विचार / लेख
![मिशन बीरू बाला... मिशन बीरू बाला...](https://dailychhattisgarh.com/uploads/article/1716994143irubala-rabha-22.jpg)
-सनियारा खान
डॉ.. बीरू बाला राभा.... पूर्वोत्तर भारत के असम से जडि़त इस नाम को बाकी प्रदेशों के ज़्यादातर लोग जानते भी नहीं हैं। बाकी प्रदेश ही क्यों? असम के भी बहुत कम लोग इनके बारे में जानते हैं। क्योंकि वे कोई नेता या अभिनेता नहीं, बल्कि सिफऱ् पांचवी कक्षा तक पढ़ी एक आम सी महिला थी.... जिसने अकेले ही समाज की बुराइयों के खिलाफ़ लड़ाई शुरू की थी। अपनी इसी हिम्मत के कारण आगे चलकर वे एक सामाजिक संघर्ष की पहचान बन गई।
बीरू बाला जी के जीवन में एक ऐसा समय आया था जब उनका बेटा स्नायु तंत्र की किसी गंभीर बीमारी से मृतप्राय हो कर जी रहा था। आर्थिक दशा बहुत खऱाब होने के कारण वे लोग बहुत मजबूर थे। तभी उनके पति को भी कैंसर हो गया। उस समय आस पास के लोग बीरू बाला को डायन कह कर उनके घर के बुरे हालात के लिए बीरु बाला को ही दोषी मानने लगे थे ।लेकिन बीरू बाला सभी की बातों को अनसुना कर हालात के साथ संघर्ष करती रही। सन 1999 की बात है, एक मंदिर में बहुत सारे लोग इक_े हो कर गांव की पांच औरतों को डायन घोषित कर दिया था। तब बीरू बाला ने साहस दिखा कर इसका जोरदार विरोध किया। और वे उन सभी लोगों के सामने हिम्मत से इसे एक सामाजिक अंधविश्वास कह कर उन पांचों औरतों के साथ खड़ी हो गई थी। बस यही से उनका जीवन बदल गया। अपने गांव में वे ‘मिशन बीरू बाला’ नाम से एक संस्था बना कर डायन प्रथा के साथ साथ अन्य बहुत सारे सामाजिक कुसंस्कारों को भी खतम करने के लिए काम करने लगी। इस मिशन की शुरुवात सन 2011 में की गई थी। इस में जुडऩे वाले लोग गांव गांव जा कर लोगों को जागरूक करने की कोशिश करते रहें। सिफऱ् गांव ही नहीं, वे सभी आदिवासी और जनजातीय क्षेत्रों में भी डायन प्रथा, अंध विश्वास और अन्य कुसंस्कारों के खिलाफ लोगों को समझाने लगें। वर्तमान में इस संस्था में आठसौ से भी अधिक सदस्य है। बीरू बाला के साथ हर जगह औरतें और लड़कियां खड़ी होने लगी। कहा जाता है कि इस कोशिश के कारण मिशन बीरू बाला ने अब तक 38 महिलाओं के जीवन की रक्षा कर सकी हैं। इस अभियान से प्रभावित होकर और भी बहुत लोग डायन प्रथा के खिलाफ़ खड़े होकर गांव की औरतों और लड़कियों को शिक्षा दिला कर स्वावलंबी बनाने के लिए काम करने लगें।
सन 2021 में भारत सरकार ने उनको पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया। इससे पहले रिलायंस इंडस्ट्रीज से उनको रीयल हीरो पुरस्कार , टाई आहोम युवा परिषद की तरफ से मूला गाभरु और जयमती पुरस्कार भी मिला। मूला गाभरु और जयमती असमिया इतिहास की दो महान महिलाएं है, जिनके नाम से ये पुरस्कार दिया जाता है।गुवाहाटी विश्वविद्यालय ने भी उनको मानक डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया था। इसके अलावा और भी अनेक सम्मानों से उनको सम्मानित किया गया था। ‘नॉर्थ ईस्ट नेटवर्क’ नामक एक प्रख्यात संगठन द्वारा उनका नाम सन 2005 में शांति के नोबल पुरस्कार के लिए भी आगे बढ़ाया गया था। उच्च शिक्षा के बगैर भी लोग देश के लिए अच्छे काम कर सकते हैं और बीरू बाला राभा ने ये बात सिद्ध कर दिया। इसी साल 13 मई को इस मानवाधिकार कार्यकर्ता की कैंसर से मृत्यु हो गई है। उम्मीद है कि उनके बाद भी मिशन बीरु बाला अपना काम इसी तरह जारी रखेगा। भारत के हर प्रदेश में मानवाधिकार के लिए ऐसे बहुत सारे खामोशी से काम करने वाले लोग होंगे, जिनके बारे में लोगों को ज़्यादा जानकारी नहीं होती है। ऐसे गुमनाम लोगों को ढूंढ कर सामने ला कर सम्मानित करने के लिए सरकार और जनता द्वारा सम्मिलित कोशिश होनी चाहिए।