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पाक के चुनावी मैदान में कहां खड़े हैं धर्म की राजनीति करने वाले दल
05-Feb-2024 6:56 PM
पाक के चुनावी मैदान में कहां खड़े हैं धर्म की राजनीति करने वाले दल

-शुमाइला जाफरी
लाहौर के मंसूरा में स्थित जमात-ए-इस्लामी के मुख्यालय की मस्जिद में एक ठंड और धुंध से भरे दोपहर में सैकड़ों लोग असर की नमाज़ के लिए जमा हुए हैं। इनमें जमात-ए-इस्लामी के सचिव अमीर-उल-अज़ीम भी शामिल हैं।

नमाज़ के बाद ये लोग कारों, मोटरसाइकिलों और रिक्शे पर सवार होकर एक जुलूस से रूप में पास के बाज़ार में चुनाव प्रचार करने चले गए।

जमात-ए-इस्लामी आठ फरवरी को होने वाला आम चुनाव लड़ रही है। उसने संसद और विधानसभाओं के लिए 774 उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं।

अमीर उल अज़ीम ने चुनाव प्रचार पर निकलने से पहले बीबीसी से कहा, ‘लोगों में हमारी पकड़ है, हम उनके अच्छे-बुरे में शामिल रहे हैं। महामारी, बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के दौरान लोगों ने हमारे कामकाज को देखा है। मुझे विश्वास है वो हमें वोट देंगे।’ वो कहते हैं, ‘हमारे दरवाज़े सभी के लिए खुले हैं। हम सांप्रदायिक पार्टी नहीं हैं, हम नहीं चाहते हैं कि इस्लाम शादी-ब्याह, अंतिम संस्कार और तलाक के मामलों तक ही सीमित रहे। हम चाहते हैं कि देश इस्लामिक राजनीतिक सिस्टम से चले। अगर हम सरकार में आए तो यही वो चीज़ें हैं जिन्हें हम बदलने वाले हैं।’

जमात-ए-इस्लामी की राजनीति
जमात-ए-इस्लामी की स्थापना 1941 में इस्लामिक विद्वान और धर्मशास्त्री सैयद अब्दुल आला मौदूदी ने की थी। स्थापना के बाद से ही जमात-ए-इस्लामी एक सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन रहा है।

वह पहली बार चुनाव नहीं लड़ रहा है। इससे पहले वह अलग-अलग राजनीतिक दलों से गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ चुका है। वह संघीय और प्रांतीय सरकारों में भी शामिल रहा है। लेकिन वो कभी भी बड़ा नहीं बना पाया, इसलिए इस बार वो अकेले ही चुनाव मैदान में है।

अमीर उल अज़ीम कहते हैं, ‘पहले जमात-ए-इस्लामी की अलग-अलग प्राथमिकताएं थीं, शुरू में हमने दावत-ए-इस्लामी पर ध्यान दिया, हमने साहित्य तैयार किया और इस्लाम के संदेश को मिस्र से लेकर अफ्रीका तक पहुंचाया। अगले चरण में हम निचले स्तर तक लोगों की सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।’

‘हमने जमात-ए-इस्लामी की परोपकारी शाखा के रूप में अल-खिदमत फाउंडेशन की स्थापना की। इस फील्ड में हमने इसे स्वच्छ विरासत के रूप में आकार दिया। अब हमारा ध्यान जमात-ए-इस्लामी को राजनीति की मुख्यधारा में लाने पर है, हो सकता है कि शुरुआत में हमें बहुत अधिक सफलता न मिले, लेकिन देर-सबेर हम इसे हासिल करके रहेंगे।’

बाज़ार में जमात-ए-इस्लामी का प्रतिनिधिमंडल अमीर उल अज़ीम के नेतृत्व में हर दुकान पर गया। उन्होंने दुकानदारों को अपने पर्चे सौंपकर जमात के उम्मीदवारों के लिए वोट करने की अपील की। इस दौरान कुछ लोगों ने उनके साथ सेल्फी ली और कुछ लोगों ने उनसे महंगाई की शिकायत की।

