संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अंधाधुंध बाहुबली-स्थिरता लोकतंत्र के लिए खतरा भी
06-Jul-2022 3:53 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  अंधाधुंध बाहुबली-स्थिरता लोकतंत्र के लिए खतरा भी

ब्रिटिश सरकार के लिए आज का दिन भारी हडक़म्प का है। वहां के वित्तमंत्री, एक भारतवंशी, ऋषि सुनक और स्वास्थ्य मंत्री साजिद जाविद ने अलग-अलग वजहें बताते हुए सरकार से इस्तीफा दे दिया है। लेकिन दोनों का ही यह कहना है कि प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन की लीडरशिप में अब उनका भरोसा नहीं है। यह सिलसिला पिछले कई महीनों से चल रहा था जब प्रधानमंत्री पर यह तोहमत लगी थी कि जब पूरे देश पर लॉकडाउन के कड़े नियम लगाए गए थे तब प्रधानमंत्री निवास-कार्यालय में काम के बीच उन्होंने और उनके सहयोगियों ने दावतें की थीं, और लॉकडाउन के नियमों को तोड़ा था। प्रधानमंत्री ने संसद के भीतर इस बात को गलत करार दिया था, लेकिन जब लंदन की पुलिस, और संसद की एक कमेटी ने इस मामले की जांच की, तो पता लगा कि बोरिस जॉनसन ने झूठ कहा था, और इस बात को लेकर भी उनकी कन्जरवेटिव पार्टी के भीतर सांसदों में बड़ी नाराजगी थी, और कुछ लोग उनसे इस्तीफे की उम्मीद भी कर रहे थे। लेकिन इसके अलावा भी कई दूसरे मुद्दे थे जिन्हें लेकर प्रधानमंत्री से उनके सहयोगी मंत्रियों की असहमति चली आ रही थी, और ऐसे कुछ इस्तीफों की आशंका बनी हुई थी। अब इन दो इस्तीफों के बाद ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री के जाने का वक्त आ गया है, और आड़े वक्त उनके साथ खड़े रहने वाले साथी मंत्रियों के जाने का झटका खासा बड़ा है।

ब्रिटेन के मंत्रिमंडल और वहां के प्रधानमंत्री के मामलों पर इस जगह लिखने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन यह मुद्दा सोचने लायक है कि अगर लोग अपने मुखिया से सहमत नहीं हैं, और उसे बदलने की ताकत भी नहीं रखते हैं, तो फिर उन्हें खुद हट जाने का हौसला भी रखना चाहिए। ऐसा भी नहीं है कि इन दो ब्रिटिश मंत्रियों ने कोई ऐसा हौसला दिखाया है जो कि अनोखा हो। हिन्दुस्तान में भी कई ऐसे दौर आए हैं जब मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री से असहमत किसी मंत्री ने इस्तीफा दिया हो, और घर बैठना बेहतर समझा हो। घर बैठने की बात जरूरी इसलिए है कि हाल के बरसों में हिन्दुस्तान में भी किसी मंत्री का इस्तीफा अमूमन तभी सामने आता है जब वे सरकार छोडक़र, कई सांसदों या विधायकों को तोडक़र कोई नई सरकार बनाने की हालत में रहते हैं। अब तो थोक में होने वाले दलबदल की शर्तें बदली जा चुकी हैं, और एक तिहाई सांसद या विधायक पार्टी नहीं छोड़ सकते, इसके लिए दो तिहाई सांसद-विधायक होना जरूरी है तभी उनकी सदस्यता बचती है। और अब तो बड़ी-बड़ी विधानसभाओं में भी ऐसी दो तिहाई बगावत सामने आ रही है। लेकिन ये इस्तीफे किसी सैद्धांतिक असहमति या त्याग के लिए नहीं होते, ये इस्तीफे नई सरकार बनाने के लिए होते हैं, और सैद्धांतिक आधार पर इस्तीफे अब हिन्दुस्तान में चलन से बाहर हो गए हैं। अब यहां किसी राज्य में, या केन्द्र की किसी गठबंधन सरकार में पूरी तरह से असहमत और बेचैन लोग भी सहूलियतों के लिए, कमाई के लिए सत्ता में बने रहते हैं, और सत्ता का मोह उनसे नहीं छूटता।

