विचार / लेख
इकबाल अहमद
लोकसभा चुनाव के छह चरण हो चुके हैं और अब सिफ़$ सातवां और अंतिम चरण बाकी है। इसके लिए एक जून को वोट डाले जाएंगे।
चार जून को वोटों की गिनती होगी।
इस बार के चुनाव प्रचार में वैसे तो सत्ताधारी बीजेपी और विपक्ष ने कई मुद्दों को उठाया लेकिन एक बात जिसकी शायद सबसे ज़्यादा चर्चा हुई वो है भारतीय संविधान और आरक्षण।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव के शुरुआती दौर से ही इस बार चार सौ पार का नारा दिया।
ज़ाहिर है जब मोदी ने यह नारा दिया तो उनकी पार्टी और एनडीए गठबंधन के दूसरे घटकों ने भी इसको अपनी-अपनी रैलियों में दोहराना शुरू कर दिया।
बीजेपी के कुछ नेताओं और सांसदों के इस तरह के कुछ बयान भी आए।
बीजेपी नेताओं के बयान
उत्तर प्रदेश के फैजाबाद (अब अयोध्या) से सांसद और बीजेपी उम्मीदवार लल्लू सिंह ने कहा था ‘कि सरकार तो 272 सीटों पर ही बन जाती हैं, लेकिन संविधान बदलने या संशोधन करने के लिए दो-तिहाई सीटों की ज़रूरत होती है।’
कर्नाटक बीजेपी के वरिष्ठ नेता और छह बार सांसद रहे अनंत कुमार हेगड़े ने एक बयान में कहा था, "संविधान को ‘फिर से लिखने’ की जरूरत है। कांग्रेस ने इसमें अनावश्यक चीजों को जबरदस्ती भरकर संविधान को मूल रूप से विकृत कर दिया है, ख़ासकर ऐसे कानून लाकर जिनका उद्देश्य हिंदू समाज को दबाना था, अगर ये सब बदलना है, तो ये मौजूदा बहुमत के साथ संभव नहीं है।’
हालांकि बीजेपी ने उनके बयान से किनारा काटते हुए उनका टिकट भी काट दिया।
राजस्थान के नागौर से बीजेपी उम्मीदवार ज्योति मिर्धा का एक बयान भी वायरल हुआ था। एक वीडियो में मिर्धा कहती नजऱ आ रही थीं, ‘देश के हित में कई कठोर निर्णय लेने होते हैं। उनके लिए हमें कई संवैधानिक बदलाव करने पड़ते हैं।’
विपक्ष और खासकर उसके सबसे बड़े घटक दल कांग्रेस ने यह कहना शुरू कर दिया कि बीजेपी इसलिए 400 सीटें चाहती है ताकि वो संविधान को बदल सके और दलितों-पिछड़ों के मिलने वाले आरक्षण खत्म कर सके।
बीजेपी के इन्हीं कुछ नेताओं के बयान को आधार बनाकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी, राजद नेता लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव, शिवसेना (उद्धव गुट) के उद्धव ठाकरे समेत विपक्ष के लगभग हर नेता कहने लगे कि अगर मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बनते हैं तो संविधान और आरक्षण दोनों खतरे में पड़ जाएगा।
विपक्ष का यह नारा वाकई संविधान को बचाने के लिए है या दलित और पिछड़े मतदाताओं को अपनी ओर खींचने के लिए है, यह कहना तो मुश्किल है लेकिन इतना जरूर है कि यह मुद्दा पूरे प्रचार में छाया रहा है।
एससी-एसटी का आरक्षण
केंद्र सरकार के अंतर्गत आने वाले शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में दलितों (लगभग 15 फीसद), एसटी (लगभग 7.5 फीसद) और पिछड़ों (27 फीसद) को आरक्षण मिलता है।
