संपादकीय
अभी यह मामला अदालत में है, और न इस पर कोई फैसला हुआ है, और न ही वॉट्सऐप चलाने वाली कंपनी मेटा ने इसे हिन्दुस्तान में बंद किया है, लेकिन भारत सरकार के सूचना तकनीक कानून के मुताबिक अगर इस मैसेंजर सर्विस को सरकार के मांगे संदेश की जानकारी देनी होगी, तो उसके बजाय मेटा इस सर्विस को बंद कर देने के लिए तैयार है। कल इस कंपनी ने साफ-साफ कहा है कि वॉट्सऐप-संदेशों की गोपनीयता भंग करने के बजाय वह हिन्दुस्तान से इस सर्विस को हटा ही लेगी। वैसे तो यह शुरूआती टकराव सुप्रीम कोर्ट तक जा सकता है, लेकिन फिर भी सरकार के कानून और कंपनी के तेवरों में यह एक सवाल खड़ा तो कर ही दिया है कि लोकतंत्र में निजता का कितना महत्व होना चाहिए, और सरकार जिसे कानून के खिलाफ माने, उसे उजागर करने की जिम्मेदारी कितनी होनी चाहिए। भारत में टेक्नॉलॉजी तो मोटेतौर पर दुनिया के किसी भी सबसे विकसित देश जितनी है, लेकिन निजता के अधिकारों का महत्व यहां पर विकसित लोकतंत्रों के आसपास भी नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि बिना लोकतंत्र के टेक्नॉलॉजी कितनी खतरनाक हो सकती है, जनता के हक के लिए भी, और सरकार की जिम्मेदारी के लिए भी, यह समझने की जरूरत है।
आज भारत में देश की सरकार, और प्रदेशों की सरकारों से लोगों के मन में इतनी दहशत है कि वे लोगों के कॉल डिटेल्स और संदेशों में ताक-झांक करती हैं। जब इजराइल का बना हुआ, फौजी लाइसेंस पर मिलने वाला, पेगासस नाम का घुसपैठिया सॉफ्टवेयर भारत में इस्तेमाल करने की बात आई, तो केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर कुछ भी कहने से इंकार कर दिया, और यह कहा कि वह यह भी टिप्पणी नहीं करेगी कि उसने यह सॉफ्टवेयर खरीदा है या नहीं। सुप्रीम कोर्ट की बनाई एक तकनीकी विशेषज्ञ कमेटी भी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाई, और यह मुद्दा वक्त की मौत खत्म हो गया कि क्या देश के प्रमुख विपक्षी नेताओं, और प्रमुख पत्रकारों के मोबाइल फोन पर केन्द्र सरकार की एजेंसियों ने पेगासस से घुसपैठ की थी, या नहीं। लेकिन लोगों के मन में इस बात को लेकर न सिर्फ सरकारी एजेंसियों पर शक है, बल्कि लोग जिनसे फोन पर बात करते हैं उन पर भी शक रहता है कि वे लोग बातचीत को रिकॉर्ड कर रहे हैं, या वॉट्सऐप जैसे मैसेंजरों की वीडियो कॉल को भी किसी दूसरे फोन को सामने रखकर उस पर तो रिकॉर्ड नहीं कर रहे हैं? दरअसल वक्त ऐसा ही आ गया है कि न सिर्फ सरकार चलाने के लिए, बल्कि राजनीति चलाने के लिए भी, और कारोबारी मुकाबलों के लिए भी लोग प्रतिद्वंद्वियों की जासूसी करते हैं, और ऐसे वक्त में लोगों को यह मानकर चलना गलत नहीं है कि वे अगर जरा भी महत्वपूर्ण हैं, तो निशाने पर हैं।
फिर सरकारी अफसर, खासकर खुफिया एजेंसियों के लोग, आने वाली हर सरकार के राजनेताओं को ऐसी कई तरकीबें बताते हैं कि कानूनी-गैरकानूनी तरीकों से कैसे मुकाबले में आगे रहा जा सकता है, और दूसरे लोगों को पीछे छोड़ा जा सकता है। ऐसे आसान औजारों को हथियार की तरह इस्तेमाल करने की सहूलियत हर ताकतवर के मन में लालच पैदा कर देती है, और फिर यह इंसानी मिजाज तो रहता ही है कि दूसरों की बंद जिंदगी में कैसे ताक-झांक की जाए। लोग तुरंत ही कानूनी और गैरकानूनी जासूसी के नफे देखने लगते हैं, और हिन्दुस्तान में शायद