संपादकीय
बहुत से ऐसे हादसे होते हैं जिन्हें लेकर कोई जागरूकता नहीं फैल पाती। जैसे सडक़ों पर आए दिन लोग मारे जाते हैं, लेकिन उनसे कोई सबक नहीं लेते, न ही सरकारें, और न ही सडक़ों को इस्तेमाल करने वाले बाकी लोग। ऐसे में जब कोई चर्चित हादसा होता है, तो कम से कम उसके बहाने एक ऐसी चर्चा छिडऩी चाहिए कि लोगों का ध्यान उस तरफ जाए, सरकारें भी थोड़ा संभलकर बैठें, और सबका कुछ भला हो सके। यह बात आज सुबह-सुबह राजस्थान में हुई एक सडक़ दुर्घटना से सूझ रही है जिसमें प्रधानमंत्री की सभा में सुरक्षा इंतजाम के लिए जा रहे पुलिसवालों की एक कार एक बड़े ट्रक से जा भिड़ी, और छह पुलिसवालों की मौत हो गई, दो बुरी तरह जख्मी हैं, और गंभीर हैं। चूंकि यह मामला प्रधानमंत्री की सभा के इंतजाम से जुड़ा हुआ है, शायद इसलिए इसकी चर्चा पर कुछ लोग ध्यान दें।
हिन्दुस्तान सडक़ हादसों के मामलों में दुनिया का एक सबसे खराब देश माना जाता है जहां पर सडक़ों की हिफाजत को सरकार के ही भ्रष्ट अमले खुलेआम कानून तोडऩे वाले ट्रांसपोर्ट कारोबारियों को बेचते हैं, और जो लोगों की मौत की कीमत पर भी अंधाधुंध गाडिय़ां चलवाते हैं। हम इसी एक घटना में इस तरह की जिम्मेदारी तय नहीं कर रहे हैं, लेकिन हम इतना जरूर कहना चाहते हैं कि सडक़ों के बहुत सारे हादसे आरटीओ और ट्रैफिक पुलिस जैसे भ्रष्ट विभागों की वजह से होते हैं, और देश में हर बरस डेढ़ लाख या अधिक इंसान मारे जाते हैं। भारत सरकार के 2021 के आंकड़ों के मुताबिक देश की सडक़ों पर हर दिन 422 से अधिक मौतें होती हैं, और इन मौतों में 67 फीसदी मौतें 18 से 45 बरस की उत्पादक उम्र के लोगों की रहती है जिससे कि देश में कामकाजी लोगों का एक बड़ा नुकसान भी होता है। बहुत अधिक आंकड़ों का कोई मतलब नहीं है, लेकिन आज की ही इस ताजा दुर्घटना को लेकर सबको यह सोचना चाहिए कि किस तरह सडक़ हादसों को कम किया जाए। हम अपने अखबार और यूट्यूब चैनल पर लगातार जागरूकता के लिए हेलमेट और सीटबेल्ट लगाने के अभियान चलाते रहते हैं। लेकिन जब तक ट्रैफिक और आरटीओ के अमले सरकार के अपने खुद के नियमों को ठीक से लागू नहीं करेंगे, तब तक हिन्दुस्तानियों पर किसी जागरूकता के अभियान का कोई असर नहीं होना है। जागरूकता हिन्दुस्तानियों पर उतना असर नहीं करती है जितना कि सडक़ किनारे कड़ाई बरतते पुलिसवाले कर सकते हैं। जब देश में सडक़ सुरक्षा के कानून बड़े कड़े बने हुए हैं, तो फिर किसी प्रदेश या शहर की पुलिस को उन्हें लागू न करने का हक क्यों रहना चाहिए? इस घटना से ही केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को संभलकर बैठना चाहिए, और हिन्दुस्तानी सडक़ों को अधिक सुरक्षित बनाना चाहिए। यह बात तो तय रहती है कि सडक़ों पर होने वाली मौतों के लिए जरूरी नहीं है कि मरने वाले जिम्मेदार रहते हों, बहुत से बेकसूर लोग भी जिंदगी खो सकते हैं, खोते ही हैं। इसलिए हर नागरिक का यह हक भी है कि वे सुरक्षित सडक़ पाएं, और सरकारें जब रोड टैक्स लेती हैं, तो सडक़ बनाना, मरम्मत करना, और उन पर कानून व्यवस्था बनाए रखना, यह सब जिम्मेदारी सरकार की ही रहती है।
यूपी के जौनपुर से जुर्म की एक खबर सामने आई है जिसमें एक पत्नी किसी और के साथ प्रेमसंबंध में पड़ी, और फिर प्रेमी के साथ मिलकर उसने पति की हत्या करवाई, और उसी प्रेमी ने लाश ले जाकर दूर फेंक दी। पुलिस को कत्ल की साजिश तक पहुंचने में अधिक वक्त नहीं लगा क्योंकि इन दिनों मोबाइल फोन के कॉलडिटेल्स, फोन की लोकेशन जैसी जानकारी पल भर में निकल आती है, और प्रेमसंबंध या दूसरे किस्म के अंतरंग संबंध वाले लोग जाहिर तौर पर एक-दूसरे के अधिक संपर्क में रहते हैं, और ये जानकारियां आनन-फानन साजिश को उजागर कर देती हैं। अब इसमें से यूपी और जौनपुर को हटा दिया जाए तो यह खबर हिन्दुस्तान की किसी भी छोटे-बड़े शहर से आई हुई हो सकती है, क्योंकि हिन्दुस्तान जैसे देश का शायद ही ऐसा कोई प्रदेश हो जहां साल-छह महीने में ऐसे कुछ मामले न होते हों। पति-पत्नी के बीच, प्रेमी-प्रेमिका के बीच, कत्ल में कुछ भी अनहोनी नहीं रह गई है, कुछ अटपटा नहीं रह गया है।
अब सवाल यह उठता है कि जब देश के कानून और समाज के रिवाज के मुताबिक तलाक कोई बहुत अटपटी बात नहीं है, हर दिन कुछ तलाक होते ही हैं, और शायद ही कोई तबका तलाक से अछूता रहता हो। ऐसे में लोग आए दिन कातिलों की गिरफ्तारी की खबर भी पढ़ते हैं, और कत्ल जैसे जुर्म में उलझ भी जाते हैं। लोगों से उम्मीद की जाती है कि उन्हें देश की कानून की कम से कम कुछ समझ तो रहे, और सामान्य समझबूझ से परे, अखबारों में आने वाली खबरों को ही कोई देख लें, तो भी उन्हें यह समझ आ जाएगा कि कातिल अधिक वक्त तक नहीं बच पाते। शायद एक फीसदी मामले ही ऐसे रहते होंगे जिनमें कातिलों की गिरफ्तारी में महीना-पन्द्रह दिन से अधिक का वक्त लगता हो। फिर ऐसे में लोग आसपास के लोगों का कत्ल करते हैं, तो उन्हें यह समझ तो रहनी चाहिए कि पुलिस सबसे पहले करीबी लोगों से जांच शुरू करेगी, और ऐसे में आसपास के किसी के विवाहेत्तर प्रेमसंबंध उजागर होते ही हैं, और उसके बाद अगर जुर्म उससे जुड़े हुए हैं, तो पकड़ाना महज कुछ दिनों की बात रहती है। इसलिए अगर ऐसे कातिल करीबी लोगों का कत्ल करके भी अपने आपको महफूज महसूस करते हैं, तो यह उनमें अक्ल की कमी का एक पुख्ता सुबूत रहता है।
कुछ लोग बहुत पहले से यह बात कहते आए हैं कि प्यार अंधा होता है। ऐसी घटनाओं से यह भी लगता है कि या तो प्यार लोगों की सोचने-समझने की ताकत छीन लेता है, या फिर वे सामान्य समझ भी नहीं रखते, और खतरों का अहसास नहीं होता है। लेकिन यहां पर अपराधी को बचाने की नीयत नहीं है, और इसीलिए हम मुजरिम के पकड़े जाने के खतरे, और सजा पाने की गारंटी पर अधिक बात नहीं करना चाहते। हमारी फिक्र यह है कि अगर लोगों का एक-दूसरे के साथ रहना मुमकिन नहीं रह गया है, तो फिर लोग एक-दूसरे से अलग होकर सिरे से नई जिंदगी क्यों बसाना नहीं चाहते? एक तलाक और दूसरी शादी, इसमें क्या दिक्कत रहती है? हो सकता है कि ऐसे तलाक में कुछ बरस लग जाएं, लेकिन यह तो तय है कि ये बरस उम्रकैद से कम ही होंगे। इसके साथ-साथ ऐसे किसी जुर्म के बाद कम से कम दो-तीन परिवार पूरी तरह से तबाह होते हैं, पत्नी, पति, और प्रेमी, इनमें से जो मारे जाएं, और जो जेल जाएं, सबके परिवार, बच्चे, सबके लिए तबाही का दौर आता है।
यह सिलसिला इस सामाजिक सोच की वजह से अधिक होता दिखता है कि तलाक अच्छी बात नहीं है। समाज और परिवार दोनों ही तलाक टालते रहने के हिमायती रहते हैं, जो कि एक हिसाब से ठीक भी है कि पति-पत्नी की तनातनी बहुत से मामलों में वक्त के साथ खत्म हो जाती है। लेकिन जब मामला खून-खराबे तक पहुंचने लगे, तो कातिल बनने के बजाय तलाकशुदा बनना बेहतर माना जाना चाहिए।
छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव का मतदान पूरा हो जाने पर जो आंकड़े सामने आ रहे हैं उनमें सबसे ही हैरान करने वाले आंकड़े राजधानी रायपुर के हैं। यहां की चार सीटों पर 55 से 60 फीसदी के बीच वोट डले हैं। इनमें से कुल एक विधानसभा सीट ने 60 फीसदी वोट देखे हैं। इन चारों सीटों को पिछले कुछ चुनावों से देखें, तो 2008, 2013, 2018 से भी खासे कम वोट इन सीटों पर पड़े हैं। अब सवाल यह उठता है कि जो सबसे सुविधा-संपन्न शहर है, वहां पर ऐसी दुर्गति क्यों हो रही है कि आधा किलोमीटर के भीतर मतदान केन्द्र होने पर भी वोटर घर बैठे हुए हैं। हर किसी के पास गाडिय़ां हैं, लेकिन वोट डालने नहीं जा रहे हैं। कहने के लिए इन चारों सीटों पर कहीं हिन्दू-मुस्लिम के मुद्दे थे, तो कहीं ब्राम्हण और गैरब्राम्हण के। कहीं म्युनिसिपल के मुद्दों को लेकर नाराजगी थी, तो अखबारों के दो-चार पेज हर दिन इस शहर की बदहाली से भरे रहते थे। ऐसे में लोगों को या तो सत्ता पलट के लिए, या किसी नए उम्मीदवार को जिताने के लिए अधिक संख्या में बाहर आकर वोट डालने थे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अब नक्सली हिंसा और सुरक्षाबलों की भारी मौजूदगी वाले, जंगलों में बसे बस्तर के गांवों के लोगों ने बड़ी संख्या में वोट डाले हैं। कई जगहों पर तो राजधानी रायपुर से डेढ़ गुना तक वोट डले हैं। और वोटरों की जागरूकता के लिए होने वाले तमाम कार्यक्रम इसी राजधानी रायपुर से शुरू होते हैं, लेकिन वोटर इस बार जिस हद तक उदासीन थे, उससे इस शहर के उम्मीदवारों और पार्टियों को लेकर कई तरह के सवाल खड़े होते हैं। चुनाव तो हर पांच बरस में होते ही रहते हैं, इसलिए जिन जगहों पर वोट इतने कम पड़े हैं, उनके बारे में चुनाव आयोग, सरकार, पार्टियों, और प्रेस को भी सोचना चाहिए कि आगे क्या किया जा सकता है? ऐसे सीमित वोटों का मतलब तो यह भी निकलेगा कि बहुत मामूली वोटों से लोग जीत जाएंगे। ऐसी भला क्या वजह हो सकती है कि इसी राजधानी रायपुर से लगे हुए धरसीवां में यहां से करीब डेढ़ गुना वोट डले, लगे हुए आरंग में डेढ़ गुना वोट डले, और लगे हुए अभनपुर में डेढ़ गुना से ज्यादा वोट डले, ऐसा कैसे हो सकता है? कैसे राजधानी की इन चार सीटों के मतदाता पिछले किसी भी चुनाव के मुकाबले कम दिलचस्पी रखें, और आसपास की लगी हुई और तमाम सीटों से भी कम दिलचस्पी रखें! इसकी वजहें पता लगानी चाहिए, क्योंकि इन्हीं के बारे में पैसा, मुर्गा, दारू, सब कुछ बांटने की ढेर-ढेर खबरें भी थीं। यह एक रहस्य है, और वार्ड स्तर पर किसी को इसका अध्ययन करना चाहिए कि पिछले चुनाव से इस चुनाव तक मतदान केन्द्रों पर क्या फर्क पड़ा है, और क्यों फर्क पड़ा है।
उत्तराखंड के उत्तर काशी में एक सुरंग ढह जाने से 6 दिनों से 40 मजदूर फंसे हुए हैं। उनको बचाने की कई तरह की कोशिश चल रही है जिनमें थाईलैंड और नार्वे की तजुर्बेकार टीमें भी शामिल हो गई हैं। सुरंग के मलबे में खुदाई करके बचाने की कोशिश जारी है, और तब तक के लिए खाना और ऑक्सीजन भेजने को कुछ पाईप लगाए गए हैं। उत्तराखंड में चारधाम परियोजना के नाम से बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, और यमुनोत्री के तीर्थों को जोडऩे के लिए बड़े पैमाने पर कंस्ट्रक्शन चल रहे हैं जिनमें सुरंगें भी शामिल हैं। दूसरी तरफ उत्तराखंड में ही दस बरस पहले केदारनाथ में ऐसी भयानक बाढ़ देखी थी कि जिसमें हजारों लोग मारे गए थे, और बड़े पैमाने पर तबाही हुई थी। इसके साथ-साथ आगे-पीछे इन इलाकों में कभी भूकम्प आता है, कभी बादल फटते हैं, भूस्खलन तो चलते ही रहते हैं, और तमाम सरकारें इस पूरे इलाके में अधिक से अधिक निर्माण कर लेना चाहती हैं। नेता, अफसर, ठेकेदार, इन सबके लिए बड़े-बड़े निर्माण जिंदगी का मकसद होते हैं, और कमाई का मोटा जरिया भी।
हिमालय पर्वतमाला और उसके आसपास के इलाकों को लेकर दुनिया भर के जानकार हमेशा से यह बतलाते आए हैं कि वहां की धरती बड़ी नाजुक (फ्रेजाइल) है, और वह बहुत बड़े पैमाने पर फेरबदल, प्रयोग, निर्माण, और आवाजाही के लायक नहीं हैं, लेकिन सैलानियों और तीर्थयात्रियों की भीड़ के मुताबिक शहरों मेें अधिक बसाहट बनाने के लिए अंधाधुंध निर्माण चलते रहते हैं, अधिक मुसाफिरों की तेज रफ्तार आवाजाही के लिए हर पर्यटन केन्द्र और तीर्थस्थल तक चौड़े रास्तों को बनाना जारी है, इसके लिए कहीं पुल बन रहे हैं, तो कहीं सुरंगें। और फिर सस्ती बिजली के नाम पर जो पनबिजली योजनाएं बनाई जा रही हैं, उनसे भी हिमाचल या उत्तराखंड जैसे प्रदेशों में धरती पर खतरनाक बोझ बढ़ रहा है। इन प्रदेशों की अर्थव्यवस्था के लिए पर्यटन और तीर्थयात्रा को एक बड़ा जरिया माना गया है, और सरकार और कारोबार दोनों मिलकर ऐसी हर संभावना को दुह लेना चाहते हैं, तब तक जब तक कि धरती के थन से खून न निकल जाए।
अब सवाल यह उठता है कि इतनी नई सडक़ों, इतनी सुरंगों के साथ अगर इस इलाके को और अधिक खतरनाक बनाया जा रहा है तो अगली किसी बड़ी प्राकृतिक आपदा होने पर उससे कैसे जूझा जा सकेगा? यह पूरी नौबत प्रकृति, पर्यावरण, और धरती को समझे बिना उससे एक खतरनाक छेड़छाड़ करने के अलावा कुछ नहीं है। अभी कुछ अरसा पहले ही ऐसे ही किसी भारतीय प्रदेश से एक वीडियो आया था कि किस तरह एक सुरंग के ठीक पहले की पूरी की पूरी सडक़ पानी में बह गई थी, और सुरंग तक पहुंचना मुमकिन ही नहीं रह गया था। जहां पर स्थानीय बसाहट की रोजाना की जरूरतों के लिए सुरंग और पुल जरूरी है, वहां तो ठीक हैं, लेकिन तीर्थ और पर्यटन को अंधाधुंध और अंतहीन बढ़ाते चलने के लिए जब ये प्रोजेक्ट बनाए और धरती पर उतारे जा रहे हैं, तो फिर वे आने वाले वक्त के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है। लोगों को याद रहना चाहिए कि भोपाल के एक पत्रकार राजकुमार केसवानी ने यूनियन कार्बाइड कारखाने की जहरीली गैस को लेकर अपनी रिपोर्ट में बहुत पहले से यह आशंका जताई थी कि किसी औद्योगिक हादसे की नौबत में बड़ा नुकसान हो सकता है, और बड़ी संख्या में जिंदगियां जा सकती हैं। आखिर हुआ वही था, कारखाने तक आबादी बस गई थी, और उस कारखाने में तो मिक नाम की ऐसी जहरीली गैस थी जिसने कि कई किलोमीटर दूर तक लोगों को मार डाला था, और लाखों लोगों की सेहत को बकाया जिंदगी के लिए खत्म कर दिया था। हिमालय पर्वतमाला के इलाकों के लिए ऐसी चेतावनियां बहुत से देसी-विदेशी प्रकृति वैज्ञानिक देते ही आए हैं, और सरकारों का हाल यह है कि इन सबको अनसुना और खारिज करने की उसने आदत सी डाल रखी है।
ऐसे में सरकारों को अपना दुस्साहस घटाना चाहिए। आज जंगल का मामला हो, नदी का, पहाड़ या समंदर का, केन्द्र और राज्य सरकारों की अधिक से अधिक दिलचस्पी इसमें रहती है कि किस तरह इन तमाम जगहों से खिलवाड़ की कीमत पर भी कमाऊ प्रोजेक्ट बनाए जाएं। कमाऊ का मतलब महज सरकार के लिए कमाऊ नहीं, सत्ता हांकने वाले लोगों के लिए निजी कमाई के भी। अभी सुरंग में फंसे 40 मजदूरों की जिंदगी बचाने की प्राथमिकता है, और जब यह काम हो जाए, उसके बाद भारत सरकार को देश-विदेश के जानकार लोगों से अपनी योजनाओं की एक समीक्षा करवानी चाहिए। जब सरकारें हर किस्म के विशेषज्ञ लोगों को अपने भीतर समाने लगती हैं, या अपने घरेलू विशेषज्ञों की राय को ही सब कुछ मानने लगती हैं, तब बाहरी और तटस्थ, ईमानदार राय मिलना मुमकिन नहीं रह जाता। अंग्रेज जिन्हें रायबहादुर बनाते थे, वे भला अंग्रेजों को कितनी अच्छी राय देते रहे होंगे? इसलिए बाहरी सलाहकारों का बड़ा महत्व रहता है, मामले चाहे पारिवारिक हों, या सरकारी। कुल मिलाकर हम अपनी बात इसी मुद्दे पर खत्म कर रहे हैं कि केन्द्र और राज्य सरकारों को कुदरत से छेडख़ानी और खिलवाड़ की अपनी हरकतों पर काबू पाना चाहिए क्योंकि सरकारों की जिंदगी पांच बरस की होती है, और धरती की जिंदगी अगले लाखों बरस तक ऐसी हरकतों से बिगड़ सकती है।
कल का दिन हिन्दुस्तान में चुनाव से अधिक क्रिकेट का था। विराट कोहली ने सचिन तेंदुलकर का रिकॉर्ड तोड़ दिया, और 50वीं सेंचुरी बना ली। लेकिन जिस एक व्यक्ति की वजह से इस पूरे मैच की चर्चा हो रही है वह मोहम्मद शमी है। उसने 9.5 ओवर में 57 रन देकर 7 विकेट लिए। इसके पहले के मैचों में भी शमी का इसी तरह का शानदार प्रदर्शन था, और हम क्रिकेट की बारीकियों में गए बिना सोशल मीडिया पर फैलती हुई इन भावनाओं को लिखना चाहते हैं कि उसके पहले के कई मैचों में शमी को टीम में न रखकर उसके साथ बेइंसाफी की गई थी, जिसका नुकसान भारतीय क्रिकेट टीम को हुआ। अब क्रिकेट की इतनी बारीकियां हम नहीं जानते कि टीम के सेलेक्शन या किसी एक खिलाड़ी के प्रदर्शन को लेकर अधिक कुछ लिखें, लेकिन सोशल मीडिया पर लोगों की लिखी जा रही इस बात को भी देखना चाहिए कि किस तरह मोहम्मद शमी नाम का एक खिलाड़ी देश को जीतने में इतना काम आता है कि लोग इस मैच को सेमीफाइनल की जगह शमीफाइनल कहने लगे हैं। इसके साथ-साथ लोग यह भी याद करने लगे हैं कि किस तरह मोहम्मद शमी पत्नी से तलाक का मुकदमा जूझ रहे थे, व्यक्तिगत परेशानियों को झेल रहे थे, और टीम में सेलेक्शन में भी उपेक्षा झेल रहे थे। इन तमाम बातों को एक साथ देखें, तो लगता है कि किस तरह एक विपरीत, निराशा का, और खराब दौर झेलते हुए भी कोई देश और दुनिया के सबसे अच्छे खिलाडिय़ों में अपना नाम जोड़ सकता है।
