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दिमाग को स्वस्थ और तेज-तर्रार कैसे बना सकते हैं आप?
19-Feb-2024 4:11 PM
दिमाग को स्वस्थ और तेज-तर्रार कैसे बना सकते हैं आप?

तेज़ी से बदलती दुनिया, लगातार आगे बढ़ती टेक्नोलॉजी और रोज़मर्रा के जीवन में आते जा रहे बदलाव।

हमारा दिमाग़ इन सब कामों के लिए नहीं बना था, जो आज हम करते हैं। फिर भी हम इस आधुनिक दुनिया में अच्छे से ढल गए हैं और लगातार आ रहे बदलावों के हिसाब से ख़ुद को बदलते भी जा रहे हैं।

ये सब संभव हो पाया है हमारे ब्रेन यानी मस्तिष्क के कारण। एक ऐसा अंग जिसमें ख़ुद को ढालने, सिखाने और विकसित करने की ज़बरदस्त क्षमता है।

सवाल उठता है कि हम इस कमाल के अंग को कैसे स्वस्थ रख सकते हैं? क्या कोई ऐसा तरीक़ा है जिससे हम मस्तिष्क की क्षमता को बढ़ाकर इसे तेज़-तर्रार बना सकते हैं?

बीबीसी की विज्ञान पत्रकार मेलिसा होगेनबूम ने इन्हीं सवालों का जवाब तलाशने के लिए नए शोधों का अध्ययन किया और कुछ विशेषज्ञों से बात की।

इंग्लैंड की सरे यूनिवर्सिटी में क्लीनिकल साइकोलॉजी के प्रोफ़ेसर थॉरस्ट्रीन बार्नहोफऱ ने मेलिसा को बताया कि हम अपने दिमाग़ की क्षमताओं को कई तरीक़े से बढ़ा सकते हैं।

वह बताते हैं, ‘कुछ ऐसी प्रक्रियाएं हैं, जो कुछ ही हफ़्तों में तनाव को कम करती हैं और न्यूरोप्लास्टिसिटी को बढ़ावा देती हैं। न्यूरोप्लास्टिसिटी बढऩे से डिमेंशिया जैसी बीमारियों को टाला जा सकता है और यहां तक कि मनोवैज्ञानिक सदमे से मस्तिष्क को पहुंचे नुक़सान को कम किया जा सकता है।’

न्यूरोप्लास्टिसिटी क्या होती है?

प्लास्टिसिटी हमारे दिमाग़ की उस क्षमता को कहा जाता है, जिसमें वह बाहर से आने वाली सूचनाओं के आधार पर ख़ुद में बदलाव लाता है।

लखनऊ में मनोवैज्ञानिक राजेश पांडे ने बीबीसी हिंदी के लिए आदर्श राठौर को बताया कि न्यूरोप्लास्टिसिटी वास्तव में हमारे दिमाग़ में मौजूद न्यूरॉन, जिन्हें नर्व सेल भी कहा जाता है, उनमें बनने और बदलने वाले कनेक्शन को कहा जाता है।

वह कहते हैं, ‘हमारा मस्तिष्क एक न्यूरल वायरिंग सिस्टम है। दिमाग़ में अरबों न्यूरॉन होते हैं। हमारे सेंसरी ऑर्गन (इंद्रियां) जैसे आंख, कान, नाक, मुंह और त्वचा बाहरी सूचनाओं को दिमाग़ तक ले जाते हैं। ये सूचनाएं न्यूरॉन के बीच कनेक्शन बनने से स्टोर होती हैं।’

‘जब हम पैदा होते हैं तो इन न्यूरॉन में बहुत कम कनेक्शन होते हैं। रिफ़्लेक्स वाले कनेक्शन पहले से होते हैं, जैसे कोई बच्चा गर्म चीज़ के संपर्क में आने पर हाथ पीछे कर लेगा। लेकिन सांप को वह मुंह में डाल लेगा क्योंकि उसके दिमाग़ में ऐसे कनेक्शन नहीं बने हैं कि सांप खतरनाक हो सकता है। फिर वह सीखता चला जाता है और न्यूरल कनेक्शन बनते चलते हैं।’

राजेश पांडे बताते हैं कि नए अनुभवों पर ये कनेक्शन बदलते भी हैं। इसी पूरी प्रक्रिया को न्यूरोप्लास्टिसिटी कहा जाता है। इंसान के सीखने, अनुभव बनाने और यादों को संजोने के पीछे यही प्रक्रिया होती है।

कैसे बढ़ाई जा सकती है न्यूरोप्लास्टिसिटी

प्रोफ़ेसर थॉर्स्टन बार्नहोफऱ का कहना है कि माइंड वान्डरिंग यानी मन के भटकने से स्ट्रेस बढ़ता है।

