संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ...परंपरागत घरेलू व्यंजन, और चटपटे बाजारू खतरे
13-May-2024 6:52 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :   ...परंपरागत घरेलू व्यंजन, और चटपटे बाजारू खतरे

अमरीका के प्रतिष्ठित हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने 30 बरस तक चला एक लंबा अध्ययन किया और इसमें एक लाख से अधिक बालिग लोगों के खानपान को देखा गया। ये तमाम वे लोग थे जो बाजार में बने या पके हुए प्रोसेस्ड फूड खाते थे, और इनमें इस्तेमाल होने वाले नमक, शक्कर, फैट, और रसायनों की वजह से उन पर मौत का खतरा ऐसा खानपान न करने वाले लोगों के मुकाबले 9 फीसदी अधिक मिला। यह आंकड़ा कम नहीं होता है क्योंकि बाकी पैमाने बराबर रहने पर भी अगर ऐसे खानपान से तकरीबन 10 फीसदी अधिक मौतें हुई हैं, तो मौत से परे के दूसरे खतरों को भी देखा जा सकता है। अमरीकी बाजार में जिसे अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड कहा जाता है, वहां की आबादी का एक बड़ा हिस्सा उसे नियमित रूप से खाते रहता है। बहुत से कामकाजी लोग, और घर के बाहर खाने वाले लोग इसी तरह की चीजों को खाकर जिंदा रहते हैं, इनके अलावा अनगिनत अमरीकी परिवार ऐसे हैं जिनके घरों में नाश्ते से लेकर खाने तक इसी तरह कारखानों में बने सामान इस्तेमाल होते हैं, और वे स्वाद को बढ़ाने के लिए तरह-तरह के रसायनों की साजिश वाले तो रहते ही हैं, वे अपने पैकिंग में तरह-तरह की जालसाजी से उसमें इस्तेमाल हानिकारक चीजों को या उनकी मात्रा को छुपाते हैं। यह बात तो अमरीका और यूरोप के विकसित और जागरूक देशों में भी होती हैं, भारत जैसे कारोबारी-दबाव वाले देश में बहुत ही बुरा हाल है। 

हम समय-समय पर बाजारू खानपान के बारे में सावधान करते रहते हैं। आज छोटे-छोटे बच्चों के दूध पावडर, और घरेलू दलिया के उनके बाजारू विकल्प में अंधाधुंध शक्कर मिली पाई गई है। यह भी पाया गया है कि यही कंपनी अमरीका और योरप में ऐसी गड़बड़ी नहीं करती, क्योंकि कानून वहां कड़ा है। हिन्दुस्तान को तो मानो बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपनी मनमानी का अड्डा बना लिया है क्योंकि यहां की भ्रष्ट सरकारों से किसी भी तरह की बाजारू छूट ले लेना बड़ा आसान है। यहां पर खानपान के सामानों की पैकिंग पर चेतावनियां उस तरह से नहीं लिखी जातीं जिस तरह किसी भी विकसित और जागरूक लोकतंत्र में यही कंपनियां करती हैं। कायदे की बात तो यह है कि सेहत की सावधानी एक जगह सुझाने और दूसरे जगह न सुझाने को मासूम नहीं माना जा सकता, और ऐसी कंपनियों के खिलाफ धोखाधड़ी और जालसाजी, और इसके साथ-साथ जनता की सेहत को खतरा खड़ा करने के जुर्म में भी अदालत में घसीटना चाहिए। 