हिन्दुस्तान की हवा किसी भी मुस्लिम का कलेजा तोडक़र रख देती है। जहां देश और कई प्रदेशों की सरकारें मुस्लिमविरोधी रवैया अपनाए हुए हैं, वहां पर जाहिर तौर पर किसी भी मुस्लिम का हौसला पस्त रहता होगा। उन्हें लगातार शक की नजरों से देखा जाता है, लगातार सोशल मीडिया पर उन्हें गद्दारी की तोहमतें झेलनी पड़ती हैं, और उन्हें पाकिस्तान भेजने के फतवे तो आते ही रहते हैं। ऐसे में एक मुस्लिम खिलाड़ी टूटे हुए मनोबल के साथ भी देश के लिए कैसा शानदार खेल सकता है, मोहम्मद शमी उसकी एक मिसाल है। यह बात याद रखनी चाहिए कि शमी के दिमाग में भी यह बात तैर रही होगी कि उसकी पोशाक से उसके जात-धरम की शिनाख्त की जा रही है। और उसके दिमाग पर यह भी तनाव रहा होगा कि अगर कोई विकेट लिए बिना उससे सिर्फ कैच छूट जाएगा, तो उसे गद्दार करार देने में अधिक वक्त नहीं लगेगा। ऐसे तनाव के बीच खेलना, और दुनिया का सबसे शानदार प्रदर्शन करना, यह याद रखते हुए कि कई मैचों में उसे नहीं लिया गया, और लिया गया होता तो वह दुनिया का रिकॉर्ड कब का तोड़ चुका होता, ऐसे तनाव में खेलना मामूली बात नहीं रहती। देश के लोगों को भी टीवी दिन भर इस मैच को देखते हुए यह सोचना चाहिए था कि क्या शमी की पोशाक से उसके जात-धरम की शिनाख्त होती है? या हिन्दुस्तानी वर्दी पहनकर हर खिलाड़ी महज हिन्दुस्तानी रहते हैं, और उन्हें महज हिन्दुस्तानी ही देखा जाना चाहिए, फिर चाहे वे मैदान में हों, चाहे सडक़ों पर, और चाहे स्कूल-कॉलेज में।
हिन्दुस्तान के लोगों को, खासकर उन लोगों को जो अपनी जात, और अपने धरम की वजह से आज दूसरों पर हमलावर हो सकते हैं, होते हैं, उन लोगों को यह सोचना चाहिए कि अल्पसंख्यक, आदिवासी, और दूसरी नीची समझी जाने वाली जातियों के लोगों के साथ हिकारत अगर उन्हें टीम से बाहर ही कर दे, तो फिर देश में जो धरम और जाति हमलावर हैं, वे अपने बूते पर कितने मैडल ले आएंगे, और कितने मैच जीत लेंगे? वे कितने अंतरिक्षयान जात-धरम के आधार पर चांद पर पहुंचा देंगे, और फौज की कितनी वर्दियां भर पाएंगे? इस देश में जो लोग जात और धरम के नाम पर नफरत फैला रहे हैं, उन्हें इन चीजों को याद रखना चाहिए कि जिस हिन्दुस्तानी टीम पर वे फख्र करते हैं, उसमें कई जातियों और धर्मों के लोग शामिल हैं। देश को गौरव दिलाने में कोई किसी दूसरे से कम नहीं हैं, और जब किसी जात और धरम के लोगों को प्रताडि़त किया जाता है, तो यह मानकर चलना चाहिए कि उन तबकों के होनहार और हुनरमंद लोग अपनी पूरी संभावनाओं को नहीं छू पाते हैं, क्योंकि पल-पल उनके दिमाग में समाज के एक सत्तारूढ़, ताकतवर, और हमलावर तबके की नफरती जुबान गूंजती रहती है।
मोहम्मद शमी की बचपन से लेकर अब तक की कहानी को देखें, तो गरीब बाप को अपने पांच बेटों को क्रिकेटर बनाने का शौक था, और जमीन बेचकर उनमें से सबसे होनहार शमी को एक क्रिकेट एकेडमी में दाखिल करने की कोशिश की। शमी का हाल यह था कि ईद के दिन भी नमाज के तुरंत बाद वे गेंदबाजी के लिए पहुंच जाते थे। लेकिन होनहार ऐसे निकले कि सिखाने वाले हक्का-बक्का रह गए। आगे की शादीशुदा जिंदगी में कई किस्म की तोहमत, मुकदमे झेलते हुए टीम से निकाले गए, बीसीसीआई ने बाहर कर दिया, और वैसे विपरीत माहौल से गुजरते हुए भी उनके बीच वह हुनर कायम रहा जिसने उन्हें आज ऐसी शोहरत तक पहुंचाया है कि जिस पर मुल्क फख्र कर रहा है।
हम महज क्रिकेट को लेकर आज की इस बात को नहीं लिख रहे हैं। हमारा मानना है कि इससे देश के नफरती लोगों को भी सबक लेने की जरूरत है। जिस अमरीकी कामयाबी से हिन्दुस्तानी बावले हो जाते हैं, उसे भी समझने की जरूरत है कि वह वहां के गोरे लोगों की कामयाबी नहीं है, बल्कि अलग-अलग धर्म और रंग के, राष्ट्रीयता और संस्कृति के लोगों की मिलीजुली कामयाबी है। अमरीका को तमाम धातुओं को पिघलाकर एक कर देने वाला मेल्टिंग पॉट कहा जाता है। हिन्दुस्तानियों को अमरीकी कामयाबी बहुत सुहाती है, लेकिन वे अपने हिन्दुस्तानी पॉट (बर्तन) को धर्म और जाति के मामले में एकदम खालिस और शुद्ध रखना चाहते हैं, शुद्धता की अपनी परिभाषा के मुताबिक। यह सिलसिला इस देश को आगे बढऩे से रोकने वाला है। इस देश को बचाने में जो शहीद सबसे बड़ा था, उसका नाम कैप्टन अब्दुल हमीद था। जो इस देश में साम्प्रदायिकता का सबसे बड़ा विरोधी नौजवान था, वह शहीद-ए-आजम भगत सिंह था। इस तरह हिन्दुस्तान की जमीन यहां के तमाम धर्मों और जातियों के लोगों के खून-पसीने से भीगी हुई है। मोहम्मद शमी की वजह से हिन्दुस्तान को आज जो गर्व हासिल है, उसे लेकर यह भी सोचने की जरूरत है कि क्या उसकी पोशाक से भी उसके धर्म का अंदाज लगाना है, क्या उसके मकान को भी बुलडोजर से गिराना है, क्या उसके कुनबे की भी भीड़त्या करनी है? देश के लोगों के बीच नफरत की ऐसी ऊंची दीवारों को खड़ा करने से न तो यह सरहद पर महफूज रहेगा, न किसी स्टेडियम के भीतर। इसलिए नफरती लोग अपनी सोच पर एक बार गौर करें।
सार्वजनिक जीवन में गलत काम करना ही नुकसानदेह नहीं होता, गलत काम का मजा लेना, या कि उस वक्त चुप बैठे रहना भी नुकसानदेह होता है। अभी कुछ अरसा पहले नीतीश कुमार ने बिहार विधानसभा में महिलाओं के बारे में एक बड़ी अश्लील और फूहड़ बात कही थी, और इसे लेकर उनकी जो फजीहत हुई है, वह तो उनकी हुई है, लेकिन इस बकवास के वीडियो में उनके ठीक पीछे बैठे हुए जो दूसरे विधायक हॅंस रहे थे, वे भी बराबरी के न सही कुछ कम जिम्मेदार तो हैं ही। लोगों को याद होगा कि कुछ अरसा पहले लोकसभा में भाजपा के एक सदस्य ने बसपा के एक सदस्य को गंदी-गंदी नफरती गालियां दी थीं, और उनके पीछे बैठे भाजपा के दो सबसे वरिष्ठ सांसद, हर्षवर्धन और रविशंकर प्रसाद हॅंसते चले जा रहे थे, और उनकी वह हॅंसी संसद के कुकर्मों के इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है। जिस तरह कातिल के साथ के लोग, या कि बलात्कारी के साथ के लोग कम या अधिक हद तक जिम्मेदार माने जाते हैं, उसी तरह किसी तरह के गलत काम के ऐसे गवाह हमेशा के लिए बदनाम हो जाते हैं, और भले लोगों की नजरों में नफरत के लायक रहते हैं।
आज इस मुद्दे पर लिखने की एक जरूरत इसलिए पड़ी कि पाकिस्तान के एक भूतपूर्व क्रिकेट खिलाड़ी अब्दुल रज्जाक ने हाल ही में पाकिस्तानी टीम के खराब खेल की आलोचना करते हुए उन्हें बेहतर बनाने की वकालत की। और एक मिसाल देते हुए उन्होंने कहा- अगर आपकी ये सोच है कि मैं ऐश्वर्या राय से शादी करूं, और वहां से सदाचारी बच्चा पैदा हो जाए, तो ये कभी नहीं हो सकता। जब अब्दुल रज्जाक यह कह रहे थे, तो उनके साथ दो और पाकिस्तानी क्रिकेटर उमर-उल और शाहिद आफरीदी भी मौजूद थे, और दोनों तालियां बजाकर हॅंस रहे थे। जब इस बयान और ऐसी हॅंसी पर चारों तरफ से हमले हुए, तो अब्दुल रज्जाक ने देर शाम एक वीडियो जारी कर माफी मांगी। उन्होंने कहा कि मुझे मिसाल कुछ और देनी थी, लेकिन जुबान फिसल गई, मैं उनसे इसके लिए माफी मांगता हूं।
अब सवाल यह उठता है कि इस माफी से परे एक बात तो बाकी रह गई है कि अब्दुल रज्जाक किसी और की मिसाल देना चाहते थे, मतलब यह कि ऐश्वर्या न सही कोई और महिला उनके गंदे मजाक का शिकार होने वाली थी। एक मर्द की सोच यह साबित कर रही थी कि औलाद के सदाचारी होने या न होने से औरत का ही लेना-देना होता है, और अगर औलाद सदाचारी नहीं है, तो उसके लिए उसकी मां ही जिम्मेदार होगी। यह सिलसिला हिंसक पुरूषप्रधान सोच का है, जो कि हिन्दुस्तान में भी भरी हुई है, लेकिन पाकिस्तान में शायद उससे कुछ अधिक ही है। यह सोच लोगों में उनके धर्म, जाति, सामाजिक संस्कार, और पारिवारिक माहौल से उपजती है, और हिंसक या गंदी सोच एक किस्म से ऐसे लोगों के मां-बाप पर भी तोहमत लाती है कि उन्होंने अपनी औलाद को महिलाओं का सम्मान करना नहीं सिखाया। दरअसल महिलाओं का सम्मान सिखाया नहीं जाता है, बल्कि परिवारों में उसकी मिसाल सामने आती रहती हैं, और वही सबक भी बनती है। इज्जत हो या हिंसा, बच्चे अपने परिवार में ही सबसे पहले सीखते हैं।
जिन दो खिलाडिय़ों ने एक गंदी बात पर तालियां बजाकर हॅंसना ठीक समझा था, उनमें से एक शाहिद आफरीदी ने बाद में सफाई दी, और कहा कि उस वक्त उन्होंने उस बात को ठीक से सुना नहीं था। यह एक बहुत ही खोखली सफाई इसलिए है कि लोग जब स्टेज पर कैमरों के सामने किसी महिला के बारे में गंदी बात सुनते हुए हॅंसते हैं और तालियां बजाते हैं, तो ऐसा तो है नहीं कि उन्हें वह बात समझ न आई हो। अब लोगों की धिक्कार के बाद सबको अपनी इज्जत दुरूस्त करने की जरूरत पड़ रही है, तो तरह-तरह की सफाई दी जा रही है। यह सफाई देते हुए भी, और माफी मांगते हुए भी यह बकवास करने वाले पाकिस्तानी क्रिकेटर का यही कहना है कि वह कोई और मिसाल देने वाले थे। मतलब यही है कि वे किसी न किसी और की मिसाल देने वाले थे, मानो ऐश्वर्या की जगह किसी और को बेइज्जत करना चल जाता।
हम पहले भी इस बात को उठाते आए हैं कि सार्वजनिक जीवन हो, या सोशल मीडिया, लोगों को अपने आसपास के दायरे को लेकर जिम्मेदार रहना ही होगा। चाहे वे संसद या विधानसभा में बैठे हों, किसी स्टेज पर या टीवी चैनल के कैमरों के सामने हों, या फिर सोशल मीडिया पर किसी पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए हों, उन्हें वहां की बातों पर अपना नजरिया साफ रखना ही होगा। चुप्पी कोई विकल्प नहीं हो सकता। जब आपके सामने नाजायज बातें हो रही हैं, तो आपकी चुप्पी आपकी भागीदारी रहती है। लोगों में इतना हौसला रहना चाहिए कि वे नाजायज बात का विरोध करें, आप वहां पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हुए गलत बात को अनदेखा नहीं कर सकते, उससे अनछुए नहीं रह सकते। एक वक्त गांव के पेड़ के नीचे चबूतरे पर कही और सुनी गई बात कहीं दर्ज नहीं होती थी, और अच्छा-बुरा सब कुछ खप जाता था। अब तो की-बोर्ड पर टाईप किया एक-एक शब्द, या किसी नाजायज और हिंसक पोस्ट को लाईक कर देना भी दर्ज होते रहता है। इसलिए आज कैमरों के सामने, माईक के सामने डिजिटल मौजूदगी अधिक दर्ज होती है। अब कुछ भी अनदेखा नहीं रहता, और आपका भला या बुरा होना इससे भी साबित हो जाता है कि आपके सामने कैसी बातें हो रही थीं, और उस वक्त आपकी क्या प्रतिक्रिया थी। इसलिए लोगों को फूहड़ लतीफों पर हॅंसने, छेडख़ानी देखकर चुप रहने, किसी ज्यादती को अनदेखा करने के पहले याद रखना चाहिए कि उनकी अपनी साख इन्हीं बातों से बनती और बिगड़ती जा रही है।
तीन दिन बाद छत्तीसगढ़ में विधानसभा की बकाया 70 सीटों पर मतदान होने जा रहा है। देश के पांच राज्यों में अलग-अलग तारीखों पर मतदान हो रहा है, और हर राज्य के अपने अलग-अलग मुद्दे हैं। कहीं पर स्थानीय मुद्दों के साथ-साथ कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के राष्ट्रीय एजेंडा, और उनके राष्ट्रीय नेताओं के चेहरे भी वोटरों के सामने रखे गए हैं। कहीं किसी पार्टी के प्रादेशिक नेता का चेहरा भी सामने है, तो कहीं कोई पार्टी बेचेहरा या अपने राष्ट्रीय नेता के नाम पर लड़ रही है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पांच बरस से कांग्रेस की सरकार चल रही है, और मध्यप्रदेश में पिछले बीस बरस में तकरीबन तमाम वक्त भाजपा की खुद की सरकार रही, और थोड़े से वक्त कांग्रेस की सरकार थी जिसमें खरीद-फरोख्त करके भाजपा फिर वहां काबिज हो गई। इस तरह कहीं पांच बरस तो कहीं पन्द्रह-बीस बरस की सत्ता से नाराजगी या संतुष्टि, जो भी हो, वह भी हवा में है।
अगर हम इन तीन हिन्दी राज्यों की बात करें, तो छत्तीसगढ़, एमपी, और राजस्थान में पिछले चुनाव में कांग्रेस सत्ता पर आई थी, और एमपी में कुछ वक्त बाद ही जिस तरह कांग्रेस में दल-बदल करवाकर भाजपा फिर वहां काबिज हो गई, उससे यह बात साफ है कि मोदी और शाह के राज में मामूली बहुमत हिफाजत की गारंटी नहीं हो सकता। इन तीनों ही राज्यों में बाद में कांग्रेस पार्टी की घरेलू हालत एकदम अलग-अलग रही, और पिछले दो-चार महीनों से इन तीनों प्रदेशों में कांग्रेस की गुटबाजी किनारे धर दी गई दिखती है, और नेता मोटेतौर पर एकजुट दिख रहे हैं। लेकिन चुनाव में मुकाबला अपनी पार्टी से परे दूसरी पार्टियों से होता है, और इस मामले में कांग्रेस, और भाजपा दोनों ही घरेलू आग से नहीं झुलस रही हैं।
अब इन राज्यों की दो बड़ी पार्टियों का यह हाल देख लेने के बाद आगे सवाल यह उठता है कि वोटर चुनाव में किन मुद्दों पर विधायक चुनेंगे? क्योंकि भारत में मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री को सीधे नहीं चुना जाता है, जनता सिर्फ विधायक या सांसद चुनती है, और उसके बाद वे बिना बिके या बिक कर किसी पीएम-सीएम को चुनते हैं। इसलिए वोटरों के सामने पहला चेहरा तो विधायक-उम्मीदवार का है, और उसके नाम के साथ-साथ किसी पार्टी का, या कोई निर्दलीय निशान भी ईवीएम मशीन पर दिखते रहेगा। इसलिए उम्मीदवार को किसी पार्टी या किसी उम्मीदवार के पक्ष में वोट डालने का मौका नहीं रहेगा, उसे किसी पार्टी और उसके उम्मीदवार, इस जोड़ी के पक्ष में ही वोट डालने का मौका रहेगा। ऐसे में उसका फैसला हो सकता है कि कुछ मुश्किल हो। हो सकता है कि उसे उम्मीदवार नापसंद हो, पर पार्टी पसंद हो, और हो सकता है कि इसका उल्टा भी हो।
दूसरा सवाल यह उठता है कि जब पांच बरस की सत्ता, चाहे वह राज्य में हो, या केन्द्र में, जब उसके काम के आधार पर वोट मांगे जा रहे हैं, तो फिर वे काम काफी क्यों नहीं होते? क्यों मोदी और उनकी पार्टी को केन्द्र के कामों, या मध्यप्रदेश के कामों से परे जाकर भावनात्मक, धार्मिक, और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करना पड़ रहा है? और क्यों प्रधानमंत्री को चुनावी सभा में पांच बरस बिना भुगतान राशन की घोषणा करनी पड़ रही है? फिर यह भी है कि इन तीनों ही प्रदेशों में सत्तारूढ़ पार्टी को क्यों अंधाधुंध नए तोहफों, नए जनकल्याणकारी कार्यक्रमों, या नई योजनाओं की घोषणा करनी पड़ रही है? सत्ता के लिए तो उसके पांच बरस के काम ही काफी होने चाहिए थे, लेकिन ऐसा लगता है कि यह चुनाव पांच बरस के कामकाज से एकदम परे जाकर बिल्कुल ही नए मुद्दों पर लड़ा जा रहा है। पांच बरस पहले जो दिया वह मानो बेअसर पेनिसिलीन हो गया, और अब उसकी जगह एक नए जनरेशन के एंटीबॉयोटिक की जरूरत है जो कि गारंटी कार्ड, संकल्प पत्र, चुनावी घोषणापत्र जैसे किसी भी नाम से सामने रखा जा रहा है। तो क्या पांच बरस का सत्ता का काम चुनाव के लिए काफी नहीं होता, और नई मुनादियां करनी पड़ती हैं? और पिछले विधानसभा चुनावों के बाद इन तीन राज्यों ने दिखा दिया था कि तीनों जगह कांग्रेस की सरकार बनाने वाले वोटरों ने छह महीने बाद के लोकसभा चुनाव में 65 में से कुल 3 सीटें कांग्रेस को दी थीं, बाकी सारी सीटें मोदी को चली गई थीं। इसलिए कांग्रेस की सारी घोषणाएं विधानसभा चुनाव में ही उसके काम की रहीं, और लोकसभा में उनका असर खत्म हो गया था। अब सवाल यह उठता है कि लोकसभा के और छह महीने बाद जो पंचायत-म्युनिसिपिल चुनाव होने हैं, उसके लिए क्या फिर से कुछ घोषणाएं होंगी?
बहुत से लोगों को देश में एकमुश्त चुनाव नहीं जम रहे हैं, क्योंकि आज ऐसा होने पर उन्हें सब कुछ मोदी के चेहरे पर चले जाने का खतरा दिखता है। लेकिन उससे परे देखें तो क्या इन राज्यों में हर छह महीने में, कई दूसरे राज्यों में साल-साल भर में चुनावी घोषणापत्र का सिलसिला किसका भला करता है? जनता के पैसों का बेरहमी से अनुपातहीन और बेदिमाग खर्च करके वोट पाने का सिलसिला आखिर कहां तक ले जाएगा? और देश-प्रदेश के ढांचे को मजबूत किए बिना, मौजूदा ढांचे पर थमकर वोटरों को सीधे एक-एक करके प्रभावित करने का यह गलाकाट मुकाबला लोकतंत्र के शासन को सिर्फ एक चुनावी मशीन बनाकर छोड़ दे रहा है। ये चुनाव लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति हैं, या कि ये हितग्राहियों की जनगणना है, यह भी समझने की जरूरत है। फायदा पाने वाले लोग अगर केलकुलेटर पर हिसाब लगाते हैं कि किसी पार्टी की सरकार आने पर रूपए-पैसे का उनका भला कितना अधिक होगा, तो फिर किसी विचार, सिद्धांत, और नीतियों की जगह कहां रह जाती है, जरूरत कहां रह जाती है?
