विचार / लेख

मेरा वह पहला प्रोपोज डे
08-Feb-2024 4:47 PM
मेरा वह पहला प्रोपोज डे

ध्रुव गुप्त

आज वैलेंटाइन बाबा का दूसरा दिन ‘प्रोपोज़ डे’ है। हमारे दौर में वैलेंटाइन डे या सप्ताह एक अजानी-सी चीज़ हुआ करती थी। हां, प्रेम की भावनाएं तब भी थीं, वे उबाल भी मारती थीं और यदाकदा प्रोपोज भी होती थीं। उन दिनों में प्रेम के अंदाज़ अलग और तेवर आज से बहुत ज़ुदा हुआ करते थे। इश्क़ का मतलब चाहे पता न हो, लेकिन ज़ांबाजी इतनी थी कि इश्क़ के प्रस्ताव तब स्याही से नहीं, खून से लिखे जाते थे। स्कूली दिनों में मैंने खून से तो नहीं, उससे मिलते-जुलते लाल स्याही से एक ख़त लिखकर अपनी एक सहपाठिनी को प्रोपोज़ किया था। ख़त 'ये मेरा प्रेमपत्र पढक़र तुम नाराज़ ना होना' से शुरू हुआ और उस दौर के सबसे धांसू शेर के साथ अंजाम तक पहुंचा - लिखता हूं ख़त खून से स्याही न समझना / मरता हूं तेरे नाम पे जिंदा न समझना। जैसा कि उन दिनों आमतौर पर होता था, ख़त घूम-फिरकर क्लास टीचर के हाथों में पहुंच गया। फिर प्रणय-निवेदन का जो अवदान मिला, वह था हथेली पर सौ-पचास छड़ी और क्लास रूम के बाहर स्कूल की आखिरी घंटी तक मुर्गा बनकर अपनी उस एकतरफा प्रेमिका और उसकी सहेलियों का भरपूर मनोरंजन। प्रेमिका ज्यादा 'कोमल-ह्रदय' थी सो चि_ी वाली बात घर तक भी पहुंचा दी गईं। फिर हुआ घर में भी इश्क़ का भूत झाडऩे का सिलसिला शुरू। उफ्फ़़ कैसी तो जालिम होती थीं हमारे ज़माने की प्रेमिकाएं ! ऐसी दुर्दशा करवाने के बाद हमदर्दी का मरहम लगाना तो दूर, ससुरी मुस्कुराती हुई बगल से ऐसे निकल जाती थीं कि उस दौर का दूसरा सबसे लोकप्रिय शेर जुबान पर आ जाता था- आकर हमारी कब्र पे तुमने जो मुस्कुरा दिया, बिजली चमक के गिर पड़ी सारा कफऩ जला दिया।उसके बाद स्कूल-कॉलेज में जिस जिसपर भी प्यार आया, वह अव्यक्त ही रहा। प्रणय-निवेदन का वैसा खूंखार प्रतिदान पाकर दोबारा प्रपोज करने का साहस कौन जुटा पाता है? अब हिम्मत आई तो है लेकिन तब जब अपना ज़माना बीत चुका है- सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया!

बहरहाल मेरा जो हुआ सो हुआ, आप सभी मित्रों को ‘प्रपोज डे’ की शुभकामनाएं !

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news