संपादकीय
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पहले गुजरात के सूरत में कांग्रेस उम्मीदवार पार्टी को दगा देकर बैठ गया, और फिर मध्यप्रदेश के इंदौर में तो भाजपा के वहां के सबसे बड़े नेता कैलाश विजयवर्गीय ने खुद गाड़ी में ले जाकर कांग्रेस उम्मीदवार का नाम वापिस करवा दिया। इसके बाद इन दो सीटों पर तो कोई चुनाव बचा ही नहीं। इनके अलावा मध्यप्रदेश की खजुराहो सीट पर इंडिया गठबंधन की समाजवादी पार्टी की प्रत्याशी मीरा यादव का पर्चा खारिज हो गया था क्योंकि उस पर दस्तखत नहीं था। उसे भी सोचा-समझा काम माना जा रहा है। अभी हो सकता है कि देश में कुछ और जगहों पर भी ऐसा हो जाए। लोकतंत्र में कानून के तहत जिस तरह की साजिशों की गुंजाइश रहती है, यह उनमें से कुछ नमूने हैं। न तो ऐसा पहली बार हो रहा है, और न ही भाजपा पहली पार्टी है जो कि ऐसा करवा रही है। लेकिन हैरान यह बात करती है कि जो पार्टी चार सौ से अधिक सीटों का दावा कर रही है, उसे ऐसा करवाने की जरूरत क्या पड़ रही है? क्या भाजपा का आत्मविश्वास (या अतिआत्मविश्वास?) कुछ कमजोर पड़ रहा है कि वह मोदी सरकार और अपनी राज्य सरकारों की सफलता के दावे छोडक़र मंगलसूत्र को मुद्दा बना रही है?
लेकिन इससे परे यह भी याद रखने की जरूरत है कि जब जिस पार्टी की हवा चलती है, वह इसी तरह के काम करने में लग जाती है। छत्तीसगढ़ में 2000 में मध्यप्रदेश से अलग होकर पहली बार कांग्रेस की सरकार बनी, तो एक गैरविधायक अजीत जोगी मुख्यमंत्री बने। उनके पास कांग्रेस विधायकों का पर्याप्त बहुमत था, लेकिन उन्होंने विधानसभा में आने के लिए एक भाजपा विधायक से इस्तीफा दिलवाकर वहां से उपचुनाव लड़ा जो कि भाजपा का राजनीतिक मखौल उड़ाने जैसा काम था। इसके बाद उन्होंने भाजपा के दर्जन भर विधायक खरीदे, क्योंकि विधानसभा के भीतर तो कांग्रेस का स्पष्ट बहुमत था, लेकिन कांग्रेस विधायक दल के भीतर बहुत कम लोग जोगी के नामलेवा थे। इसलिए भाजपा से इतने विधायकों को तोडक़र जोगी ने कांग्रेस विधायक दल में अपनी निष्ठावान सदस्य बढ़ाए थे, और अपनी ताकत का अनुपात बेहतर किया था। इसके तुरंत बाद 2003 का चुनाव हुआ, तो कांग्रेस की बुरी शिकस्त हुई, जोगी सरकार को जनता ने खारिज किया, लेकिन जोगी को यह बर्दाश्त नहीं हुआ, और उन्होंने बस्तर के उस वक्त के भाजपा सांसद बलीराम कश्यप के साथ मिलकर भाजपा से परे एक सरकार बनाने की कोशिश की, इसके लिए नगद रकम भी खर्च की गई, और कांग्रेस विधायक दल की तरफ से जोगी ने राज्यपाल के नाम एक समर्थन पत्र भी दिया जिसमें सोनिया गांधी की सहमति-अनुमति होने का झूठा दावा किया गया था। वह पूरा मामला भांडाफोड़ होने से वह छत्तीसगढ़ की इतिहास का सबसे बड़ा, और देश के इतिहास का एक सबसे बड़ा विधायक खरीद-बिक्री कांड हुआ था।
लोगों को याद होगा इसके बाद प्रदेश में तीन बार राज करने वाली भाजपा की रमन सिंह सरकार के चलते हुए बस्तर के अंतागढ़ उपचुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार को बेचते हुए अजीत जोगी और उनका बेटा अमित जोगी टेलीफोन रिकॉर्डिंग में पकड़ाए, और खरीदते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह, और उनका दामाद कॉल रिकॉर्डिंग में फंसे। जोगी प्रदेश कांग्रेस में कोई और नेता बर्दाश्त नहीं कर पाते थे, और पार्टी को नीचा दिखाने के लिए, उन्होंने अपने प्रभाव वाले उम्मीदवार को सत्तारूढ़ भाजपा के हाथ बेच दिया था, और इस खरीद-बिक्री की टेलीफोन रिकॉर्डिंग्स बताती थी कि अजीत जोगी ने उस वक्त के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल को नीचा दिखाने के लिए क्या-क्या नहीं किया था। इस अंतागढ़ टेपकांड के सारे सुबूत सामने आने के बाद अमित जोगी को पार्टी से निलंबित किया गया था, और इसके साथ ही जोगी का कांग्रेस से नाता भी खत्म हुआ था। आज जिस तरह गुजरात के सूरत में कांग्रेस उम्मीदवार ने आखिरी पल में जाकर अपना नामांकन वापिस लिया है, और