हमारी आज की यह बात किसी एक प्रदेश या किसी एक पार्टी के पक्ष या विपक्ष में नहीं है, यह भारत की लोकतांत्रिक चुनाव व्यवस्था पर फिक्र करने की एक वकालत है कि क्या वोटरों को सीधे-सीधे फायदे देकर उनके वोट खरीदने का यह तरीका लोकतंत्र की सबसे अच्छी व्यवस्था है? इसमें चुनाव आयोग कोई रोक नहीं लगा सकता, और सुप्रीम कोर्ट इस पर सुनवाई ही किए चले जा रहा है, लेकिन देश के लंबे भविष्य की फिक्र अगर किसी को है, तो उन्हें तो यह सोचना चाहिए कि जनकल्याण के अलग-अलग तरीकों से वोट खरीदने के कार्यक्रमों का क्या इलाज निकाला जा सकता है? क्या चुनाव जीतने के हथियारों से देश के लोगों के मेहनत करने की संस्कृति खत्म होती चली जाएगी? क्या सबसे गरीब की भलाई के नाम पर गैरगरीबों तक भी मदद का एक बड़ा हिस्सा पहुंचना जायज है? इस बार के चुनाव का एजेंडा तो सेट हो चुका है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई अभी बाकी है, और जनता को स्टेडियम के दर्शक की तरह बैठे रहने के बजाय अपनी सोच सोशल मीडिया और दूसरी जगहों पर सामने रखनी चाहिए।
भारत की संघीय व्यवस्था में राज्यों की सरकार अलग से चुनी जाती है, और वहां पर संवैधानिक मुखिया, यानी राज्यपाल केन्द्र सरकार की तरफ से भेजे जाते हैं। ऐसे में बहुत से मौके आते हैं जब राज्य सरकार की विचारधारा अलग रहती है, और एक अलग विचारधारा की केन्द्र सरकार अपने एजेंट की तरह काम करने वाले राज्यपाल भेजती है। नतीजा यह होता है कि कई राज्यों में निर्वाचित राज्य सरकार के साथ मनोनीत राज्यपाल के अंतहीन टकराव चलते रहते हैं। अभी सुप्रीम कोर्ट में दो राज्यों के ऐसे ही मामले सुने गए, और पंजाब के साथ-साथ तमिलनाडु के राज्यपाल के खिलाफ वहां की सरकारें गई थीं, और सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों के रूख और फैसलों पर भारी फिक्र भी जताई है, और भारी नाराजगी भी जताई है। उन्होंने राज्यपालों को, सडक़ की जुबान में कहें, तो उनकी औकात याद दिलाई, और कहा कि वे मनोनीत व्यक्ति हैं, और उन्हें निर्वाचित सरकारों से इस किस्म का टकराव नहीं लेना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब के गवर्नर बनवारी लाल पुरोहित को कहा कि वे पंजाब विधानसभा से पारित विधेयकों को तत्काल मंजूर करें जिन्हें कि उन्होंने कई महीनों से अटका रखा है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने पंजाब और तमिलनाडु दोनों के राज्यपालों के बर्ताव पर कहा कि वे लोग आग से खेल रहे हैं, और अगर ऐसा ही रहा तो फिर लोकतांत्रिक व्यवस्था ही खतरे में पड़ जाएगी। अदालत ने इन्हें कहा कि वे निर्वाचित विधानसभा की ओर से मंजूर विधेयकों को दबाकर न बैठें, यह एक गंभीर मामला है, और इसे मंजूर करने में देर न करें। उन्होंने कहा कि पंजाब में जो हो रहा है उससे हम खुश नहीं हैं। पंजाब सरकार ने राज्यपाल के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दायर की थी, और कहा था कि गवर्नर जो कर रहे हैं वह असंवैधानिक है, और उसके चलते सारे प्रशासनिक काम अटक गए हैं। पंजाब सरकार की तरफ से खड़े हुए वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा था कि शिक्षा और वित्तीय मामलों के सात विधेयकों को जुलाई में गवर्नर को भेजा गया था, और जो अब तक अटके हुए हैं।
सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने जिस तरह से इन दो राज्यपालों की आलोचना की है, उसे पूरे देश के लिए देखा जाना चाहिए। छत्तीसगढ़ में भी विधानसभा से पारित आरक्षण विधेयक को राज्यपाल ने महीनों से रोक रखा है, राजभवन करीब पौन साल से इस पर बैठा हुआ है, और ऐसे ही कई मामले देश भर में जगह-जगह हैं। राज्यपाल विधानसभा के पारित विधेयकों को अंतहीन रोके रखने को अपना हक मानते हैं। और वे केन्द्र सरकार के एजेंट की तरह काम करते हैं। महाराष्ट्र जैसे राज्य में यह देखा हुआ है कि किस तरह राज्यपाल सत्तापलट में औजार बन जाते हैं, और कहीं राज्यपाल तो कहीं विधानसभा अध्यक्ष लोकतंत्र को पटरी से उतारने के लिए ओवरटाईम करने लगते हैं। पंजाब से परे तमिलनाडु में भी मोदी सरकार के मनोनीत राज्यपाल ने 12 विधेयकों पर सहमति रोककर रखी हुई है, और विधेयकों के अलावा भी कई दूसरे फैसले राज्यपाल के पास मंजूरी या सहमति के लिए पड़े हुए हैं।
हमारे पुराने पाठकों को याद होगा कि हम कई बार इस बात को उठा चुके हैं कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजभवन नाम की संस्था पूरी तरह से गैरजरूरी हो गई है, और इसे खत्म कर दिया जाना चाहिए। राज्यपाल लोकतंत्र में किसी भी तरह की संवैधानिक जरूरत नहीं रह गए हैं, और ये पूरी तरह से केन्द्र की सत्ता के हाथ के कभी औजार बने रहते हैं, तो कभी हथियार बने रहते हैं। बहुत से राज्यपालों की हालत लोहे के मोटे-मोटे टुकड़े लेकर राज्य सरकार की ट्रेन को पटरी से उतारने में लगी दिखती है। इनकी जरूरत ढेले भर की नहीं है, और ये अपने आपको निर्वाचित सरकार से ऊपर साबित करने में लगे रहते हैं। लोगों को याद होगा कि पश्चिम बंगाल में भी राज्यपाल ममता बैनर्जी की सरकार को नीचा दिखाने के लिए, उसकी फजीहत करने के लिए रात-रात जागकर काम करते थे, जबकि राज्यपाल को किसी तरह के ओवरटाईम की पात्रता नहीं रहती। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, क्योंकि राजभवन सरकार पर एक बोझ भी रहते हैं। राज्य सरकार एक तरफ तो अगर केन्द्र में विपक्षी सरकार है, तो उससे ही जूझते रहती है, और दूसरी तरफ प्रदेश की राजधानी में राजभवन में बैठे हुए राज्यपाल की साजिशों और हमलों को झेलते रहती है। सुप्रीम कोर्ट ने बहुत अच्छा किया है जो राज्यपालों को यह समझा दिया कि वे मनोनीत हैं और निर्वाचित सरकारें ही जनता की असली प्रतिनिधि रहती हैं।
बहुत साल पहले चिकित्सा विज्ञान से जुड़ी अपराध-कल्पनाओं पर उपन्यास लिखने वाले एक लेखक थे, और उन्होंने दूसरी कई कहानियों के साथ एक कहानी यह भी लिखी थी कि किस तरह एक दवा कंपनी डॉक्टरों को सैर पर एक ऑलीशान जहाज पर ले जाती है, और वहां पर उन्हें ब्रेनवॉश करके इस कंपनी की दवाओं को लिखने के लिए दिमागी रूप से तैयार किया जाता है। अब दुनिया में बैटरी कारों को बनाने वाले सबसे बड़े कारोबारी एलन मस्क की एक रिसर्च कंपनी को अमरीकी सरकार से इंसानों के दिमाग में माइक्रोचिप लगाकर उन्हें कई तरह की न्यूरो (स्नायु) बीमारियों में मदद करने की इजाजत दी है। एलन मस्क दुनिया के सबसे बड़े माइक्रो ब्लॉग प्लेटफॉर्म, ट्विटर (अब एक्स) के मालिक बनने के बाद अधिक खबरों में हैं, और इन दो कारोबारों के साथ वे अंतरिक्ष में सैलानियों को ले जाने का काम भी करते हैं, उपग्रहों से दुनिया के किसी भी हिस्से में इंटरनेट उपलब्ध करा सकते हैं, और अब वे इंसानी दिमाग तक पहुंचने की इजाजत अमरीका के सबसे कड़े समझे जाने वाले दवा-नियंत्रक से पा चुके हैं। इसके बाद उनकी प्रयोगशालाएं न्यूरालिंक नाम के इस प्रोजेक्ट के मानव-प्रयोग शुरू करेगी। जाहिर तौर पर यह चिप ऐसे लोगों के दिमाग में लगाया जाएगा जो लकवे की वजह से या किसी और वजह से बदन का उपयोग नहीं कर पाते हैं, और इस तरह के चिप से वे केवल दिमाग में सोचकर ही कम्प्यूटर पर काम कर सकेंगे। इस प्रोजेक्ट को ब्रेन-कम्प्यूटर इंटरफेस कहा गया है, और इस प्रयोग के लिए हजारों लोगों ने वालंटियर बनने का प्रस्ताव रखा है।
एलन मस्क के इस प्रोजेक्ट के साथ जोडक़र कुछ और चीजों को भी देखने की जरूरत है। अमरीका में वहां के सैनिक विभाग के कई तरह के रिसर्च निजी कंपनियों के साथ मिलकर चलते रहते हैं। ऐसी मिलिट्री रिसर्च बहुत ही खुफिया रहती है, और सरकार निजी कंपनियों को अंधाधुंध पैसा देकर ऐसे शोध काम करवाती है। ऐसे ही एक प्रोजेक्ट के बारे में कुछ अरसा पहले खबर आई थी कि इंसानों के दिमाग में एक चिप लगाकर अमरीकी फौज ऐसे फौजियों को कई तरह की हिंसा करने, और अनैतिक काम करने के लिए भी तैयार कर सकेगी जो कि कोई भी जिम्मेदार इँसान आमतौर पर नहीं करेंगे। मतलब यह कि दिमागी बीमारियों में मदद के दावे की आड़ में अमरीकी फौज अपने सैनिकों को अधिक खूंखार और बेरहम बनाने की तैयारी कर रही है, ऐसे आरोप लगते रहे हैं। फौजियों की भावनाओं पर सेना के इस किस्म से कब्जे की तैयारी के आरोप लगते रहे हैं। उल्लेखनीय है कि कई देशों में अमरीकी फौजों के जुल्म के बाद जब सैनिक वहां से लौटते हैं, तो वे बरसों तक कई तरह की मानसिक बीमारियों से घिर जाते हैं, क्योंकि उस हिंसा की तकलीफदेह यादें उनके दिमाग से निकलती ही नहीं है। अब हो सकता है कि ऐसा कोई चिप लगने से फौजी इंसानों को ऐसे हैवानों में तब्दील कर दिया जाए जिनकी भावनाएं ही न हों।
जब इस तरह की कम्प्यूटर-ब्रेन टेक्नालॉजी को आज की साइबर घुसपैठ और ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से जोडक़र देखा जाए तो इसके खतरे अकल्पनीय रूप से खतरनाक दिखते हैं। ऐसे चिप लगाकर लोगों को अगर उनकी इंसानी सोच से परे का बनाया जा सके, तो फिर उनसे कोई भी काम करवाए जा सकते हैं। यह भी हो सकता है कि लोगों का अपहरण करके, या किसी मेडिकल बेहोशी की हालत में उनमें ऐसे चिप लगा दिए जाएं, या फौजियों से लेकर आतंकियों तक, लोग अपनी मर्जी से ऐसे चिप लगवा लें ताकि वे हथियारों पर बेहतर काबू कर सकें, उन्हें मिलने वाले संदेश और निर्देश अधिक आसानी से पा सकें, और फिर उनकी सरकारें या उनके कारोबार उनसे मनमानी करवा सकें। यह पूरा सिलसिला कुछ दशक पहले तक सिर्फ अपराध कथाओं में रहता था, और अब यह मानव-परीक्षणों के लिए अमरीकी सरकार की मंजूरी पा चुका है। यह भी हो सकता है कि जिस तरह गरीब लोग मजबूरी में किडनी बेचते हैं, उसी तरह बहुत से गरीब पैसों के लिए, या किसी रोजगार के लिए इस तरह के चिप लगवाने को तैयार हो जाएं, और बाद में उन्हें पता ही न चले कि किस तरह वे कामगार से आत्मघाती दस्ते में तब्दील हो गए। लोगों को सरकार और कारोबार की जुर्म की क्षमता को कम नहीं आंकना चाहिए। ये दोनों ही इंसानों को पुर्जों की तरह, हथियारों की तरह, औजारों की तरह इस्तेमाल करने के आदी रहते हैं, और दिमाग में चिप लगा देने के बाद, उसके कम्प्यूटर से रिश्ते के बाद अब इंसान को मशीन जैसा बनाया जा सकेगा, और ऐसे इंसानों के पूरे दिमाग को किसी मशीन पर कॉपी करके उसे रोबोकॉप फिल्म के मशीनी मानव की तरह बनाया जा सकेगा। यह पूरा सिलसिला इतना भयानक है, और इस रफ्तार से आगे बढ़ रहा है, कि इन पर नई अपराध कथाएं लिखना भी आसान नहीं है। आज ऐसी कुछ अलग-अलग खबरों को देखकर, किसी उपन्यास और किसी दूसरी फिल्म को याद करके ये बातें लिखी जा रही हैं, इनका कोई असर ऐसे प्रयोगों को रोकने में तो नहीं होगा, लेकिन लोगों को सावधान करने के लिए हम इतना जरूर लिख रहे हैं।
छत्तीसगढ़ के चुनाव में अभी कुल 20 सीटों पर मतदान हुआ है, और 70 सीटों पर बाकी हैं। दो करोड़ से कुछ अधिक मतदाताओं में से 40 लाख की बारी अभी आई थी, और इन 20 सीटों पर मतदान पिछली बार के मुकाबले अधिक हुआ है, और खासकर बस्तर की 12 सीटों पर मतदान पिछले दो चुनावों से लगातार आगे बढ़ते हुए इस बार रिकॉर्ड वोटों तक पहुंचा है। बस्तर के नक्सल प्रभावित बीजापुर और कोंटा के दो सीटों को अगर छोड़ दें, जहां पर कि 40 और 50 फीसदी वोट डले हैं, तो बस्तर की बाकी सीटों पर तो बहुत अधिक वोट डाले गए हैं। पिछले चुनावों से इन पूरी 20 सीटों की तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि पिछली बार कवर्धा जिले के मतदान इनके साथ नहीं हुए थे, लेकिन कुल जमा आंकड़ों को देखें तो नक्सल प्रभावित बस्तर सबसे अधिक हौसला बंधाता है कि वहां पर राजनांदगांव और कवर्धा जैसे शहरों के मुकाबले भी खासा अधिक मतदान हुआ है। बस्तर के बाहर के दोनों जिलों से अधिक मतदान वाली सीटें बस्तर में हैं।
हम आंकड़ों के अधिक जाल में अभी उलझना नहीं चाहते, लेकिन खबरें बताती हैं कि राज्य बनने के बाद से बस्तर में इस बार सबसे अधिक मतदान हुआ है। हमने इस इलाके को बारीकी से देखा है, और इस अखबार के संपादक ने कल कुछ टीवी चैनलों पर बस्तर के मतदान पर अपनी राय रखी भी है। हमारा मानना है कि बस्तर का अधिक मतदान पिछले पांच बरस में वहां नक्सल हिंसा की कमी की वजह से भी हुआ है, और सुरक्षाबलों के बेहतर काबू की वजह से भी। फिर इसके साथ-साथ एक बड़ी बात यह भी है कि प्रशासन और चुनाव आयोग ने करीब सवा सौ गांवों में नए मतदान केन्द्र शुरू किए, जहां कि लोग आजादी के बाद पहली बार अपने गांवों में वोट डाल सके। इसके साथ ही इन आरोपों की जांच भी होना चाहिए कि कुछ इलाकों में जहां पर सीपीआई के समर्थक माने जाते हैं, वहां से मतदान केन्द्र 15-20 किलोमीटर दूर फेंक दिए गए। कुछ गांवों के लोग इसके खिलाफ प्रदर्शन करते भी दिखे हैं, और सरकार और चुनाव आयोग को अपनी साख को ध्यान में रखते हुए ऐसे आरोपों की जांच करानी चाहिए, और सच्चाई सामने रखनी चाहिए। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने मतदान के बीच ही यह आरोप लगाया था कि सीआरपीएफ के बंदूकधारी लोगों को वोट डालने जाने से रोक रहे थे, प्रदेश के मुख्यमंत्री की तरफ से इससे गंभीर आरोप भला क्या हो सकता है, और चुनाव आयोग और सीआरपीएफ दोनों को इस आरोप की जांच करनी चाहिए, और तथ्यों को पारदर्शी तरीके से जनता के सामने रखना चाहिए। चुनावों को लोकतंत्र में जितना पवित्र काम बताया जाता है, और मतदान केन्द्रों को लोकतंत्र का मंदिर बताया जाता है, तो लोकतंत्र को पूजने जाने वाले लोगों को अगर रास्ते में रोका गया है, तो यह उनकी लोकतांत्रिक भावना को ठेस पहुंचाने के बराबर बात है जिसे कि धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने से कम नहीं मानना चाहिए। चुनाव आयोग को अपनी कामयाबी के आंकड़ों के साथ-साथ ऐसे आरोपों की जांच करवानी चाहिए, ताकि प्रदेश के बाकी करीब तीन चौथाई वोटरों के मन में चुनाव प्रक्रिया को लेकर एक भरोसा कायम रहे। वैसे भी नक्सल हिंसा वाले बस्तर में जब आदिवासी खतरा उठाकर, जान पर खेलकर, और नक्सलियों के हाथों चुनावी स्याही वाली उंगली कटवाने का खतरा झेलकर वोट डालने जाते हैं, तो उनकी कोशिशों में आई किसी भी तरह की बाधा को खत्म करने की कोशिश होनी चाहिए। यह बस्तर बाकी प्रदेश और पूरे देश के सामने एक मिसाल है कि वह हर चुनाव में न सिर्फ अधिक मतदान कर रहा है, बल्कि सरकार को बनाने और बिगाडऩे की अपनी ताकत भी साबित कर रहा है। अक्सर ही पूरे बस्तर का मिजाज किसी एक पार्टी के पक्ष में पूरी तरह से झुका हुआ दिखता है, जिससे साफ होता है कि दूर-दूर बसे हुए आदिवासी भी किस तरह एक बुनियादी सामाजिक-राजनीतिक समझ से बंधे हुए हैं।
इस मौके पर मतदान करवाने वाले लोगों को बधाई भी दी जानी चाहिए जो कि कई जगहों पर तो बुलेटप्रूफ जैकेट पहनकर बैठे थे, और जान का खतरा झेलकर भी यह ड्यूटी कर रहे थे। जब शहरों में लोग चौराहों पर लालबत्ती पर रूकने को भी अपनी शान में गुस्ताखी समझते हैं, तब जंगलों में लोग लोकतंत्र के लिए जान खतरे पर डालकर एक दिन पहले से कहीं हेलीकॉप्टर से, तो कहीं पैदल गांवों तक पहुंचते हैं। जिम्मेदारी की इस भावना को कम नहीं आंकना चाहिए, और शहरियों को इससे सबक लेना चाहिए, शहरी कर्मचारियों को भी, और शहरी मतदाताओं को भी। शहरों में पोलिंग बूथ आधा-एक किलोमीटर से अधिक दूर नहीं रहते, और अधिकतर लोगों के पास गाडिय़ां रहती हैं, दुपहिए रहते हैं, और बेहतर सडक़ें रहती हैं, जिनमें से बस्तर जंगलों में कुछ भी नसीब नहीं रहता। इसके बाद भी अगर शहर, जंगलों के आदिवासियों से कम वोट डालेंगे, तो वे लोकतंत्र को कमजोर करने के गुनहगार भी रहेंगे। वोट जितने अधिक डलते हैं, पार्टियों और नेताओं के दिल उतने ही अधिक दहलते हैं, और लोकतंत्र उतना ही मजबूत होता है, क्योंकि वह अधिक से अधिक वोटरों का चुना हुआ रहता है। इस जिम्मेदारी और इस हक, दोनों का ही सम्मान तमाम लोगों को करना चाहिए। आज जितने फीसदी वोटों के फासले से कोई सरकार बन जाती है, या कोई पार्टी चूक जाती है, उससे कई गुना अधिक लोग घर बैठे रहते हैं। ऐसे ही आरामतलब और गैरजिम्मेदार लोगों की वजह से कई बार गलत उम्मीदवार और गलत पार्टियां जीत जाते हैं। हम छत्तीसगढ़ के ही 2013 के चुनाव याद दिलाना चाहेंगे जब कांग्रेस और भाजपा के बीच वोटों का फासला कुल पौन फीसदी था, और उस पौन फीसदी की वजह से भाजपा की दस सीटें बढ़ गई थीं, और उसकी सरकार बन गई थी। अब अगर घर बैठे दो-चार फीसदी लोग वोट डालने और निकल गए होते, और पौन फीसदी का यह फासला मिट गया होता, तो हो सकता है कि प्रदेश में सरकार कोई और बनी होती। इसलिए घर बैठे लोगों को याद रखना चाहिए कि सिर्फ वोट डालने वाले लोग ही सरकार नहीं बनाते और बिगाड़ते हैं, बल्कि घर बैठे लोग भी अनजाने और अनचाहे ऐसा करते हैं। यह हक पांच बरस में एक बार मिलता है, और यह बेहतर जनप्रतिनिधि, और बेहतर सरकार पाने के लिए एक जिम्मेदारी लेकर आता है।
हम लगातार यह कोशिश करते हैं कि वोटर अधिक से अधिक वोट डालने आएं, और अब तो पार्टियों और उम्मीदवारों में से कोई भी पसंद न आने पर नोटा का विकल्प भी लोगों के पास है कि वे अपनी नापसंदगी भी दर्ज कर सकते हैं, और पार्टियों और उम्मीदवारों को यह समझ पड़ सकता है कि उन्हें खारिज करने वाले कितने लोग हैं। हम अपने यूट्यूब चैनल पर भी लगातार वोटरों से अपील करते रहते हैं, और अखबार के इस संपादकीय कॉलम में तो लोगों की जागरूकता की जरूरत बताते रहते हैं। कम से कम छत्तीसगढ़ को तो अपने सबसे गरीब और सबसे पिछड़े कहे जाने वाले बस्तर को देखकर सबक लेना चाहिए, और अधिक से अधिक वोट बाकी जगहों पर भी पडऩा चाहिए।