राज्यों में भी उनको आरक्षण मिलता है लेकिन उनकी संख्या में कुछ फर्क होता है।
इसके अलावा अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लोगों के लिए संसद और विधानसभाओं में सीटें भी आरक्षित होती हैं।
संसद की कुल 545 सीटों में दो सीटें एंग्लो-इंडियन लोगों के लिए आरक्षित होती हैं, जिनका नामांकन राष्ट्रपति करते हैं। बाकी 543 सीटों के लिए चुनाव होते हैं।
इन 543 सीटों में से 84 सीटें अनुसूचित जातियों और 47 सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित होती हैं।
विधानसभाओं में भी एससी-एसटी के लिए सीटें आरक्षित होती हैं।
संविधान संशोधन
भारतीय संविधान में संशोधन की एक जटिल प्रक्रिया है। संविधान के अनुच्छेद 368 में संविधान और उसकी प्रक्रियाओं में संशोधन करने की संसद की शक्ति का जिक्र है।
कुछ संशोधन संसद में साधारण बहुमत से पास हो जाते हैं और कुछ संशोधन के लिए विशेष बहुमत (दो तिहाई) की जरूरत होती है।
इसके अलावा कुछ संशोधन में विशेष बहुमत के अलावा आधे राज्यों की विधानसभाओं की भी मंजूरी अनिवार्य होता है।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने बहुचर्चित बोमई केस (1994) में संविधान के ‘मूल ढांचे’ की व्याख्या करते हुए यह साफ कर दिया है कि संविधान के मूल ढांचे में किसी भी तरह का संशोधन नहीं किया जा सकता है।
भारतीय संविधान में हालांकि सौ से ज़्यादा बार संशोधन हो चुके हैं और यह ज़्यादातर उस वक्त हुए हैं, जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार रही है। तो फिर इस बार ऐसा क्या है कि इसकी ना सिर्फ चर्चा हो रही है बल्कि सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष दोनों इसे अपने चुनावी प्रचार का हिस्सा बना रहे हैं।
कुछ लोगों को लगता है कि सदन के सारे काम तो संसद की साधारण बहुमत से हो ही सकते हैं, ऐसा क्या है जिसे करने के लिए बीजेपी को 400 सीटों की जरूरत है?
विपक्ष इसी बात को आधार बनाकर वोटरों और खासकर दलितों और पिछड़ों को यह बताने की कोशिश कर रहा है कि प्रधानमंत्री संविधान को बदलने और आरक्षण को ख़त्म करने के लिए 400 सीट चाहते हैं।
तो सवाल उठता है कि क्या विपक्ष के इस दावे का कुछ असर दलितों पर भी पड़ा है और क्या वो वाक़ई इस बात को लेकर चिंतित हैं कि बीजेपी की जीत से संविधान को ख़तरा हो सकता है या आरक्षण खत्म हो सकता है।
यह जानने के लिए हमने बिहार, यूपी, महाराष्ट्र और पंजाब चार राज्यों में लोगों से बात की।
इसे जानने और समझने के लिए बीबीसी संवाददाता चंदन जजवाड़े ने बिहार के कुछ इलाकों का दौरा किया और अलग-अलग लोगों से बात की।
छपरा जिले के महाराजगंज लोकसभा के शामपुर गाँव के रहने वाले विश्वजीत चौहान अंग्रेज़ी में पीजी की पढ़ाई कर रहे हैं।