उसके साथ-साथ सत्तारूढ़ भाजपा की तमाम मशीनरी ने सूरत के बाकी सारे उम्मीदवारों को शाम-दाम-दंड-भेद से बिठा दिया था, और भाजपा उम्मीदवार की देश में सबसे पहली जीत घोषित हो पाई, ठीक वैसा ही काम छत्तीसगढ़ की अंतागढ़ सीट पर भी किया गया था। अंतागढ़ विधानसभा उपचुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा प्रत्याशी को छोडक़र बाकी हर उम्मीदवार को बिठा दिया गया था, और सिर्फ एक उम्मीदवार सत्ता की पकड़ में नहीं आया था, इसलिए चुनाव की नौबत आई थी, वरना सूरत की तरह वहां भी बिना चुनाव सत्तारूढ़ पार्टी के उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित कर दिया गया होता।
देश में वामपंथी दलों को छोडक़र अधिकतर पार्टियां ऐसी रही हैं जिन्हें किसी भी तरह की खरीद-बिक्री से परहेज नहीं रहा। नेता निजी स्तर पर बिकते हैं, और पार्टियां संगठन के स्तर पर खरीददारी करती हैं, भारतीय संसदीय व्यवस्था दुनिया की एक सबसे अश्लील और बेशर्म मंडी बनी हुई है। दिक्कत यह है कि चुनाव कानूनों के तहत इनमें से कोई भी बात जुर्म नहीं है, और लोग अपनी काया या आत्मा जो भी बेचें, उसमें कुछ गैरकानूनी नहीं रहता। इतना जरूर है कि इस देश में देह बेचने वाली महिलाओं को तो जेल भेजने का पूरा इंतजाम है, लेकिन आत्मा बेचने वाले उम्मीदवारों, निर्वाचित नेताओं, और बाकी राजनेताओं के सम्मान के लिए मालाएं हैं, कानून की अदालत में रियायत है, जांच एजेंसियों से छूट है। अभी इंदौर में जिस कांग्रेस उम्मीदवार ने आखिरी पल में अपना नाम वापिस लिया और भाजपा में शामिल हुआ, उसके बारे में बताया जा रहा है कि राज्य पुलिस ने उसके खिलाफ कोई पुराना मामला ढूंढकर उसमें कोई नई गंभीर दफा जोड़ी थी, और रातों-रात कांग्रेस से गद्दारी करने के पीछे शायद वह भी एक वजह थी।
आज देश भर में मोदी सरकार की जांच एजेंसियों के घेर में आए हुए लोगों के भाजपा में जाने के बहुत से मामले गिनाए जाते हैं। लेकिन यह याद रखने की जरूरत है कि इमरजेंसी के वक्त जगजीवन राम को कांग्रेस छोडक़र विपक्ष में जाने से रोकने के लिए किस तरह की कोशिशें की गई थीं, और फिर मानो उन्हें सजा देने के लिए उनके बेटे सुरेश राम की 21 बरस की छात्रा-मित्र के साथ नग्न तस्वीरों से मेनका गांधी की पत्रिका, सूर्या, का पूरा एक अंक ही भर दिया गया था। इस पूरे स्कैंडल से जगजीवन राम के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने की हसरतें धरी रह गई थीं। इसलिए किसी को पार्टी छोडऩे से रोकने के लिए, या पार्टी छोडऩे की सजा देने के लिए तरह-तरह के अनैतिक कामों का इस देश में लंबा इतिहास रहा है। आज भाजपा लोगों को घेरकर जांच और मुकदमे की नोंक पर अपनी पार्टी में ला रही है, लेकिन यह नया सिलसिला नहीं है, इन दिनों बहुत अधिक बढ़ा हुआ जरूर है। ऐसा लगता है कि न तो भारत का चुनाव कानून, और न ही किसी दूसरे तरह के कानून ऐसी साजिशों को रोक पा रहे हैं, हमारा यह मानना है कि दलबदल करने वाले लोगों के खिलाफ कानून कड़ा करने की जरूरत है। लोग अगर थोक में भी दलबदल करें, तो भी इसे नए दल के रूप में मान्यता देने के बजाय सभी का बचा हुआ कार्यकाल खत्म करने के बारे में भी सोचना चाहिए कि क्या वह प्रावधान अधिक न्यायसंगत होगा? इसके अलावा नई पार्टी में किसी के जाने पर कुछ बरस तक उसके चुनाव लडऩे पर रोक रहनी चाहिए, ऐसा इसलिए भी होना चाहिए कि रातों-रात इम्पोर्ट करके अगली सुबह उम्मीदवार बनाने की बेइंसाफी खत्म हो सके। आज भाजपा ने दूसरी पार्टियों से इतने अधिक लोगों को लाकर उम्मीदवार बनाया है कि एक मजाक चल रहा है कि जो लोग बचपन से शाखा जाते थे, और जनसंघ के वक्त से पार्टी में लगातार बने हुए हैं, उन्हें भाजपा टिकटों में आरक्षण मिलना चाहिए। लेकिन मजाक से परे हकीकत यह है कि अपनी पार्टी को धोखा देकर दूसरी पार्टी से चुनाव लडऩे के सिलसिले को कुछ खत्म किया जाना चाहिए, इसे कैसे किया जा सकता है, उस पर चर्चा होनी चाहिए।