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किताबें, जिनके खोने की मायूसी कम नहीं होती
27-Jul-2024 3:26 PM
किताबें, जिनके खोने की मायूसी कम नहीं होती

-प्रिय दर्शन

कल एक मित्र, पल्लव ने एक अपराध बोध में डाल दिया। मैंने जि़क्र किया कि वाल्ट व्हिटमैन का एक संग्रह मेरे पास है जो एक पुस्तकालय का है। उन्होंने फौरन सलाह दी कि इसे वापस कर दीजिए। यह ज़रूरी बात कही कि पुस्तकालयों को बचाना जाना ज़रूरी है।

न उनकी सदाशयता में संदेह है न उनकी सलाह पर सवाल है। लेकिन यह सवाल मुझे देर तक मथता रहा कि क्या पुस्तकालय इसलिए ख़त्म हो रहे हैं कि वहां की पुस्तकें लोग अपने घर पर रख ले रहे हैं? या इसलिए कि लोग पुस्तकालय जाते ही नहीं, किताबें अलमारियों में पड़ी रहती हैं और बाद में नई किताबों की जगह बनाने के लिए कबाड़ी में बेच दी जाती हैं? मैं चाहता हूं, ऐसे लोग हों जो पुस्तकालय जाएं और कोई ऐसी अनूठी किताब उनको मिले, जिसे रखने का मन करे तो रख भी लें। बेशक, उसका जुर्माना भर दें। आखऱि वे हमारी तरह के ही पाठक होंगे और यह संभव है कि जो किताब हमें पुस्तकालय से न मिले, वह हम उनसे ले पाएं।

एक सवाल यह भी है कि हम किसी और शोरूम या दुकान से सामान नहीं उठाते,. किताबें ही क्यों रख लेते हैं? शायद इसलिए कि वे हमारी नजऱ में अब तक आर्थिक सामान नहीं, एक सांस्कृतिक पूंजी है जो बांटने से बढ़ती है, पैसे की तरह घटती नहीं। हम एक-दूसरे की किताबें भी रख लेते हैं।

हालांकि यह टिप्पणी किसी सफ़ाई के लिए नहीं है। मैं पल्लव की बात से सहमत हूं। मगर किताबों के लेनदेन पर मैंने बरसों पहले एक लेख लिखा था- आज उसे फिर से चिपका रहा हूं।

वे खोई हुई किताबें

मेरी किताबों की आलमारी में ज्ञानरंजन का एक कहानी संग्रह है- ‘सपना नहीं’। इस पर ज्ञानरंजन के आत्मीय दस्तख़त भी हैं- लेकिन ‘प्रियदर्शन’ के लिए नहीं, ‘प्रिय मंगलेश’ के लिए। मंगलेश जी ने कभी जनसत्ता में किसी आत्मीय चर्चा के दौरान मुझे ज्ञानरंजन को फिर से पढऩे की सलाह ही नहीं दी, उनका संग्रह भी सुलभ करा दिया। इस बात को करीब 12-13 साल हो चुके होंगे। मैंने सलाह भी मानी, संग्रह भी पढ़ लिया, बेशक, कहानी की मेरी समझ भी बेहतर हुई, लेकिन वह शुभ घड़ी अभी तक नहीं आई जब मैं उन्हें किताब वापस कर सकूं। शायद मंगलेश जी भी भूल गए हों। लेकिन मंगलेश डबराल के पास भी मेरी कम से कम एक किताब पड़ी हुई है- भवानी प्रसाद मिश्र का कविता संग्रह ‘मन एक मैली कमीज़ है।‘ मुझे अब उस किताब की वापसी का इंतज़ार नहीं है, क्योंकि इसकी दूसरी प्रति मैंने खऱीद ली है।

