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बच्चों की रचनात्मकता नष्ट कर मशीन का पुर्जा..
14-May-2024 4:09 PM
बच्चों की रचनात्मकता नष्ट कर मशीन का पुर्जा..

 विष्णु नागर

हमारे समय में ये चूहा- दौड़ नहीं थी कि 90 प्रतिशत नंबर भी आए हैं तो मुंह लटका हुआ है। फेल होने जैसा अहसास है। हमारे समय तो साठ प्रतिशत अंक भी आ जाएं तो बहुत बड़ी बात मानी जाती थी। 90 और 100 प्रतिशत अंक लाने की बात तो सपने तक में सोच नहीं सकते थे,जबकि इस बार तो दसवीं के 11 हजार छात्र-छात्राओं को गणित में सौ में से सौ नंबर मिले हैं! यह भेडिय़ा धसान है और कुछ नहीं।

मेरे बच्चे जब पढ़ रहे थे, तब चूहा -दौड़ तो थी मगर ऐसी नहीं थी। हमें किसी कोचिंग सेंटर में उनको भेजने की न जरूरत हुई, न उन्होंने इसकी आवश्यकता महसूस की। साल में कुछ महीने ट्यूशन जरूर की मगर दिन- रात उसी में भिड़े हैं, ऐसी स्थिति नहीं थी। उन्हें खेलने का, कोर्स के इतर तरह- तरह की किताबें- पत्रिकाएं पढऩे का, अलग- अलग तरह की रुचियों को विकसित करने का भरपूर मौका मिला।

 उन्होंने जीवन का तब भी आनंद लिया और अब भी ले रहे हैं। वे एक जगह पहुंच गए हैं मगर उसके बाद उन्हें और ऊंची किसी जगह पहुंचने की कोई जल्दी नहीं है, वे किसी प्रतियोगिता में नहीं हैं। स्वाभाविक रूप से, उनकी योग्यता के अनुरूप मिले तो ठीक वरना कोई हाय -हाय नहीं। कोई कुंठा नहीं।

यह सब किसी और का नहीं, उस समय का कमाल है, जो उन्हें बचपन और छात्र जीवन में अपनी तरह का बनने के लिए मिल सका। जीवन ने उन्हें सफलता की मशीन बनाकर नहीं छोड़ा। अपनी तरह विकसित होने का अवकाश दिया।

और हम भी जो साधारण सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में पढ़े, न पढऩे में कभी बहुत अच्छे थे, न खेलने में, न किसी और काम में, सबमें सामान्य थे, हम भी कुल मिलाकर ठीक ही रहे।

और ये सब ख्याल आया आज ' इंडियन एक्सप्रेस ' में जेएनयू के भूतपूर्व प्रोफेसर अभिजीत पाठक का लेख पढक़र, जो उन्होंने नंबर की दौड़ में छात्रों की रचनात्मकता को नष्ट करने, उसे मशीन का पुर्जा बना देने के विरुद्ध लिखा है।

अब भी बच्चे रचनात्मक बनते हैं मगर उसके लिए ऐसी जिद होनी चाहिए, जो सफलता के तमाम आकर्षणों को ठुकरा सके। उनके आगे मजबूती से खड़ी रह सके, जबकि उनके आसपास सफलता का समुद्र लहरा रहा है और अनेक मामलों में उनके मां-बाप इतने समर्थ हैं कि उन्हें इस समुद्र का अच्छा तैराक बनाने की स्थिति में हैं!

मेरे मन में भी एक बार यह कुंठा जागी थी कि पढऩे में आगे रहनेवाला मेरा बेटा आइएएस बने। उसने इससे साफ इन्कार कर दिया और आज इन अफसरों की हालत देखता हूं तो उसने बहुत अच्छा निर्णय लिया।

और जो कहानी मैं अपने बच्चों के माध्यम से कह रहा हूं, वह केवल मेरे बच्चों की नहीं, कमोबेश उनके समय की कहानी है। यह अलग बात है कि उनमें से किसने आगे चलकर क्या रास्ता चुना मगर उनके समय ने उन्हें चुनाव की आजादी दी थी,जो अब सिकुड़ती जा रही है। समाज रचनात्मक सोच का दुश्मन बनता जा रहा है।सफलता एक ऐसा शून्य पैदा कर रही है, जो जीवन को सुविधाओं से संपन्न करने के साथ जीना मुश्किल बनाती जा रही है। एक निरुद्देश्य जीवन सबकी महत्वाकांक्षा बनता जा रहा है।

इस समय जो सफल हैं, वे सबसे अधिक असफल हैं।

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