विचार / लेख
दिनेश श्रीनेत
समाज में रहते हुए हमें दूसरों से मदद की जरूरत भी पड़ती है। हम इतने सक्षम नहीं होते कि अकेले ही हर तरह की स्थिति से निपट लें। बहुत से मामले ऐसे होते हैं जिसमें बतौर नागरिक हमारी सीमाएं होती हैं। इसलिए किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में संस्थाओं की जरूरत पड़ती है। ये संस्थाएं हमारे उन अधिकारों की रक्षा करती हैं, जिन पर कभी न कभी संकट आ ही जाता है।
बतौर नागरिक हमारे कुछ अधिकार होते हैं, बतौर मनुष्य हमारे कुछ अधिकार होते हैं, एक खास समुदाय का हिस्सा होने की वजह से जो हमारी सामाजिक स्थिति बनती है, उसकी वजह से भी हमारे कुछ विशेषाधिकार सुरक्षित करने पड़ते हैं। इसलिए यह जरूरी होता है कि हम सब मिलकर लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत बनाएं।
जब हम किसी और के अधिकार का हनन करते हैं तो अप्रत्यक्ष रूप से हम इस एक्शन को को वैधता प्रदान कर रहे होते हैं। यानी अगर आपने खुद को यह छूट दे कि किसी की गलती की सजा आप बिना पुलिस कोर्ट का सहारा लिए सडक़ पर निपटाएंगे तो इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि हमारे साथ भी कभी भी ऐसा हो सकता है।
असल बात, जिस पर चिंता करनी चाहिए, यह है कि हम धीरे-धीरे अपनी लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर बनाते जा रहे हैं। यदि समाज में किसी के साथ अन्याय हो रहा है तो उसकी सुनवाई कहां पर है?
लेखक, कलाकार और बुद्धिजीवी लिट-फेस्ट में तालियां बटोर रहे हैं। सोशल मीडिया पर दांत निपोर रहे हैं। इन दिनों लेखकों के पास अपनी किताबों के प्रचार का जिम्मा है। वे रात-दिन उसी काम में लगे हुए हैं। कलाकार पैसे के लिए अमीर कारोबारियों के इर्द-गिर्द चक्कर लगा रहे हैं। बुद्धिजीवी सुरक्षित तरीके से वक्तव्य दे रहे हैं।
मुख्यधारा की मीडिया और पत्रकारों की हालत ऐसी हो गई है कि वे कुछ भी लिख दें, कह दें - सिस्टम पर कोई असर नहीं होता है। इसके समानांतर खड़ा वैकल्पिक मीडिया विपक्ष की भूमिका तो निभा रहा है मगर उसका प्लेग्राउंड राजनीति है। उन्हें भी शोषण, विकास या किसी के साथ नाइंसाफी की खबरों से कोई लेना-देना नहीं है। उनकी भाषा भी असहनीय रूप से काव्यात्मक हो गई है। क्योंकि वे जमीनी मुद्दों से कट गए हैं।
वे इसी में खुश हैं कि वे सत्ता पक्ष की सातों दिन चौबीस घंटे आलोचना का स्पेस बचाए हुए हैं। इतनी काव्यात्मक आलोचना से सत्ता को भी कोई खास फर्क़ नहीं पड़ता और वह व्यवस्था से नाराज लोगों के लिए स्वांत: सुखाय जैसा बनकर रह गया है। मीडिया ही सत्ता पक्ष की भूमिका में हैं और मीडिया ही विपक्ष बनकर खुश है। न तो सत्ता की जनता से जवाबदेही है और न ही विपक्ष की। सभी अपने सुरक्षित खोलों में हैं।
एक्टिविस्ट पर शिकंजा है लिहाजा वे भी शांत होकर बैठ गए हैं। अगर आप किसी आम इंसान को न्याय दिलाने की कोशिश में लगे हैं, या बतौर एक बेहद साधारण नागरिक के रूप में अपने लिए न्याय चाहते हैं, तो बहुत हद तक आपको निराश होना पड़ेगा। आप पाएंगे कि कहीं कोई सुनवाई नहीं है।
जो मध्यवर्ग बदलाव का नेतृत्व करता था अब उसकी दिलचस्पी एक न्यायोचित व्यवस्था में नहीं है। वे चुटकुले देख रहे हैं, हँस रहे हैं, राजनीतिक झगड़े और वाद-विवाद सुन रहे हैं, भजन गा रहे हैं, ओबेसिटी का शिकार हो रहे हैं, ताली पीटकर हँस रहे हैं। और उन्हें लगता है कि वे सुरक्षित हैं और उनके पास ताकत है।
इस स्वार्थी मिडिल क्लास ने हर उस संस्था को कमजोर किया है या माखौल उड़ाया है जो किसी भी रूप में आखिरी आदमी के सपोर्ट में खड़ा था।