एक नई खबर से एक पुराना पूर्वाग्रह फिर जिंदा हो रहा है कि क्या उत्तर भारत और हिन्दीभाषी इलाकों में मर्दों, और खासकर नेताओं की सोच बहुत ही दकियानूसी और महिलाविरोधी है? बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अभी विधानसभा में जनसंख्या नियंत्रण पर बहुत हॅंसते हुए एक इतना घटिया बयान दिया जो कि संसद या विधानसभाओं के इतिहास में कम ही रहा होगा। उसका जो वीडियो सामने है, उसको देखना भी मुश्किल पड़ता है, लेकिन अखबारनवीसी के इस धंधे में हमारी मजबूरी है कि समाचार बनाने और विचार लिखने के लिए हमें बहुत सी बुरी बातों को देखना, सुनना, और पढऩा पड़ता है, ठीक उसी तरह जिस तरह कि पुलिस को अनचाहे भी जुर्म और मुजरिमों से जूझना पड़ता है, उनसे वास्ता पड़ता ही है। इसी तरह घटिया जुबान बोलने वाले लोगों की बातों को कुछ या पूरी हद तक सामने रखना हमारी मजबूरी रहती है, लेकिन ऐसे मुश्किल पेशे के बावजूद नीतीश कुमार की न सिर्फ महिलाविरोधी, बल्कि अश्लील और फूहड़ बातों का वीडियो देखना बड़ा भारी पड़ रहा है। उन्होंने शादीशुदा लडक़ी के साथ पति के सेक्स करने के दौरान उस लडक़ी के पढ़े-लिखे होने से पडऩे वाले फर्क का जिक्र करते हुए बहुत ही गंदी जुबान में किसी वयस्क किस्से-कहानी की तरह महिला का जिक्र किया। हालत यह है कि मोदी सरकार की बनाई हुई राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा से लेकर कट्टर मोदीविरोधी लोक गायिका नेहा सिंह राठौर तक ने नीतीश कुमार को धिक्कारा है। नेहा ने लिखा है- मुझे याद है दो साल पहले मैंने बिहार सरकार से भोजपुरी फिल्मों और गीतों से अश्लीलता मिटाने की गुहार लगाई थी, सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी थी, आज वजह पता चल गई है। बाकी इनके इस घटिया लहजे की एक बड़ी वजह विधानसभाओं में महिलाओं का अल्पसंख्यक होना भी है। मुझे जानना है कि पूरे बिहार की महिलाओं को सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करने पर इनके विरुद्ध क्या एक्शन लिया जा रहा है।
अपने बयान पर बवाल खड़ा होने पर नीतीश ने विधानसभा में माफी मांगी है, और कहा है कि वे उस पर दुख व्यक्त करते हुए उसे वापिस लेते हैं। उन्होंने कहा कि इस पर मेरी निंदा की जा रही है, और मैं निंदा करने वालों का अभिनंदन करता हूं। उन्होंने लडक़े-लडक़ी के सेक्स के बयान पर माफी मांगी है। उन्होंने जनसंख्या पर काबू करने के आंकड़े गिनाते हुए उस बारे में कहा था कि लड़कियों के पढ़े-लिखे होने से प्रजनन दर घटती हैं, क्योंकि पढ़ी-लिखी लड़कियां अपने पति को समय पर रोक पाती हैं। इसी सिलसिले में उन्होंने बहुत ही गंदी जुबान से और हाथों से गंदी हरकत करते हुए कई बातें कही थी जिस पर सदन हॅंस भी रहा था। उन्होंने माफी मांगते हुए विपक्षी सदस्यों को कहा कि आप लोग कल मुझसे सहमत थे, लेकिन आज ऊपर से आदेश आया होगा कि मेरी निंदा की जाए तो निंदा कर रहे हैं।
हमने ऐसे कई बयानों पर देखा है कि जब किसी विधानसभा या संसद में कोई फूहड़ या अश्लील बात की जाती है, तो बहुत से लोग हॅंसते हैं। यह लोगों का अपना चरित्र और मिजाज रहता है जो उन्हें सरोकारमुक्त रखता है, और लोग पूरी गैरजिम्मेदारी और हिंसा से महिलाविरोधी या अश्लील बातों पर हॅंसते हैं। उत्तर भारत और हिन्दीभाषी राज्यों में चूंकि शिक्षा में कमी है, इसलिए जागरूकता में भी कमी है, और सरोकारों में भी कमी है। इसलिए गंदी बातों पर लोग हॅंसते हैं। लोगों को याद होगा कि इन्हीं नीतीश कुमार के साथी रहे एक दूसरे तथाकथित नेता शरद यादव भी अपनी तमाम अच्छी सोच के साथ-साथ महिलाओं के खिलाफ ओछी और घटिया बातें कहते रहते थे। उन्होंने राजस्थान के चुनाव में वसुंधरा राजे पर कहा था कि उन्हें अब आराम देना चाहिए, वे बहुत थक गई हैं, बहुत मोटी हो गई हैं, पहले पतली थीं। शरद यादव ने ही एक दूसरे मौके पर कहा था कि वोट की कीमत बेटी की इज्जत से बढक़र है, बेटी की इज्जत जाएगी तो गांव-मोहल्ले की इज्जत जाएगी, और अगर वोट बिक गया तो देश की इज्जत जाएगी। राज्यसभा में एक बार शरद यादव ने कहा था कि दक्षिण भारत की महिलाओं का शरीर सुंदर होता है। उनके इस बयान पर भी सदन के कई पुरूष सदस्य हॅंस पड़े थे, बाद में महिलाओं ने उनके ऐसे बयान पर आपत्ति दर्ज कराई थी। लोगों को याद होगा कि एक वक्त उन्होंने पढ़ी-लिखी महिलाओं के लिए परकटी महिला कहा था।
नीतीश का यह ताजा घटिया बयान विधानसभा के भीतर का है, इसलिए उस पर बाहर कोई कार्रवाई नहीं हो सकती। और उनके बयान पर हॅंसने वाले विपक्षी सदस्य भी अब देश भर से निंदा होने पर नीतीश के खिलाफ जाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं रखते। लेकिन महिलाओं सहित पुरूषों की भी जो प्रतिक्रिया नीतीश के खिलाफ आई है, उसे देखते हुए मर्दानगी पर फख्र करने वाले नेताओं, और महिलाओं के खिलाफ ओछी सोच रखने वाले नेताओं या दूसरे लोगों को अपने तौर-तरीके सुधार लेने चाहिए। भाजपा के एक चर्चित और ताकतवर सांसद बृजभूषण शरण सिंह ने उन पर बलात्कार के आरोप लगाने वाली, और सुबूत देने वाली लड़कियों के खिलाफ जैसी ओछी बातें कही थीं, उस बारे में भी भाजपा की स्थाई चुप्पी उनसे यह नैतिक हक छीन लेती है कि वह नीतीश के खिलाफ कुछ बोल सके।
लेकिन हम राजनीतिक दलों पर अलग-अलग चर्चा के बजाय यह बात साफ करना चाहते हैं कि लोगों को ऐसे महिलाविरोधी नेताओं के खिलाफ अदालत जाना चाहिए। लोग व्यक्तिगत रूप से कई बार अदालत तक जाने की ताकत या हौसला नहीं रखते, लेकिन जनसंगठनों को इस किस्म की बेइंसाफ सोच के खिलाफ लड़ाई लडऩी चाहिए।
देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के तहत आज से मतदान शुरू हो गया है। छत्तीसगढ़ की 20 विधानसभा सीटों पर वोट डाले जा रहे हैं। इसके ठीक पहले तक अलग-अलग पार्टियों की तरफ से तरह-तरह की धोखाधड़ी और जालसाजी पोस्ट की जा रही है, कुछ सेक्स-वीडियो भी चर्चा में आने की बात है जिसे लेकर कांग्रेस के एक विधायक पत्रकारों के बीच रोते हुए नजर आए, उन्होंने इसे गढ़ा हुआ बताया। लेकिन गढ़े हुए सेक्स-वीडियो से भी एक परिवार किस तरह तबाह किया जा सकता है, इसे छत्तीसगढ़ के इस कांग्रेस विधायक ने बहुत तकलीफ के साथ रोते-रोते बखान किया, और कहा कि उनके परिवार में भी मां-बहन, बीवी-बेटी सभी हैं, और सेक्स का उनका फर्जी वीडियो गढक़र अगर कोई चुनाव जीतना चाहते हैं तो वे जीत लें, उन्हें ऐसी जीत नहीं चाहिए। इस दर्द को समझा जा सकता है। ऐसी तकलीफ के बीच अगर ऐसे हमले के शिकार बेकसूर लोग खुदकुशी कर लें, तो उसके लिए कौन जिम्मेदार रहेंगे? चुनावों की गंदगी अगर इस हद तक पहुंच रही है, तो यह भी सोचने की बात है कि देश की टेक्नालॉजी और उससे जुड़े कानून क्या कर रहे हैं? जो विधायक न ईडी की कार्रवाई पर रोया, न अदालती कटघरे में नाम आने पर रोया, वह एक ऐसा सेक्स-वीडियो सामने आने पर टूट गया, और बिखर गया।
लोगों की निजी जिंदगी में इस हद तक आग लगाने वाली साजिशें अब और अधिक आसान और खतरनाक हो गई हैं क्योंकि अब कम्प्यूटर पर मौजूद डीपफेक टेक्नालॉजी ने यह आसान कर दिया है कि किसी के वीडियो पर किसी का चेहरा या सिर लगा देना। और इसका इस्तेमाल भी धड़ल्ले से होने लगा है। इसकी ताजा खबर अभी बनी जब बॉलीवुड की एक एक्ट्रेस का डीपफेक वीडियो सामने आया जिसमें किसी और के बदन पर इस एक्ट्रेस का चेहरा लगा दिया गया। इससे जुड़ी खबर बताती हैं कि इसी बरस अब तक करीब डेढ़ लाख डीपफेक वीडियो इंटरनेट पर डाले गए हैं, और दुनिया की कुछ कंपनियां इन्हें बनाने की तकनीक भी बना रही हैं, और कुछ बड़ी-बड़ी कंपनियां इन्हें पकडऩे की तकनीक भी। ऐसे में इस बात को भी याद रखने की जरूरत है कि डीपफेक फोटो या वीडियो बनाने की तकनीक कुछ वक्त से चलन में है, और उसके बाद अब ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस भी आ गया है, और इसकी मदद से हो सकता है कि डीपफेक वीडियो बनाना अधिक आसान हो जाए, और अधिक असली लगते हुए वीडियो बनाने का काम तेज हो जाए। वैसे ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस कंपनियां यह कोशिश भी कर रही हैं कि उनके औजारों से बनाए जाने वाले किसी भी तरह के वीडियो और फोटो पर औजारों की एक छाप दिखती रहे, ताकि उनके गढ़े होने की जानकारी लोगों को मिल सके। लेकिन इन दिनों हिन्दुस्तान जैसे चुनावी माहौल में, और यहां की राजनीति में नकली वीडियो, नकली ऑडियो बनाकर किसी की भी चुनावी और राजनीतिक संभावनाओं को खत्म करने का जो खतरनाक सिलसिला चला हुआ है, वह भयानक है।
हमारा ख्याल है कि किसी की निजी जिंदगी को इस तरह तबाह करने की हरकत, जिससे कि एक मजबूत सत्तारूढ़ विधायक सरीखा व्यक्ति फूट-फूटकर रो पड़े, और चुनाव को हार जाना बेहतर माने, ऐसी नौबत लाने वाली साजिशों के लिए एक अधिक कड़े कानून की जरूरत है। जो लोग सोच-समझकर किसी की निजी जिंदगी को इस हद तक बर्बाद करते हंै, पूरे के पूरे परिवार को खुदकुशी के कगार पर धकेल देते हैं, उनके लिए सूचना तकनीक की मामूली सजा से परे एक कड़ी सजा होनी चाहिए जो कि आत्महत्या को मजबूर करने पर होने वाली सजा जैसी रहनी चाहिए। दूसरी बात यह भी है कि पुराने परंपरागत जुर्म पर होने वाली सजा के अंदाज में अगर नई टेक्नालॉजी के जुर्म देखे जाएंगे, तो एक जुर्म पर सजा के पहले लाखों वैसे जुर्म और हो चुके रहेंगे। इसलिए हमारा यह भी ख्याल है कि कम्प्यूटर और सूचना तकनीक, इंटरनेट और दूसरे संचार साधनों से होने वाले जुर्म के लिए एक अलग अदालत होनी चाहिए। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि अधिकतर जजों को कम्प्यूटर और इससे जुड़ी तकनीक की अधिक जानकारी रहती नहीं है। यह नई पीढ़ी की ऐसी टेक्नालॉजी है जिसे इस पेशे और कारोबार से जुड़े लोग ही अधिक समझते हैं। इसलिए हमारा ख्याल है कि न्यायपालिका को जिलों के स्तर पर एक आईटी कोर्ट बनाना चाहिए जहां पर एक अलग समझ और जानकारी वाले जज रहें, और सरकारी वकीलों में भी आईटी-कम्प्यूटर के जानकार वकील रहने चाहिए, जो कि वकालत के साथ-साथ इस किस्म की पढ़ाई किए हुए हों, या बाद में इस तकनीक का अलग से प्रशिक्षण पाए हुए हों। परंपरागत जानकारी और समझ वाले जज और वकील 21वीं सदी की इस भयानक नौबत से निपटने के लायक नहीं हैं।
लोगों को लग सकता है कि बात-बात पर अलग-अलग किस्म की अदालतों सुझाने से अदालतों का रोजमर्रा का काम प्रभावित होगा। लेकिन हमारी समझ यह कहती है कि आईटी एक्ट से जुड़े हुए जितने किस्म के जुर्म न सिर्फ राजनीति और चुनाव में, बल्कि निजी ब्लैकमेलिंग में, सोशल मीडिया पर बदनाम करने में, साइबर-ठगी में, दूसरे किस्म की कम्प्यूटर जालसाजी में सामने आ रहे हैं, वे जिला स्तर पर एक अदालत के लिए काफी दिख रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार को यह सोचना चाहिए, और ऐसा ढांचा तैयार करने के लिए देश की मौजूदा लॉ-यूनिवर्सिटीज में अलग से कोर्स चलाए जा सकते हैं जिनमें चुनिंदा जजों और वकीलों को टेक्नालॉजी के विशेषज्ञ, और संबंधित कानूनों के विशेषज्ञ अलग किस्म से तैयार कर सकें। आज सूचना तकनीक और संचार तकनीक की मिलीजुली साजिशों से लोगों की जिंदगी जिस हद तक तबाह की जा रही है, उसे देखते हुए देश की न्याय व्यवस्था तय करने वाले लोगों को कुछ कल्पनाशीलता भी दिखानी चाहिए, वरना तरह-तरह के मुजरिम लोगों को लूटते रहेंगे, और उनकी निजी जिंदगी को तबाह करते रहेंगे। टेक्नालॉजी छलांगें लगाकर आगे बढ़ रही है, और उसके साथ-साथ अगर साइबर पुलिसिंग, और ऐसे जुर्मों की जांच के लिए एजेंसियां बेहतर तैयार नहीं होंगी, अदालतें बेहतर प्रशिक्षित नहीं होंगी, तो फिर जनता के महफूज रहने का हक कहीं भी मुजरिमों और ब्लैकमेलरों की रफ्तार से मेल नहीं खा सकेगा।
यह लिखते-लिखते ही खबर दिख रही है कि छत्तीसगढ़ के चर्चित महादेव ऑनलाईन सट्टा एप्लीकेशन को केन्द्र सरकार ने ब्लॉक किया है, और कुछ घंटों के भीतर ही इसके गिरोह ने नया लिंक जारी कर दिया, और यह भी कहा है कि दांव लगाने वालों के आईडी और पासवर्ड पुराने ही रहेंगे। अब क्या बिजली की रफ्तार से होने वाले संगठित अपराधों का कोई मुकाबला अंग्रेजों के वक्त के ढर्रे पर चल रही पुलिस और अदालतें कर सकती हैं? और साथ-साथ यह भी कि अब अगर लोगों के फर्जी सेक्स-वीडियो डीपफेक तकनीक से एकदम असली दिखते हुए बनने लगेंगे, तो कितने परिवार खत्म होंगे, कितने लोग खुदकुशी करेंगे?
तीन बरस पहले दिल्ली की सरहद पर लंबे चले किसान आंदोलन में सैकड़ों किसानों की शहादत तो हुई, लेकिन मोदी सरकार को तीन विवादास्पद किसान कानूनों को वापिस लेना पड़ा था। इन कानूनों को सरकार ने एनडीए के संसदीय बाहुबल से बना तो लिया था, लेकिन किसान आंदोलन ने जिस तरह सरकार के सामने चुुनौती पेश की थी, उसे देखते हुए आखिर में सरकार को ही पीछे हटना पड़ा। उसके बाद से अब तक देश में कोई बड़ा किसान मुद्दा नहीं था। लेकिन छत्तीसगढ़ के इस चुनाव में किसानों का मुद्दा एक बार फिर जोर पकड़ चुका है जिसे देखते हुए भाजपा ने अपने इस घोषणापत्र में अपनी लंबी लीक से अलग हटकर धान के एक अकल्पनीय दाम की घोषणा की थी। केन्द्र सरकार का समर्थन मूल्य 22 सौ रूपए क्विंटल के करीब का है, और भाजपा ने छत्तीसगढ़ में 31 सौ रूपए के दाम का वायदा किया, और यह भी वायदा किया कि वह पूरा दाम एकमुश्त देगी। अब यह याद रखने की जरूरत है कि चार बरस पहले जब भूपेश सरकार केन्द्र के समर्थन मूल्य से अधिक दाम-बोनस छत्तीसगढ़ में देने जा रही थी तो केन्द्र ने उसे लिखकर रोक दिया था कि अगर उसके समर्थन मूल्य से अधिक दाम दिया जाएगा, तो वह राज्य का चावल नहीं खरीदेगी। अब आज जब अमित शाह भाजपा के घोषणापत्र में किसानों को एक साथ 31 सौ रूपए दाम देने की बात कहते हैं, तो दो सवाल उठते हैं कि क्या केन्द्र सरकार उस शर्त पर अड़ी रहेगी जिसके आधार पर उसने भूपेश सरकार से चावल लेना मना कर दिया था, या वह अपनी ही पार्टी के घोषणापत्र को मानने के लिए अपने नियमों या फैसलों को बदलेगी? खैर, आज धान का मुद्दा भाजपा के अधिक काम का नहीं दिख रहा है क्योंकि कांग्रेस ने घोषणापत्र के पहले ही किसान कर्जमाफी की मुनादी कर दी थी, और इस घोषणापत्र के साथ उसे दुहराया है, दूसरी तरफ कांग्रेस ने भाजपा के 31 सौ रूपए के मुकाबले 32 सौ रूपए की घोषणा की है। इन दो घोषणाओं के बाद भाजपा का धान का दाम अब कोई वजन नहीं रखता।
छत्तीसगढ़ के पिछले चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने किसान कर्जमाफी और धान का देश में अधिकतम दाम घोषित किया था। कई लोगों का मानना है कि इन्हीं दो बातों ने प्रदेश में कांग्रेस को उसकी कल्पना और उम्मीद से सवाया सीटें दिलवा दी थीं, और बरसती सीटों से कांग्रेस भवन की कांक्रीट छत भी टूट गई थी। इस चुनाव में फिर कांग्रेस ने कर्जमाफी और देश में अधिकतम धान-दाम की घोषणा की है, पिछले बरस के मुकाबले खरीदे जाने वाले धान की मात्रा भी बढ़ा दी है, और अब प्रदेश के धान के औसत उत्पादन से अधिक खरीदी का वायदा किया है। भाजपा और कांग्रेस को इनसे जो भी चुनावी फायदा होगा, उनसे परे एक दूसरी बात जो लगती है वह यह है कि अब पार्टियों को यह लगने लगा है कि अधिक किसानी वाले राज्यों में किसान ही सरकार बना और बिगाड़ सकते हैं, और यह बात हर किसी को साफ हो गई है कि अगर किसान सुखी नहीं होंगे, तो वैसी पार्टी को सत्तासुख भी नहीं मिल सकेगा। भाजपा के छत्तीसगढ़ चुनाव के पूरे घोषणापत्र में धान के 31 सौ रूपए दाम से बड़ा और कोई वायदा नहीं था, यह अलग बात है कि कांग्रेस ने किसान की सेवा करने की बोली और अधिक लगाई, और घोषणापत्र की लड़ाई में जीत चुकी है।
इस देश में किसानों को उपज के अधिक दाम देने की बात जाने कब से चली आ रही है। और भाजपा-एनडीए जब केन्द्र की सत्ता में आए, तब उसका वायदा था कि देश में स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों के मुताबिक फसल के दाम बढ़ाए जाएंगे, जो कि तकरीबन दोगुना हो जाने चाहिए थे। लेकिन सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने यह साफ कर दिया था कि इन सिफारिशों को मानना मुमकिन नहीं है, और इनसे देश में किसी भी और काम के लिए पैसा ही नहीं बचेगा। उस दौरान रमन सिंह सरकार के मेहमान रहे उस वक्त के भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने छत्तीसगढ़ में एक अनौपचारिक चर्चा में कहा था कि स्वामीनाथन कमेटी पर अमल नामुमकिन है। लेकिन अब जिस तरह छत्तीसगढ़ में कांग्रेस घोषणापत्र के पहले लाए गए अपने घोषणापत्र में भाजपा ने धान के दाम 31 सौ रूपए करने की घोषणा की थी, उससे साफ है कि अब किसान और उसकी उपज बहुत बड़ा मुद्दा बन चुके हैं।
जिस तरह बिहार से शुरू जातीय जनगणना का मुद्दा आज इंडिया-गठबंधन और खासकर कांग्रेस पार्टी के फैलाए हुए पूरे देश का एक सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बन रहा है, या बन चुका है, उसी तरह किसान को फसल के दाम का मुद्दा अब छत्तीसगढ़ से परे भी फैल सकता है, और राजनीतिक दल चुनावी मुकाबले में, और देखादेखी में एक-दूसरे की बराबरी कर सकते हैं। यह बात इस हिसाब से ठीक है कि देश में कारों के दाम, हवाई टिकटों के दाम, पेट्रोल और डीजल के दाम, जूतों और कपड़ों के दाम, इनमें से किसी पर भी ग्राहकों का काबू नहीं है, लेकिन किसान की उपज को दाम देते हुए लोगों की जान निकल जाती है। लोग खुद तरह-तरह की टैक्स-रियायतें चाहते हैं, सरकारों से मुफ्त में इलाज चाहते हैं, मुफ्त में पढ़ाई चाहते हैं, मुफ्त मकान चाहते हैं, लेकिन फसल के ठीकठाक दाम देना कोई नहीं चाहते। वे लोग भी नहीं चाहते जो खुद नई पेंशन स्कीम के बजाय पुरानी पेंशन स्कीम चाहते हैं। ऐसे लोग भी कभी प्याज के दाम पर झींकते हैं, तो कभी टमाटर के दाम पर। साल में दस-बीस दिन अगर किसानों को इन चीजों के थोड़े से दाम अधिक मिल जाते हैं, तो उस पर भी लोगों को दर्द होता है। ऐसे माहौल में आज जब छत्तीसगढ़ के पिछले और इस चुनाव से किसान देश के राजनीतिक एजेंडे के केन्द्र में आ रहा है, तो वह देश के दसियों करोड़ किसानों, और खेतिहर मजदूरों सहित ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ी बात है। छत्तीसगढ़ में भाजपा भी इस दौड़ में कुछ कदम चली, और फिर पिछड़ गई। लेकिन देश भर में लोग भाजपा को भी जगह-जगह यह याद दिलाएंगे कि छत्तीसगढ़ के उसके घोषणापत्र में केन्द्र के समर्थन मूल्य से करीब डेढ़ गुना दाम का वायदा किया गया था। देश के अन्नदाता खुद भी जिंदा रह सकें, और खुदकुशी को मजबूर न हों, यह एक अच्छी बात रहेगी, और यह भी याद रखने की जरूरत है कि यह किसी किस्म की रेवड़ी नहीं है, यह पूरी तरह से देश का पेट भरने वाले इस तबके का जायज हक है।
