनी रियायत बिना कुछ कहे भी दूसरे धर्मों को उनकी औकात याद दिला देती है।
सुप्रीम कोर्ट ने नफरत के भाषणों के खिलाफ एक कड़ा रूख तो दिखाया है, लेकिन धर्मान्धता, और साम्प्रदायिकता के जो जलते-धधकते मामले हैं, उन्हें देश की यह सबसे बड़ी अदालत मोटेतौर पर अनदेखा करके ही चल रही है। आज जरूरत देश की साम्प्रदायिक स्थिति को एक समग्रता से देखने की है, यह भी सवाल करने की है कि किसी एक धर्म को देश या किसी प्रदेश का राजकीय धर्म कैसे बनाया जा रहा है? लेकिन सुप्रीम कोर्ट की कई बेंचें असुविधा से भरे इस काम से बचती दिख रही हैं, और यह समकालीन इतिहास इस बचने को भी दर्ज करते चल रहा है। फिलहाल किसी को गुजरात के इस फैसले के खिलाफ अदालत जाना चाहिए क्योंकि यह महज धार्मिक या साम्प्रदायिक मामला नहीं है, यह एक ऐसा गैरकानूनी मामला भी है जो सडक़ों पर लोगों की हिफाजत खत्म करता है। और ऐसा करना किसी सरकार का हक नहीं है। हो सकता है कि गुजरात के गृहमंत्री को यह अच्छी तरह मालूम हो कि यह आदेश अदालत में एक सुनवाई भी खड़ा नहीं रहेगा, और उसके बाद भी उन्होंने इसे चुनाव के पहले जनता के बीच खपाने के लिए ही कहा हो, लेकिन ऐसी मिसालों का विरोध होना चाहिए। इस हरकत से, और ऐसी चुनिंदा रियायत से गुजरात में जनता का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश भी यह दिखती है।
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देश के सबसे प्रमुख सरकारी अस्पताल, दिल्ली के एम्स में सांसदों को खास हक देने वाला एक फैसला डॉक्टरों के संगठन के भारी विरोध के बाद वापिस लिया गया है। इस फैसले में सांसदों, और उनकी सिफारिश पर आने वाले दूसरे मरीजों के लिए कई किस्म के विशेषाधिकार तय किए गए थे, और इसके लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ने अपने अफसरों और डॉक्टरों को लिखित-निर्देश दिए थे कि किसी सांसद के इलाज के लिए आने पर किस तरह खास इंतजाम किए जाएं, तुरंत डॉक्टर तक ले जाया जाए, बिना देर किए सबसे अच्छा इलाज कराया जाए, इसके लिए फोन और मोबाइल पर लोग तैनात रहें, और किसी सांसद की सिफारिश पर आने वाले मरीज की भी अलग से मदद की जाए। डॉक्टरों के संगठनों ने एम्स के डायरेक्टर के इस आदेश का जमकर विरोध करते हुए केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री को लिखा था कि आज जब यह देश वीआईपी संस्कृति के खिलाफ लड़ रहा है, उस वक्त एम्स सांसदों के लिए इस तरह का खास इंतजाम कर रहा है जिससे कि बाकी मरीजों का इलाज का हक, और उनका इलाज दोनों बुरी तरह प्रभावित होंगे। डॉक्टरों ने केन्द्र सरकार को याद दिलाया कि सरकारी अस्पतालों को कभी यह नीति नहीं बनानी चाहिए कि कुछ चुनिंदा लोगों का बेहतर इलाज, और बाकी तमाम लोगों का कमजोर इलाज। उन्होंने कहा कि चिकित्सा सेवा के मामले में इस तरह की गैरबराबरी बिल्कुल मंजूर नहीं की जा सकती, और यह डॉक्टरों की ली गई शपथ के भी खिलाफ है, और देश के हर डॉक्टर की आत्मा के भी खिलाफ है। केन्द्रीय मंत्री को यह भी याद दिलाया गया कि इस तरह का आदेश डॉक्टरों पर हिंसक हमले करने वालों का भी हौसला बढ़ाएगा क्योंकि अध्ययन करने पर यह पता लगा है कि ऐसी हिंसा का 80 फीसदी हिस्सा राजनेता, या उनसे जुड़े हुए लोग करते हैं।