दुनिया में सबसे अच्छा खाना घर पर बना हुआ, घरेलू या आम सामानों से पकाया हुआ खाना रहता है। लेकिन अब तो हिन्दुस्तान के कस्बाई शहरों तक में घर पर खाना पहुंचाने वाली कंपनियों का कारोबार इतना फैल चुका है कि चटपटा और रासायनिक-जायकेदार खाना मंगाकर खाने का चलन बहुत तेज रफ्तार से बढ़ रहा है। अगर लोग इतना खर्च उठा पाते हैं, तो वे पकाने की जहमत से बच भी जाते हैं। इन सबके चलते हुए बाजार का पका खाना, और बाजार से डिब्बाबंद आने वाले सामानों को बड़ा साफ-सुथरा और सेहतमंद मान लिया गया है। बचपन से ही दूध पावडर से लेकर बेबी फूड तक का इस्तेमाल डॉक्टर और सरकार दोनों की चेतावनियों के बावजूद अंधाधुंध किया जाता है। जिन बच्चों को मां की दूध पर ही रहना चाहिए, उन्हें भी बाजार के हवाले कर दिया जाता है। हालत इतनी खराब हो गई है कि गरीब मजदूरों के बीच भी अपने बच्चों के लिए बाजार में मिलने वाले नमकीन या मीठे सामानों के पैकेट खरीदकर बच्चों को चुप करवाना अधिक सहूलियत का काम हो गया है, क्योंकि उन्हें भूख लगने पर उनके लिए उसी वक्त समय निकाल पाना हर मजदूर मां के लिए मुमकिन नहीं होता है। एकदम बचपन से ही बाजार के अतिरिक्त शक्कर-नमक पर टिके रहने वाले बच्चे हिन्दुस्तान में कमउम्र में डायबिटीज होने का खतरा उठा रहे हैं, और यह बड़ी संख्या में बढ़ते चल रहा है। 

कारखानों में बने हुए तरह-तरह के सामानों को संपन्न तबका संपन्नता की सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक भी बना लेता है, और आने-जाने वाले मेहमानों के सामने परंपरागत घरेलू नाश्ता पेश करने के बजाय सब कुछ बाजारू पेश करने को रईसी माना जाता है। नतीजा यह होता है कि इस वक्त मौजूद बच्चे भी अतिरिक्त स्वाद वाले ऐसे सामान खाते हैं, और बाद में उन्हीं से बंधे रह जाते हैं। आज दुनिया के बहुत से वैज्ञानिक अध्ययन इस बात को अच्छी तरह स्थापित कर चुके हैं कि इस तरह का खानपान अधिक करने वाले लोग दिल की बीमारियों, डायबिटीज, किडनी, और फेंफड़े की बीमारियों का, कैंसर का खतरा अधिक विकसित कर लेते हैं, और घरेलू खानपान करने वाले के मुकाबले कमउम्र में बुरी मौत मरते हैं। ये जब तक जिंदा रहते हैं, तब तक भी ये बीमारियों से घिरे रहते हैं, एक तरफ तो जुबान पर बस गया बाजारू खानपान महंगा पड़ता है, दूसरी तरफ उसकी वजह से कपड़ों पर खर्च अधिक होता है, इलाज पर खर्च अधिक होता है, इलाज का बीमा महंगे में मिलता है, और लोग कमउम्र में चल बसते हैं। इसलिए खानपान की किसी भी किस्म की बाजारू चीज को बीमारी मानकर चलना ही ठीक है। 

जो लोग इस तरह के खानपान में पड़ते हैं, वे अपने बच्चों में भी इसकी आदत पडऩे का बहुत बड़ा खतरा पालकर चलते हैं, और फिर यही खतरा डीएनए से लेकर मिजाज तक, सभी तरह बढ़ते चलता है। इसलिए ऐसी नुकसानदेह और खतरनाक विरासत छोडक़र जाना ठीक नहीं है, विरासत में मकान-दुकान चाहे न छोड़ें, खानपान की बुरी आदत, तम्बाकू और सिगरेट की लत जैसी चीजों तो बिल्कुल ही नहीं छोडऩा चाहिए। फिर इस बात को भी समझना चाहिए कि खानपान के घरेलू सामानों के किसी भी तरह के बाजारू विकल्प धरती पर अधिक प्रदूषण भी खड़ा करते हैं, उनकी पैकिंग का प्रदूषण बहुत से मामलों में हजारों बरसों का रहता है। इसलिए जेब की रकम और धरती को, सेहत को और डीएनए को बर्बाद करने के बजाय लोगों को परांपरागत घरेलू खानपान की तरफ लौटना चाहिए, और अगर आपके मेहमान समझदार हैं, तो वे बाजारू चीजों के मुकाबले घर की बनी चीजों को अधिक बड़ा सम्मान मानेंगे। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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