फेसबुक पर हर कुछ दिनों में एक बहुत सनसनी खेज किस्म की पोस्ट दिखती है जिसमें कभी नारायण मूर्ति, कभी नंदन निलेकेणी, तो कभी करण थापर जैसे लोगों के इंटरव्यू दिखाए जाते हैं, और देश की कुछ सबसे नामी-गिरामी वेबसाईटों की कतरन की तरह वह विज्ञापन पोस्ट रहती है। इनमें ये बड़े-बड़े लोग बताते हैं कि किस तरह क्रिप्टो करेंसी या किसी और जालसाजी के कारोबार में पैसा लगाकर उन्होंने कितनी कमाई की है। यह सिरे से ही जालसाजी का काम रहता है, और इसमें ऐसी धोखेबाज वेबसाइटों के लिंक भी रहते हैं। पढऩे वाले लोगों में से जो कमअक्ल लोग रहते हैं, वे इन पर भरोसा भी कर लेते हैं, और हो सकता है कि कई लोग इनमें पैसा लगा भी देते हों। आजकल मालूमी से अखबार भी इश्तहारों के साथ यह छापते हैं कि इनमें किए गए दावों की जांच लोग खुद कर लें, अखबार इसके लिए जिम्मेदारी नहीं रहेंगे, लेकिन फेसबुक जैसी दुनिया की एक सबसे बड़ी कंपनी लगातार यह धोखाधड़ी बढ़ा रही है। ऐसा भी नहीं कि फेसबुक को इसके बारे में पता न चले, इस अखबार के संपादक जो कि यह लिख रहे हैं, उन्होंने फेसबुक के ऐसे झांसे वाले पोस्ट पर बार-बार लिखा है कि यह धोखा है, और फेसबुक को इसकी शिकायत भी की है, लेकिन पैसे कमाने के चक्कर में फेसबुक जालसाजी के ऐसे इश्तहार लगातार दिखाते रहता है। अब ताजा मामला बीबीसी का एक नकली पेज बनाकर उस पर करण थापर नाम के चर्चित पत्रकार के नाम से जालसाजी को बढ़ावा देने की सिफारिश का है जिसका कि बीबीसी ने खंडन किया है, और करण थापर ने इसकी पुलिस रिपोर्ट लिखाई है।
आज अगर ट्विटर और फेसबुक जैसे खरबों के कारोबार वाले सोशल मीडिया प्लेटफार्म इतने संगठित जुर्म को बढ़ावा दे रहे हैं, तो अलग-अलग देशों के कानून के मुताबिक इन पर कार्रवाई भी करनी चाहिए। ये तरीके इतने भौंडे रहते हैं कि इनकी शिनाख्त साधारण समझ वाले लोग भी कर सकते हैं, ऐसे में फेसबुक हर कुछ दिनों में एक ही तरीके से की जा रही इस जालसाजी को पकड़ न सके, इतनी नालायक भी ये कंपनी नहीं है। दुनिया के बहुत से देशों में ये सोशल मीडिया कंपनियां तरह-तरह के मुकदमे झेल रही है, और सैकड़ों करोड़ डॉलर के जुर्माने भी भर रही है। भारत अब तक इनके साथ कुछ अधिक ही रहमदिल रहते आया है, और सिर्फ सत्ता को नापसंद सामग्री को रोकने से ही इन कंपनियों को रियायत मिलते जा रही है। इनके खिलाफ अदालत तक मामला जाना चाहिए और इन कंपनियों की जवाबदेही तय होनी चाहिए कि जालसाजों से कमाई करके लोगों को उनके जाल में फंसाने में मददगार होने का क्या नतीजा होता है।
यह तो बात हुई बड़ी कंपनयिों की जिन पर कि कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन जो लोग ऐसे इश्तहारों या झूठे इंटरव्यू के झांसे में आते हैं, उन्हें खुद भी थोड़ी सी समझदारी दिखानी चाहिए। जब देश के सबसे चर्चित लोग करिश्मे की तरह कमाई दिखाने वाले सपने दिखाते हैं, तो ऐसे इश्तहारों पर भरोसे के बजाय अपनी आम समझ पर भरोसा अधिक करना चाहिए। लोगों को अपनी इस लालच पर भी काबू रखना चाहिए कि कोई भी कानूनी तरीका उन्हें पूंजीनिवेश से कई गुना मुनाफा दिला सकता है। लोगों को यह मानना चाहिए कि ऐसे सपने दिखाने वाले लोग ठग और जालसाज होते हैं, और दो दिन में आम की गुठली से पेड़ और फसल देने के इश्तहार सिवाय जालसाजी और कुछ नहीं होते। लेकिन इंसानों की हसरत रहती है जो दो महीनों में ऊंचाई बढ़ाने, मोटापा घटाने के दावों पर भरोसा कर लेते हैं, तांत्रिक अंगूठी पहनकर गड़ा हुआ खजाना पाने पर भी भरोसा कर लेते हैं। आए दिन कई ज्योतिषी और जादूगर इश्तहार छपवाते हैं कि उनके मंत्र से किस तरह एक दिन में किसी महिला या पुरूष को गुलाम की तरह मोहित किया जा सकता है। और ऐसे इश्तहार जब लगातार छपते हैं, तो जाहिर है कि छपाई का खर्च तो निकलता ही होगा। यह 21वीं सदी आ गई है, लेकिन लोग अंधविश्वासों पर अधिक भरोसा कर रहे हैं, और रॉकेट टेक्नॉलॉजी पर कम। नतीजा यह है कि तरह-तरह के जालसाज तरक्की कर रहे हैं। किसी सयाने ने बहुत पहले कहा भी था कि जब तक बेवकूफ जिंदा हैं धूर्त भूखे नहीं मर सकते।
हर बरस या हर कुछ महीनों में झांसा देने के नए-नए तरीके इजाद किए जाते हैं, और पिछला तरीका बेअसर हो जाए, लोगों के सामने अगला धोखा पेश कर दिया जाता है। बहुत से धोखे तो बच्चों के दिमाग अधिक तेज करने के नाम पर चलते हैं, और अतिमहत्वाकांक्षी बहुत से मां-बाप अपने बच्चों को जाने कैसे-कैसे जालसाजों के पास झोंक देते हैं। हमारा ख्याल है कि सरकारों को इश्तहारों और सोशल मीडिया के जरिए या एसएमएस और ईमेल के जरिए ठगने और धोखा देने वालों पर नजर रखने के लिए अधिक तेज एजेंसी बनानी चाहिए, उसके बिना हिंदुस्तान में ही हर दिन लाखों लोग इनके शिकार हो रहे हैं।
पाकिस्तान के एक एयरफोर्स हवाई अड्डे पर आत्मघाती आतंकी हमलावर हथियार लिए हुए घुस गए हैं, दोनों तरफ से भारी फायरिंग हो रही है, एयरबेस के भीतर आग भी लग गई है, और वहां के तहरीक-ए-जिहाद नाम के संगठन ने इस हमले की जिम्मेदारी ली है। पाकिस्तानी सेना ने इस पर बयान दिया है कि सैनिकों की तुरंत जवाबी कार्रवाई से हमला नाकाम हो गया है, तीन आतंकी घुसने के पहले ही मार दिए गए, और तीन को सैनिकों ने घेर लिया है। सेना ने माना है कि हमले के दौरान वहां खड़े तीन लड़ाकू विमानों को नुकसान पहुंचा है। आतंकियों का दावा है कि उन्होंने एयरबेस पर मौजूद एक टैंक को भी नष्ट कर दिया है। खबर याद दिलाती है कि कुछ अरसा पहले इमरान खान की गिरफ्तारी के बाद उनके समर्थकों ने भी इस एयरबेस पर हमला किया था, और एक और हमले में 14 पाकिस्तानी सैनिक भी मारे गए थे। ये घटनाएं अलग-अलग तो हैं, लेकिन इनके बीच मजबूत रिश्ता यह है कि ये सब पाकिस्तान में कमजोर होते लोकतंत्र का सुबूत हैं, और वहां आतंकियों की ताकत और पहुंच भी इससे पता लगती है।
इस पर हमारे लिखने की कोई वजह नहीं बनती अगर पाकिस्तान की लोकतांत्रिक अस्थिरता, वहां की फौज की राजनीतिक दखल और हसरत, और पाकिस्तान के एक परमाणु हथियार संपन्न देश होने की सच्चाई नहीं होती। इन तीनों के साथ-साथ वहां ऐसे मजहबी दहशतगर्द फतवे देने वाले संगठन हावी हैं जिनका निशाना भारत की तरफ बने रहता है। ऐसे में एक कमजोर फौजी हिफाजत, या राजनीतिक हसरत वाली फौज जाने कब भारत के खिलाफ किसी मुहिम का फैसला कर ले, और उस वक्त कमअक्ल हाथों में अगर परमाणु हथियार रहें तो क्या हाल होगा? कहने के लिए हर देश परमाणु हथियारों के इस्तेमाल के तरीकों को मुश्किल बनाकर रखते हैं ताकि प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के स्तर पर फैसला लिए बिना ऐसा न हो सके। लेकिन सच तो यह है कि पाकिस्तान के बारे में ऐसी चर्चा रही है कि उसके वैज्ञानिकों ने दूसरे देशों को परमाणु तकनीक बेची है। दूसरी तरफ पाकिस्तान के फौजी अफसर परले दर्जे के भ्रष्ट भी सुनाई पड़ते हैं। फिर पाकिस्तान की पीठ पर चीन का हाथ है, और पाकिस्तान अमरीकी दबाव में भी है। पड़ोस के अफगानिस्तान के तालिबान अपने बहुत ही हमलावर धार्मिक उन्माद के साथ पाकिस्तान में असर रखते हैं। ऐसी मिलीजुली बहुत सारी चीजें हैं जो कि पाकिस्तान को एक बहुत खतरनाक जगह बनाती हैं। यह भी समझने की जरूरत है कि किसी भी लोकतंत्र के पड़ोस में अगर ऐसी अस्थिर और बेकाबू फौजी और आतंकी हुकूमतें चलती हैं, तो फिर अपने आपमें सुरक्षित लोकतंत्र भी चैन से नहीं सो सकते। अगर हम भारत के लगाए गए आरोपों की बात करें, तो जाने कब से ये आरोप चले आ रहे हैं कि पाकिस्तानी फौज की खुफिया एजेंसी आईएसआई भारत में आतंकी हमले करवाते रहती है। हम इसकी हकीकत नहीं जानते, लेकिन ऐसे आरोप कभी ठंडे नहीं पड़े हैं। अब सवाल यह उठता है कि भारत और पाकिस्तान के बर्बाद हो चुके रिश्तों को देखते हुए अगर सरहद के एक तरफ लोकतंत्र पूरी तरह से नाकाम दिख रहा है, फौज और आतंकियों में खूनी खींचतान चल रही है, तो फिर इनमें से कोई भी कब तक परमाणु हथियारों तक पहुंच सकेंगे, और कब उसका बेदिमाग इस्तेमाल कर पाएंगे, इसका अंदाज लगा पाना हमारे लिए मुमकिन नहीं है।
ऐसे में हिफाजत सिर्फ एक बात से हो सकती है कि भारत अपने आसपास सभी देशों को मजबूत लोकतंत्र बने रहने में मदद करे। भारत का ही एक और पड़ोसी, चीन, जिससे भारत की लगातार तनातनी चल रही है, वह एक-एक करके भारत के इर्द-गिर्द के देशों को कर्जदार बनाकर, साहूकार की तरह उन देशों की हुकूमत को गिरवी रख रहा है। ऐसे में भारत के सामने विदेश नीति की एक बड़ी चुनौती यह भी है कि वह अपने पड़ोस के, और आसपास के मालदीव सरीखे देशों को अपने खिलाफ न होने दे क्योंकि जहां भारत एक शून्य छोड़ेगा, वहां चीन समुद्री तूफान की रफ्तार से घुस जाएगा। भारत को पाकिस्तान की आंतरिक बर्बादी पर खुश नहीं होना चाहिए। भारत के बहुत से ऐसे लोग हैं जो कि एक दुश्मन माने जा रहे देश की महंगाई से, वहां की आंतरिक हिंसा से, वहां की राजनीतिक अस्थिरता से अपना सुख मानने लगते हैं। ऐसी सोच हिन्दुस्तान के लिए ही भारी पड़ सकती है क्योंकि सरहद पर किसी जंग में पाकिस्तान कमजोर पड़ सकता है, लेकिन आतंकी हमले करवाने के लिए बहुत बड़ी फौजी तैयारियां नहीं लगतीं, और पाकिस्तान का ट्रैक रिकॉर्ड शायद यह रहा है कि वहां के फौजी अफसर अपनी मर्जी से भी भारत के खिलाफ कई किस्म के काम करते रहे हैं।
अब सवाल यह उठता है कि बोलचाल के भी रिश्ते न रह जाने पर भारत किस तरह पाकिस्तान को एक मजबूत लोकतंत्र बनने में मदद कर सकता है? इसके लिए भारत को अपने तमाम पड़ोसियों से बातचीत के रिश्ते रखने होंगे, और वहां पर लोकतंत्र के लिए हमदर्दी रखनी होगी। फौजों में मुकाबला हो सकता है, लेकिन वह दोनों देशों के लिए बहुत ही महंगा पड़ता है। दूसरी तरफ जो पड़ोसी देश एक-दूसरे के साथ मतभेदों के साथ भी जीना सीख लेते हैं, उनके फौजी खर्च भी घटते हैं, और कारोबार के फायदे भी होते हैं। भारत और पाकिस्तान इस संभावना को भूलकर बरसों से एक तनातनी जी रहे हैं जो कि और अधिक खतरनाक होने की आशंका भी रखती है। भारत के लोगों को यह समझना चाहिए कि एक मजबूत लोकतंत्र की तरह पाकिस्तान भारत के भले की भी बात होगी, उससे भारत का फौजी खर्च भी घटेगा, बर्फीली पहाडिय़ों पर जमकर शहीद हो जाने वाली जिंदगियां भी बचेंगी, और सरहद के दोनों तरफ सबसे गरीब लोगों का पेट काटकर हथियार खरीदना भी कम होगा। इन सबके लिए पाकिस्तान में लोकतंत्र का मजबूत होना जरूरी है, और भारत को इसमें गंभीर दिलचस्पी लेनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट के एक जज कल वकीलों पर इस बात को लेकर खफा हुए कि अदालत के मना करने के बाद भी वकील जजों को ‘माई लॉर्डस्’ और ‘योर लॉर्डशिप्स’ जैसे अंग्रेज राज के सामंती शब्दों से संबोधित करते हैं। उन्होंने भडक़कर एक सीनियर वकील को कहा- आप कितनी बार माई लॉर्डस् कहेंगे? अगर आप यह कहना बंद कर देंगे तो मैं आपको अपनी आधी तनख्वाह दे दूंगा। जज पी.एस.नरसिम्हा ने सुनवाई के दौरान कहा आप इसके बजाय ‘सर’ का उपयोग क्यों नहीं करते? उल्लेखनीय है कि बार कौंसिल ऑफ इंडिया ने 2006 में एक प्रस्ताव पारित किया गया था जिसमें निर्णय लिया गया था कि कोई भी वकील ‘माई लॉर्डस्’ और ‘योर लॉर्डशिप्स’ जैसे संबोधन का इस्तेमाल नहीं करेंगे, लेकिन वकील इस पर टिके नहीं रहे, और कभी इसका इस्तेमाल बंद नहीं हुआ। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम अदालती या सरकारी कामकाज में ऐसे तमाम सामंती प्रतीकों के खिलाफ लगातार लिखते आए हैं। एक वक्त था जब राष्ट्रपति और राज्यपालों को महामहिम कहा जाता था। इसके बाद प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति रहते हुए 2012 में औपनिवेशिक काल के प्रतीकों, हिज एक्सीलेंसी, या महामहिम जैसे संबोधनों और आदर्श सूचक शब्दों का इस्तेमाल बंद करवा दिया था। और उसकी राष्ट्रपति महोदय जैसे साधारण शब्द लागू करवाए थे। इसके अलावा उन्होंने यह भी किया था कि राष्ट्रपति की मौजूदगी वाले समारोह यथासंभव राष्ट्रपति भवन परिसर में ही किए जाएं ताकि पुलिस और दूसरी एजेंसियों पर बोझ न पड़े, और जनता को दिक्कत न हो। उस वक्त भी हमने इस फैसले की तारीफ में लिखा था, और तुरंत ही देश के सभी राज्यपालों ने राष्ट्रपति के इस फैसले पर अमल शुरू कर दिया था।
कुछ तो हिन्दुस्तानियों को पांव छूने का शौक रहता है, और कुछ पांवों को अपने आपको छुआने में भी मजा आता है। फिर जब आपसी संपर्क और संबंध चापलूसी के दर्जे के हों, तो फिर यह सिलसिला बढ़ते ही चलता है। हिन्दुस्तान में राष्ट्रपति और राज्यपाल तो दूर रहे, कई प्रदेशों में कलेक्टरों के कार्यालय सहायक (चपरासी) भी अलग किस्म की वर्दी पहनते हैं ताकि वे अपने साहब की अतिरिक्त ताकत के प्रतीक बने रहें। अभी पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में नामांकन हुए हैं, और नामांकन लेने वाले अधिकारी अलग ऊंचे मंच पर बैठे रहते हैं, और अदालत के जजों की तरह वे सामने खड़े हुए लोगों से कागज लेते हैं। सामने खड़े हुए लोग मंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद, और विधायक जैसे निर्वाचित लोग भी रहते हैं, और दूसरे उम्मीदवार भी। अब इस बात का क्या तर्क हो सकता है कि लोकतंत्र में चुनाव लडऩे और जनप्रतिनिधि बनने के लिए जो लोग आ रहे हैं, उनको सामने ऐसे खड़ा रखा जाए? अगर आ रहे सभी लोगों से बराबरी का बर्ताव रखना है, तो भी नामांकन के कागज लेने वाले अफसर को हर उम्मीदवार के लिए उठकर खड़ा होना चाहिए, और सामने बैठने को कुर्सियां देनी चाहिए। यह एक अलग किस्म का प्रशासनिक अहंकार है जो कि जनप्रतिनिधियों को सामने खड़ा रखकर संतुष्ट होता है। निष्पक्षता और बराबरी का आसान तरीका भी हो सकता है कि हर उम्मीदवार और उसके प्रस्तावक-समर्थक को बैठने को कुर्सियां दी जाएं।
भारत कहने को तो लोकतांत्रिक है, लेकिन यहां पर छोटे-छोटे ओहदों पर बैठे हुए लोग भी अपने बड़े-बड़े अहंकारों को ढोकर चलते हैं। बड़ी अदालतों के जिन जजों को लोकतंत्र में बराबरी कायम करना चाहिए, वे भी अपने खुद के लिए खास सहूलियतें जुटाते हुए अपने को औरों से महान साबित करते रहते हैं। अभी कुछ अरसा पहले एक ट्रेन में हाईकोर्ट के एक जज को ठीक से खाना नहीं मिला, तो उन्होंने अगले दिन जज की हैसियत से रेलवे के अफसरों को नोटिस देकर बुलवा लिया। इस खबर को पढक़र सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने बड़ी कड़ाई से सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के तमाम जजों को चिट्ठी लिखी कि जजों को प्रोटोकॉल के शिष्टाचार के तहत मिलने वाली सहूलियतों को अपना हक नहीं मान लेना चाहिए, और इनका इस तरह इस्तेमाल नहीं करना चाहिए कि दूसरों को दिक्कत हो, और न्यायपालिका के लिए जनता के मन में हिकारत पैदा हो। मुख्य न्यायाधीश ने यह भी लिखा कि शिष्टाचार के तहत मिलने वाली सहूलियतों को विशेषाधिकार मानकर उनके हक का दावा करना उन्हें समाज से अलग कर देता है, या एक अलग किस्म की सत्ता का प्रतीक बना देता है।
हम हमेशा यह लिखते आए हैं कि हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जजों को किसी राज्य में सडक़ के रास्ते आने-जाने पर पुलिस वहां खास इंतजाम करती है, और जज की कार के आगे पायलट गाड़ी चलती है, आगे के थानों को खबर की जाती है, और आम जनता को सडक़ से किनारे किया जाता है, ताकि जज बिना बाधा के रफ्तार से निकल सकें। यह सिलसिला बहुत भयानक रहता है। सत्ता का अश्लील और हिंसक प्रदर्शन करने वाले जज तो कई बार, या अक्सर ही ऐसा करते हैं, लेकिन जजों को ऐसे शक्ति-प्रदर्शन या अहंकार-प्रदर्शन से बचना चाहिए। वे रास्ते का आधा-एक घंटा बचाकर न तो किसी को फांसी देने जा रहे हैं, और न ही किसी की फांसी रोकने। ऐसे में आम जनता के मन में हीनभावना और हिकारत दोनों साथ-साथ पैदा करते हुए जज भला क्या हासिल करते होंगे? हमारा ख्याल है कि सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ को कुछ महीने पहले की अपनी चिट्ठी का और विस्तार करना चाहिए, और जजों की सामंती सोच, या वकीलों के चापलूसी के अंदाज को खत्म करना चाहिए। अब आजादी मिले भी पौन सदी हो चुकी है, और इस लोकतंत्र को अंग्रेजों के छोड़े पखाने का टोकरा सिर पर नहीं ढोना चाहिए। वैसे भी भारत में सिर पर पखाना ढोना जुर्म करार दिया जा चुका है।
हिन्दुस्तान में दो दिनों से इस बात को लेकर हंगामा मचा हुआ है कि सत्तारूढ़ भाजपा-एनडीए से परे के बहुत से नेताओं के आईफोन पर एप्पल कंपनी की तरफ से यह चेतावनी आई है कि कोई स्टेट-एजेंसी उनका फोन हैक करने की कोशिश कर रही है। पश्चिम की अंग्रेजी जुबान में ऐसी स्टेट-एजेंसी का मतलब कोई सरकारी एजेंसी होता है। इस पर सोशल मीडिया पर जब इन नेताओं ने बवाल खड़ा किया, तो भारत सरकार ने बिना देर किए इस मामले की जांच करवाने की बात कही। इतनी तेजी से जांच की बात उस वक्त नहीं आई थी जब दो बरस पहले पेगासस नाम के इजराइली फौजी-खुफिया सॉफ्टवेयर से हैकिंग के आरोप सामने आए थे। इस बार सरकार के पास शायद छुपाने को कुछ नहीं है इसलिए उसने जांच की बात कही है, और एप्पल कंपनी को नोटिस जारी किया है, जबकि पिछली बार सुप्रीम कोर्ट तक मामला जाने पर भी मोदी सरकार ने इस पर भी कुछ कहने से इंकार कर दिया था कि उसने पेगासस खरीदा है या नहीं। वह जांच अभी चल ही रही है, और सुप्रीम कोर्ट की बनाई गई विशेषज्ञ कमेटी पेगासस-हैकिंग के आरोंपों की जांच कर रही है। इस बीच अब एप्पल के फोन पर ऐसी घुसपैठ की कोशिश की चेतावनी आई है, तो आरोप फिर केन्द्र सरकार पर लग रहे हैं। लेकिन इस मामले को पूरी तरह से समझने के लिए यह जिक्र जरूरी है कि एप्पल ने बताया है कि उसके कम्प्यूटरों से जाने वाली ऐसी चेतावनियों में कुछ झूठी चेतावनियां भी हो सकती हैं, और कंपनी ने यह भी कहा है कि सरकार की तरफ से घुसपैठ करने वाले हैकर्स को कंपनी सपोर्ट करती है। दुनिया की सरकारों के पास अपने-अपने देश के कानून के मुताबिक घुसपैठ के अधिकार रहते हैं, और शायद एप्पल ने वैसे ही अधिकारों के तहत सरकारी एजेंसियों का साथ देने की बात कही है। कंपनी ने यह भी साफ किया है कि ऐसी चेतावनी उसके कम्प्यूटरों से क्यों जारी हुई है, वह इस बारे में भी कुछ बताना नहीं चाहती क्योंकि इससे हैकर्स को मदद मिल सकती है। यह भी दिलचस्प है कि अभी एप्पल की तरफ से 150 देशों में लोगों को ऐसी चेतावनी जारी हुई है, और जाहिर है कि इन डेढ़ सौ देशों में वहां की सरकारी एजेंसियों ने रातों-रात तो ऐसा काम करना शुरू नहीं किया होगा।
