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सनातन धर्म का एक चेहरा
02-Jun-2024 1:39 PM
सनातन धर्म का एक चेहरा

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शंभूनाथ

19वीं सदी में हिंदू धर्म सती प्रथा, विधवा पुनर्विवाह और छुआछूत समाप्ति के बड़े सुधारों से गुजर रहा था। वह अपने नए आधुनिक गौरव की तरफ बढ़ रहा था, तभी 1885 में ‘सनातन धर्म सभा’ की स्थापना हुई। इसका उद्देश्य हिंदू धर्म में चल रहे सुधारों का विरोध करना था और संरक्षणवाद को फैलाना था। यह दयानंद सरस्वती के आर्य समाज के भी विरोध में था और दलितों को छुआछूत से मुक्त करने के उनके अभियान के पक्ष में नहीं था।

सनातन धर्म सभा के मुख्य कर्ताधर्ता एक संपन्न ब्राह्मण पुरोहित दीन दयालु थे। इस संगठन ने आगे चलकर गांधी के अछूतोद्धार कार्यक्रम का भी विरोध किया, पर उस दौर में उन सबका विरोध आंधी में पतंग उड़ाने जैसा था।

हिंदू धर्म में सुधारों का विरोध करने के उद्देश्य से ही 1902 में ’भारत धर्म महामंडल’ की स्थापना की गई। ये सभी सनातनी संगठन उस दौर में विवेकानंद के विचारों के भी विरोधी थे।

1910 में छपी एक पुस्तिका ’भारत धर्म महामंडल रहस्य’ में रूढि़पोषक सनातनपंथियों की देशभक्ति का उदाहरण इस प्रकार है, ’परम दयालु परमेश्वर की कृपा से आर्य प्रजा को इस प्रकार की नीतिज्ञ और उदार गवर्नमेंट मिली है कि ऐसी गवर्नमेंट विदेशियों के हित के लिए विश्व भर में और कहीं देखने में नहीं आती।’ रूढि़पोषक सनातनपंथियों की एक बड़ी सीमा आर्यावर्त है, अर्थात उत्तर भारत को ही भारत समझने की है, जबकि भारत एक बड़ा देश है।

निश्चय ही हिंदू धर्म सनातन धर्म से अधिक व्यापक है। हम अप्पर, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, सूर, मीरा, तुलसी, सहजोबाई, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, श्री अरविंद आदि को सनातनी नहीं कह सकते। स्पष्ट है कि सनातन धर्म के पुनरुत्थान में लगे लोग वस्तुत: जाति व्यवस्था और पितृसत्ता के तो कट्टर समर्थक हैं ही, ये भारत के स्वभाव से ही अनजान हैं। ऊपर की प्रवृत्ति को देखते हुए इनकी देशभक्ति पर भी संदेह किया जाना चाहिए!

हम प्राचीन काल से ही ’नवोन्मेषशील सनातन’ और ’जड़ांध सनातन’ की दो धाराएं स्पष्ट देख सकते हैं। इसलिए इस समय सनातन को लेकर बढ़ रहे हुंकार को देश पर एक बड़े खतरे की घंटी के रूप में देखना चाहिए। 19वीं-20वीं सदी में उनकी भूमिका से बहुत कुछ स्पष्ट है।

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