गनीमत यह है कि यह आदेश निकलने के एक हफ्ते के भीतर ही इसे वापिस लेना पड़ा, और जिस तरह एम्स की ओर से लोकसभा सचिवालय को इस आदेश की चि_ी भेजी गई है, उससे यह जाहिर होता है कि लोकसभा की पहल पर इस तरह का आदेश निकला होगा। देश संसद के रेस्त्रां में सांसदों के रियायती खाने को लेकर पहले से विचलित चल रहा था, और उस रेस्त्रां के रेटकार्ड को देखकर लोग हैरान होते थे कि खाना इतना रियायती भी किया जा सकता है। इसके साथ-साथ लोग सांसदों को मिलने वाले वेतन, पेंशन, मकान और सफर की सहूलियत जैसी बातों को भी गिनाते थे, और इन तमाम बातों को मिलाकर मानो हिकारत काफी पैदा नहीं हो रही थी कि अस्पताल में इलाज का यह नया हुक्म निकाला गया था जिसमें हिन्दुस्तान के सांसदों, और उनकी सिफारिश पर पहुंचने वाले लोगों को दूसरे मरीजों से पहले, उनसे ऊपर रखा गया था, और अस्पताल को हुक्म दिया गया था कि इन लोगों से बारातियों की तरह पेश आया जाए। जनता के बीच यह मुद्दा उठ पाए, उसके पहले ही हौसलेमंद डॉक्टरों के संगठनों ने इसका जमकर विरोध किया, और सांसदों को आम नागरिकों से ऊपर का इलाज का दर्जा शुरू होने के पहले ही खत्म हो गया। यह बात हैरान करती है कि देश में आज जागरूकता के इस दौर में भी लोग जनता के हकों को इस हद तक कुचलने का दुस्साहस रखते हैं, और दूसरे मरीजों की कतार को धकेलते हुए खुद पहले इलाज पाने की ऐसी बेशर्मी रखते हैं। किसी लोकतंत्र में वीवीआईपी शब्द, और ऐसे दर्जे एक सामंती मिजाज का सुबूत रहते हैं, और धिक्कार के लायक रहते हैं।
हम समय-समय पर ऐसे वीआईपी हकों के खिलाफ लिखते आए हंै जिनमें सिर्फ सांसद और विधायक नहीं रहते, जज और अफसर भी रहते हैं। हर प्रदेश में हाईकोर्ट के जज जिस तरह सायरन बजाती पायलट गाडिय़ों के साथ सडक़ पर दूसरों को किनारे धकेलते हुए चलते हैं, वह अपने आपमें एक बहुत ही शर्मनाक हरकत रहती है, लेकिन अभी तक कोई जज ऐसे नहीं मिले हैं जिन्होंने ऐसी सामंती सहूलियतों से मना किया हो। जो जज अदालत में गिने-चुने घंटे बैठते हैं, और साल में डेढ़ सौ दिन से अधिक छुट्टियां लेते हैं। कुछ बरस पहले एक जनहित याचिका लगी थी जिसमें सुप्रीम कोर्ट से पूछा था कि वह साल में कुल 193 दिन क्यों काम करता है जबकि वह मामलों से लदा हुआ है। इसी जनहित याचिका के मुताबिक देश के हाईकोर्ट साल में 210 दिन काम करते हैं, और जिला अदालतें 245 दिन। इस जनहित याचिका ने याद दिलाया था कि सुप्रीम कोर्ट का ही एक आदेश है कि जज साल में कम से कम 225 दिन काम करें। यह अंग्रेजों के समय से चले आ रही एक वीआईपी संस्कृति है जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट जज साल में पांच बार बड़ी-बड़ी छुट्टियां लेते हैं, गर्मियों में 45 दिन, सर्दियों में 15 दिन, होली पर एक हफ्ते, और दशहरा-दीवाली पर पांच-पांच दिन। जब देश की सबसे बड़ी अदालत खुद अपने ही नियमों के खिलाफ इस तरह सामंती सहूलियत का मजा लेती है, तो जाहिर है कि इस लोकतंत्र में बाकी किस्म की सत्ता भी आम जनता के हकों के ऊपर अपना दावा करेगी, और एम्स का यह ताजा हुक्म उसी का एक सुबूत था।