अब हम इस मामले की और तह तक जाना नहीं चाहते, क्योंकि यह जांच की बात है, और भारत सरकार ने इसकी पूरी जांच की घोषणा कर दी है। लेकिन इसी के साथ एक दूसरे मामले को जोडक़र देखने की जरूरत है। लोकसभा सदस्य महुआ मोइत्रा पर पिछले कुछ दिनों से ये आरोप खबरों में हैं कि उन्होंने अडानी के खिलाफ जो दर्जनों सवाल पूछे थे, उसकी जानकारी उन्हें अडानी के एक प्रतिद्वंद्वी कारोबारी दर्शन हीरानंदानी से भी मिलती थी, जिन्हें वे अपना निजी मित्र बता रही हैं। ऐसे में इस विवाद में और पेट्रोल डालने के लिए महुआ मोइत्रा के एक पिछले प्रेमी वकील की सीबीआई को की गई यह शिकायत भी है कि महुआ ने दर्शन हीरानंदानी से तरह-तरह के खर्चीले उपहार लेकर, उनके एहसान लेकर ये सवाल पूछे थे। अब निराश या टूटे दिल वाले पिछले प्रेमी से ऐसी बातें आ सकती थीं, लेकिन जब दर्शन हीरानंदानी ने भी यह हलफनामा दिया कि महुआ मोइत्रा ने उनसे खर्चीले तोहफे वसूले, दिल्ली के सरकारी बंगले में उनसे काम करवाया, उन पर और कई किस्म के बोझ भी डाले, और इसके एवज में उन्होंने सांसद का अपना ई-मेल खाता दर्शन हीरानंदानी के हवाले कर दिया था कि वे वहां से सीधे भी सवाल लोकसभा सचिवालय भेज सकते थे। यह अपने आपमें एक बड़ा दुराचरण लगता है, और अब लोकसभा की इथिक्स कमेटी इसकी जांच कर रही है। चूंकि महुआ मोइत्रा प्रधानमंत्री और अडानी दोनों के खिलाफ असाधारण दर्जे की हमलावर थीं, इसलिए जाहिर है कि सरकार के सभी संबंधित विभाग इस जांच में लगे होंगे कि महुआ मोइत्रा ने क्या-क्या गलत काम किए हैं। और ऐसे ही निकली हुई एक बात कल केन्द्र की सत्ता की तरफ से मीडिया को बताई गई है कि हीरानंदानी के दफ्तर से, दुबई से महुआ मोइत्रा के संसदीय अकाऊंट को 47 बार इस्तेमाल किया गया था। कोई सांसद किसी दोस्त के दफ्तर को कभी एक-दो बार इस तरह इस्तेमाल कर ले, वह अलग बात होगी, लेकिन अगर 47 बार वहां से लोगों ने संसदीय अकाऊंट खोला था, और उस पर सवाल डाले थे, तो यह महुआ मोइत्रा के इस कारोबारी से बड़े असाधारण संबंधों को बताने वाली बात है। और जब कोई सांसद देश के सबसे ताकतवर लोगों से आर-पार की लड़ाई मोल लेते हैं, तो फिर उन्हें इतना सावधान भी रहना चाहिए कि उनका अपना चाल-चलन संसदीय और सार्वजनिक नैतिकता के पैमानों पर सही हो।
इन दो अलग-अलग घटनाओं को जोडक़र देखने पर हमें यही समझ आताा है कि अब टेक्नालॉजी की निगरानी का ऐसा बुरा वक्त आ गया है कि लोगों की जिंदगी में कुछ भी निजी नहीं रह गया। न उनके फोन, न कम्प्यूटर, और न ही उनके ईमेल जैसे खाते। यह नौबत बढ़ती ही चली जानी है, दो दिन पहले की ही खबर है कि किस तरह हिन्दुस्तान के 81 करोड़ लोगों की आधार कार्ड से जुड़ी जानकारियां इंटरनेट पर अपराधियों के बीच बिक्री के लिए रखी गई है, और उसका मोलभाव चल रहा है। इसे दुनिया की एक बड़ी साइबर सुरक्षा कंपनी ने सामने रखा है, और उसका कहना है कि ये जानकारियां आईसीएमआर नामक भारत सरकार के संगठन के कम्प्यूटरों से चुराई गई लगती है। लोगों को याद रहना चाहिए कि कोरोना की वैक्सीन लगाने की जानकारियां शायद इसी संस्था के पास रहती थी, या आईसीएमआर की पहुंच वहां तक रहती थी। इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च कोरोना को लेकर तमाम किस्म के विश्लेषण कर रहा था, और कोरोना-रणनीति भी तय कर रहा था। अब वहां से अगर 81 करोड़ लोगों की जानकारियां बाजार में बिकने को हैं, तो यह एक बहुत ही खतरनाक नौबत है। कुल मिलाकर हकीकत यह है कि लोगों के निजी फोन हों, या किसी तरह के भी ईमेल अकाऊंट हों, या सरकार के आंकड़ों का डाटाबेस हो, इनमें से कुछ भी महफूज नहीं है। दूसरी बात यह कि आज दुनिया में ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का इस्तेमाल जितना हो चुका है, उससे ऐसे किसी भी डाटाबेस से जनता की सेहत और उसकी बाकी जानकारियों को पल भर में निकाला जा सकता है, उसका विश्लेषण किया जा सकता है। ऐसे में सरकारों को गैरजरूरी जानकारी न मांगना चाहिए, न रखना चाहिए क्योंकि किसी भी तरह से जानकारी की हिफाजत करना आसान नहीं रहता। और लोगों को अपने निजी उपकरणों से, निजी ऑनलाईन अकाऊंट से आपत्तिजनक बातें हटा देनी चाहिए, और अगर कोई गलत काम किया है तो उसकी जानकारी भी हटा देनी चाहिए। हैकरों के हाथों ब्लैकमेल होने से बेहतर है कि अपना चाल-चलन ही सुधार लें, और अपने हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर भी अपने कुकर्मों से मुक्त रखें।
आज देश के कुछ या कई हिस्सों में करोड़ों हिन्दी महिलाएं करवा चौथ मनाएंगी। वे दिन भर भूखी रहेंगी, और शाम को पति का चेहरा, या चांद देखने के बाद खाएंगी। पति की मंगलकामना के लिए किया जाने वाला यह उपवास बड़ा महत्वपूर्ण माना जाता है, और पत्नी के इसी समर्पण को ध्यान में रखते हुए मर्द बिना हेलमेट दुपहिया चलाते हैं, बिना सीट बेल्ट कार, और उन्हें भरोसा रहता है कि पत्नी के करवा चौथ के बाद अब यमराज उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यह तो साल में एक दिन की बात है, हिन्दुओं में साल के कुछ और ऐसे त्यौहार हैं जो महिलाएं पति के लिए करती हैं, या बेटों के लिए। शादीशुदा महिलाएं गले में मंगलसूत्र पहनती हैं, जो कि पति के मंगल की भावना बताता है, इसके अलावा महिलाएं माथे पर बिंदी लगाती हैं, मांग में सिंदूर भरती हैं, कलाईयों पर चूडिय़ां पहनती हैं, पांव की उंगलियों में बिछिया पहनती हैं, और कोई एक ऐसी कहानी भी है कि सावित्री किस तरह सत्यवान को मौत के मुंह से निकाल लाई थी।
हिन्दुस्तान के हिन्दू धर्म में तमाम कहानियां और रीति-रिवाज पति और पुत्र की भलाई के लिए हैं, और पत्नी या पुत्री की हिफाजत के लिए कोई उपवास नहीं है, कोई रीति-रिवाज नहीं है। और फिर मनुस्मृति में सैकड़ों-हजारों बरस से यह सिखाया हुआ भी है कि किस तरह एक महिला शादी के पहले पिता की आश्रित रहती हैं, शादी के बाद पति की, और पति के चले जाने के बाद पुत्र की आश्रित रहती हैं। एक महिला पर किस-किस तरह का जुल्म किया जा सकता है, इसकी सारी तकनीक मनुस्मृति में खुलासे से बताई गई है, और उपवास के नाम पर महिलाओं को दिन भर भूखा रखना, या निर्जला रखना, उसी पुरूषप्रधान सोच का एक सुबूत है। यह सिलसिला दुनिया की कई दूसरी संस्कृतियों के मुकाबले औरत और मर्द में अधिक बड़ा भेदभाव करने वाला है, और यह कन्या भ्रूण की हत्या से लेकर एक महिला के पति खोने पर उसे विधवा कहकर बाकी जिंदगी उसका तिरस्कार करने तक जारी रहता है।
करवा चौथ के दिन यह भी समझने की जरूरत है कि घर को चलाने वाली, और बहुत से मामलों में बाहर कमाने वाली, अपने जन्म से परे के ससुराल के लोगों को अपनाने वाली महिला के लंबे जीवन के लिए, उसके कल्याण के लिए न पति कुछ करता, न पुत्र कुछ करता। हिन्दू धर्म में ऐसे कोई रीति-रिवाज नहीं बनाए गए हैं कि दस-बीस साल में एक बार पति भी अपनी पत्नी के लिए उपवास रख ले, या पुत्र मां को वृद्धाश्रम छोडऩे के पहले उसके स्वस्थ जीवन की कामना के लिए कुछ कर ले। पुत्र पर सिर्फ मां-बाप के गुजर जाने के बाद उनके श्राद्ध की जिम्मेदारी आती है जहां कौएं के मार्फत गुजरे हुए मां-बाप को खाना खिला दिया जाता है। इससे परे जीते-जी मां-बाप के लिए आल-औलाद का कोई रिवाज नहीं बनाया गया है। हालत यह है कि हिन्दुस्तान में परिवार के भीतर अंगदान करने वाली 90 फीसदी महिलाएं होती हैं, जो परिवार के पुरूषों को अंगदान करती हैं। अंग पाने वाले लोगों में 10 फीसदी ही महिलाएं होती हैं। और अंगदान करने वाले लोगों में 10 फीसदी ही पुरूष होते हैं। इसलिए धार्मिक रीति-रिवाजों से लेकर, सामाजिक प्रतीकों को ढोने तक का जिम्मा महिलाओं का रहता है, और परिवार के, मायके और ससुराल दोनों तरफ के लोगों को अंगदान का जिम्मा भी उसी का रहता है। घर में बाकी सबके खाना खा लेने के बाद ही खाने का जिम्मा भी उसका रहता है, और कुछ बहुत अधिक तकलीफजदा परिवारों में परिवार चलाने के लिए देह बेचने की मजबूरी भी उसी पर रहती है।
अब 21वीं सदी भी तकरीबन एक चौथाई गुजर रही है, और ऐसे में लडक़े और लड़कियों में, औरत और मर्द में बराबरी सिर्फ कानून में नहीं, जमीन पर भी होनी चाहिए। जाति और धर्म के जो रीति-रिवाज गैरबराबरी बताते हैं, उनको भी खत्म करने की जरूरत है। मर्द जो चाहे करता रहे, और औरत उसके मंगल की कामना में दुबली होती रहे, यह मानवाधिकार के भी खिलाफ है। समाज में औरत को हक न तो सिर्फ कानून से मिल सकते, और न ही समाज सुधार से। इन दोनों का एक मिलाजुला असर ही महिलाओं की हालत सुधार सकता है। हिन्दुस्तान का इतिहास गवाह है कि सतीप्रथा इसी तरह बंद हो पाई थी, और बालविवाह के नाम पर छोटी-छोटी बच्चियों को ससुराल भेज देने की परंपरा भी ऐसी मिलीजुली कोशिश से काफी कम हुई हैं। करवा चौथ औरत और मद के बीच भेदभाव का एक बड़ा त्यौहार है, इसे खत्म करने की सलाह देना बहुत से लोगों को हिन्दू धर्म पर हमला लग सकता है क्योंकि अधिकतर मर्दों को इसमें कोई बुराई नहीं दिखती है, और अधिकतर औरतें इतना सामाजिक दबाव झेलती हैं कि वे किसी सुधारवादी आंदोलन के बजाय ऐसी परंपराओं को ढो लेना अधिक आसान समझती हैं। चाहे जिस किसी धर्म में हो, जहां कहीं महिलाओं से भेदभाव के रीति-रिवाज हों, उन्हें खत्म करना ही चाहिए। आज अगर परिवारों में बच्चे इस तरह की परंपरा को देखते हुए बड़े होते हैं, तो उनमें से लडक़े इसकी उम्मीद करेंगे, और लड़कियां ऐसा उपवास करने का एक नैतिक दबाव जिंदगी भर झेलेंगी। आज एक तरफ तो महिलाओं की बराबरी के लिए कई तरह की कोशिशें हो रही हैं लेकिन दूसरी तरफ ऐसे पुराने और भेदभाव वाले रीति-रिवाजों को खत्म करने के बारे में बात करना भी लोगों के हमलों को न्यौता देना हो जाएगा। फिलहाल किसी न किसी को तो बुराई मोल लेकर बराबरी की बात करनी ही होगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान का चुनाव आयोग एक वक्त टी.एन.शेषन की मेहरबानी से देश की एक सबसे ताकतवर संवैधानिक संस्था बना था, और ऐसा लगता है कि उस साख को बाद में लगातार खोते चले गया। अब तो नए चुनाव आयुक्त बनाने के लिए जो तरीका केन्द्र सरकार ने बनाया है उससे आयोग सरकार के ही एक विभाग की तरह होकर रह जाएगा। आज भी चुनाव आयोग के सामने अलग-अलग पार्टियों की तरफ से जो शिकायतें जा रही हैं, उन्हें मानो पार्टी का चेहरा देखकर सही या गलत ठहराया जा रहा है। जिस तरह आज देश और दुनिया में किसी लाश का मजहब जानने के बाद ही उस पर आंसू बहाए जाते हैं, या उसे अनदेखा किया जाता है, ठीक उसी तरह चुनाव आयोग अलग-अलग पार्टियों या नेताओं के चेहरे देखकर कार्रवाई करते दिखता है। लेकिन आज हमारा लिखने का मकसद आयोग की आलोचना से कुछ अधिक भी है।
चुनावों में जिन सीटों पर सीमा से बहुत अधिक खर्च की आशंका रहती है, वहां पर आयोग निगरानी रखने के लिए अलग से ऑब्जर्वर तैनात करता है जो कि आमतौर पर भारतीय राजस्व सेवा, या कस्टम जैसे विभागों से आए रहते हैं, और जो खर्च का हिसाब बेहतर निकाल सकते हैं। लेकिन इसके बावजूद जो उम्मीदवार अंधाधुंध खर्च के लिए जाने जाते हैं, जहां सीमा से सौ-सौ गुना खर्च होता है, वैसी सीटें पहले से सबको पता रहती है, और यह भी पता रहता है कि कौन से उम्मीदवार ऐसा खर्च करेंगे। लेकिन ऐसा खर्च भी आयोग के इन खास पर्यवेक्षकों को या तो दिखता नहीं है, या वे उस पर हाथ नहीं डाल पाते। यह एक बड़ी वजह है कि भारतीय चुनाव लोकतांत्रिक क्यों नहीं रह पाते, और क्यों सबसे संपन्न उम्मीदवारों की जीत की संभावना सबसे अधिक रहती है। सच तो यह है कि पार्टियां भी अब किसी को उम्मीदवार बनाते हुए यह तौलती हैं कि वे चुनाव में खर्च कितना कर पाएंगे? और इस खर्च का मैनेजमेंट करने की उनकी क्षमता है या नहीं? इस तरह भारतीय संसद और विधानसभाओं में धीरे-धीरे अतिसंपन्न लोग भरते चले जा रहे हैं। यह एक अलग बात है कि अगर कुछ मामूली लोग भी वहां पहुंच जाते हैं, तो भी वे एक कार्यकाल खत्म होते-होते खासे संपन्न हो जाते हैं।
जब चुनाव की उम्मीदवारी पाने में संपन्न की संभावना अधिक हो, और उस संपन्नता से वोट पाने की संभावना अधिक हो, तो फिर लोकतंत्र के जिंदा रहने की संभावना रह कहां जाती है। और अगर खर्च से परे की बातों को भी देखें, तो कई पार्टियां और उम्मीदवार, या उनके स्टार-प्रचारक जिस तरह की नफरती, हिंसक, साम्प्रदायिक बातें करते हैं, उससे भी जाहिर है कि लोगों को लोकतांत्रिक फैसला नहीं लेने दिया जा रहा है, और उनको ऐसे अलोकतांत्रिक और हिंसक असर का शिकार बनाकर उनके वोटों का ध्रुवीकरण किया जा रहा है। धर्म और जाति का जितना खुलकर इस्तेमाल हिन्दुस्तानी चुनाव में हो रहा है, वह अपने आपमें चुनावों के मकसद को खत्म कर रहा है। लोगों को चुनाव में भेड़ों की रेवड़ की तरह एक ही खड्ड में गिराने के लिए नेता और उनकी पार्टियां धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवीकरण में लगी रहती हैं, और लोगों की लोकतांत्रिक समझ खत्म करने में भी। इसलिए कि जिनकी लोकतांत्रिक समझ रहेगी, वे अपने वोट बेचेंगे नहीं, या धर्म और जाति की नफरत के आधार पर नहीं देंगे।
अपने आसपास हम देखते हैं तो लगता है कि कोई पार्टी या उम्मीदवार जितने वोटों से जीतते हैं, उससे कई गुना अधिक वोट कालेधन, या साम्प्रदायिकता की बदनीयत के झांसे में आए रहते हैं। ऐसा लगता है कि जीत हासिल नहीं की जाती, खरीदी जाती है, या हिंसक भडक़ावे से पाई जाती है। जब हार-जीत का फासला देखें तो लगता है कि उससे कई गुना अधिक बिके हुए वोट, और साम्प्रदायिक वोट रहते हैं, जो कि यह साबित करते हैं कि जीत और हार किसी भी कोने से लोकतांत्रिक नहीं है। ऐसा लगता है कि बिना हिंसा के एक मशीनी मतदान करवा देने को ही लोकतांत्रिक चुनाव मान लिया गया है, जबकि यह चुनाव न होकर सिर्फ मतदान है। चुनाव तो तब हो सकता है जब लोगों को खरीद-बिक्री करने न मिले, भडक़ाने न मिले, हिंसा और नफरत की बातें करने न मिले। लेकिन हिन्दुस्तानी चुनाव अब इन तमाम चीजों की गिरफ्त में आ गए हैं। पार्टियों के पास सैकड़ों करोड़ रूपए हैं, और अभी जब सुप्रीम कोर्ट में इस बारे में मामला पहुंचा, तो केन्द्र सरकार ने वहां कहा कि राजनीतिक दलों को चुनावी बॉंड से जो दान मिलता है, उसके बारे में कोई भी जानकारी पाने का जनता को हक नहीं है। यह किस किस्म की पारदर्शिता है? ऐसे लुके-छिपे काम में तो सरकार से अपना काम निकलवाने वाले लोग सत्तारूढ़ पार्टी को दलाली, कमीशन, या रिश्वत देने के लिए उस पार्टी के बॉंड खरीद लेंगे, और जनता को यह पता भी नहीं लगेगा कि यह रकम किस एवज में दी गई है। हम यह उम्मीद करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट केन्द्र सरकार के इस रूख के पीछे की बेईमानी और खतरों को समझेगा, और राजनीतिक दान को सौ फीसदी पारदर्शी बनाएगा। कारोबारियों से लिए जाने वाले चंदे के बारे में जनता को जानने का हक क्यों नहीं होना चाहिए जबकि सत्ता या विपक्ष में बैठी पार्टियां ऐसे कारोबारियों के गलत धंधों को बचाने के लिए गिरोहबंदी भी कर लेती हैं।
चुनावों में पार्टियों और उम्मीदवारों के अंधाधुंध खर्च पर रोक लगाने के लिए मजबूत इच्छाशक्ति वाले चुनाव आयोग और पर्यवेक्षकों की जरूरत रहती है। इन लोगों को सत्तारूढ़ या सत्ता पर आने की संभावना वाली पार्टियों के आतंक से आजाद भी रहना चाहिए। आज पैसे वाले नेता, और पार्टियां जितने बेधडक़ होकर चुनाव कानून तोड़ते हैं, अंधाधुंध खर्च करते हैं, वह सिलसिला खत्म होना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केरल में कल येहोवा विटनेस ईसाई समुदाय के एक सभा भवन में एक धमाका हुआ जिसमें तीन महिलाओं की मौत हो गई, और 50 से अधिक लोग जख्मी हुए हैं। इस बीच इतवार की सुबह प्रार्थना के वक्त धमाके करने वाले एक व्यक्ति ने सामने आकर उसकी जिम्मेदारी ली है, और कहा है कि इस समुदाय (या सम्प्रदाय) की शिक्षाएं देशविरोधी हैं, इसलिए उसने ऐसा किया है। उसने यह भी कहा कि 16 बरस पहले वह इस चर्चा से जुड़ा हुआ था, लेकिन 6 बरस पहले उसने चर्च को चेतावनी दी थी कि वह देशविरोधी काम करता है, और उसने ये हमले किए। इस चर्च के लोगों का कहना है कि वह किसी भी धार्मिक या राजनीतिक आंदोलन में नहीं रहता, न विरोध करता, न समर्थन करता, और इस हमले के एक दिन पहले शनिवार को इजराइल और गाजा के बीच चल रहे संघर्ष पर उसने एक प्रार्थना सभा आयोजित की थी, जिसके अगले दिन यह हमला हुआ। केरल के बहुत से परिवारों में कोई सदस्य किसी और चर्च में है, और कोई दूसरे सदस्य येहोवा विटनेस नाम के इस छोटे समूह से जुड़े हुए हैं। हमलावर ने एक वीडियो में कहा है कि यह चर्च बच्चों को राष्ट्रगान से रोकता है, उनके बड़े होने पर उन्हें वोट न देने, सेना में न जाने, या सरकारी नौकरी न करने की नसीहत उन्हें दी जाती है। उसका यह भी कहना है कि यह चर्च लोगों को अपने से परे रहने पर तबाह हो जाने की बात कहता है।
इस चर्च से परे, और इस हमलावर से परे, जो बात परेशान करने वाली है, वह यह है कि हिन्दुस्तान में धर्म का एक और चेहरा इस तरह हिंसक और जानलेवा हो रहा है, और धर्म के हिमायती, या उसके विरोधी इस तरह आतंकी हमले कर रहे हैं। यह सिलसिला बहुत खतरनाक इसलिए है कि हिन्दुस्तान में धर्म की दखल बहुत अधिक है, और आज देश में किसी भी दूसरे राजनीतिक या सामाजिक मुद्दे से ऊपर धर्म हावी हो जाता है। धर्मों के बीच इस देश में टकराव भी खड़ा किया जा रहा है, एक-दूसरे के खिलाफ नफरत भी फैलाई जा रही है, और भारतीय लोकतांत्रिक संस्थाएं, संवैधानिक संस्थाएं लोगों के बीच धर्म के आधार पर बड़ा भेदभाव कर रही है। एक तरफ इस देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात हो रही है, दूसरी तरफ एक वक्त के अखंड भारत कहे जाने वाले नक्शे को फिर जिंदा करने की बात होती है, देश के हर चुनाव में धार्मिक ध्रुवीकरण की कोशिश होती है जो कि बढ़ते-बढ़ते साम्प्रदायिकता-आधारित ध्रुवीकरण में तब्दील हो जाती है। नतीजा यह है कि धर्म इस देश की कानून व्यवस्था को भी कुचलने जितना ताकतवर हो गया है, और हिन्दुस्तान के अंतरराष्ट्रीय संबंधों को भी नुकसान पहुंचाने लायक। इन सबके बीच यह भी है कि देश में कुछ ताकतें धर्म को चुनाव जीतने का एक सबसे बड़ा हथियार मान रही हैं, और इसका इस्तेमाल बढ़ते ही चल रहा है। कहने के लिए एक फर्जी लाईन गढ़ी और कही जाती है कि हर धर्म शांति सिखाता है, और आज धर्मों की जो शक्ल जमीन पर दिखती है, वह इसके ठीक खिलाफ है।