बीबीसी से उन्होंने कहा, ‘जिन लोगों को आरक्षण का लाभ मिलता है, उस समाज में यह बात जरूर पहुँची है कि बीजेपी की सरकार आरक्षण को खत्म कर सकती है और इसका वोटिंग पर भी असर पड़ रहा है। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है कि बीजेपी के कई बड़े नेताओं ने अलग-अलग मंच से आरक्षण को खत्म करने को लेकर बयान दिए हैं।’
पटना के मनेर इलाक़े के रहने वाले विकास कुमार, मगध विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे हैं।
उनका कहना है, ‘दलितों में यह चेतना है कि बीजेपी आरक्षण को खत्म कर सकती है या इसे कम कर सकती है। इसी के लिए ईडब्लूएस कैटिगरी को लाया गया है। आरक्षण का लाभ पाने वाले जो सामाजिक दंश को झेलते हैं, उनके मन में संविधान और आरक्षण के भविष्य को लेकर डर है और यह उनके वोटिंग पैटर्न में जरूर दिख रहा है।’
लेकिन ऐसा नहीं है कि सभी लोग एक जैसा ही सोचते हैं।
बीजेपी पर भले ही संविधान बदलने और आरक्षण खत्म करने के आरोप विपक्ष लगा रहा है। पर बिहार में दलित नेता चिराग पासवान और जीतनराम मांझी बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए में हैं।
दलित बस्ती का हाल
बीबीसी संवाददाता चंदन जजवाड़े सिवान जिले के सरावे गांव में एक दलित बस्ती पहुंचे।
विश्वकर्मा मांझी इस गाँव के सरपंच भी रह चुके हैं। उनका कहना है कि गांव में ऐसी बातों का कोई असर नहीं दिखता है।
वो कहते हैं, ‘हमारी समझ में संविधान को नहीं बदला जा सकता और न ही बदला जाना चाहिए। जो पढ़ा लिखा होगा जिसको जानकारी होगी उसे कोई डर नहीं होगा कि संविधान बदल जाएगा और आरक्षण छीन लिया जाएगा। चुनाव में इस तरह की बात होती रहती है लेकिन इससे कोई फक़ऱ् नहीं पडऩे वाला।’
इसी गांव के रहने वाले भीखू राम कहते हैं, ‘ऐसी कोई बात गांव में नहीं है। आरक्षण और संविधान खत्म कैसे हो जाएगा? अभी मोदी जी चावल और गेहूं देते हैं। लेकिन चुनाव किस मुद्दे पर होगा, लोग किस मुद्दे पर वोट करेंगे यह अभी 4- 5 दिनों में तय होगा?’
सरावे गांव के इंद्रजीत राम कहते हैं, ‘यहां ऐसा कोई डर नहीं है। ऐसे संविधान कैसे बदल देंगे। देश संविधान से चलता है। आरक्षण भी संविधान से मिला है। कोई भी पार्टी संविधान से चलती है। संविधान ऐसी चीज नहीं है कि आज लिख दिया, कल बदल दिया। हमारे लिए मुद्दा शिक्षा है।’
पटना के एएन सिंहा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज़ के प्रोफेसर विद्यार्थी विकास ने दलितों और आदिवासियों के सामाजिक आर्थिक पहलू पर काफी शोध किया है।
बीबीसी संवाददाता चंदन जजवाड़े से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘इसकी हकीकत जानने के लिए आपको गौर करना होगा कि आरक्षण और संविधान का फायदा किसे मिलता है। अगर आप बिल्कुल आम दलितों की बात करेंगे तो उन्हें चावल और रोटी की जरूरत ज़्यादा बड़ी दिखती है।’