वह बताते हैं कि बार-बार एक ही चीज़ के बारे में सोचकर चिंता करना हानिकारक होता है क्योंकि इससे कॉर्टिसोल हार्मोन का स्तर बढ़ जाता है।

यह हार्मोन दिमाग़ के लिए हानिकारक होता है और न्यूरोप्लास्टिसिटी के लिए बाधा पैदा करता है। इससे बचने का तरीक़ा है- माइंडफ़ुलनेस यानी सचेत रहना।

माइंडफ़ुलनेस का सीधा मतलब है- अपने आसपास के माहौल, अपने विचारों और अपने सेंसरी अंगों (आंख, कान, नाक, मुंह, त्वचा) को लेकर सचेत रहना। यानी बिना ज़्यादा मनन किए इस पर ध्यान देना कि उस समय आप क्या महसूस कर रहे हैं।

मनोवैज्ञानिक राजेश पांडे बताते हैं, ‘आसान भाषा में समझें तो माइंडफ़ुलनेस का मतलब है- इस बारे में सचेत होना कि हमारे सेंसरी ऑर्गन के ज़रिये बाहर से क्या जानकारियां दिमाग़ में जा रही हैं और अंदर मौजूद जानकारियों का कैसे इस्तेमाल हो रहा है।’

मेडिटेशन का उदाहरण देते हुए वह कहते हैं, ‘आसान भाषा में कहें तो यह अपने सेंसरी ऑर्गन पर फ़ोकस करने की प्रक्रिया है। अपनी सांस पर ध्यान देना या यह महूसस करना कि मौसम गर्म है या ठंडा, क्या मैं ठीक से सुन पा रहा हूं, क्या आसपास कोई सुगंध है।’

‘इससे भी न्यूरल कनेक्शन बनते हैं। आप देखेंगे कि अगर कोई इंसान दिन में 15 मिनट ही इन सेंसरी अंगों पर ध्यान केंद्रित करे तो उसका चलना-फिरना, बोलना, हंसना, मुस्कुराना, सब बदल जाएगा।’

हाल ही में पता चला है कि न्यूरोप्लास्टिसिटी की प्रक्रिया के दौरान दिमाग़ की संरचना में भी बदलाव आता है।

इसकी परख के लिए मेलिसा होगेनबूम ने एक बार अपने ब्रेन का स्कैन करवाने के बाद छह हफ़्तों तक मेडिटेशन किया और फिर से स्कैन करवाया।

प्रोफ़ेसर बार्नहोफऱ ने पिछले और नए स्कैन में तुलना करने के बाद बताया कि छह हफ़्तों में मेलिसा के मस्तिष्क में न्यूरोप्लास्टिसिटी बढ़ गई थी।

उन्होंने कहा, ‘ब्रेन के राइट अमिगडला का आकार कम हुआ है। ऐसा स्ट्रेस में कमी आने से होता है। जिन लोगों में एंग्ज़ाइटी और तनाव होता है, उनमें यह बढ़ा होता है। हमने पहले भी देखा है कि माइंडफुलेस ट्रेनिंग से इसका आकार कम हुआ। साथ ही दिमाग़ के पिछले हिस्से में भी बदलाव आया है। इसका मतलब है कि दिमाग़ में भटकाव में कमी आई है।’

कसरत भी है मददगार

विशेषज्ञ कहते हैं कि दिमाग़ में न्यूरोप्लास्टिसिटी बढ़ाने के लिए कसरत का भी अहम योगदान हो सकता है। इटली के ‘सेंट्रो न्यूरोलेसी’ संस्थान के निदेशक प्रोफ़ेसर एंजले क्वॉट्रोने के मुताबिक़, अगर दिन में 30 मिनट एक्सराइज़ की जाए और एक सप्ताह में चार से पांच दिन किया जाए तो दिमाग़ पर इसका अच्छा असर पड़ता है।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ ससेक्स में कंपेरेटिव कॉग्निशन की प्रोफ़ेसर गिलियन फ़ॉरेस्टर ने बताया कि मस्तिष्क में होने वाली गतिविधियों और बदलावों का शारीरिक हरकतों से गहरा संबंध है।

वह बताती हैं, ‘हमने देखा है कि अगर किसी को बोलने में दिक्कत है तो उसे हाथों से इशारे करते हुए बोलते समय सुविधा हो सकती है। दरअसल, हमारे दिमाग़ का जो हिस्सा बोलने में मदद करता है, वह मोटर डेक्स्टेरिटी यानी हाथों, पैरों या बांहों की मदद से काम करने में मदद करने वाले हिस्से से जुड़ा हुआ है। शायद ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भाषा का विकास इशारों से हुआ है।’

