महासमुन्द
आज भी हेलमेट, लॉन्ग शूज, ग्लब्स, सुरक्षा ड्रेस के बगैर ही चल रही जिंदगी
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
महासमुंद,1 मई। जिले के कल कारखानों, पत्थर खदानों तथा निजी संस्थानों में काम करने वाले मजदूरों की जिंदगी आजादी के 77 साल बाद भी नहीं बदली है। पीढ़ी दर पीढ़ी सजदूरों के संतान भी रोजगार के अभाव में पत्थर तोडऩे वाले या दिहाड़ी के काम कर रहे हैं। जिले के कारखानों, खदानों में मजदूरों की सुरक्षा की घोर अनदेखी की जा रही है। जिले में भी हर साल 1 मई को मजदूर दिवस मनाया जाता है। लेकिन मजदूरों के हक के लिए कोई भी राजनीतिक पार्टियां आगे नहीं आती हैं। प्रशासन भी इसे लेकर सुस्त है। कम उम्र में ही मजदूरों की संतानें भी शिक्षा छोड़ कमाने में लग जाते हंै। मालूम हो कि महासमुंद क्षेत्र में हर साल बड़ी संख्या में मजदूरों का पलायन होता है। जिसे रोकने में श्रम विभाग असफ ल है। इससे अलग अंचल में मजदूरों का एक बड़ा वर्ग है। बावजूद यह वर्ग शोषण का शिकार है। हालात यह है कि जिला मुख्यालय सहित आसपास के गांवों की पत्थर की खदानों में काम करने वाले मजदूर पूरे दिन जी तोड़ मेहनत करते हैं। लेकिन न तो उन्हें वाजिब मजदूरी मिलती है और ही जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं।
भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय जिन शर्तों पर इन खदान की लीज की अनुमति देता है, उनकी पालन तक यहां नजर नहीं आती है। खदानों में मजदूरों के मानवीय हितों का भी ध्यान नहीं रखा जाता है। पत्थर खदानों में काम करने वाले मजदूरों में से हर साल आधा दर्जन मजदूरों की मौत सिलकोसिस बीमारी से हो जाती है। वहीं तीन चार मजदूरों की मौत दुर्घटना में। बावजूद इन खदानों में काम करने वाले मजदूरों के लिए किसी प्रकार की चिकित्सा की सुविधा नहीं है। मजदूरों के लिए धूप से बचने तक के लिए कोई व्यवस्था नहीं है।
घोड़ारी समेत तमाम पत्थर खदानों में पत्थरों को आड़ बनाकर छाया की व्यवस्था करते हैं। पास ही पानी के खुला ड्रम होता है जो कई दिनों से धुला नहीं रहता। मजदूर इसी ड्रम में भरे गर्म पानी से प्यास बुझाते हैं। यहीं पर बैठकर मजदूर भोजन करते हैं।
खदान क्षेत्र में मजदूरों के लिए जो टीन शेड बने हैं वहां मशीने रखी जाती हैं। चट्टानों के नीचे खतरे करीब 25 साल से पत्थर खदान में काम कर रहे गजेन्द्र ध्रुव ने बताया कि सालों से उनका जीवन ऐसे ही चल रहा है। हर माह कोई न कोई मजदूर बीमार हो जाता है। लेकिन स्वास्थ्य संबंधी कोई सुविधा नहीं है। एक बार बीमार होने पर पूरी कमाई इलाज में लग जाती है।
उन्होंने बताया कि खदान क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों की हालत कभी नहीं सुधरी। हम गंदे ड्रमों में भरा पानी पीते हैं। यहां मजदूरों के स्वच्छ पेयजल सपना है।
मजदूर यहां प्लास्टिक के काई लगे ड्रमों में भरे गए हैंडपंप का पानी पीते हैं। ऐसे पानी से लोग नहाना पसंद नहीं करते। पत्थर तोड़ते समय निकलने वाले डस्ट हमारे फेफड़ों में भरती हंै, इसके लिए मिलने वाली गुड़ हमें अप्राप्त है।
सिर की सुरक्षा के लिए हेलमेट दिए जाते हैं, लेकिन यहां ग्रामीण क्षेत्र की खदानों में काम करने वाले मजदूरों को कोई हेलमेट नहीं मिलता। मास्क, ग्लब्स, जूते सहित अन्य सुरक्षा उपकरण तो देखा तक नहीं। हमारे कई श्रमिक सिलकोसिस की बीमारी के शिकार हो गए हैं।
जिले की फैक्ट्रियों में केंटीन नहीं हैं। हालांकि कई फैक्ट्र््ियों में प्रवेश द्वार के पास दो चाय-पान क की टपरियां अवैध तरीके से चल रही हैं। इससे सुरक्षा व्यवस्था भी बाधित हो रही है।
नियमों के अनुसार पावर प्लांट के निर्माण कार्य में लगे सभी श्रमिकों को कंपनी द्वारा जूते और हेलमेट उपलब्ध कराना अनिवार्य है। लेकिन मजदूर बिना हेलमेट के बाथरूम स्लीपर पहनकर कार्य कर रहे हैं। कंपनी द्वारा ठेका श्रमिकों को कार्ड बनाकर देने में कोताही बरती जा रही है, ताकि दुर्घटना होने के बाद उन्हें मुआवजा देने में कंपनी बच सके।