‘लेकिन पढ़े लिखे तबक़े, जिनको आरक्षण का लाभ लेना है, उनमें यह बिल्कुल स्पष्ट है कि पिछले दस साल में संविधान के कई प्रावधानों पर धीरे-धीरे हमले किये गए हैं। एक बार तो राज्यसभा में प्रस्ताव भी गया था कि इससे सेक्युलरिज़्म जैसे शब्द हटा दिए जाएं, फिर इसपर मनोज झा (राजद के राज्यसभा सांसद) ने काफी बहस की थी। पढ़े लिखे दलितों और उनके परिवार को इसकी जानकारी भी है और इसका डर भी है कि अगर केंद्र में बीजेपी की सरकार लौटी तो उनका आरक्षण खत्म हो जाएगा।’
एसआर दारापुरी यूपी के रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं।
बीबीसी की सहयोगी पत्रकार नीतू सिंह से बातचीत में वो कहते हैं, ‘ये बिल्कुल चिंता है, आशंका है। जैसा कि भाजपा के लोग दावा भी कर रहे हैं कि अगर बहुमत से हमारी सरकार आई तो संविधान बदल देंगे।’
‘समय-समय पर आरक्षण के रिव्यू की बात करते हैं कि इसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए। तो ये दोनों दावे दलितों के हित में नहीं हैं। ये संविधान को बदल देंगे और जो आरक्षण है, उसे खत्म तो नहीं करेंगे लेकिन आरक्षण को नाकारा कर देंगे।’
अगर वाक़ई इस तरह का डर है तो क्या उनके वोटिंग पैटर्न पर भी इसका असर पड़ रहा है, इस सवाल के जवाब में दारापुरी कहते हैं, ‘अभी तक जो चुनाव हुआ है, दलितों ने इसी अंदेशे को देखते हुए एक रणनीति अपनाई है कि भाजपा हराओ और गठबंधन जिताओ। वो मायावती को भी वोट नहीं दे रहे हैं।’
‘लखीमपुरखीरी में अभी ख़ुद मैंने अपना वोट किया हैं। वहां पर मैंने देखा कि दलित का मुख्य लक्ष्य भाजपा को हराना है जिसका मतलब गठबंधन को जिताना है। जो जागरूक दलित हैं वो मायावती को कत्तई वोट नहीं दे रहे हैं। इस वक्त वोट डालने के पैटर्न में बहुत बड़ा परिवर्तन दिखाई देता है। वो भाजपा के खिलाफ खड़े दिख रहे हैं।’
वोटर्स क्या सोच रहे हैं?
उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जि़ले के पथखुरी गाने के कल्ला चौधरी दलित समाज से आते हैं।
वो कहते हैं, ‘हम पारंपरिक रूप से बहुजन समाज पार्टी के वोटर रहे हैं। उससे पहले कांग्रेस को वोट दिया करते थे। लेकिन अब माहौल दूसरा है, सरकार आरक्षण ख़त्म करने का प्रयास कर रही है, कर पाती है कि नहीं यह बात अलग है।’
कल्ला कहते हैं, ‘अलायंस को वोट करेंगे। एक तो हमारी पार्टी कमजोर है, दूसरा बीजेपी को हराना उद्देश्य है।’
बांदा जिले के तिन्दवारी गांव के एक दलित टोले में कुछ महिलाएं सुबह के वक़्त पानी भर रही हैं, थोड़ी ही दूर पर गांव के पुरुष ताश खेल रहे हैं। उनसे बात करने के लिए नीतू सिंह जब उनके पास रुकीं और चर्चा शुरू की तो ज़्यादातर लोगों को चुनाव में कोई रुचि नहीं दिखी, महिलाओं को तो यह भी नहीं पता था कि उनके यहां वोटिंग कब है।
हालांकि पुरुष इस मामले में जागरूक दिखे। मंशाराम कहते हैं, ‘सरकार मनुस्मृति को लागू करना चाहती है। दलित किस हाल में हैं यह तो टोले को देखकर अंदाज़ा लगा ही सकते हैं। ऐसे में आरक्षण भी खत्म कर देंगे तो हमारा क्या होगा?’