लोकतंत्र में लोगों के बीच इस तरह का फर्क एक जुर्म है। लोकतंत्र में जुर्म की परिभाषा महज संसद के बनाए कानून से, सरकारों के बनाए नियम से, और अदालतों के फैसलों से तय नहीं होते। लोकतंत्र में जनता के बीच सार्वजनिक पैमानों से भी यह तय होता है कि कौन सी बातें जुर्म हैं। जब तथाकथित वीवीआईपी लोगों के काफिले रफ्तार से ले जाने के लिए चौराहों पर आम जनता को रोका जाता है, एम्बुलेंसों को रोक दिया जाता है, तब दूसरों के हक को कुचलते हुए कुछ चुनिंदा लोग अपनी निहायत गैरजरूरी और नाजायज हड़बड़ी दिखाते हैं। सडक़ पर साइकिल से जाते हुए एक मजदूर के हक के मुकाबले किसी मंत्री-मुख्यमंत्री, जज और अफसर का हक अधिक कैसे हो सकता है? एक मजदूर के काम के मुकाबले इनका काम अधिक महत्वपूर्ण कैसे हो सकता है? दरअसल लोकतंत्र की बुनियादी समझ के मुताबिक तो वीआईपी और वीवीआईपी शब्द बड़ी गालियां हैं, और लोगों को याद होगा कि पूरी दुनिया के इतिहास में लालबत्ती को वेश्याओं के इलाके का एक प्रतीक माना जाता था। आज हिन्दुस्तान जैसे सामंती और तथाकथित लोकतांत्रिक देश में बड़े-बड़े ताकतवर लोग उसी लालबत्ती को अपने सिर पर सजाए चलने को अपना गौरव मानते हैं। यह पूरा सिलसिला खत्म होना चाहिए, और देश के लोगों को डॉक्टरों के उन संगठनों का अहसान मानना चाहिए जिन्होंने केन्द्र सरकार के कर्मचारी होने के बावजूद सरकार और संसद के ऐसे विशेषाधिकार का जमकर विरोध किया, और उसे हटवाकर दम लिया। इसके बजाय तथाकथित वीआईपी लोगों को उस वक्त प्राथमिकता देना बेहतर होगा जब इन्हीं अस्पतालों में भैंसे पर सवार होकर कोई मरीजों को ले जाने के लिए पहुंचेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
महाराष्ट्र की वर्धा नाम की जिस जगह पर गांधी ने बहुत समय गुजारा था, वहां पर उनकी स्मृति में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय है। यह केन्द्रीय विश्वविद्यालय कई वजहों से अच्छी और बुरी चर्चा में रहता है। लेकिन अब तीन दिन पहले की इसकी एक ताजा चि_ी बड़ी दिलचस्प है। विश्वविद्यालय के कुलसचिव ने सारे लोगों को लिखा है कि परिसर की गौशाला में गौबारस के पावन पर्व पर 21 अक्टूबर को सुबह 8.30 बजे गाय और बछड़े के पूजन का आयोजन किया गया है। सभी विद्यार्थियों, अध्यापकों, कर्मचारियों से अनुरोध है कि इस पूजन में सपरिवार अपनी सहभागिता सुनिश्चित करने का कष्ट करें। आज देश भर में भाजपा शासित प्रदेशों में और केन्द्र सरकार के संस्थानों में हिन्दू धर्म को देश के अकेले धर्म के रूप में एकाधिकार दिलवाने के लिए लगातार एक मुहिम चल रही है। यह उसी मुहिम का एक हिस्सा है।
