विचार / लेख
डॉ. अनिल के.मिश्रा
पहले उन्होंने अमेरिका को फिर से महान बनाने के सब्ज़बाग़ दिखाए। अब कह रहे हैं अमेरिका नामक देश के लोकतंत्र में हिंसा की कोई जगह नहीं है।
फिलिस्तीन में बच्चों की सामूहिक हत्याओं पर खामोशी ओढ़ लेने वाले कई पूर्व राष्ट्रपति, जिन्होंने अपने कार्यकाल में समूचे मध्य पूर्व में ड्रोन के ज़रिए टारगेट किलिंग कराई, कई देशों में हमले किए, अब कह रहे हैं अमेरिकी समाज में हिंसा की कोई जगह नहीं है। अमेरिकी सवाल पूछ रहे हैं, ‘अमेरिकी सरकार द्वारा प्रायोजित युद्धों में व्यापक पैमाने की वैधानिक हिंसा के अतिरिक्त और क्या होता है?’
मतलब ऐसा कैसे होगा कि आप दूसरे मुल्कों में बमबारी करिए, बर्बाद करिए और अपने यहाँ हिंसा के नकार की माला जपते रहिए? अमेरिका के लोग और वहाँ का मीडिया फिर भी सवाल पूछ रहे हैं। सत्ता प्रतिष्ठान उन्हें देशद्रोही का तमग़ा नहीं बाँट रहे हैं। वे समस्याओं की तह में जाने की कोशिश कर रहे हैं कि अमेरिका के साथ क्या गड़बड़ है। सबसे पहले तो अमेरिका की आक्रमणकारी विदेश नीति के भ्रमजाल से बाहर निकलना होगा।
दूसरी बात, राजनीति में हिंसा के कारणों की गहराई से पड़ताल करनी होगी। यह न तो अमेरिका का पहला मामला है और न ही दुनिया का। अमेरिका में इसके पहले 4 राष्ट्रपतियों की हत्या हो चुकी है। अपने देश में इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या की गई है। पिछले कुछ सालों से हमारे अपने देश में ऐसी उन्मादी हत्याएँ कई हुई हैं, जिनकी एक मात्र वजह राजनीतिक रंजिश थी। याद कीजिए, नरेंद्र दाभोलकर, एमएम कलबुर्गी, गोविंद पानसरे और गौरी लंकेश को किन वजहों से मारा गया? आज तक इनके हत्यारों को क़ानूनी तौर पर सज़ा नहीं हुई हैं। ऐसा नहीं है कि इन हत्याओं के पैटर्न पर तभी कड़े सवाल पूछे जायें जब कोई हाई प्रोफाइल मामला हो। किसी एक व्यक्ति की भी मौत भुला दिये जाने वाली चीज़ नहीं है। फिर, पब्लिक मेमोरी से भले ही ग़ायब हो जाये, मरने वालों के परिजन, कऱीबी लोग और उनसे जुड़ाव रखने वाले लोग ऐसी हत्याओं को, अनंत शोक को प्रतिरोध के एक मिथकीय प्रतीक-चिन्ह में तब्दील कर देते हैं।
हिंसा के दर्शन के बारे में दार्शनिक तटस्थता से चिंतन किए बगैर आप इसकी सतह को खुरचते रहेंगे तो कोई रोशनखयाल भविष्य मुमकिन नहीं होता है। लोकतांत्रिक संस्थानों में, विश्वविद्यालय परिसरों में विचार-विमर्श की तहजीब का अपराधीकरण करने से ऐसे ही नतीजे निकलते हैं। औचक कोई एक ऐसी घटना होगी कि आप लोकतंत्र लोकतंत्र चिल्लाते रहेंगे, मीडिया में सुर्खय़िों का प्रबंधन कर लेंगे, जनता के कुछेक हिस्सों को समझाइश के दायरों में सीमित भी कर देंगे, लेकिन समस्या की तह में नहीं पहुँच पायेंगे। यह समझना पड़ेगा कि वास्तविक शांति तभी मुमकिन है जब न्याय सहज और पारदर्शी ढंग से समान तौर पर उपलब्ध हो। लोकतांत्रिक संस्थानों में यह इकबाल हो कि लोग चाटुकारिता का शॉर्ट कट लगाकर सफलता की सीढिय़ाँ चढऩे के बजाय असहमति और आलोचना के प्रति द्वेष न पालें। असहमत आवाजों की रक्षा करें।
असहमतियों, वाजिब प्रतिरोध, नागरिकता के उसूलों, स्वतंत्रता, समानता और न्याय की आकांक्षाओं को कथित ‘नेशनल इंटरेस्ट’ के प्रिज़्म से देखने पर यही हाल होगा, जैसा कि हमारे अपने देश में है, समूचा मीडिया बेहिसाब मुनाफ़े की गणित के आधार पर एक वैचारिक थोथापन पैदा करेगा। सत्ताधारी लोगों की सनक और उनके सुरों के पक्ष में विरोधियों पर नीचता की हदों तक जाकर हमले करना और सत्ता की हाँ में हाँ मिलाना ही देशप्रेम का पर्याय बना दिया जाएगा तो ऐसी ही विकट स्थितियों का सामना करना पड़ेगा जो देर सबेर अप्रबंधनीय (अनमैनेजेबल) ही होंगी।
पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप हमले में बाल-बाल बच गये हैं। हमला करने वाले शख़्स को वहीं तत्काल मार दिया गया है। इससे ट्रंप के प्रति यक़ीनन सहानुभूति की लहर पैदा होगी। लेकिन अमेरिका, आंतरिक तौर पर ही सही एक परिपक्व लोकतंत्र है, वहाँ के लोग सिविल नाफऱमानी और काले लोगों के नागरिक अधिकारों के लिए जान क़ुर्बान करने वाले प्रसिद्ध गांधीवादी मार्टिन लूथर किंग जूनियर की शहादत भी देख चुके हैं।
बेहतर होगा कि 9/11 की घटना के बाद अमेरिका जो दुनिया भर में दादागिरी को सहज स्वीकार्य बना रहा था, साम्राज्यवादी नीतियों का विश्व में एक्सपोर्ट कर रहा था उसे यह घटना बतौर मुल्क अपने भीतर झांककर गहन आत्मनिरीक्षण करने के लिए प्रेरित करे।
(लेखक जयपुर स्थित हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं।)