संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पारिवारिक हिंसा घटाने क्या करने की जरूरत?
11-May-2024 5:43 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : पारिवारिक हिंसा घटाने क्या करने की जरूरत?

एक महिला सरपंच का पति से झगड़ा हुआ तो गुस्से में वह बेटे-बेटी के साथ घर छोडक़र मायके जाने निकल गई। रास्ते में अचानकमार टाइगर रिजर्व एरिया पड़ा, और वहां यह महिला बच्ची को पहाड़ी पर छोडक़र आ गई। उससे पड़ोसियों को जानकारी मिली, फिर पति साथियों सहित जंगल में बच्ची को ढूंढने निकला, और तीन दिन बाद यह बच्ची भूख और प्यास से मरी हुई मिली। छत्तीसगढ़ का यह मामला देश भर में शादीशुदा जोड़ों के बीच चल रही तनातनी, और उससे उपजी हिंसा के अनगिनत मामलों में से एक है। हर दिन कई ऐसे मामले हो रहे हैं जिनमें महिला बच्चों सहित खुदकुशी कर रही है। पिता के साथ ऐसे तनाव की नौबत आती है तो वह पूरे परिवार को मारकर मरता है, लेकिन महिला के दिमाग में शायद यह बात रहती है कि उसके छोडक़र जाने के बाद बच्चों का जितना बुरा हाल होगा उससे बेहतर तो बच्चों को मारकर फिर खुद मरना है। लेकिन पारिवारिक हिंसा इतनी अधिक गंभीर होने पर भी परिवार के बाकी लोग, पड़ोसी, और यार-दोस्त बीच-बचाव करके हिंसा की नौबत आने से रोक क्यों नहीं पाते? क्या लोगों की पारिवारिक और सामाजिक जवाबदेही पुराने जमाने के मुकाबले अब कमजोर हो गई है, और अब लोग अधिक आत्मकेन्द्रित हो गए हैं? एक महिला सरपंच तो एक आम महिला के मुकाबले अधिक ताकतवर होनी चाहिए थी, लेकिन उसका निर्वाचित सरपंच होना, राजनीतिक ताकत, इन सबका कोई इस्तेमाल नहीं हो पाया, और तनाव के बीच वह पति को छोडक़र निकल जाने के बजाय बेटी को जंगल में छोडक़र आ गई। होना तो यह चाहिए था कि अगर पति के साथ रहना मुमकिन नहीं था, तो एक महिला सरपंच बच्चों के साथ अलग भी रह सकती थी। 

भारत में तलाक के मामले तो पश्चिमी देशों के मुकाबले कम दिखते हैं, लेकिन पारिवारिक हिंसा वहां के मुकाबले बहुत अधिक है। पहले तो सिर्फ महिलाएं ही परिवार में हिंसा की शिकार होती थीं, लेकिन अब कई मामलों में यह भी सुनाई देता है कि कोई पत्नी भी पति को खत्म कर रही है, खुद अकेले, या किसी प्रेमी के साथ मिलकर। यह पहले के मुकाबले कुछ नई और अनोखी बात है। लेकिन चाहे जिस किस्म की हो, पारिवारिक हिंसा पूरे परिवार को खत्म कर देती है, किसी का कत्ल हो जाता है, और कोई उम्रकैद के लिए जेल चले जाते हैं। ऐसी किसी भी नौबत में बच्चे सबसे अधिक तकलीफ पाते हैं, और बाकी रिश्तेदारों या पड़ोसियों, या सरकारी इंतजाम में उनकी जिंदगी तबाह हो जाना तय सरीखा रहता है। 