छत्तीसगढ़ में भी हम कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय में इसी तरह की पूजा-पाठ और हवन देख चुके हैं, जिसकी तस्वीरें विश्वविद्यालय बड़े गर्व से सोशल मीडिया पर पोस्ट करता है। देश के प्रधानमंत्री और दूसरे बड़े सत्तारूढ़ नेता, भाजपा के कई मुख्यमंत्री, और अब कांग्रेस के भी मुख्यमंत्री लगातार मंदिरों में जाते दिखते हैं। कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों में फर्क महज इतना है कि वे दूसरे धर्मों के कार्यक्रमों में भी चले जाते हैं, भाजपा के मंत्री-मुख्यमंत्री अपने धर्म तक सीमित रहते हैं, और इनमें किसी गैरहिन्दू की तो अधिक गुंजाइश भी नहीं है। लेकिन इस धार्मिक भेदभाव से धीरे-धीरे देश का एक माहौल जो बड़ी मुश्किल से आधी सदी में जाकर कुछ हद तक धर्मनिरपेक्ष सरीखा हो पाया था, वह तबाह हो गया है, और अब संविधान में संशोधन करके इसे एक हिन्दू राष्ट्र बनाए बिना भी सरकारों की तमाम कोशिशें इसे तमाम व्यवहारिक बातों के लिए हिन्दू राष्ट्र बना चुकी हैं। जेल से गलत तरीके से वक्त के पहले रिहा किए जाने वाले सामूहिक बलात्कारियों को माला और आरती सुप्रीम कोर्ट की आंखों के सामने ही मिल रही हैं, और किसी भी तरह के छोटे-मोटे जुर्म के आरोपी मुसलमानों के परिवार और कारोबार को कुछ घंटों के भीतर बुलडोजर मिल रहा है। हिन्दुस्तान की न्यायपालिका कभी इतनी बेबस और लाचार नहीं दिखी थी कि वह रात-दिन टीवी पर चलने वाले ऐसे नजारों को भी अनदेखा करना शायद अपनी हिफाजत के लिए बेहतर समझती है। उसे न तो सरकारों के संपूर्ण-हिन्दूकरण में कोई दिक्कत दिख रही है, और न ही पुलिस और प्रशासन के पूरी तरह साम्प्रदायिक हो जाने में। यह सिलसिला उन सत्तारूढ़ लोगों के लिए सहूलियत का है, और उनका हौसला बढ़ा रहा है जो कि पूरे देश को एक भगवा रंग में रंग देना चाहते हैं।
जिन विश्वविद्यालयों में अंतरराष्ट्रीय स्तर की पढ़ाई होनी चाहिए, वहां पर एक धर्म के हवन-पूजन का सिलसिला चला हुआ है, देवी-देवताओं के साथ-साथ अब वहां गाय-बछड़े की पूजा भी हो रही है, और उसका बड़ा जलसा हो रहा है, जिसका न तो पढ़ाई से कोई लेना-देना है, और न ही देश की धर्मनिरपेक्षता से। जो जाहिर तौर पर सोच-समझकर एक धर्म को बाकी सब पर लादने की एक हिंसक और हमलावर कोशिश है जो कि पूजा की शक्ल में पेश की जा रही है। यह बात साफ है कि देश की आबादी के गैरहिन्दू तबकों में यह सब देखकर एक निराशा है, और नाराजगी है। उनके बीच यह बात घर कर रही है कि वे सब दूसरे दर्जे के नागरिक हैं, और तमाम नागरिक हक अगर पाने हों, तो उन सबको भी हिन्दू हो जाना चाहिए। देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को जिस रफ्तार के साथ तहस-नहस कर दिया गया है, वह अविश्वसनीय है। दस बरस पहले किसी से यह कल्पना करने को कहा गया होता कि किसी एक धर्म की तानाशाही हिन्दुस्तान पर इस हद तक हावी हो सकती है, तो शायद लोग आसानी से इस बात को नहीं मानते। लेकिन अब इसे साबित करने के लिए किसी सुबूत की भी जरूरत नहीं बची है क्योंकि यह चारों तरफ सरकारी स्तर पर अच्छी तरह से स्थापित है।