अपने पास जमा मतदाताओं और लोगों से अमीर उल अज़ीम कहते हैं कि हम देश से भ्रष्टाचार मिटाकर विशेषाधिकार और प्रोटोकॉल की संस्कृति को हतोत्साहित करेंगे। हम देश को वर्तमान आर्थिक संकट से बाहर निकालेंगे।

जमात-ए-इस्लामी की विचारधारा
जमात-ए-इस्लामी एक भारत विरोधी पार्टी है। वह अफगानिस्तान और कश्मीर में जिहाद में शामिल रही है। उसका मानना है कि कश्मीर और फलस्तीन जैसी समस्याओं का समाधान का एकमात्र यही तरीका है।

जमात-ए-इस्लामी ने गज़़ा के लोगों के समर्थन में कई रैलियां आयोजित कीं और उसने चुनाव के लिए रखे पैसे का एक बड़ा हिस्सा वहां भेजा।

हालांकि कई विश्लेषकों का मानना है कि जमात-ए-इस्लामी अपनी कट्टरवादी छवि को बदल कर उदार राजनीतिक ताकत के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहा है।

इसके बारे में सवाल पूछ जाने पर अमीर उल अज़ीम ने अपना नजरिया बताया।
वो कहते हैं, ‘लोगों को लगता था कि हम कट्टरपंथी हैं और अगर सत्ता में आए तो हाथ काट लेंगे। कुछ लोगों को लगता था कि हमें अमेरिका का समर्थन हासिल है और हम सेना की बी टीम हैं।’

उन्होंने कहा, ''लोगों ने मीडिया के ज़रिए हमारे बारे में यह धारणा बनवाई। लेकिन अब सोशल मीडिया ने हमें एक प्लेटफॉर्म दिया है, जहां हम अपने बारे में और अपने विचार लोगों को बता सकते हैं।’

किसने बनाया था टीएलपी और एमएमएल
लाहौर के मुल्तान रोड पर मंसूरा से कुछ दूरी पर मस्जिद रहमतुल-लिल-आलेमीन स्थित है। यह तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान के संस्थापक खादिम हुसैन रिज़वी की दरगाह है। यहां पर उनके शिष्यों का एक समूह जमा था। वे हाथ उठाकर नारे लगा रहे थे, ‘लब्बैक लब्बैक लब्बैक या रसूल अल्लाह।’ करीब 83 साल पुरानी जमात-ए-इस्लामी से अलग तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (टीएलपी) एक नई पार्टी है। इसकी स्थापना खादिम हुसैन रिज़वी ने 2015 में की थी।

राजनीतिक टिप्पणीकार सलमान गनी का मानना है कि टीएलपी स्वाभाविक तौर पर नहीं बनी थी। इसे 2015 में लाहौर में एक उपचुनाव से पहले एक दूसरी धार्मिक राजनीतिक पार्टी मिल्ली मुस्लिम लीग (एमएमएल) के साथ शुरू किया गया था।

मिल्ली मुस्लिम लीग हाफिज़ सईद की जमात-उद-दावा की राजनीतिक शाखा थी। सलमान कहते हैं, ‘इसका मकसद पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ की पत्नी कुलसुम नवाज के वोटों का बंटवारा करना था। वो लाहौर उपचुनाव में उम्मीदवार थीं। टीएलपी और एमएमएल को 15-15 हज़ार वोट लाने का लक्ष्य दिया गया था। लेकिन वो ऐसा नहीं कर पाए। कुलसुम नवाज़ चुनाव जीत गईं। लेकिन इन दोनों दलों ने पहला चुनाव होने के बाद भी अच्छा प्रदर्शन किया।’

इन दोनों दलों को लांच किसने किया, इस सवाल पर गनी सीधे सेना का नाम नहीं लेते हैं। वो इशारे में ही कहते हैं कि जिन लोगों ने इस तरह की परियोजना शुरू की थी, वही इसके पीछे थे।