वह कहते हैं, ‘हम बसपा को वोट देंगे। हम तो बसपा को ही जानते हैं।’
सपा-कांग्रेस गठबंधन को वोट न देने का कारण बताते हुए रामाधार चौधरी कहते हैं, ‘उनकी सरकारों में गुंडागर्दी ज़्यादा होती है। हमारे लोगों के साथ अक्सर मार पीट जैसी घटनाएं होती हैं। ऐसे में हम क्या करें वोट बसपा को ही देंगे, बहन जी ने हमें बहुत अधिकर दिए हैं।’
महाराष्ट्र में भी दलितों के बीच इस बात को लेकर चिंता जताई जा रही है कि संविधान के साथ कुछ छेड़छाड़ या बदलाव की आशंका है।
कई दलित बहुल इलाक़ों में यह एक चुनावी मुद्दा भी बनता हुआ नजऱ आया। 2011 की जनगणना के अनुसार, महाराष्ट्र में दलितों की आबादी करीब 12 फीसद हैं।
विदर्भ में दलितों और आदिवासियों की एक बड़ी संख्या रहती है। यहां पहले दो फेज में चुनाव हुए थे। ना सिर्फ राजनीतिक दल और उनके कार्यकर्ता बल्कि आम लोग और सामाजिक कार्यकर्ता भी इस मुद्दे पर बातचीत कर रहे हैं।
नागपुर स्थित वरिष्ठ पत्रकार रवि गजभिए ने बीबीसी संवाददाता मयूरेश कोण्णूर से बातचीत करते हुए कहा, ‘चुनाव की घोषणा से पहले ही ईवीएम को लेकर यहां जो विरोध प्रदर्शन हुए थे उसी दौरान नागपुर और विदर्भ के इलाक़ों में संविधान बदलने की आशंका पर बातचीत होने लगी।’
‘नागपुर के संविधान चौक पर कुछ दलित कार्यकर्ता, वकील और सामाजिक कार्यकर्ता धरने पर बैठे थे। उसी से यह बात निकलने लगी कि यह लोग (बीजेपी) ईवीएम के सहारे 400 सीटें जीतेंगे और फिर संविधान पर खतरा मंडराने लगेगा। कई कार्यकर्ताओं ने इसे दलित और पिछड़ों की बस्तियों में जाकर लोगों को बताना शुरू किया। और इस तरह विदर्भ के गांव-गांव में यह बात पहुंच गई।’
हालांकि ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी रैलियों में कई बार यह कहा कि संविधान के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं होगी। 17 मई को मुंबई के शिवाजी पार्क में हुई रैली में भी मोदी ने दलितों को विश्वास दिलाने की कोशिश की कि बाबा साहेब आंबेडकर के ज़रिए लिखे गए संविधान को कोई नहीं छू सकता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा एनडीए में शामिल कई दलित नेता भी कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के इन दावों को पूरी तरह खारिज करते हैं।
केंद्रीय सामाजिक न्याय राज्य मंत्री रामदास अठावले ने तो यहां तक कह दिया कि अगर ऐसा हुआ तो वो इस्तीफ़ा दे देंगे।
अठावले महाराष्ट्र के एक प्रमुख दलित नेता हैं और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (अठावले) के अध्यक्ष हैं।
महाराष्ट्र के भंडारा-गोंदिया लोकसभा सीट से एनडीए गठबंधन के उम्मीदवार सुनील मेंढे के लिए प्रचार करने अठावले गोंदिया गए थे।
अठावले ने उस समय पत्रकारों से कहा था, ‘वर्तमान एनडीए सरकार के खिलाफ कोई मुद्दा ना होने के कारण कांग्रेस अन्य विपक्षी दलों के साथ मिलकर लोगों को गुमराह करने का प्रयास कर रही है और आरोप लगा रही है कि अगर यह सरकार 400 से अधिक सीटें जीतती है तो वह संविधान बदल देगी। उनका आरोप पूरी तरह निराधार है। यदि सरकार ऐसा कोई प्रयास करती है
तो मैं मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दूंगा और भाजपा से समर्थन वापस ले लूंगा।’
शोलापुर एक आरक्षित सीट है। वहां एक चुनावी रैली के दौरान मोदी ने कहा, ‘कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के लोग झूठ फैला रहे हैं। वो लोगों से कह रहे हैं कि बीजेपी संविधान को बदलकर आरक्षण ख़त्म कर रही है। लेकिन मैं कहना चाहता हूं कि अगर ख़ुद बाबासाहेब आंबेडकर भी आ जाएं और संविधान के बदलने की मांग करें तो यह संभव नहीं है।’
कश्मीर में बीजेपी लोकसभा चुनाव क्यों नहीं लड़ रही है?