दरअसल हम सब दूसरों की शिकायत करते हैं कि वे किताबें लेकर लौटाते नहीं, जबकि अक्सर हमारी अलमारी में बहुत सारी ऐसी किताबें पड़ी रहती हैं जिन्हें हमने दूसरों को वापस नहीं किया। कई बार तो यह ख्याल भी नहीं रहता कि हमने कब कौन सी किताब किसे दी है। बरसों पहले मैंने अज्ञेय के काव्य संचयन ‘सदानीरा’ के दोनों खंड थानवी जी, यानी ओम थानवी से लिए थे जिन पर ‘प्रिय ओम’ के लिए इला डालमिया के सुघड़ हस्ताक्षर भी थे। वे भूल गए कि उन्होंने ये खंड किसे दिए थे और इन्हें नए सिरे से खऱीद लिया। जब अरसे बाद किसी प्रसंग में ‘सदानीरा’ का जि़क्र छिड़ा और मैंने बताया कि उनकी किताबें मेरे पास हैं तो वे कुछ हैरान हुए। अब उनकी थाती उनके पास जा चुकी है। वैसे थानवी जी के पास मेरी एक किताब शरद जोशी का व्यंग्य संग्रह ‘ढलता नीम शाश्वत थीम’ पड़ी हुई है और मेरे पास उनकी दी हुई रसूल हमजातोव की ‘मेरा दागिस्तान’ है।

अब यह सूची बनाना मुश्किल है कि मेरी किताबें किन-किन लोगों के पास पड़ी हुई हैं- ज़्यादातर को मैं भूल चुका हूं और कुछ को याद नहीं करना चाहता। दूसरी बात यह कि फिर वह सूची इतनी बड़ी और इतनी सारी किताबों की होगी कि उसके लिए यह छोटी सी जगह कुछ और छोटी पड़ जाएगी। एक दिन घर पर आए अपने आत्मीय मित्रों मुकेश कुमार और पापोरी गोस्वामी से गपशप के दौरान मैंने उन्हें बता दिया कि मेरी दो-एक किताबें उनके पास पड़ी हुई हैं। हालांकि बताते-बताते मुझे लगा कि कहीं इस प्रसंग में ओछेपन की बू न आ रही हो तो फिर मैंने उन्हें देर तक सफाई देने और समझाने की कोशिश की कि लेखकों के बीच यह साझा चलता है और किसी भी सच्चे पुस्तक प्रेमी को यह दावा नहीं करना चाहिए कि वह दूसरों की किताबें बिल्कुल ध्यान रखकर लौटाता है।

हालांकि ऐसे भी पुस्तक प्रेमी होते हैं, जो आपकी किताब ले जाते हैं, ठीक से संजोए रखते हैं और जब आप उन्हें भूल चुके होते हैं तो अचानक एक दिन उन्हें वापस करके आपको हैरत में डाल देते हैं। लेकिन यह लेख उन सावधान पुस्तक प्रेमियों के लिए नहीं, उन लापरवाह लेखकों-पत्रकारों के लिए लिखा जा रहा है जिनकी वजह से किताबें एक घर से दूसरे घर सफर करती रहती हैं और कई बार वे किसी और की मार्फत अपने घर लौट भी आती हैं।

बहरहाल, किताबों ने खोकर भी मुझे काफी कुछ दिया है। कुछ बरसों पुराने दोस्त- जिनकी शक्लें भी नए सिरे से पहचाननी होंगी- बस मुझे इसीलिए याद हैं कि उन्होंने मेरी किताब रखी हुई है। रांची में करीब 20-25 साल पहले मेरे एक मित्र प्रमोद शर्मा ने मुझसे आयन रैंड के दो उपन्यास ‘ऐटलस श्रग्ड’ और ‘फाउंटेनहेड’ लिए। प्रमोद शर्मा के साथ आत्मीयता का धागा मैं अब भी महसूस करता हूं तो उनके पास पड़ी या खो चुकी अपनी इस विस्मृत थाती की वजह से भी।