स्कूल ऑफ साइकोलॉजी, बर्कबैक, यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन में डॉक्टर ओरी ऑसमी बताते हैं कि मेडिटेशन के अलावा शारीरिक कसरत से भी स्ट्रेस कम होता है।

वह कहते हैं, ‘हमारा दिमाग़ हर समय खुद में बदलाव ला रहा होता है। लेकिन बच्चों में यह प्रक्रिया तेजी से हो रही होती है। यह देखा गया है कि जो शिशु हाथ-पैर सामान्य स्तर पर हिलाते हैं, वे बाद में अच्छे से बोल सकते हैं। लेकिन जो ऐसा नहीं करते, उनमें से कुछ को बाद में बोलने या सामाजिक व्यवहार में दिक्कत हो सकती है।’

मनोवैज्ञानिक राजेश पांडे बताते हैं कि व्यायाम ही नहीं, म्यूजिक या भाषा सीखने जैसा कोई भी नया काम करने से न्यूरोप्लास्टिसिटी को बढ़ाया जा सकता है क्योंकि जब हम कुछ नया देखते, सीखते या सोचते हैं तो दिमाग में नए न्यूरल कनेक्शन बनते हैं।

वह कहते हैं, ‘इंसान का दिमाग़ आजीवन न्यूरल कनेक्शन बना सकता है। आप 80 साल की उम्र में भी नई भाषा सीख सकते हैं। नई जगह जाने, एक रूटीन तोडऩे और कुछ भी नया करने से बहुत फ़ायदा होता है। बस हमें उसे नए अनुभव देते रहना है।’

दिमाग को पहुंचे नुकसान का इलाज

इटली के ‘सेंट्रो न्यूरोलेसी’ संस्थान में न्यूरोलॉजिकल समस्याओं से जूझ रहे मरीजों का आधुनिक तकनीक की मदद से इस्तेमाल किया जाता है।

इस संस्थान के निदेशक प्रोफ़ेसर एंजले क्वॉट्रोने बताते हैं कि जो लोग चल-फिर नहीं पाते, उनके लिए विशेष गेम बनाए गए हैं। इससे उनके दिमाग़ को संकेत मिलते रहते हैं। इससे प्लास्टिसिटी बढ़ती है और दिमाग फिर से वो कनेक्शन बना पाता है, जो किसी हादसे या स्ट्रोक के कारण टूट गए होते हैं। इसे रीवायरिंग कहा जाता है।

इस काम में रोबॉटिक्स और करंट स्टिमुलेशन की मदद भी ली जाती है। करंट स्टिमुलेटर ऐसा उपकरण है, जो दिमाग में कमजोर हो चुके सिग्नल को बढ़ा देता है। इससे दिमाग को रीवायर करने में मदद मिलती है।

सीखने की प्रक्रिया भविष्य में होगी आसान

अभी तक यही माना जाता था कि न्यूरोप्लास्टिसिटी बच्चों में अधिक होती है। लेकिन अब दुनिया भर में वयस्कों में भी इसे दिमाग़ को एक्टिव रखने और उसे पहुंचे नुकसान को कम करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैम्ब्रिज में एक्सपेरिमेंटल साइकोलॉजी की प्रोफ़ेसर ज़ोई कोर्तज़ी कहती हैं कि हर व्यक्ति के मस्तिष्क का सीखने का भी अपना रिदम (लय) होता है।

उन्होंने बीबीसी की विज्ञान पत्रकार मेलिसा होगेनबूम से कहा, ‘हर व्यक्ति का दिमाग़ अपनी लय में काम करता है। अगर उस व्यक्ति को उसके दिमाग के रिदम से सूचनाएं दी जाएं तो वह तेज़ी से सीख सकता है।’

यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज में किए गए प्रयोग में लोगों को कुछ सवाल सुलझाने को दिए गए। फिर उनके दिमाग की इलेक्ट्रल एक्टिविटी को मापा गया। इससे अंदाजा लगा कि उनका दिमाग किस रिदम में काम कर रहा है। फिर उस रिदम के हिसाब से सवाल दिए गए तो वे बेहतर ढंग से उन्हें सुलझा पाए।

यह शोध अभी शुरुआती चरण में हैं और उम्मीद जताई जा रही है कि भविष्य में लोगों को उनके दिमाग के रिदम के हिसाब से बेहतर ढंग से सिखाया जा सकेगा, उनकी न्यूरोप्लास्टिसिटी बढ़ाई जा सकेगी। (bbc.com/hindi)

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