केरल के ईसाईयों के बीच एक छोटे समुदाय पर जैसा हिंसक हमला हुआ है, वह एक अकेले हमलावर की ताकत भी बताता है कि किस तरह छोटी सी जगह पर जुटने वाले बहुत से धर्मालुओं पर कैसे आसानी से हमला किया जा सकता है। अगर यह केरल में हो रहा है, तो दूसरे प्रदेशों में भी हो सकता है, और अगर ईसाईयों पर हो रहा है तो दूसरे धर्मों के लोगों पर भी हो सकता है। फिर एक और बात यह भी है कि दुनिया के दूसरे देशों में अगर किसी धर्म पर हमला होता है, तो उसकी एक प्रतिक्रिया भी बाकी देशों में होती है, और केरल में यह जांच चल रही है कि शनिवार को इजराइल-गाजा संघर्ष पर चर्च में हुई सभा के अगले ही दिन हुए इस हमले से क्या ऐसे लोगों का लेना-देना हो सकता है जो कि इजराइल या फिलीस्तीन को लेकर विचलित हैं। ऐसी नौबतें और भी आ सकती हैं, और हिन्दुस्तान के कई लोग इस बात को लेकर भी विचलित हो सकते हैं कि दो दिन पहले संयुक्त राष्ट्र महासभा में जब गाजा पर हमले रोकने या युद्धविराम करने की बात आई, तो हिन्दुस्तान ने उस पर मतदान करने से मना कर दिया, और वहां से चले गया। इसके बाद फिलीस्तीनी संगठन हमास की निंदा का संशोधन जब जोड़ा गया, तो हिन्दुस्तान ने सिर्फ उस संशोधन पर समर्थन का वोट दिया। दुनिया भर के मुस्लिम फिलीस्तीन के मुद्दे से जुड़े हुए हैं, और हिन्दुस्तान गांधी और नेहरू के वक्त से लेकर अटल बिहारी बाजपेयी के विदेश मंत्री रहने तक भारत की फिलीस्तीन नीति को साफ-साफ कहते आए हैं कि फिलीस्तीन को एक मुल्क रहने का हक है। अब हिन्दुस्तानी प्रधानमंत्री ने देश की घोषित विदेश नीति से परे जाकर जिस तरह इजराइल के साथ एकजुटता दिखाई है, उसने हिन्दुस्तान के विपक्ष को, मीडिया के लोगों को, और इस देश के मुस्लिमों को हक्का-बक्का कर दिया है। केरल की इस ताजा वारदात के पीछे कोई साम्प्रदायिकता हो न हो, यह बात तो साफ है कि देश में किसी धर्म के लोगों का अधिक विचलित होना यहां की आंतरिक शांति और सुरक्षा के लिए खतरा हो सकता है, जैसा कि कल केरल में सामने आया है। इसलिए भारत की सरकार और बाकी तमाम ताकतों को भी दुनिया में हो रहे धार्मिक टकराव, या ऐसे टकराव जिनसे धार्मिक टकराव उपज रहा हो, उन सबको बारीकी से देखना होगा, और भारत की प्रतिक्रिया उन पर ऐसी रखनी होगी कि इस देश में नफरत और तनाव न फैले। यहां पर आकर देश और प्रदेश की सरकारों की धर्मनिरपेक्षता, या साम्प्रदायिकता, इनसे एक बड़ा फर्क पड़ेगा। केरल से हमने बात शुरू की है, लेकिन केरल पर बात खत्म नहीं हो रही है, इससे एक सबक शुरू हो रहा है, और उस सबक का एक तर्कपूर्ण नतीजे तक जाना जरूरी है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अभी दीवाली दूर है, और दिल्ली की हवा में प्रदूषण बहुत खराब केटेगरी तक पहुंच गया है। चारों तरफ धुंध छाई है, धुआं सा दिख रहा है, और सुबह की सैर पर निकले लोग भी मास्क लगाए हुए हैं। जैसा कि हर बरस होता है दीवाली पर फटाके जलाने को लोग अपना धार्मिक विशेषाधिकार मान लेते हैं, और इस पर रोक को हिन्दू धर्म पर हमला करार देते हैं। कोई भी अदालत, या नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल धार्मिक भावनाओं के ऊपर वैज्ञानिक समझ लागू नहीं कर पाती हैं। नतीजा यह होता है कि भारत में चीन से अरब के रास्ते आने वाले बारूद और फटाकों को लोग हिन्दू धर्म से जोडक़र उसे जलाना एक धार्मिक रिवाज मानते हैं, और इस पर किसी भी रोक की बात से भडक़ उठते हैं। इस तरह एक और हिन्दुस्तानी त्यौहार प्रदूषण को अंधाधुंध बढ़ाने वाला, और जानलेवा हो रहा है। दीवाली के आसपास दिल्ली जैसे शहर के प्रदूषण में लाशें गिरती तो नहीं हैं, लेकिन फेंफड़े खोखले हो जाते हैं, और हर बरस हिन्दुस्तान में लाखों मौतें हो रही हैं, 2019 में ही भारत में वायु प्रदूषण से 16 लाख 70 हजार मौतों का वैज्ञानिक अनुमान है। और चूंकि वे भोपाल गैस त्रासदी की तरह एक दिन में एक जगह पर नहीं होती हैं, इसलिए उनकी तरफ लोगों का ध्यान नहीं जाता है।
अब हिन्दुस्तान में वायु प्रदूषण को लेकर जनता के बीच जागरूकता की जरूरत तो दीवाली जैसे मौकों पर अधिक दिखती है, लेकिन सबसे बड़ी जिम्मेदारी तो सरकार पर आती है क्योंकि पटाकों का बनना और बिकना उसके हाथ में होता है, कारखानों से प्रदूषण, कोयले से बिजली, निर्माण कार्य का प्रदूषण, खेतों में ठूंठ का जलाना, और जगह-जगह कचरा जलाना, इन सबको रोकने की जिम्मेदारी सरकार पर आती है। दूसरी तरफ दिल्ली जैसे महानगर में सार्वजनिक यातायात का इंतजाम करना भी सरकारों का ही जिम्मा रहता है, और जब इसकी कमी होती है, तभी लोग निजी गाडिय़ों पर अधिक निर्भर करते हैं। न सिर्फ महानगर, बल्कि अब तो छोटे-छोटे शहरों में भी बस, मेट्रो, या किसी और किस्म का सार्वजनिक परिवहन बढ़ाने की जरूरत है ताकि लोग निजी गाडिय़ों की तरफ कम से कम जाएं। लोग एक बार अपनी गाडिय़ों पर चलना शुरू कर देते हैं, तो फिर उनका सार्वजनिक परिवहन की तरफ जाना कुछ मुश्किल हो जाता है। लोगों को यह भी समझना चाहिए कि वे अपने घर-दफ्तर को कुछ हद तक तो वायु प्रदूषण से बचा सकते हैं, लेकिन हर किसी को बाहर तो निकलना ही होता है, और सार्वजनिक जगहों पर कुछ मिनटों में ही कुछ शहरों में लोग ऐसी हवा लेते हैं कि मानो उन्होंने सिगरेट पी ली हो। जब नुकसान का ऐसा हाल रहता है, तो फिर यह नुकसान पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता है।
आज हिन्दुस्तान जैसे देश में एक सीमित तबके की संपन्नता लगातार बढ़ते जाने की वजह से उसकी ईंधन की खपत अंधाधुंध बढ़ रही है। बिजली से लेकर पेट्रोल-डीजल तक संपन्न तबका अंधाधुंध इस्तेमाल करता है क्योंकि वह उसका खर्च उठा सकता है। और सरकारों को लगता है कि जितनी भी बिजली की खपत हो रही है, उससे अधिक बिजली बनाना उसकी जिम्मेदारी है। यह बाजार की तरह डिमांड और सप्लाई का कारोबार हो गया है, और सरकारें इस बात को नहीं देख रहीं कि लोगों की एयर कंडीशनिंग की जरूरतें कम कैसे हो सकती हैं, किस तरह निजी गाडिय़ों के पेट्रोल और डीजल को बचाया जा सकता है, और कम ईंधन पर मेट्रो और बस चलाई जा सकती हैं। सरकारें यह भी नहीं देखती हैं कि भवन निर्माण में, इंजीनियरिंग की डिजाइनों में, पैकिंग मटेरियल में किस तरह की किफायत की जा सकती है, ताकि धरती पर कार्बन बनना कम हो, और प्रदूषण कम हो। इन सबके लिए एक कल्पनाशीलता की जरूरत होती है, और धरती के लिए एक ऐसी संवेदना की जरूरत रहती है जो कि पांच-पांच बरस के चुनावी कार्यकाल में बांटकर नहीं देखी जा सकती। दरअसल सरकार और कारोबार, इनका चाल-चलन और मिजाज ऐसा रहता है कि वह धरती को बर्बाद करने और कानूनी-गैरकानूनी कमाऊ धंधों को आबाद करने में दिलचस्पी रखता है। दरअसल देश में जब ग्रीन ट्रिब्यूनल बनाया गया था, तो उसके पीछे सोच यही थी कि कानूनी मामलों के बोझ से लदी हुई अदालतों से निकालकर पर्यावरण से जुड़े मामलों को एक ऐसे ट्रिब्यूनल में ले जाया जाए जहां पर्यावरण और प्रदूषण जैसे मुद्दे ही रहें, वही प्राथमिकता रहे, और उनकी बेहतर समझ रहे। लेकिन भारत में केन्द्र और राज्य सरकारों ने लगातार पेशेवर मुजरिमों के अंदाज में ग्रीन ट्रिब्यूनल सरीखी पर्यावरण और प्रकृति से जुड़ी दूसरी संवैधानिक संस्थाओं को भी बेवकूफ बनाना जारी रखा, और आज हालत यह है कि हर शहर कांक्रीट का जंगल बन गया है, जंगल घटते चले गए हैं, लोगों को पितृपक्ष पर अपने पुरखों को खाना खिलाने के लिए कौव्वे नसीब होना भी बंद हो गया है। आज लोग अगर चाहें तो भी अपने बच्चों को गौरैय्या नहीं दिखा सकते हैं।
हम फिर से शहरों में जहरीली होती हवा की तरफ लौटें, तो दुनिया के अलग-अलग देश अपनी अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों से बचने की कोशिश कर रहे हैं, और सबसे संपन्न देश अपनी खपत को किसी भी तरह घटाने में दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। दिल्ली का वायु प्रदूषण तो दिल्ली शहर और पंजाब के खेतों से पैदा हुआ दिखता है, लेकिन सरकारों के हाथ में इसे काबू में रखना और घटाना था, है, लेकिन सरकारें अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से नहीं निभा रही हैं। इस बारे में लोगों को भी सरकारों पर दबाव बनाना पड़ेगा, वरना लोग अपने बच्चों के लिए घर-दुकान तो छोड़ जाएंगे, लेकिन उनके फेंफड़ों को खोखला करने वाली जहरीली हवा के बीच ही वह जायदाद रहेगी। लोगों को आज अपनी खुद की जिंदगी चाहे प्यारी न हो, लेकिन आने वाली पीढिय़ों से तो इतनी मोहब्बत करनी चाहिए कि उनके लिए जहर छोडक़र न जाएं। यह देश पूरी दुनिया में कामयाब इंजीनियर और मैनेजर देता है, लेकिन पता नहीं क्योंकि आईआईटी और आईआईएम से निकली काबिलीयत का इस देश की सरकारों और स्थानीय संस्थाओं में इस्तेमाल नहीं दिखता है क्योंकि यहां नेता ही हर हुनर में हरफनमौला की तरह तमाम फैसले लेते हैं। यही वजह है कि देश में कुछ भी सुधरते हुए नहीं दिखता है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा में इजराइल और गाजा के हमास नाम के संगठन के बीच गाजा की जमीन पर चल रही जंग को रोकने के लिए जॉर्डन ने एक प्रस्ताव रखा था, इस पर 120 देशों ने इसका समर्थन किया, 14 इसके खिलाफ थे, और 45 देशों ने मतदान नहीं किया। मतदान न करने वाले देशों में भारत भी एक था। भारत के अलावा पश्चिम के देश, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जर्मनी, जापान, यूक्रेन, और ब्रिटेन भी मतदान से गैरहाजिर रहे। लेकिन समर्थन करने वाले देशों में बांग्लादेश, मालदीव, पाकिस्तान, रूस, और दक्षिण अफ्रीका जैसे देश थे। जंग को रोकने के इस प्रस्ताव में बाद में संशोधन भी सुझाया गया जिसमें यह कहा गया कि महासभा 7 अक्टूबर को इजराइल में हुए हमास के आतंकी हमलों और बंधक बनाने को साफ-साफ खारिज करती है, और उसकी निंदा करती है। बंधकों के साथ मानवीय व्यवहार हो, और उनकी तत्काल बिना शर्त रिहाई सुनिश्चित की जाए। इस संशोधन पर 87 लोगों ने मतदान किए, जिनमें भारत भी शामिल था, 55 देशों ने इसके खिलाफ वोट डाला, और 23 देश गैरहाजिर रहे।
इस पूरे मामले को समझने की जरूरत है कि आज फिलीस्तीन के गाजा पर जिस अंदाज में इजराइली बमबारी चल रही है, और हमास के आतंकियों को मारने के नाम पर नागरिक इलाकों पर बमों और मिसाइलों से हमले किए जा रहे हैं, और तीन हजार से अधिक तो बच्चे ही मारे गए हैं, जिन्हें खुद इजराइल भी हमास के आतंकी नहीं कह सकता। आज इसे दुनिया का सबसे अमानवीय हमला करार दिया जा रहा है, और इजराइल के भीतर और बाकी दुनिया में जगह-जगह बसे हुए यहूदी और इजराइली भी तुरंत रोकने की मांग कर रहे हैं। लेकिन इजराइल का साथ देने वाले कुछ पश्चिमी देशों के साथ-साथ भारत भी खड़ा हो गया, और उसने जंग रोकने के मूल प्रस्ताव पर वोट नहीं डाला। सदस्य देशों के दो तिहाई से कम लोगों ने ही हमास का नाम जोडऩे के संशोधन का साथ दिया, इसलिए यह संशोधन मंजूर नहीं हुआ, लेकिन भारत इस संशोधन के साथ खड़े रहा। फिलीस्तीन पर गांधी और नेहरू के वक्त से लेकर मोरारजी सरकार के विदेश मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी तक का जो साफ-साफ रूख था, आज भारत की मोदी सरकार उसके ठीक खिलाफ है। आज इजराइल के साथ भारत के कारोबारी रिश्ते इतने बड़े और इतने मजबूत हैं कि गरीब फिलीस्तीन बेइंसाफी झेल रहा है, लेकिन उसके जायज और ऐतिहासिक हक के लिए भारत मुंह खोलने को भी तैयार नहीं है। हालत यह है कि आज भारत के भीतर अगर कोई पार्टी या कोई पत्रकार फिलीस्तीन पर हो रहे जुल्म और मारे जा रहे हजारों लोगों को बचाने के लिए, और वहां फंसे हुए लाखों लोगों तक मानवीय राहत पहुंचाने के लिए बात करें, तो भी इस देश का एक तबका उसे देश का विरोध करार देने लगता है। लोकतंत्र में सरकार की नीति से असहमति का हक शामिल रहता है, और भारत सरकार की बहुत सी नीतियों से अलग-अलग समय पर देश के कई तबके असहमत रहे हैं, और उसे कभी देश के साथ गद्दारी नहीं माना गया था।
आज फिलीस्तीन में जितने लोग मारे जा रहे हैं, और एक मुल्क का हक छीना जा रहा है, वह पूरा का पूरा एक मुस्लिम समाज है। आज हिन्दुस्तान के एक तबके को यह सुहा सकता है कि मुस्लिम दुनिया में कहीं भी मारे जाएं। लेकिन सवाल यह उठता है कि आज अगर किसी एक कमजोर मुल्क पर फौजी हमला करके दुनिया की एक बड़ी फौजी ताकत बेइंसाफी कर सकती है, तो फिर कल दुनिया के कुछ दूसरे देश भी अड़ोस-पड़ोस के देशों पर यही कर सकते हैं। इस बार इजराइल और फिलीस्तीन के बीच जंग का मामला फिलीस्तीन के एक हिस्से पर काबिज हमास नाम के एक संगठन के इजराइल पर किए हमले से शुरू हुआ है, लेकिन दुनिया में जंग के लिए जो नियम बने हुए हैं उनमें से हर नियम को कुचलते हुए इजराइल जिस तरह से गाजा पर अनुपातहीन हवाई हमले कर रहा है, नागरिक इलाकों पर बम बरसा रहा है, वह अभूतपूर्व है। इसे किसी आतंकी संगठन पर हमले से होने वाला कोलैटरल डैमेज कहने से काम नहीं चल सकता। कुछ हजार हमास-आतंकियों को मारने के लिए अगर दसियों हजार फिलीस्तीनी नागरिकों को मारने का काम किया जा रहा है, और 20-25 लाख नागरिकों को गाजा खाली करने पर मजबूर किया जा रहा है, तो यह जवाबी फौजी कार्रवाई नहीं है, और यह एक किस्म की गुंडागर्दी है, जिसके पीछे अमरीका की शह भी है।
हिन्दुस्तान को आज अपने लंबे इतिहास को ध्यान में रखते हुए, और दुनिया में इंसाफ की वकालत करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ में एक अधिक सक्रिय भूमिका निभानी थी, उससे भारत चूक गया, या सोच-समझकर दूर रहा। इन दिनों लगातार विदेश नीति के मोर्चे पर भारत को सदमे झेलने पड़ रहे हैं। मालदीव जैसे रणनीतिक महत्व के छोटे से देश ने नई सरकार बनते ही यह कह दिया है कि भारत वहां से अपने हर सैनिक को हटा दे। दूसरी तरफ श्रीलंका के साथ भारत की कुछ तनातनी चल रही है। और इन दोनों ही देशों के पीछे आज चीन की बड़ी मदद है, जाहिर है कि चीन एक किस्म से भारत की रणनीतिक घेरेबंदी कर रहा है। कुछ ऐसा ही भूटान के साथ हो रहा है, और अभी-अभी चीन और भूटान के बरसों से रूके हुए कुछ मामले अभी सुलझे हैं, और यह भी भारत के लिए एक फिक्र की बात हो सकती है। यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि चीनी सरहद पर भारत किस तरह उस देश का अवैध कब्जा झेल रहा है, और एक बड़ा फौजी तनाव वहां पर लंबे समय से बना हुआ है। एक अलग ही मोर्चे पर मध्य-पूर्व के कतर में अभी-अभी भारत के 8 भूतपूर्व नौसेना-अफसरों को इजराइल के लिए जासूसी करने के लिए मौत की सजा सुनाई गई है। भारत में बहुत से लोगों ने यह याद दिलाया है कि वे भारत सरकार को इस बारे में कुछ अरसे से कहते आ रहे थे, लेकिन पता नहीं क्यों भारत सरकार कतर सरकार से बात करके इस नौबत को आने से रोक नहीं पाई। यह बात भी बड़ी अजीब है कि भारत के ये भूतपूर्व नौसेना अफसर कतर में इजराइल के लिए जासूसी कर रहे थे, ऐसी नौबत भारत की विदेश नीति की एक चूक या गलती ही साबित करती है।
भारत में विदेश नीति की अपनी कामयाबी को साबित करने के लिए इस देश में पिछले दिनों बहुत बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय जलसे किए जिन पर हजारों करोड़ खर्च किया गया। लेकिन ऊपर जिन देशों के साथ खराब रिश्तों की बात हमने गिनाई है, उनसे बेहतर संबंध तो बिना किसी लागत के हो सकते थे, लेकिन वे बिगड़ते चल रहे हैं। आखिर में विदेश नीति की एक बड़ी नाकामयाबी को गिनाना जरूरी है कि किस तरह आजाद हिन्दुस्तान के इतिहास में पहली बार कनाडा के साथ भारत के रिश्ते इस हद तक खराब हो गए हैं कि दिल्ली से कनाडा के कूटनीतिक अफसरों की थोक में रवानगी करवा दी गई है। यह याद रखना चाहिए कि कनाडा में लाखों भारतवंशी कामयाब कारोबारी या कामगार हैं, वहां से वे अपनी ढेरों कमाई हिन्दुस्तान भेजते हैं, कनाडा भारत के छात्र-छात्राओं के लिए एक लोकप्रिय जगह है, और वहां पर हिन्दुस्तानियों को काम करने की छूट बड़ी उदारता से मिलती है। खालिस्तान के मुद्दे पर कनाडा सरकार के रूख को लेकर भारत से उसके संबंध अंधाधुंध बिगड़ गए हैं, और पश्चिम के अमरीका और ब्रिटेन सरीखे कुछ बड़े देश इस मुद्दे पर भारत के साथ नहीं दिख रहे हैं कि कनाडाई जमीन पर एक खालिस्तान-समर्थक नेता के कत्ल में भारत का नाम लिया जा रहा है। उन्होंने भारत को सलाह दी है कि वह जांच में कनाडा का सहयोग करे। ये तमाम बातें विदेश नीति के मोर्चे पर चकाचौंध जलसों से परे नाकामयाबी और जटिलता बता रही हैं, और इस बारे में मोदी सरकार को संसद या बाकी दलों को भी भरोसे में लेकर काम करना चाहिए क्योंकि देश की विदेश नीति किसी सरकार के कार्यकाल के बाद भी जारी रहती है, और उसमें बहुत तेज रफ्तार से महज सत्ता की मर्जी से फेरबदल नहीं होना चाहिए।
देश के आईटी सेक्टर के एक बड़े कारोबारी नारायण मूर्ति ने अभी एक दूसरे कारोबारी मोहन दास पई से एक लंबे इंटरव्यू में इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि हिन्दुस्तान के नौजवान कामगार काम कम करते हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें हर हफ्ते 70 घंटे काम करना चाहिए। इसका मतलब हर दिन औसत 10 घंटे काम करना होता है। इस बात को लेकर सोशल मीडिया पर उनकी आलोचना भी शुरू हो गई है। कुछ लोगों का कहना है कि ऐसा करना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह भी होगा, और भारत जैसे देश में जहां पर कि कामगारों को न तो ठीक तनख्वाह मिलती है, न मेहनताना, और न ही काम की जगहों पर कानूनी सहूलियतें मिलतीं। लोगों का यह भी कहना है कि नारायण मूर्ति के तर्क कारोबारियों की भलाई के हैं, और कामगारों का शोषण करने वाले हैं। कुछ और लोगों ने यह मुद्दा भी उठाया है कि हफ्ते में 70 घंटे काम की उम्मीद का मतलब महिलाओं को काम से हटा देना ही है क्योंकि आमतौर पर महिलाएं परिवार का काम करने के बाद नौकरी या रोजगार की जगह पर इतने घंटे काम नहीं कर सकतीं। नारायण मूर्ति का पूरा इंटरव्यू हमने अभी नहीं देखा है, और उन्होंने इसे देश के विकास के साथ जोडक़र कहा है कि नौजवानों को अपने देश के लिए हफ्ते में 70 घंटे काम करना चाहिए, और उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के जर्मनी और जापान की मिसालें दी हैं कि किस तरह कुछ बरस तक ये लोग हर दिन कुछ घंटे ज्यादा काम करते रहे। उन्होंने कहा कि जब तक लोग अतिरिक्त कोशिश नहीं करेंगे, तब तक सरकार अकेले कुछ नहीं कर सकती, क्योंकि कोई सरकार उतनी ही अच्छी हो सकती है जितनी कि जनता की कार्य-संस्कृति होती है।