दिक्कत यह है कि आज संसद में एक ही सोच का बाहुबल, देश की अधिकतर विधानसभाओं में उसी सोच का बाहुबल ऐसा है कि वह किसी अश्वमेध यज्ञ के घोड़े की तरह चारों तरफ पहुंच रहा है, और अपना झंडा गाड़ रहा है। मतदाताओं के बीच इस सोच ने लोकतांत्रिक संसदीय चुनावों को एक धार्मिक जनगणना की तरह बनाकर रख दिया है। इस बात को हिन्दुस्तान के गैरहिन्दू तो भुगत ही रहे हैं, वे हिन्दू भी भुगत रहे हैं जिनकी ऐसी हमलावर सोच पर कोई आस्था नहीं है। दुनिया के बाकी देशों में जो सभ्य और विकसित लोकतंत्र हैं वे लगातार यह पा रहे हैं कि हिन्दुस्तान में धार्मिक स्वतंत्रता न्यायपूर्ण नहीं रह गई है, एक धर्म की स्वतंत्रता रह गई है, और बाकी धर्मों के लिए इसका अकाल पड़ गया है। इससे आज तो जितना नुकसान हो रहा है, जितना खतरा दिख रहा है, वह तो है ही, इससे भी अधिक बढक़र इसका नुकसान आने वाले बरसों में दिखेगा जब अगली पीढिय़ां अपने इर्द-गिर्द ऐसी ही धार्मिक हिंसा को देखते हुए बड़ी होंगी, और उन्हें यह समझ आएगा कि यही नवसामान्य हिन्दुस्तान है। उन्हें दिक्कत तब होगी जब वे विकसित लोकतंत्रों में काम करने जाएंगे, और उन्हें पता लगेगा कि हिन्दुस्तान के भीतर के धार्मिक भेदभाव और साम्प्रदायिक हिंसा की वजह से उन्हें उन देशों में शर्मिंदगी झेलनी पड़ेगी। धर्मान्धता सिर्फ अफगानिस्तान या ईरान जैसे देशों को अछूत नहीं बनाती, हिन्दुस्तान जैसे देश के खिलाफ भी दुनिया के कई देशों में संसदों में चर्चा हो चुकी है, और कई देशों के संवैधानिक संगठन भारत के इस भेदभाव पर फिक्र कर चुके हैं। ऐसी साम्प्रदायिकता से हिन्दुस्तान अपनी संभावनाओं से कोसों दूर रह जाएगा क्योंकि आबादी के कई हिस्सों को विकास की मूलधारा से काटकर रखने का नुकसान तो हो ही रहा है।
हिन्दुस्तान की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी अभी अपने सबसे बुरे दौर से भी गुजर रही है, और वह इससे उबरने की कोशिश भी कर रही है। कल दशकों बाद कांग्रेस ने एक औपचारिक चुनाव से गांधी-परिवार के बाहर के एक सबसे पुराने नेता मल्लिकार्जुन खडग़े को अपना अध्यक्ष चुना है। आज किसी भी राजनीतिक पार्टी में संगठन के चुनाव में जितनी पारदर्शिता हो सकती है, उससे बहुत अधिक पारदर्शिता के साथ कांग्रेस के संगठन चुनाव हुए हैं, और देश के एक सबसे बुजुर्ग और सबसे अनुभवी दलित नेता को इस चुनौती भरे दौर में इस पार्टी की अगुवाई मिली है। इसे ओहदा मिलना कहना बिल्कुल गलत होगा, खडग़े को यह सिर्फ एक बहुत बड़ी चुनौती मिली है।
