संपादकीय
हिंदुस्तान भी बड़ा अजीब देश है। यहां से आईआईएम से निकले हुए नौजवान दुनिया भर की बड़ी-बड़ी कंपनियां चला रहे हैं, यहां के आईआईटी से निकले हुए इंजीनियर दुनिया भर में तकनीक विकसित कर रहे हैं, लेकिन जब देश के भीतर पिछले एक बरस से छाए हुए कोरोना वायरस के खतरे से जूझने की बात आई, तो ऐसे तमाम मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग के जानकार लोगों का हुनर धरे रह गया क्योंकि भारत सरकार ने शायद ऐसे हुनर को छुआ भी नहीं। नतीजा यह निकला कि आज देश में कोरोना से मौतों का जो सिलसिला चल रहा है, न तो उसे रोका जा सक रहा है, और ना ही मौतों के बाद लोगों को एक इज्जत का अंतिम संस्कार नसीब हो रहा है।
कहने के लिए तो इस देश में आपदा प्रबंधन की योजनाएं दिल्ली से निकलकर जिलों तक पहुंचती हैं, और बाढ़ के महीनों में लोगों को बचाने के लिए रबर की बोट तक पहले से खरीदकर रख ली जाती है। लेकिन जिस कोरोना का प्रकोप साल भर पहले शुरू हो चुका है, उस कोरोना से जूझने के लिए इस देश ने इस साल में कोई योजना बनाई हो ऐसा दिख नहीं रहा है। जिस देश में केंद्र सरकार चला रही पार्टी आधा दर्जन प्रदेशों में चुनाव लडऩे की अभूतपूर्व तैयारी कर सकती है, देश के साथ-साथ विदेश तक जाकर प्रचार कर सकती है, तो क्या उस पार्टी की सरकार केंद्र सरकार की सारी ताकत रखते हुए भी हिंदुस्तान के नक्शे को देखकर कोरोना के आज के हाल का अंदाज नहीं लगा सकती थी? क्या वह राज्यों को इस हिसाब से तैयार नहीं कर सकती थी? लेकिन यह सवाल तब अप्रासंगिक हो जाते हैं जब केंद्र सरकार चला रही पार्टी इतनी गैरजिम्मेदारी के साथ चुनावी राज्यों में चुनाव प्रचार करने में लगी है, और करोड़ों लोगों के भीड़ वाले कुंभ को इजाजत दे रही है। यह पूरा सिलसिला इस देश में राजनीतिक मनमानी के सामने सरकारी ढांचे के दंडवत हो जाने का है और ऐसा लगता है कि इस लोकतंत्र में बहुमत से बनी हुई सरकार की राजनीतिक मनमानी सबसे ऊपर है, और शासकीय तंत्र उसके सामने बेबस रह गया है.
बहुत मामूली समझ रखने वाले नौकरशाह भी यह तैयारी कर सकते थे कि कोरोना की पहली लहर के बाद और दूसरी लहर के पहले, किन-किन राज्यों में तैयारियां कैसी हैं, और जहां पर तैयारियों में कमी है वहां पर क्या किया जाना है। वैसे तो एक तरफ महामारी एक्ट के तहत देश के सारे अधिकार अपने हाथों में लेकर केंद्र सरकार ने राज्यों को पिछले बरस के लॉकडाउन के दौरान घंटे-घंटे में हुक्म भेजे, और क्या खुला रहेगा क्या बंद रहेगा, इन नियमों को राज्यों पर लादा। राज्यों से हर घंटे में जवाब मांगे, जानकारी मांगी, उन्हें नोटिस दिए। लेकिन किस राज्य में कोरोना की दूसरी लहर कहां तक पहुंच सकती है उसमें कितने लोग बीमार हो सकते हैं, कितने को ऑक्सीजन लग सकती है, और कितने को वेंटिलेटर लगेंगे, इसका कोई अंदाज भी शायद लगाया नहीं गया। ना तो केंद्र सरकार ने यह अंदाज लगाया, और ना ही महाराष्ट्र जैसे संपन्न और विकसित राज्य से लेकर छत्तीसगढ़ जैसे नए और छोटे राज्य तक किसी भी राज्य में कोरोना की इस दूसरी लहर से निपटने की तैयारी नहीं की।
