महासमुन्द

गांवों में खसरा, छोटी माता, बड़ी माता का प्रकोप
02-Apr-2024 2:32 PM
गांवों में खसरा, छोटी माता, बड़ी माता का प्रकोप

संक्रमण से निपटने तेल मसाला भोजन त्याग ग्रामीण शीतला माता में ठंडई चढ़ा रहे

जिन गांवों में चेचक खसरे का प्रकोप था, वहां होली नहीं जलाई गई और न ही रंग-गुलाल खेले गए

धुआं, धूल, तेल की गंध बहुत ज्यादा संक्रमण बढ़ाता है, यह गांव का विज्ञान है

‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
महासमुंद,2 अप्रैल।
गर्मी शुरू होते ही गांवों में सीतला माता की पूजा अर्चना शुरू हो चुकी है। जिले के कई गांवों में बच्चों और युवा चेचक, खसरा से पीडि़त हैं। गांव के लोग इसे देवी प्रकोप मानते हैं। पता चला है कि जिन गांवों में चेचक खसरे का प्रकोप था, वहां होली नहीं जलाई गई और न ही रंग-गुलाल खेले गए। विज्ञान कहता है कि होली के बाद बसंत खत्म हाोता है और ग्रीष्म ऋतु प्रारंभ होती है। ऋतु परिवर्तन होने के कारण यह व्याधि के कीटाणुओं के संक्रमण का समय होता है और इस अवधि में चेचक का प्रकोप अधिक होता है। जिसे गांवों में माता के नाम से जानते हैं। 

अभी यही काल चल रहा है। गांवों में छोटी माता, बड़ी माता, सेंदरी माता खसरे से बचने के लिए स्वचछता एवं आरोग्य की देवी शीतला माता की उपासना की जाती है। मान्यता है कि जब माता उग्र हो जाती है तो इसका प्रकोप होता है और शीतला माता इस उग्रता को शांत करती हैं। इसीलिए शीतला विग्रह पर जल चढ़ाने की परंपरा रही है। जिससे सप्ताह भर की अवधि में माता का प्रकोप शांत हो जाता है। 

इसी उद्देश्य की पूर्ति व माता की शांति के लिए गांवों में स्थित शीतला माता मंदिर परिसर में गुरुवार और सोमवार को ग्रामीण भीगे चने का दाल, दही, हल्दी आदि लेकर पहुंच रहे हैं। शीतला माता मंदिर में पहुंचने वालों को नीम के पत्तों को भिगाकर उसके ठंडे पानी का छींटा ििदया जाता है। गलवा माता वालों के लिए शीतला से गीली मिट्टी लाकर उसे मरीज के गाल में लगा देते हैं। 

खास बात यह है कि परिवार के किसी भी सदस्य को माता आने के बाद उस घर में तेल मसाले खाना बंद कर दिया जाता है। मरीज की बिस्तर में नीम के पत्ते रखे जाते हैं। कल 1 अप्रैल को बड़े ही धार्मिक व परम्परागत रूप से महासमुंद में भी माता शीतला देवी की पूजा अर्चना की गई। माता के मंदिर को नीम के पत्तों से व फूलों से सजाया गया। रात में बनाए गए ठंडे व्यंजनों का भोग लगाया गया। दही, मूंग की दाल, बाजरा की मोई, भीगा हुआ मोठ,बाजरी इत्यादि के साथ कलश में माता को जल चढ़ाया गया। दिन में घरों में बासी भोजन किया गया। कच्चे सूत के धागे की मेखला (करधन) बनाकर बच्चों को पहना दी गी। कई घरों में नए घड़े की पूजा की गई। 

शहर के प्रतिष्ठित डाक्टर एस वाय मेमन के मुताबिक विज्ञान और श्रध्दा दोनों मिलकर माता से निपटते हैं। ग्रामीणों द्वारा किए गए पूजा पाठ में विज्ञान शामिल है। माता के दौरान डाक्टर भी तेल मसाले नहीं खाने की सलाह देते हैं। ठंडा पानी पीने की सलाह देते हैं। क्योंकि यह बीमारी गर्मी से पैदा होती है। इसलिए गीली मिट्टी, घड़े का पानी,नीम के पत्ते, चने का दाल दही आदि सर्वोत्तम है। वैसे शीतला माता स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। अगर हम अपने आस पास को साफ सुथरा रखेगें तो रोगों के कीटाणु हमारे संपर्क में आकर हमें रोगी नहीं बनाएंगे। ज्यादातर बीमारियां खराब खाना खाने से होती हैं। रसोईघर की स्वच्छता बहुत जरूरी है। शीतला माता के हाथ में जल से भरा कलश होना, हमें जल को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिए जागरूक बनाता है। रही बात होली नहीं जलाने और रंग गुलाल त्यागने का, तो यह सही है कि ऐसे में धुआं, धूल, तेल की गंध बहुत ज्यादा संक्रमण बढ़ाता है। यह गांव का विज्ञान है, जिसे झुठलााया नहीं जा सकता। 

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