दूसरी तरफ उद्धव ठाकरे ने अपने मुखपत्र सामना में एक इंटरव्यू में कहा, ‘उन्हें (बीजेपी) यह बात पसंद नहीं है कि उन्हें डॉक्टर आंबेडकर के लिखे संविधान का पालन करना पड़ता है जो कि दलित समाज से आते थे। इसीलिए बीजेपी इसे (संविधान) बदलने की कोशिश कर रही है।’
मुंबई में भी इस पर चर्चा होते हुए देखा गया है। दलित कार्यकर्ता जितेंद्र निकलजे ने बीबीसी से बात करते हुए कहा, ‘कई लोग सोचते हैं कि चुनाव के कारण यह मुद्दा उठ रहा है। लेकिन ऐसा नहीं है। दलितों में यह डर एक लंबे समय से समाया हुआ है।’
‘जब उन्होंने देखा कि सीएए के जरिए मुसलमानों को दबाया जा रहा है तो वो भी सोचने पर मजबूर हो गए कि क्या होगा अगर हम भी अपने अधिकार खो देंगे तो। संविधान को बदलना तो असंभव है लेकिन इसको लेकर दलितों में जो डर है उससे इनकार नहीं किया जा सकता है।’
एक सरकारी अधिकारी ने अपना नाम जाहिर नहीं करने की शर्त पर बीबीसी से बात करते हुए कहा, ‘हर साल छह दिसंबर को मुंबई में संविधान की हजारों कॉपी बिकती है। दलित यह बात जानते हैं कि उन्हें जो भी अधिकार मिले हैं वो डॉक्टर आंबेडकर और उनके बनाए गए संविधान से मिले हैं। इसलिए जब कभी भी इसे(संविधान) छूने की बात होती है तो दलित समाज के लोग आक्रामक हो जाते हैं।’
दलित समाज से आने वाले सचिन मगाडे एक होटल में मैनेजर की नौकरी करते हैं। उनका मानना है कि राजनीतिक पार्टियां संविधान के प्रति दलितों की भावना का राजनीतिक लाभ लेना चाहती हैं।
वो कहते हैं, ‘उन्हें (राजनीतिक पार्टियां) पता है कि हमलोग बाबासाहेब और संविधान के कारण राजनीतिक तौर पर जागरूक हैं। यह एक भावनात्मक मुद्दा है। इस भावना से दलित लामबंद होते हैं। कोई भी संविधान को नहीं बदल सकता है।’
दलितों के मुद्दे पर लंबे समय से काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक अर्जुन डांगले कहते हैं, ‘जहाँ तक महाराष्ट्र के दलित मतदाताओं का सवाल है, उनके लिए यह एक अहम चुनावी मुद्दा है। यह गलत धारणा है कि दलित लोग अपने नेताओं के पीछे भागते हैं। इस बार अलग बात है।’
अर्जुन डांगले के अनुसार, कर्नाटक से बीजेपी सांसद अनंत कुमार हेगड़े के 400 पार और संविधान संबंधित बयान ने दलितों में इस बात को लेकर चर्चा ज्यादा होने लगी।’
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक डॉक्टर सुहास पालशिकर कहते हैं, ‘यह मुद्दा दलित वोटरों को ज़रूर प्रभावित करेगा। दुर्भाग्य से हमारे समाज में यह बात मानी जाती है कि आंबेडकर और संविधान का मुद्दा सिफऱ् दलितों तक सीमित है। और इसीलिए यह दलितों के लिए एक भावनात्मक मुद्दा बन गया है।’
पंजाब में कुल आबादी के कऱीब 33 फ़ीसद लोग दलित समाज से आते हैं।
पंजाब की कुल 13 लोकसभा सीटों में से कुछ पर दलित मतदाताओं की संख्या 40 फीसद से भी ज़्यादा है।
पंजाब यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर मोहम्मद ख़ालिद ने बीबीसी संवाददाता अर्शदीप कौर से कहा, ‘संविधान को बदलना या आरक्षण खत्म करना एक लंबी प्रक्रिया है। मैं तो कहूंगा कि यह करीब-करीब असंभव है। इसके लिए राज्यों की अनुमति भी जरूरी होती है।’
हालांकि वो यह भी कहते हैं कि अगर दलितों को लगने लगा कि आरक्षण ख़त्म हो सकता है तो यह उनके वोटिंग पैटर्न को भी प्रभावित करेगा। (bbc.com/hindi)