ब्रिटेन का यह ताजा मामला एक बार फिर याद दिलाता है कि लोकतंत्र गिरोहबंदी का नाम नहीं है, कि एक पार्टी के नाम पर, या संगठन की एकता के नाम पर गलत कामों और बुराईयों के साथ बना रहा जाए। ये दो इस्तीफे बतलाते हैं कि सैद्धांतिक असहमति, या अपने ही मुखिया के गलत काम का विरोध करने के लिए भी कुर्सी छोड़ी जा सकती है। ब्रिटिश वित्तमंत्री ऋषि सुनक के बारे में वहां की राजनीति में यह चर्चा काफी अरसे से बनी हुई थी कि वे प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन की अलोकप्रियता या नाकामयाबी की हालत में पार्टी के अगले नेता हो सकते हैं, लेकिन ऐसी राजनीति से परे उन्होंने मुद्दों पर इस्तीफा दिया है, और बाकी जगहों पर भी लोकतंत्र को ऐसी घटनाओं को बारीकी से देखना चाहिए। कभी भी किसी पार्टी या सरकार का संगठन अनैतिक कामों की गिरोहबंदी में तब्दील नहीं होना चाहिए। पार्टियों के भीतर इतने लोकतंत्र की गुंजाइश रहनी चाहिए कि लोग मुखिया से असहमत होकर भी वहां रह सकें। जब आंतरिक असहमति की गुंजाइश खत्म हो जाती है, तो किसी संगठन या सरकार का कैसा नुकसान होता है इसे देखना हो तो आपातकाल के संजय गांधी के दबदबे को याद करना चाहिए कि किस तरह संगठन और सरकार के सबसे बड़े लोगों की भी जुबान सिल दी गई थी, और इंदिरा गांधी को जमीनी हकीकत का पता चुनाव हार जाने के बाद ही चला था। अगर किसी संगठन और सरकार में असहमति की कोई जगह नहीं रहेगी तो उसका सबसे बड़ा नुकसान आंतरिक या बाहरी लोकतंत्र का होगा।

किसी सरकार या संगठन के अंधाधुंध बाहुबल, और उसकी लंबी स्थिरता पहली नजर में एक अच्छी बात लग सकती है, लेकिन यह बात एक खतरे के साथ ही आती है। ऐसी बाहुबली-स्थिरता लोकतंत्र को खतरे में डालने का खतरा रखती है। हिन्दुस्तान ने भी ऐसी बाहुबली-स्थिरता की कई मिसालें देखी हैं, और दुनिया के अलग-अलग किस्म के लोकतंत्रों में भी यह बात इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है। एक प्रधानमंत्री देश के लिए बनाए गए कड़े कोरोना-कानूनों के खिलाफ अपने घर पर दावत करे, वहां शराब पार्टी हो, और फिर उसकी जानकारी बाहर आने पर उसे तब तक झुठलाया जाए जब तक कि उसके फोटो-सुबूत सामने न आ जाएं, ऐसी स्थिरता किसी काम की नहीं रहती है। लोकतंत्र पूरे पांच बरस की गारंटी वाला होना जरूरी नहीं होता है, उसका लोकतांत्रिक होना अधिक जरूरी रहता है। हिन्दुस्तानी संसदीय राजनीति में राममनोहर लोहिया की कही हुई यह बात अक्सर दुहराई जाती है कि जिंदा कौमें पांच बरस इंतजार नहीं करतीं। उनके कहने का मतलब किसी सरकार को अस्थिर बनाना नहीं था, उनका मतलब बड़ा साफ था कि अगर सरकार लोकतांत्रिक नहीं रह गई है, नैतिक नहीं रह गई है, तो उसे पांच बरस ढोने वाले लोग मुर्दा होते हैं, जिंदा कौमें नहीं होते हैं।

ब्रिटेन की सरकार इस झोंके या आंधी से किस तरह उबरती है, यह तो आने वाले हफ्तों में सामने आएगा, लेकिन लोकतंत्र में असहमति और विरोध का महत्व इन इस्तीफों से सामने आ चुका है, और बाकी जगहों पर भी लोकतंत्रों को आईना देखना चाहिए।
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