मिल्ली मुस्लिम लीग चुनाव आयोग में अपना रजिस्ट्रेशन नहीं करा पाई। हाफिज़ सईद समेत जेयूडी के कई नेता जेल में थे। एमएमएल कभी आगे नहीं बढ़ पाई और सीन से गायब हो गई।

वहीं दूसरी ओर टीएलपी सालों तक फलती-फूलती रही। यह पैगंबर मोहम्मद के सम्मान के मुद्दे पर समर्थन जुटाता है। इसने कई बार अपने धरना-प्रदर्शनों से सरकारों को घुटने टेकने पर मजबूर किया। पैगंबर मोहम्मद का कार्टून छापने पर फ्रांस के साथ संबंध तोडऩे की मांग उसकी विवादास्पद मांगों में रही है।

टीएलपी ने 2017 में तत्कालीन पीएमएल-एन सरकार में एक संघीय मंत्री को इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया था।

अपनी स्थापना के तीन साल बाद 2018 में टीएलपी ने अपना पहला आम चुनाव लड़ा था। उसे करीब 22 लाख वोट मिले थे। हालांकि इससे उसे कोई बड़ी चुनावी सफलता नहीं मिली। वो सिंध की असेंबली में केवल तीन सीटें जीत पाई। इस चुनाव में टीएलपी देश में पांचवीं सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। वहीं वोटों के मामले में वह पंजाब प्रांत में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी थी। यह बहुत से राजनीतिक पंडितों और चुनाव लडऩे वाले दलों के लिए सदमे की तरह था।

टीएलपी में युवाओं की भरमार
टीएलपी के मीडिया मैनेजर सद्दाम बुखारी कहते हैं कि इस बार के चुनाव में उनकी पार्टी पर्याप्त सीटें जीतेगी। वो कहते हैं, ‘पीएमएल-एन और पाकिस्तान तहरीके इंसाफ के वो नेता जिन्हें टिकट नहीं मिला है, वो हमारे संपर्क में हैं। उम्मीदवार तय करने में हमें महीनों लगे। हमने उनका इंटरव्यू लिया। हमने ऐसे अच्छे उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, जो न केवल हमारी पार्टी की विचारधारा को समझते हैं बल्कि उनमें जीतने की क्षमता भी हैं।’

टीएलपी ने नेशनल असेंबली की 223 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं। यह पीएमएल-एन और पीटीआई की संख्या से अधिक है। यह उन पार्टियों में भी सबसे आगे हैं, जिन्होंने 18-35 साल के लोगों को टिकट दिए हैं। टीएलपी ने इस आयु वर्ग के लोगों को 36 फीसदी टिकट दिए हैं।

नेशनल असेंबली के इसके उम्मीदवारों में से एक आबिद हुसैन ने बीबीसी से कहा है कि टीएलपी का प्रभाव पूरे देश में है।

वो कहते हैं, ‘हमारी पहुंच संघीय परिषद तक है। हम इमामों और उलेमाओं के संपर्क में हैं। हमें उनके समर्थन का आश्वासन मिला है। वे ज़मीनी स्तर पर हमारा अभियान चलाएंगे।’

अपने आंदोलनकारी अतीत के सवाल पर आबिद हुसैन कहते हैं, ‘लोग समझते हैं कि टीएलपी ने पैगंबर मोहम्मद के सम्मान के लिए सडक़ों पर धरना दिया है। हमारे विरोधी हमें चरमपंथी कहते हैं, लेकिन निष्पक्ष मतदाता यह समझते हैं कि हम देशहित में प्रदर्शन कर रहे हैं।’

मौलाना फज़लुर रहमान की जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम
मौलाना फज़लुर रहमान की जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम या जेयूआई-एफ का मामला थोड़ा अलग है। मौलाना उस गठबंधन में सबसे आगे थे जिसने इमरान खान की सरकार को गिराया था। वो इमरान खान के सत्ता से हटने के बाद सत्तारूढ़ हुए पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट गठबंधन का हिस्सा थे।