किताबों के लेनदेन में यह लापरवाह रवैया क्या बताता है? इस लेख में इत्तिफाकन जिन कुछ लोगों का जि़क्र है, उन्होंने मेरी किताबों के अलावा मुझसे कभी कुछ नहीं लिया- या अगर कभी कुछ लिया होगा तो उसे तत्काल वापस किया। मैंने भी दूसरों की बस किताबें ही रखीं, बाकी कोई दूसरी चीज़ उनसे नहीं ली। क्या मैं किसी की घड़ी, कमीज़ या किसी के जूते या फिर किसी के पैसे रख सकता हूं? मैं इसकी कल्पना भी नहीं कर पाता, अपने संदर्भ में ही नहीं, शायद उन दूसरों के संदर्भ में भी, जिनके पास मेरी किताबें हैं- यानी उन्हें भी किताबों के अलावा मेरा कुछ और लेना शायद गवारा न हो। तो बाकी मामलों में जो संकोच या स्वाभिमान आड़े आता है, वह किताबों के मामले में क्यों नहीं आता? क्या इसलिए कि किताबें हमारी निगाह में अब तक वह उपभोक्ता सामग्री नहीं हैं जिनपर हम अपनी मिल्कियत की मुहर लगाते हों या जिनसे अपनी हैसियत का इज़हार करते हों? हालांकि हममें से बहुत सारे लोग किताबों पर सबसे पहले अपने हस्ताक्षर करते हैं और दूसरों को अपने पास की किसी भी दूसरी चीज़ के मुकाबले किताबों का भंडार दिखा कर ज़्यादा खुश होते हैं- निश्चय ही इनमें मैं भी हूं। या फिर इसलिए कि जूतों, कपड़ों, कलमों और घडिय़ों के मुकाबले हमारे पास किताबें ज्यादा होती हैं और इसीलिए हम उन्हें बांटते रहते हैं?

वजह मुझे नहीं मालूम, बस इतना समझ में आता है कि जब समाज के बहुत सारे जोड़ टूट रहे हैं तो किताबें वह पुल हैं जो हमारे इस लेनदेन को, हमारी इस सामाजिकता को बचाए हुए हैं।

हालांकि यह सब लिखते हुए कुछ ऐसे लोग भी याद आ रहे हैं जो सिर्फ ले जाते हैं, न किताबें पढ़ते हैं न लौटाते हैं। शायद ऐसे ही लोगों की वजह से हम सब के पास खोई हुई किताबों की सूची बड़ी दिखती है, दूसरों से ली हुई किताबों की कम। कई बार तय किया कि किताबें ले जाने वालों के नाम लिखूंगा, कुछ दिनों की एक छोटी सी डायरी भी है जिनमें कुछ नाम दर्ज हैं, लेकिन इसके बावजूद कई किताबें गायब हैं। यह भी कई बार तय कर चुका हूं कि आगे से किसी को किताब नहीं दूंगा, लेकिन ये लोग नहीं, किताबें हैं जो इसरार करती हैं कि उन्हें दूसरों को पढ़ाया जाए। अक्सर बहुत अच्छी किताब पढक़र तबीयत होती है कि उसे हमारे जैसा कोई दूसरा पढ़े- इसलिए किताबें उन्हें ही नहीं दी है जिन्होंने मांगी, उन्हें भी दी, जिन्होने नहीं मांगी- और फिर देकर भूल गया।

हो सकता है, यह टिप्पणी पढ़ते हुए आपमें से भी बहुत सारे लोगों को ऐसी कुछ गुम किताबों की याद आए या अपनी अलमारियों में ऐसी किताबें दिखें जो दूसरी जगहों पर होनी चाहिए।

वैसे ऐसी एक किताब मैंने बहुत जतन से रखी है। बरसों पहले- कम से कम 15 बरस पहले- प्रभाष जोशी ने मुझे सुनील गावस्कर की छोटी सी किताब ‘वनडे वंडर्स’ दी थी। मैंने बहुत चाव से किताब पढ़ी, लेकिन तब लौटा नहीं पाया। अब किसी को नहीं लौटाऊंगा।

और मेरी दो किताबें ऐसी हैं जिनके खोने की मायूसी कभी कम नहीं होती। अपनी फ्रीलांसिंग के दिनों में मैंने वाणी प्रकाशन से राजेंद्र माथुर संचयन के दो खंड खरीदे थे- उन्हें कई दोस्तों ने मुझसे ले-लेकर पढ़ा। आखिर में किसने रख ली, मुझे याद नहीं। काश कि अब भी कोई मुझे बता दे कि ये दोनों खंड उसके पास हैं- बस इतने भर यह टिप्पणी सार्थक हो जाएगी।

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