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अब शायद ही कोई ऐसा नेता होगा..
14-May-2024 4:04 PM
अब शायद ही कोई ऐसा नेता होगा..

पुष्य मित्र

2013-14 की बात होगी, जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी को अपना पीएम कैंडीडेट घोषित कर दिया था। मोदी बिहार में रैली करने आने वाले थे। तब नीतीश कुमार ने कहा था, हमारे पास, बिहार भाजपा के पास अपना मोदी है ही। हमें किसी और मोदी की जरूरत नहीं। कभी इतने पावरफुल से नीतीश और सुशील मोदी।

तब सुशील मोदी उनके डिप्टी हुआ करते थे। दोनों की जोड़ी शासन के लिहाज से अच्छी मानी जाती थी। सुशील मोदी नीतीश को प्रिय थे। मगर भाजपा के लोगों ने इसका मतलब यह लगाया कि सुशील मोदी ने नीतीश के आगे भाजपा को समर्पण करा दिया है, अब जब तक सुशील मोदी रहेंगे बिहार में भाजपा आत्मनिर्भर नहीं हो पाएगी। ऐसे में 2020 में सुशील मोदी को साइड लाइन कर दिया गया। उनके मित्र नीतीश की एक न चली।

साइड लाइन होने पर सुशील मोदी नीतीश और उनकी सरकार पर तब हमलावर होने लगे जब नीतीश राजद के साथ चले गए। तब नीतीश उनकी बातों को यह कह कर हंसी में उड़ाते रहते कि क्या कीजिएगा, उनकी पार्टी में इसी वजह से पूछ बढ़ जाए तो अच्छा ही न है। मगर सुशील मोदी की भाजपा में पूछ नहीं बढ़ी। वे खुद ही स्वयं सेवक भाव से तथ्य और तर्कों से पार्टी की सेवा करते रहे। पार्टी उन्हें निर्ममता से साइड लाइन करती रही। शायद इसकी एक ही वजह थी कि कभी सुशील मोदी ने कह दिया था नीतीश में पीएम बनने के सभी गुण हैं।

फिर नीतीश भाजपा के साथ आ गए और खुद भी उसी गति को प्राप्त हो रहे हैं, जिस गति में उनके मित्र सुशील मोदी थे। दोनों ने संघर्ष के बदले समझौते को तरजीह दी थी। समर्पण किया था।

देख रहा हूं, आज जब सुशील मोदी की अंतिम यात्रा निकल रही है, आज भी उनके फेसबुक पेज से नरेंद्र मोदी के वाराणसी सीट से नामांकन के वीडियो को लाइव किया जा रहा है। उनके निधन का जिक्र तक नहीं।

निश्चित तौर पर सुशील मोदी तथ्य और तर्क के सहारे लोकतांत्रिक राजनीति करने वाले एक दक्षिणपंथी नेता थे, सौभाग्य से उनकी राजनीति का उभार समाजवादियों के संगत में हुआ था। जेपी आंदोलन की छाप उन पर थी। मगर वे और उनके जैसे नेता 2014 के बाद अपनी ही पार्टी में मिसफिट होते चले गए। वे उग्र हिंदुत्व की राजनीति चाह कर भी ठीक से नहीं कर पाते थे। लोकतांत्रिक मान्यताओं के बीज उनमें थे।

एक दफा बिहार के वित्त विभाग से जुड़ी एक स्टोरी के सिलसिले में मैं उनसे बाइट लेने गया था। तब बिहार में महागठबंधन की सरकार थी। उन्होंने मना कर दिया यह कहते हुए कि जिस विभाग में मैं रहता हूं, उसके बारे में मैं दो तीन साल कोई भी कमेंट करने से बचता हूं। यह मैंने नीतीश जी से सीखा है। वे भी रेल मंत्रालय से हटने के बाद उससे जुड़े विषय पर टिप्पणी करने से बचते थे। पता नहीं उन्होंने यह दिल से कहा या मुझे किसी बहाने से टालना चाहते थे। मगर यह बात उस वक्त मुझे अच्छी लगी। अब वे चले गए हैं। कैंसर ने उन्हें हमसे छीन लिया है। एक पत्रकार के तौर पर मुझे उनकी कमी खलेगी, क्योंकि भाजपा में अब शायद ही कोई ऐसा है जिससे वैसी बातें की जा सकेगी, जैसी उनसे की जा सकती थी। और अब शायद ही कोई ऐसा नेता भी होगा जो हर कॉल का कॉल बैक करेगा। अलविदा। नमन

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