कांग्रेस 2014 के बाद से लगातार जमीन खोते जा रही थी, और 2019 के चुनाव के बाद वह हाशिए पर जा चुकी दिख रही थी। लेकिन संसद में सीटें कम होने से कांग्रेस को खारिज कर देना ठीक नहीं है क्योंकि भाजपा के वोटों से आधे वोट रह जाने पर भी कांग्रेस देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है, न सिर्फ लोकसभा चुनाव में मिले वोटों के आधार पर, बल्कि देश के हर हिस्से में अपनी मौजूदगी की वजह से भी। भाजपा के अलावा कांग्रेस ही अकेली ऐसी पार्टी है जो देश भर में है, और शायद कुछ हिस्से ऐसे हो सकते हैं जहां अभूतपूर्व कामयाब भाजपा की भी मौजूदगी न हो, लेकिन कांग्रेस की मौजूदगी वहां भी होगी। इसलिए कांग्रेस के बिना अगले कई बरस तक हिन्दुस्तानी लोकतंत्र का कोई विपक्ष नहीं हो सकता, और विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते कांग्रेस के सामने ऐतिहासिक जिम्मेदारी भी है, और अभूतपूर्व चुनौती तो पिछले कई बरसों से बनी हुई है ही। खडग़े ने जिस दौर में, करीब 80 बरस की उमर में यह चुनौती पाई है, वह सचमुच ही मुश्किल है, और गांधी परिवार की मौजूदा पीढ़ी के साथ काम करने की एक अजीब सी नौबत भी है।
दरअसल कांग्रेस के पिछले चुनाव जब हुए थे, तब सोनिया गांधी की लीडरशिप नहीं थी, और पिछले दो-ढाई दशक सोनिया और राहुल लगातार पार्टी के अध्यक्ष रहे, किसी औपचारिक चुनाव की कोई जरूरत भी नहीं हुई, और सफलता या असफलता के बावजूद उनकी लीडरशिप को कोई चुनौती भी नहीं थी। लेकिन 2019 का चुनाव हारने के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ दिया, और तमाम लोगों की तमाम कोशिशों के बावजूद वे दुबारा अध्यक्ष बनने को तैयार नहीं हुए। उनकी जिद के चलते कांग्रेस पिछले दो-तीन बरस से एक बड़े असमंजस के दौर से गुजर रही थी, सोनिया गांधी अनमने ढंग से कामचलाऊ अध्यक्ष बनी हुई थीं, और पार्टी के भीतर के दो दर्जन बड़े नेताओं ने पारदर्शी चुनाव और पार्टी में सुधार की मांग को लेकर एक किस्म से खुली बगावत कर रखी थी। बड़े-बड़े कुछ नेताओं ने फेरबदल न होने पर पार्टी छोड़ भी दी, लेकिन कुल मिलाकर जिस किस्म के चुनाव की मांग की गई थी, वैसा चुनाव कल पूरा हुआ है, और किसी को भी चुनाव लडऩे से रोका नहीं गया, सबको मौका था, गुप्त मतदान हुआ, मिलीजुली मतगणना हुई, गांधी परिवार ने किसी का खुला समर्थन नहीं किया, और मल्लिकार्जुन खडग़े करीब 90 फीसदी वोट पाकर निर्विवाद रूप से अध्यक्ष बने।
इस पूरी पृष्ठभूमि में अब अगर उनके कार्यकाल को देखें, तो जितनी बड़ी चुनौती भाजपा और उसके सहयोगी दलों से चुनाव लडऩे की है, उतनी ही बड़ी चुनौती इस बात की भी है कि अध्यक्ष के अपने कार्यकाल में वे सोनिया परिवार के साथ किस तरह के संबंध रखते हैं, किस तरह उनकी लीडरशिप की खूबियों का इस्तेमाल करते हैं, किस तरह उनकी शोहरत को पार्टी के लिए काम में लाते हैं। यह कांग्रेस का सबसे मुश्किल और चुनौतीभरा दौर है, लोग उन्हें सोनिया-परिवार की पसंद का अध्यक्ष भी मानते हैं, और ऐसे में पार्टी को बांधकर रखने वाले इस परिवार के साथ वे कैसे संबंध रखते हैं, इस पर भी पार्टी के भीतर उनकी कामयाबी टिकेगी। यह बात बहुत जाहिर है कि आज भी न सिर्फ देश के मतदाताओं के बीच बल्कि कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच भी सोनिया-परिवार पार्टी के किसी भी दूसरे नेता के मुकाबले अधिक लोकप्रिय है। यह तो राहुल गांधी की जिद थी कि उनके परिवार के बाहर से अध्यक्ष चुने