ही किसी को यह याद रहता है कि दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमरीका के राष्ट्रपति रहे रिचर्ड निक्सन को किस तरह विपक्ष की जासूसी करने के आरोप में राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देना पड़ा था। जिस किसी नेता को दूसरों की जासूसी करवाने में मजा आता हो, उन्हें यह देखना चाहिए कि अमरीकी राष्ट्रपति का इस हरकत के बाद क्या हाल हुआ था, और महाभियोग से बचने के लिए इस्तीफा देने वाले निक्सन पहले राष्ट्रपति हुए थे जिन पर विपक्षियों की जासूसी की तोहमत पूरी तरह साबित भी हुई थी।
भारत में आज सबसे अधिक इस्तेमाल होने वाली सिरे से सिरे तक सुरक्षित मैसेंजर सर्विस वॉट्सऐप सबसे अधिक लोकप्रिय है, और छोटे-छोटे कारीगर, और कामगार भी इसका इस्तेमाल करते हैं, और निजी संदेशों से परे कारोबारी संदेशों को देखें तो भी हिन्दुस्तान में हर दिन दसियों करोड़ ऐसे संदेश आते-ृजाते हैं जिन पर इस देश की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा टिका हुआ है। हम केन्द्र सरकार की राष्ट्रीय सुरक्षा की जिम्मेदारी और फिक्र की बात नहीं करते, वह तो प्राथमिकता रहनी ही चाहिए, लेकिन उससे संबंधित संदेशों का महत्व इस मैसेंजर सर्विस से देश की अर्थव्यवस्था के साथ तौलकर भी देखना चाहिए कि अगर यह सेवा खत्म हो गई, तो कोई दूसरी सेवा क्या इस जरूरत को पूरा कर सकेगी? क्या भारत सरकार खुद ऐसी कोई मैसेंजर सर्विस शुरू कर सकेगी जिस पर लोगों को भरोसा भी होगा। आज तो पूरी दुनिया में सोशल मीडिया से लेकर ईमेल, और मैसेंजर सर्विसों तक हर चीज निजी हाथों में हैं क्योंकि सरकारी औजारों पर किसी को गोपनीयता का भरोसा नहीं हो सकता। आज से करीब 25 बरस पहले बनी एक अमरीकी फिल्म, एनेमी ऑफ द स्टेट, लोगों को जरूर देखनी चाहिए कि निगरानी रखने की टेक्नॉलॉजी और सरकारी एजेंसियों के बेजा इस्तेमाल से कोई लोकतांत्रिक सरकार भी अपने विरोधियों को किस तरह खत्म कर सकती है। यह फिल्म 25 बरस पहले की अमरीकी सरकार की ताकत का एक नजारा पेश करती है, और तब से अब तक तो टेक्नॉलॉजी ने कई पीढिय़ां तय कर ली हैं, अब निगरानी और नुकसान की सरकारी ताकत कई गुना बढ़ गई है। इसलिए राष्ट्रीय सुरक्षा की जरूरत के लिए भी आज दुनिया की किसी सरकार के हाथ में नागरिकों की हर गोपनीयता देने का मतलब लोकतंत्र को पूरी तरह खत्म कर देना होगा। जहां तक जनता की निजता की बात है, कोई सरकारों पर जरा भी भरोसा नहीं किया जा सकता, यह बात हमने हिन्दुस्तान और इसके प्रदेशों में लंबे समय से देखी हुई है, और जब निगरानी और जांच एजेंसियां सत्तारूढ़ नेताओं के साथ मिलकर मुजरिम गिरोह की तरह काम करने लगती है, तो जनता की निजता की चौकीदारी का, और उसमें ताक-झांक का हक इन लोगों को नहीं दिया जा सकता। आज हिन्दुस्तान में लोगों की निजी जिंदगी से लेकर हजार किस्म के काम-धंधों के बारे में सोचना चाहिए कि वॉट्सऐप जैसी मैसेंजर सर्विसों के बिना इस देश के लोगों का काम कैसे चलेगा? और यह बात तो जाहिर है ही कि जब लोगों की निजी जिंदगी में ताक-झांक के लिए कोई कंपनी सरकार को दरवाजे में एक सुराग बनाकर देगी, तो सरकार उस छेद को अपना सिर भीतर डालने जितना तो बना ही लेगी। अच्छा है कि यह मामला अदालत में पहुंचा हुआ है, और इस पर सरकारी रूख से परे कानूनी नजरिया भी सामने आ जाएगा।