ऐसी पारिवारिक हिंसा को रोकने के लिए कोई नाटकीय कार्रवाई नहीं हो सकती, लेकिन जैसे-जैसे भारत में महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता बढ़ेगी, समाज में बिना पति रहने वाली महिला के लिए कामकाजी हॉस्टल सरीखा सुरक्षित इंतजाम रहेगा, वैसे-वैसे हिंसा की नौबत आने के पहले महिला अलग हो सकेगी। आज भी कुछ गिनी-चुनी घटनाओं को अगर छोड़ दें, तो पारिवारिक हिंसा में आमतौर पर महिलाएं ही हिंसा की शिकार होती हैं। इसलिए उनकी आत्मनिर्भरता उन्हें परिवार के भीतर बेहतर सम्मान और जगह दिला सकती है, साथ ही समाज में अपने दम पर कमाने-खाने, और सुरक्षित रहने की संभावना भी दिला सकती है। जहां कहीं परिवारों में औरत और मर्द की ताकत में बहुत बड़ा फर्क होगा, वहां इन दोनों में से कमजोर पर हिंसा का खतरा अधिक रहेगा, जो कि भारत में महिला पर ही रहता है। 

आर्थिक आत्मनिर्भरता का एक दूसरा जरिया भी होता है। शादीशुदा महिला के मायके के लोग अगर किसी मुसीबत की नौबत में उसके साथ खड़े रहते हैं, तब भी वह हिंसा झेलने के बजाय हिंसक पति-परिवार को छोडक़र निकल सकती है। इसके लिए मां-बाप और भाईयों को पिछले कुछ महीनों में दो अलग-अलग खबरों को देखना चाहिए जिनमें ससुराल में प्रताडि़त बेटी को पिता गाजे-बाजे के साथ बारात की शक्ल में अपने घर लेकर आए। अब तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद महिला का मां-बाप की संपत्ति में वैसे भी बेहतर हक स्थापित हो चुका है, इसलिए भाईयों को भी हिंसा से बचकर आई बहन को जगह देने में तंगदिली नहीं दिखानी चाहिए। भारतीय समाज में तलाक को लेकर जितनी बुरी सोच है, उसे भी बदलने की जरूरत है। अगर साथ रहना, साथ रहकर जिंदा रहना मुमकिन नहीं है, तो बच्चों की जिंदगी भी बर्बाद करने, खुद मरने-मारने के बजाय अलग रहना बेहतर है। ऐसे में लडक़ी का परिवार, समाज की सोच, और सरकार का कामकाजी महिलाओं के हॉस्टल सरीखा इंतजाम, ये सब मिलकर हिंसक-रिश्ते में फंस गई महिला को वहां से निकलने में मदद कर सकते हैं। और आर्थिक आत्मनिर्भरता तो इन सबसे ऊपर है ही। 

भारत में तलाक और अलग रहने के बजाय यह परंपरागत सोच अधिक चली आ रही है कि लडक़ी की डोली पिता के घर से उठती है, और उसकी अर्थी पति के घर से उठनी चाहिए। इस पुरानी सोच को समाज के अधिकतर लोग इतनी गंभीरता से ले लेते हैं कि फिर चाहे उसकी अर्थी भरी जवानी में ही छोटे-छोटे बच्चों को छोडक़र या मारकर ही क्यों न निकल जाए। इस सोच को बदलने की जरूरत है। सरकारें महिलाओं के खातों में नगद रकम डालने से लेकर दूसरी कई किस्म की योजनाएं उनके लिए लागू करती रहती हैं। ऐसे में ही शहरों और कस्बों तक कामकाजी महिला हॉस्टल का विस्तार होना चाहिए, ताकि परेशानी में फंसी महिला पूरा मकान किराए पर लेने से बचे, और किसी अकेले मकान में रहने से वह पति की हिंसा के खतरे से भी परे रहे। ऐसा इंतजाम भारत में परिवार व्यवस्था को तोडऩे को नहीं बढ़ाएगा, बल्कि महिला को तोडऩे की भारतीय पुरूषवादी सोच का खतरा घटाएगा, महिलाओं को नागरिक के रूप में बहुत बुनियादी हक देने के लिए ऐसा इंतजाम करना जरूरी है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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