हो सकता है कि नारायण मूर्ति के पूरे इंटरव्यू से कुछ और बातें भी निकलकर आएं, लेकिन हम इसे उनकी कही बातों से परे भी देश की संस्कृति से जोडक़र आज कुछ चर्चा करना चाहते हैं। नारायण मूर्ति की यह बात अगर 70 घंटों को छोड़ दिया जाए, तो यह इस तरह से एक सही सलाह है कि आज हिन्दुस्तान के स्कूल-कॉलेज राजनीतिक नीयत से बढ़ती चली जा रही छुट्टियों के हमले के शिकार हैं। पढ़ाई के दिन साल में घटते चले जा रहे हैं, हर दिन पढ़ाई के घंटे घटते चले जा रहे हैं, और कुल मिलाकर पढ़ाई का माहौल भी खत्म होते चल रहा है, क्योंकि अब बच्चे अलग-अलग तरह के दाखिला-इम्तिहानों को पढ़ाई से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। उनकी दिलचस्पी ज्ञान प्राप्त करने में नहीं रहती है, दाखिला पाने में रहती है। इसलिए कम ज्ञान, और मुकाबले की अधिक तैयारी इन्होंने मिलाकर बच्चों के कुछ सीखने का माहौल खत्म कर दिया है। फिर दूसरी बात यह भी है कि स्कूल और कॉलेज से परे जो वक्त बच्चों के पास रहता है, उस वक्त का मनोरंजन, कुछ सीखने, या आत्मविकास करने जैसे किसी काम के लिए बेहतर इस्तेमाल की सोच हिन्दुस्तान में बहुत कम है। बच्चे हों या बड़े, टीवी के सामने बैठ जाते हैं, या मोबाइल फोन पर उलझे रहते हैं, और बाकी दुनिया की जानकारी तो दूर रही, अपने ही देश के असल सामाजिक सरोकारों को वे छू भी नहीं पाते। कॉलेज से निकलकर लोग बेरोजगार की तरह बरसों गुजार देते हैं, लेकिन अपने आपको अधिक हुनरमंद बनाने, या मौजूदा हुनर को बेहतर करने की सोच बहुत ही कम लोगों में रहती है, और खासकर उत्तर भारत तो ऐसी सोच से अछूता सा लगता है। एक तरफ उत्तर भारत, दूसरी तरफ हिन्दीभाषी बाकी राज्य भी किसी जिम्मेदार सोच से एकदम आजाद लगते हैं। यही वजह रहती है कि दक्षिण के राज्यों के लोग दुनिया के तमाम देशों में छोटे कामगारों से लेकर सबसे बड़ी कंपनी चलाने तक पहुंचे रहते हैं, और उनके मुकाबले अधिक आबादी वाले उत्तर भारत की कोई जगह नहीं रहती।
हम पल भर के लिए नारायण मूर्ति की बात से असहमत होने को भी तैयार हैं कि इतना ज्यादा काम करके हिन्दुस्तानी कामगारों को कुछ हासिल नहीं होता है। लेकिन दूसरी तरफ यह देखा जाए कि हिन्दुस्तानी कामगार, खासकर नौजवान किस अंदाज में उन सरकारी नौकरियों के लिए मुकाबला करते हैं जिनमें नौकरी की गारंटी रहती है, और कामचोरी की भी, जिनमें रिश्वत की गुंजाइश रहती है, और जिन्हें पूरी जिंदगी तनख्वाह और पेंशन का जुगाड़ माना जाता है। इसके मुकाबले जब निजी नौकरियों की बात करें, तो बहुत से लोग कम तनख्वाह की, कम गारंटी वाली निजी नौकरी करने के बजाय ठलहा बैठना बेहतर समझते हैं। मतलब यह है कि अगर भरपूर तनख्वाह नहीं मिलती है, तो लोग खाली बैठ जाएंगे, लेकिन न कम तनख्वाह का काम करेंगे, और न ही अधिक घंटे काम करेंगे। मालिकों और कंपनियों की तरफ से कर्मचारी का शोषण एक हकीकत है, और यह भी सही है कि मजदूरों के हक बचाने के लिए जो कानून है वे हिन्दुस्तान में बेअसर हैं। लेकिन क्या इन कानूनों पर अमल के बेहतर हो जाने पर लोगों को अधिक मेहनत नहीं करनी चाहिए? और यह मेहनत न सिर्फ सरकारी और निजी नौकरियों की बात है, बल्कि बेरोजगारी के दिनों, उसके भी पहले कॉलेज के पढ़ाई के दिनों की बात है, जब कोई मालिक नहीं रहते, और लोग अपनी मर्जी के मालिक रहते हैं, तब भी हिन्दुस्तान के अधिकतर राज्यों में लोग मेहनत नहीं करते।
नारायण मूर्ति की बात से देश में कार्य-संस्कृति को जोडक़र देखने की जरूरत है, उनके गिनाए घंटों को लेकर लाठी लेकर उन पर टूट पडऩे से कुछ हासिल नहीं होना है। अधिक और बेहतर काम करना न सिर्फ मालिक, सरकार, या देश के लिए अच्छी बात होगी, बल्कि लोगों को अपने-अपने स्वरोजगार में, अपने व्यक्तित्व विकास में, अपना ज्ञान और समझ बढ़ाने में अपने वक्त का बेहतर इस्तेमाल करना चाहिए, जो कि आज हिन्दुस्तान की संस्कृति नहीं है। यह बात जाहिर है कि दक्षिण के राज्यों में यह संस्कृति है, और वहां के लोग भारत के दाखिला-इम्तिहानों में भी अधिक कामयाब होते हैं, और पूरी दुनिया के खुले बाजार में जाकर वहां भी बेहतर प्रदर्शन करते हैं। उत्तर और दक्षिण का फर्क देखना हो, तो इन आंकड़ों को देखने की जरूरत है जिनमें कर्नाटक में प्रति व्यक्ति आय 2.36 लाख सालाना है, तमिलनाडु में 2.12, केरल में 2.05, आन्ध्र में 1.76, और छत्तीसगढ़-एमपी में 1.04, झारखंड में 0.71, यूपी में 0.61, और बिहार में 0.43 लाख प्रति वर्ष है। इसलिए अगर नारायण मूर्ति ने कुछ कहा है, तो वे देश के कमजोर मजदूर कानूनों के लिए या उन पर कमजोर अमल के लिए जिम्मेदार नहीं है, उसके लिए सरकारें, और उन्हें चुनने वाली जनता भी जिम्मेदार हैं। उनकी बात से यह समझने की जरूरत है कि जिस किसी के लिए यह मुमकिन हो, वे अपनी जवानी के बरसों में अगर अधिक काम करके उसका अधिक भुगतान पा सकते हैं, तो उन्हें उसकी कोशिश करनी चाहिए। नारायण मूर्ति उत्तर भारत में कोई कारखाना नहीं चलाते, बल्कि वे दक्षिण भारत में एक आईटी कंपनी चलाते रहे हैं, और वे मजूदरों के हक अपने कारोबार के हिसाब से ही मानकर यह बात कह रहे हैं। अगर लोगों को लगता है कि बिना काम किए सरकारी नौकरी का इंतजार उनके लिए बेहतर है, तो वे जरूर खाली बैठ सकते हैं, सरकार के पास उन्हें किसी हल में जोतने का कोई कानून तो है नहीं। जिन लोगों को लगता है कि वे अपने नौजवानी के अधिक ताकत के बरस अधिक काम कर सकते हैं, तो वे किसी नौकरी में अधिक कर लें, स्वरोजगार में अधिक कर लें, या कि अपने व्यक्तित्व विकास पर अधिक मेहनत कर लें। वरना ठलहा बैठकर वक्त बर्बाद करना हिन्दुस्तान की मौजूदा संस्कृति तो है ही, और लोकतंत्र में उस पर कोई रोक भी नहीं है।
अमरीका में आज फिर एक बंदूकबाज ने सार्वजनिक जगह पर गोलीबारी करके 22 लोगों को मार डाला है, और 60 से अधिक लोग घायल हो गए हैं। अभी जब यह लिखा जा रहा है तब तक तस्वीरों में कैद यह हमलावर पकड़ में नहीं आया है, और इस शहर में लोगों को घरों में रहने कहा गया है। हर कुछ दिनों में अमरीका में इसी तरह बंदूक की हिंसा होती है, लेकिन उस पैमाने पर भी एक हमलावर के हाथों इतनी मौतें कुछ बड़ा आंकड़ा है। कुल 38 हजार आबादी का ल्यूइस्टन नाम का शहर वहां के मेन नाम के राज्य में है, और संदिग्ध हमलावर की तस्वीरों से वह एक गोरा दिखाई पड़ रहा है। लेकिन इससे अधिक जानकारी अभी सामने नहीं आई है। हमलावर ने 10 मिनट की दूरी की तीन जगहों, एक रेस्त्रां, और एक मनोरंजक खेल स्थल, और एक वॉलमार्ट इन तीन जगहों पर हमला किया है। हमलावर को सेना से जुड़ा हुआ हथियार-प्रशिक्षक बताया जा रहा है, जो कि कुछ अरसा पहले एक मानसिक चिकित्सालय में भर्ती था। पिछली बड़ी घटना मई 2022 में हुई थी जिसमें एक बंदूकधारी ने एक स्कूल में घुसकर गोलियां चलाई थीं, जिनमें 19 बच्चों, और 2 शिक्षकों की मौत हो गई थीं। 2022 और 2023 में हर बरस साढ़े 6 सौ या अधिक ऐसे हमले हुए हैं।
आज का यह हमला नस्लवादी है या नहीं यह अभी साफ नहीं है, लेकिन अमरीका में ऐसे कई हमले नस्लवादी होते हैं, आमतौर पर काले लोगों, या अल्पसंख्यकों के खिलाफ होते हैं, या किसी भड़ास से भरे हुए लोग अपनी ही पिछली स्कूल या कॉलेज पर हमला करते हैं। हमलों के पीछे की कई किस्म की वजहें हैं, लेकिन लगातार ऐसे हमले होते हैं जिसे लेकर अमरीका के आज के राष्ट्रपति जो बाइडन फिक्रमंद रहते हैं, लेकिन वहां विपक्ष की रिपब्लिकन पार्टी नागरिकों के निजी हथियारों में किसी भी तरह की कमी के खिलाफ रहती है। दरअसल अमरीका में हथियार कारोबारियों का दबाव-समूह इतना मजबूत है कि वह किसी भी सरकार को हथियारों पर रोकथाम, या कटौती करने ही नहीं देता। सच तो यह है कि जहां-जहां रिपब्लिकन पार्टी के कार्यक्रम होते हैं, वहां सम्मेलन स्थल के आसपास हथियारों की प्रदर्शनी और बिक्री रखी जाती है क्योंकि पार्टी के कार्यक्रमों में दूर-दूर से आने वाले लोग आमतौर पर हथियारों के शौकीन रहते हैं। बाकी दुनिया के लिए इस नौबत की कल्पना करना मुश्किल है कि अमरीका में एक-एक नागरिक फौजी दर्जे के दर्जनों हथियार घर पर रख सकते हैं, और वहां की फिल्मों से लेकर उपन्यासों तक में बंदूक की संस्कृति को बढ़ावा दिया जाता है, और एक सबसे असरदार पुलिस के बावजूद अमरीकी नागरिक अपने को हमेशा खतरे में मानकर चलते हैं, और घरों में हथियार रखने को ही हिफाजत का अकेला तरीका मानते हैं। कुछ अमरीकियों का यह भी मानना रहता है कि हर नागरिक के पास हथियार रहने से देश में कभी भी कोई फौजी बगावत नहीं हो सकती क्योंकि फौजी बंदूकों से कई गुना अधिक नागरिक बंदूकें रहेंगी, और फौज ऐसा दुस्साहस नहीं कर सकेगी।
अमरीका में बंदूक खरीदने वालों और रखने वालों की दिमागी हालत को जांचने का भी कोई चलन नहीं है, नतीजा यह होता है कि मानसिक रूप से कमजोर या बीमार लोग भी कई-कई हथियार रखते हैं, और किसी धर्म, जाति, रंग की नफरत के चलते, या किसी निजी भड़ास को निकालने के लिए लोगों को थोक में मारने से नहीं हिचकते। एक सर्वे बताता है कि अमरीका की आबादी 33 करोड़ है, और वहां 40 करोड़ पिस्तौल-बंदूक हैं। अमरीका में 60 हजार से अधिक पिस्तौल-बंदूक दुकानदार हैं, और वहां हर बरस दसियों हजार करोड़ रूपए के हथियार बिकते हैं। ऐसे ही कारोबार को बढ़ावा देने वाली गन-लॉबी राजनीतिक प्रभाव खरीदती है, और इसलिए डेमोक्रेटिक पार्टी की तमाम कोशिशों के बावजूद संसद से कभी हथियारों में कमी की बात मंजूर नहीं हो पाती। यह नौबत अकेले अमरीका के साथ है, क्योंकि दुनिया में शायद ही किसी और देश में आबादी से इतनी अधिक बंदूकें हों। 2017 के एक सर्वे के मुताबिक यह देखा गया कि प्रति सौ व्यक्तियों पर कितनी बंदूकें हैं, तो उनमें अमरीका में 120 से अधिक बंदूकें निकलीं। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में सौ लोगों पर 5.3 बंदूकों का औसत है। दुनिया में 110 देश ऐसे भी हैं जहां हिन्दुस्तान से भी कम अनुपात में बंदूकें हैं। पांच देश तो ऐसे हैं जहां नागरिकों के पास कोई बंदूक नहीं हैं, जिनमें इंडोनेशिया भी है। एक अनुमान यह भी है कि पूरी दुनिया में निजी हथियारों में से अधिकतर का इस्तेमाल खुद को या जीवनसाथी को मारने में होता है। ऐसे में दुनिया भर में बढ़ते चल रहे पारिवारिक तनाव देखें तो बंदूकों की मौजूदगी खतरे को कई गुना बढ़ाने वाली हो सकती है, शायद होती होगी।
दुनिया की जिन देशों में अमरीका की तरह बंदूकें नहीं हैं, उन्हें अपने नागरिकों के बीच खतरे भी उतने अधिक नहीं हैं। लेकिन कुछ दूसरे किस्म के खतरे जरूर हैं जो कि भारत जैसे देश में भी लगातार सामने आते हैं। यहां पर शराब या किसी दूसरे नशे में लोग अपने परिवार के सबसे करीबी लोगों को मार डालते हैं, कई मामलों में गरीबी, कर्ज में डूबकर भी ऐसी नौबत आती है कि लोग पूरे के पूरे परिवार को हत्या और आत्महत्या से खत्म कर देते हैं। अमरीका के मामले के लेकर यहां सीधे-सीधे कुछ सीखने की जरूरत नहीं है, लेकिन निजी हिंसा का मामला जरूर सीखने लायक है कि किस तरह की मानसिक तनाव से गुजर रहे, धर्म, जाति, या रंग की नफरत से भरे हुए लोग किस तरह की हिंसा कर सकते हैं। अभी चार दिन पहले ही हमने इसी जगह लिखा था कि किस तरह महाराष्ट्र के विदर्भ में एक बहू ने ससुराल के लोगों के तानों से थककर धीमे असर करने वाले एक जहर का जुगाड़ किया, और पति सहित पांच-छह लोगों को मार डाला। शराब के लिए पैसे न देने वाले मां-बाप को मारने की खबर हमें आसपास से ही तकरीबन रोजाना सुनने मिलती है। हर समाज को यह सोचना चाहिए कि निजी हिंसा की वजहों को किस तरह घटाया जा सकता है, जिससे कि हत्या या आत्महत्या सबमें कमी आए। जो बात हिन्दुस्तान के काम की हो सकती है वह यह है कि समाज के भीतर किसी भी तरह की नफरत को, किसी धर्म या जाति से दहशत को बढ़ावा नहीं देना चाहिए, क्योंकि आज नहीं तो कल एक सामूहिक या सार्वजनिक हिंसा में भी तब्दील हो सकती है। और यह भी जरूरी नहीं है कि तनाव या नफरत से भरे हुए लोग कानूनी हथियारों से ही हिंसा करें, हिन्दुस्तान में धड़ल्ले से गैरकानूनी हथियार भी मौजूद हैं, और जब परिवार के भीतर ही कोई जहर से थोक में हत्याएं करने पर उतारू हो जाए, तो उसका क्या अंत हो सकता है? जहर से तो किसी भी सार्वजनिक या बड़े कार्यक्रम में भी एक साथ बड़ी संख्या में लोगों को मारा जा सकता है। कोई बुलेटप्रूफ जैकेट, या कितनी भी संख्या में पुलिस ऐसी निजी हिंसा को नहीं रोक सकती जिसमें लोग आत्मघाती अंदाज में कई लोगों को मारने पर उतारू हो जाते हैं, इससे बचाव का अकेला तरीका उन शांत देशों को देखकर कुछ सीखना है कि जनता को किस तरह खुशमिजाज रखा जाए, किस तरह सार्वजनिक तनाव खत्म किया जाए, और किस तरह परिवार के भीतर के तनाव घटाए जाएं। भारत जैसे चुनावी लोकतंत्र में ऐसी अमूर्त सलाह सत्ता और समाज का ध्यान नहीं खींच सकती, लेकिन समाज के जागरूक तबकों को इस पर चर्चा जरूर करनी चाहिए, और समाज की सोच को सकारात्मक बनाने का काम करना चाहिए।
लोकसभा में तृणमूल कांग्रेस की धुआंधार और धांसू बोलने वाली सांसद महुआ मोइत्रा इन दिनों एक अजीब सी मुसीबत में फंसी हुई हैं। उनके एक भूतपूर्व प्रेमी ने सीबीआई को यह शिकायत की है कि महुआ लोकसभा में अडानी के खिलाफ जितने सवाल करती थीं, उनके पीछे कारोबारी दुनिया में अडानी एक प्रतिद्वंद्वी, हीरानंदानी था। अब जब तक एक भूतपूर्व प्रेमी की यह बात कमजोर पड़ पाती, दुबई में बसे हुए इस हीरानंदानी ने खुद होकर वहां भारतीय कांउसलेट जाकर एक हलफनामा दिया कि अडानी के खिलाफ महुआ मोइत्रा को जानकारी देने का एक बड़ा काम उन्होंने भी किया, और वे महुआ की तरफ से लोकसभा में सीधे सवाल लगा सकें इसलिए महुआ ने संसद के अपने ईमेल बॉक्स को हीरानंदानी के हवाले कर दिया था, और वे भी कुछ सवाल बनाकर सीधे लोकसभा सचिवालय भेज देते थे। भाजपा के लिए इतने आरोप दशहरे पर महुआ का पुतला जलाने के लिए भी काफी थे, और उससे अधिक के लिए भी। पहली बार सांसद बनी यह तृणमूल नेता अडानी को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर भी असाधारण हमले कर रही थीं, और ऐसे में तमाम मोदीविरोधी, और अडानीविरोधी लोग महुआ के साथ हो गए थे। अब अगर यह सांसद इस दर्जे की लापरवाही या गलत काम की कुसूरवार साबित होती है, तो वह बहुत बड़ी बात होगी। भूतपूर्व प्रेमी और एक अलग वर्तमान कारोबारी, इन दोनों की शिकायत और हलफनामे में यह भी कहा गया है कि महुआ ने इस कारोबारी हीरानंदानी से अपने पर बहुत बड़े-बड़े खर्च करवाए थे। इसे संसद की एक कमेटी को दे दिया गया है जो यह जांच कर रही है कि क्या इसे सवाल पूछने के एवज में लिए गए अहसान, या ली गई रिश्वत की तरह देखा जाना चाहिए। ये दोनों ही बातें दो करीबी रह चुके लोगों के बागी तेवरों के साथ इस सांसद को बहुत कमजोर हालत में लाकर खड़ा कर रही है।
अब तक महुआ मोइत्रा ने उन पर लगे हुए आरोपों को एक भूतपूर्व प्रेमी के जले दिल की आह करार दिया है, और कारोबारी हीरानंदानी को अपना दोस्त माना है। लेकिन इन दोनों ही लोगों ने लिखकर जो आरोप लगाए हैं उनके बारे में महुआ ने कुछ भी नहीं कहा है। उन्होंने जवाबी हमले में अडानी और दूसरे लोगों के खिलाफ लगे आरोपों की जांच पहले करने, और उसके बाद उन पर लगे आरोपों की जांच करने की बात कही है। चूंकि अपने खिलाफ लगे बहुत ठोस आरोपों पर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया है, कोई तथ्य पेश नहीं किए हैं, उनसे पहली नजर में ऐसा लगता है कि वे बहुत खोखली जमीन पर खड़ी हुई हैं, और अपने बचाव में कहने को उनके पास कुछ नहीं है, इसलिए वे हमलावर हो रही हैं। बहुत वक्त पहले किसी समझदार ने कहा था कि कई मौकों पर हमला ही सबसे असरदार बचाव होता है, महुआ आज वही कर रही है। खबरों पर अगर भरोसा करें, तो उनकी तृणमूल कांग्रेस ने भी उनके इस विवाद में उनके साथ खड़े होने से इंकार कर दिया है। धीरे-धीरे अगर ये आरोप सच साबित होते हैं, तो विपक्ष के मोडानी-विरोधी और मीडिया का मोडानी-विरोधी तबका भी महुआ का साथ छोडऩे को मजबूर हो जाएंगे। अडानी के अच्छे और बुरे काम देश की जांच एजेंसियों और अदालतों के प्रति जवाबदेह हैं, लेकिन संसद सदस्य संसद के प्रति जवाबदेह है। ऐसे में महुआ का जवाबी हमला खोखला है, और दूसरों की जांच के बाद उनकी जांच शुरू करने की उनकी मांग नाजायज है।
देश की संसद देश की सबसे बड़ी पंचायत है, और इसके नीति-सिद्धांतों के खिलाफ अगर कोई सांसद सोच-समझकर काम करते हैं, तो उसे एक बड़ा जुर्म मानना चाहिए। लोगों के याद होगा कि कई बरस पहले कुछ सांसद सवाल पूछने के एवज में रिश्वत लेते स्टिंग ऑपरेशन में पकड़ाए थे। उन सबकी संसद सदस्यता खत्म कर दी गई थी, लेकिन उनके खिलाफ देश की अदालत कुछ नहीं कर पाई थी क्योंकि संसद को अदालती दखल से बाहर रखा गया है। अब कई बरस बाद उस मामले का भूत सुप्रीम कोर्ट में खड़ा हुआ है और अदालत में अभी यह बहस चल ही रही है। इस बीच महुआ का यह मामला सामने आने के पहले ही केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में अपना जवाब रखा है कि संसद और विधानसभा के सदस्यों को अदालती कार्रवाई से जिन संसदीय मामलों में हिफाजत हासिल है, उनमें भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत होने वाली कार्रवाई शामिल नहीं है। अभी इसी महीने पहले हफ्ते में सात जजों की एक संविधानपीठ के सामने केन्द्र सरकार ने कहा कि संसद और विधानसभा का विशेषाधिकार सांसदों और विधायकों को सदन के बाहर रिश्वत लेने पर कोई हिफाजत नहीं देता। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम लगातार सांसदों के रिश्वत लेने के खिलाफ लिखते आए हैं, और यह वकालत करते रहे हैं कि उन्हें आपराधिक अदालती कार्रवाई से कोई छूट नहीं मिलनी चाहिए। 2005 में लोकसभा की एक विशेष कमेटी ने सवाल पूछने के लिए रिश्वत लेने वाले सांसदों की सदस्यता खत्म कर दी थी, लेकिन उन पर कोई आपराधिक मुकदमा नहीं चल पाया था। हम उस समय से लगातार इस बात की मांग करते आ रहे थे, और अब जाकर सुप्रीम कोर्ट में केन्द्र सरकार यह रूख सामने रख रही है।
महुआ मोइत्रा ने अपने असाधारण प्रभावशाली संसदीय प्रदर्शन के बावजूद अपने आपको एक ऐसी मुसीबत में डाल लिया है कि उसकी पुख्ता जांच के सिवाय उन्हें कोई रियायत नहीं मिल सकती। हमारा ख्याल है कि हर सांसद और विधायक को इस बात के लिए तैयार भी रहना चाहिए, क्योंकि यह लोकतंत्र उनके सवालों के लिए पूरे देश को जवाबदेह बनाकर रखता है। ऐसे सवालिया लोगों को खुद भी जवाबदेह होना चाहिए, कम से कम ऐसे आचरण के लिए जिसमें संसदीय विशेषाधिकार को तोहफों और उपकार के एवज में बेच देने के आरोप हों। यहां पर महुआ मोइत्रा का योगदान, या उनके लगाए गए आरोप महत्वहीन हो जाते हैं, और उनकी यह मांग बेतुकी है कि पहले उनके लगाए आरोपों की जांच हो, और फिर उनके खिलाफ आरोपों की जांच हो। जांच इस तरह रेलगाड़ी की डिब्बों की तरह आगे-पीछे नहीं चलती।
ऐसा लगता है कि महुआ मोइत्रा से या तो एक चूक हुई है, या उन्होंने गलत काम किया है, और इन दोनों ही किस्म की बातों के लिए वे संसद की कड़ी जांच की हकदार हैं। इससे बाकी तमाम लोगों को एक बात सीखने मिलती है कि जब देश के सबसे ताकतवर लोगों पर कोई हमला करना हो, तो अपने खुद के कामकाज साफ-सुथरे रखने चाहिए। दूसरी नसीहत यह मिलती है कि आज के दोस्त जब कल दुश्मन बनते हैं, तो वे नए दुश्मनों के मुकाबले कई गुना अधिक खतरनाक रहते हैं।