जेयूआई-एफ का प्रभाव खैबर पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान प्रांत में अधिक है। पंजाब में उनका चुनाव के बाद पीएमएल-एन से गठबंधन होने की संभावना है। मौलाना फज़लुर रहमान और उनकी पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती दाएश (आईएस) से सुरक्षा खतरा है।

पिछले साल जुलाई में बाजौर जि़ले में हुए एक धमाके में करीब 50 लोग मारे गए थे और 100 से अधिक लोग घायल हुए थे। यह धमाका उस जगह पर हुआ था, जहां जेयूआई-एफ की रैली हो रही थी।

जेयूआई-एफ के कई उम्मीदवारों और नेताओं को चुनाव से पहले निशाना बनाया गया। इसे देखते हुए मौलाना फज़लुर रहमान ने चुनाव स्थगित करने की मांग कर रहे थे, लेकिन इसको लेकर वो अन्य दलों का समर्थन नहीं जुटा पाए।

कार्यवाहक सरकार का हिस्सा होने की वजह से जेयूआई-एफ उसके प्रदर्शन की आलोचना नहीं कर सकता। इसलिए वह अपने रूढि़वादी वोटरों का समर्थन हासिल करने के लिए इसराइल-फलस्तीन युद्ध को मुद्दा बना रहा है।

खैबर पख्तूनख्वा के लक्की मारवार्ट इलाके में आयोजित एक रैली में मौलाना ने कहा, ‘अल्लाह ने हमें ताकत दी। कतर जाकर हमास के प्रतिनिधियों से बिना किसी झिझक के मिलने वाला मैं अकेला था। हमने दुनिया को बताया कि हम यहूदियों के खिलाफ मुसलमानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं। इसका हमें खेद नहीं है। क्या हमारे राजनीतिक विरोधियों में से किसी के पास मुसलमान भाइयों के साथ खड़ा होने का साहस है।’

छोटे-छोटे दलों की सियासत
इन तीनों प्रमुख दलों के अलावा अलग-अलग संप्रदायों में बंटे कई छोटे-बड़े धार्मिक समूह भी चुनाव लड़ रहे हैं। अपने वैचारिक मतभेदों के बाद भी वो शरिया के मुताबिक शिक्षा, न्याय और आर्थिक प्रणाली स्थापित करने के वादे पर वोट मांग रहे हैं।

सलमान गनी का मानना है कि इनमें से किसी के सत्ता में आने की संभावना बहुत कम है। उनका मानना है कि ये राजनीतिक दल मुख्यधारा के राजनीतिक दलों खासकर पीएमएल-एन का वोट काट सकते हैं। इनमें से किसी को भी सरकार बनाने के लिए ज़रूरी बहुमत मिलने की संभावना नहीं है।

वो कहते हैं, ‘पहले धार्मिक समूह राजनीतिक रूप से अधिक प्रासंगिक थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है। वे सरकार का हिस्सा तभी बन सकते हैं जब वे चुनाव के बाद किसी गठबंधन में शामिल हो जाएं। अन्यथा उनके पास कोई अवसर नहीं है।’

पाकिस्तान में जब लोगों के लिए धार्मिक पहचान इतनी महत्वपूर्ण है, तो लोग धार्मिक पार्टियों को वोट क्यों नहीं देते हैं?

इस सवाल पर सलमान गनी कहते हैं कि जब मतदान की बारी आती है तो लोग ऐसे उम्मीदवारों को चुनना चाहते हैं, जिसके बारे में उन्हें लगता है कि वह संसद पहुंच सकता है। जहां तक धार्मिक समूहों की बात है, लोग उनका सम्मान करते हैं, लेकिन जब यह धारणा बन जाती है कि वे जीत नहीं पाएंगे तो वे मुख्यधारा के अन्य दलों की ओर चले जाते हैं। (bbc.com/hindi)

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