जाएं, इसलिए यह नौबत आई, वरना कितनी भी चुनावी शिकस्त होने पर भी इस परिवार से अधिक बड़े कोई नेता पार्टी में नहीं है, और पार्टी के लोगों को मंजूर नहीं हैं। लेकिन अब यह बात साफ है कि कन्याकुमारी से कश्मीर तक की अभूतपूर्व पदयात्रा पर निकले हुए और धूप में तपकर निखरते हुए राहुल गांधी कांग्रेस के लिए आज सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरे हैं। एक किस्म से इतनी ताकत पार्टी के औपचारिक अध्यक्ष के मुकाबले एक दूसरे शक्ति केन्द्र की तरह हो सकती है। और कांग्रेस को, सोनिया परिवार को इस बात का ख्याल रखना पड़ेगा कि उसके आभा मंडल के पीछे निर्वाचित अध्यक्ष दब और छुप न जाएं। पार्टी को मुसीबत से उबारना है तो उसे अपने लोकप्रिय चेहरे को अलग रखना होगा, और निर्वाचित अध्यक्ष की सत्ता को अलग रखना होगा। आज अगर पार्टी के भीतर या मतदाताओं के सामने एक ऐसी तस्वीर जाएगी कि एक बुजुर्ग, वरिष्ठ, और तजुर्बेकार अध्यक्ष के रहते हुए भी सोनिया-परिवार पिछली सीट पर बैठकर कार चला रहा है, तो इससे परिवार के बाहर का अध्यक्ष बनाने का पूरा मकसद ही शिकस्त पाएगा। पार्टी के भीतर सबसे अधिक, अपार ताकत रखते हुए भी इस परिवार को संगठन के मामलों में अपने को दूर रखना होगा, और तभी राहुल गांधी की यह साख बन पाएगी कि वे सचमुच ही पार्टी के बाहर का अध्यक्ष चाहते थे। अगर यह परिवार मालिक की तरह खुद घर बैठकर खडग़े से मैनेजर की तरह काम करवाएगा, तो पार्टी के और बुरे दिन आएंगे, राजनीतिक के साथ-साथ व्यक्तित्व की ईमानदारी की साख भी चौपट होगी। यह एक बड़ी चुनौती रहेगी कि आमतौर पर मुसाहिबों और खुशामदखोरों से घिरे हुए सोनिया-परिवार को संगठन पर अपनी ताकत और पकड़ के इस्तेमाल से अपने को रोकना होगा, अपने को बचाना होगा। इसके साथ-साथ खडग़े के लिए भी यह एक चुनौती रहेगी कि संगठन में वे सोनिया-परिवार के प्रतिद्वंद्वी या विरोधी की तरह न दिखें, और इस परिवार की लोकप्रियता का पार्टी के पक्ष में अधिक से अधिक इस्तेमाल करें। यूपीए सरकार के वक्त मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की जोड़ी ने यह कर दिखाया था। सोनिया की शासन क्षमता शून्य थी, और मनमोहन सिंह की वोटरों के बीच अपील भी तकरीबन उतनी ही थी। लेकिन मनमोहन सिंह ने दस बरस संगठन के साथ संबंध और सरकार दोनों को बखूबी निभाया था। खडग़े इतने पुराने और इतने किस्म के कामों से आगे बढ़े हुए नेता हैं कि उनके लिए यह बात नामुमकिन नहीं है, मुश्किल जरूर हो सकती है। आज उनकी, कांग्रेस की, और सोनिया-परिवार की साख के लिए यह जरूरी है कि इस परिवार के साथ परस्पर सम्मान का एक संबंध रखते हुए वे कांग्रेस पार्टी को मुसीबत से उबारने की एक स्वायत्त कोशिश करें। किसी भी अगले चुनाव में पार्टी को इस परिवार की लोकप्रियता का सहारा तो मिलते ही रहेगा, फिलहाल उसे देश भर में अपने संगठन को जिंदा और मजबूत करना चाहिए, और भारत का चुनावी-लोकतांत्रिक इतिहास खडग़े और सोनिया-परिवार के इस दौर को बारीकी से दर्ज करेगा।