विचार / लेख
![नीतीश कुमार का सत्ता मोह नीतीश कुमार का सत्ता मोह](https://dailychhattisgarh.com/uploads/article/1708937324ownload_(1).jpg)
डॉ. आर.के. पालीवाल
नीतीश कुमार हमारे दौर की भारतीय राजनीति के ऐसे नेता बन गए हैं जिनकी छवि का ग्राफ लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से निकलकर जिस तरह से धीरे-धीरे राजनीति के अर्श के आसपास पहुंच गया था उसी तरह वह धीरे-धीरे गिरते हुए राजनीति के वर्तमान फर्श पर आ गया है। कभी समाजवादी विचारधारा का ऊंचा झंडा उठाते हुए वे भ्रष्टाचार, परिवार वाद और सांप्रदायिकता से उचित दूरी बरतते थे। इस वजह से उन्हें न केवल बिहार और पूरे देश की जनता का प्यार और विश्वास मिला बल्कि वे गठबंधन सरकार में प्रधानमंत्री पद के सर्वाधिक उचित उम्मीदवार भी दिखने लगे थे। सुशासन बाबू के नाम से बनी उनकी प्रशासनिक छवि एक ऐसे काबिल नेता के रुप में बन गई थी जिसमें प्रशासनिक क्षमता भी थी, जो अपने समकालीन नेताओं से भी अच्छा समन्वय कर लेता है और परिवारवाद और भ्रष्टाचार के आरोपों से भी मुक्त है।
हाल ही में नौवीं बार मुख्यमंत्री बनकर उन्होंने सबसे ज्यादा बार बिहार का मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड भी बना लिया। संभवत: यह बिहार ही नहीं किसी भी सूबे के मुख्यमंत्री के लिए भी रिकॉर्ड हो लेकिन उन्होंने बार बार गठबंधन का पाला बदलने से अपनी विश्वसनीयता लगभग शून्य कर ली है। बिहार तक सीमित अपने छोटे से दल के संगठन और बिहार की सत्ता को जैसे-तैसे अपने कब्जे में रखकर नीतीश कुमार ने विगत कुछ वर्षों में संविधान के लोकतांत्रिक मूल्यों और परंपराओं का भी मजाक बनाकर रख दिया है और विचारधारा को भी तिलांजलि दे दी है। राजनीतिक लाभ के लिए बार बार इधर से उधर पलटी मारने के लिए समकालीन मीडिया उन्हें तरह तरह के नकारात्मक विशेषणों से नवाज रहा है। वे हमारे समय के कार्टूनिष्टों के प्रिय विषय बन गए हैं। किसी भी संवेदनशील और नैतिकता एवं सिद्धांतों में विश्वास करने वाले नागरिक के लिए नीतीश कुमार का बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी से चिपके रहना आश्चर्यजनक है। भारतीय राजनीति में आया राम गया राम संस्कृति नई नहीं है लेकिन सत्ता के लिए जिस तरह गठबंधन परिर्वतन का उपयोग नीतीश कुमार कर रहे हैं वह अकल्पनीय है। वे धुर विरोधी गठबंधन इंडिया और एन डी ए में इतनी सहजता से आवाजाही कर चुके हैं जैसे इन दोनों में कोई फर्क ही नहीं है। किसी हद तक यह सही भी है। इंडिया और एन डी ए गठबंधन के कुछ अन्य घटक दल भी इधर से उधर लुढक़नी मार चुके हैं लेकिन नीतीश कुमार का मामला थोड़ा अलग है। नीतीश कुमार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुखर विरोधी बनकर एनडीए से निकले थे। वहां से निकलकर उन्होंने इंडिया गठबंधन बनाने में सबसे ज्यादा मुखरता दिखाई थी। यह उम्मीद की जा रही थी कि वे इंडिया गठबंधन के संयोजक बन सकते हैं और भविष्य में डावांडोल लोकसभा में वैसे ही प्रधानमंत्री पद तक पहुंच सकते हैं जैसे वे बिहार में तीसरे नंबर की पार्टी के नेता होकर भी बार बार मुख्यमंत्री बने हैं।
आजादी के बाद काफी समय तक बिहार प्रशासनिक दृष्टि से सबसे बेहतर राज्यों में शामिल रहा है। आपातकाल के विरोध में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार से ही सबसे ज्यादा योगदान हुआ था।कालांतर में लालू प्रसाद यादव और बाद में नीतीश कुमार के दौर में बिहार निरंतर पिछड़ता चला गया। नीतीश कुमार से बिहार को बहुत उम्मीद थी लेकिन अब उनका जादू लोगों के सिर से उतर चुका है। एन डी ए गठबंधन में शामिल होने से संभव है कि बिहार सरकार को केंद्र से ज्यादा फंड आदि की सुविधाएं मिल जाएं लेकिन लोगों के दिमाग में उनकी छवि दागदार हुई है जिसका खामियाजा लोकसभा चुनाव में उन्हें और उनके दल को झेलना पड़ सकता है।