नतीजा यह है कि आज बीमार को अस्पताल का बिस्तर नसीब नहीं है, जिसे बिस्तर मिल गया उसे ऑक्सीजन नहीं है, और जिसे ऑक्सीजन के बाद भी बचाया नहीं जा सका उसके अंतिम संस्कार के लिए मरघट में भी जगह नहीं है। ना दवाई है, न ऑक्सीजन है, न वेंटीलेटर हैं, और ना ही एंबुलेंस है। कुल मिलाकर तस्वीर ऐसी है कि कोरोना की पहली लहर के बाद से कोरोना की दूसरी लहर के बीच इस देश और इसके प्रदेशों ने कुछ भी नहीं सीखा। जब कोरोना का दूसरा वार हुआ तो घुटनों पर लगी चोट से बिलबिलाने के अंदाज में सरकारों ने आनन-फानन घटिया, कामचलाऊ इंतजाम किए जो कि नाकाफी तो थे ही, जो जनता के पैसों की बर्बादी भी थे, और इंसानी जिंदगी की बर्बादी तो सबसे ऊपर है ही। आज देश के अधिकतर प्रदेशों का हाल देखें तो केंद्र और राज्य सरकारों ने निजी अस्पतालों को लेकर, कोरोना की जांच से लेकर, वेंटिलेटर तक, किसी इंतजाम को खुद परखा नहीं है। सरकार ने अपने खुद के मरघटों की क्षमता को भी नहीं परखा और अब बदहवास के अंदाज में रातों-रात कहीं भी अंतिम संस्कार की तैयारी चल रही है। यह पूरा सिलसिला बतलाता है कि सरकारों की प्राथमिकताएं महज राजनीतिक रहीं, चुनावी रहीं, आत्मरक्षा की रहीं, जीत की महत्वाकांक्षा की रहीं, लेकिन कोरोना के, सामने खड़े हुए दूसरे दौर से लडऩे की तैयारी की बिल्कुल नहीं रही। आज की यह पूरी नौबत भारत और इसके प्रदेशों की सरकारों की नाकामयाबी की है, और इनसे यह भी पता लगता है कि सरकारों में स्थाई रूप से बसे हुए अफसरों में से अधिक की यह क्षमता नहीं रह गई है कि वह देश-प्रदेश के राजनेताओं की मनमानी को ना कह सके। राष्ट्रीय स्तर पर जो चुने जाने वाले अफसर हैं, उनके बीच 5 बरस के राजनीतिक मुखियाओं की यह दहशत अभूतपूर्व है। किसने यह सोचा था कि अंग्रेजों के वक्त से एक कड़ी शासन व्यवस्था चलाने के लिए नौकरशाही का जो ढांचा खड़ा किया गया था, वह नेताओं के सामने इस तरह दंडवत पड़े रहेगा?
आज हिंदुस्तान के प्रदेशों की शासन की क्षमता को देखें तो यह साफ दिखता है कि क्षमता तो बहुत है, लेकिन उसके इस्तेमाल की कोई तैयारी नहीं थी। जिन अफसरों पर 5 बरस की सरकारों के पहले और बाद भी, सरकार की जिम्मेदारी रहती है, उन्होंने वक्त पर अपना काम नहीं किया, वक्त पर तैयारी नहीं की, ऑक्सीजन की जरूरत का हिसाब नहीं लगाया, अस्पतालों के बिस्तर तैयार नहीं किए, जांच का इंतजाम नहीं किया, टीकों का इंतजाम नहीं किया, और अंतिम संस्कार का इंतजाम भी नहीं किया। राजनीतिक मुखिया तो अपने अच्छे और बुरे कामों से 5 बरस बाद अपनी पार्टी सहित बाहर जा सकते हैं, लेकिन जो अफसर अपनी पूरी कामकाजी जिंदगी के लिए ऊंचे ओहदों पर आते हैं, उन अफसरों ने इस देश में अपने-आपको पूरी तरह नाकामयाब साबित किया है।
नेताओं से तो बहुत अच्छी नीयत की उम्मीद नहीं की जाती, लेकिन जिन अफसरों पर नेहरू और पटेल के वक्त से जिम्मा डाला गया था, उन अफसरों ने अपने-आपको राजनीतिक मनमानी के सामने रबड़ का बबुआ साबित किया है। ऐसा लगता है कि भारत और उसके प्रदेशों की प्रशासनिक व्यवस्था में अपने ही देश के आईआईएम और आईआईटी की विशेषज्ञता को लेकर न सम्मान हैं और न भरोसा। इन संस्थानों से निकले हुए लोग दुनिया भर में बड़े-बड़े कारोबार चला रहे हैं, बड़ी-बड़ी जगहों पर गैर सरकारी काम भी कर रहे हैं और सरकारी काम भी, लेकिन प्रशासन की ताकत अफसरों को इतना बददिमाग कर देती है कि वे हर मामले में अपने-आपको जानकार और विशेषज्ञ मान लेते हैं, और असल जिंदगी की जो असल विशेषज्ञता रहती है उसके लिए इनके मन में एक आला दर्जे की हिकारत बैठी रहती है। यह नौबत कोरोना से निपट जाने के बाद यह सोचने की है कि इस देश की शासन प्रणाली में बड़े अफसरों की कौन सी भूमिका आगे काम में ली जानी चाहिए।
जब कोई प्राकृतिक विपदा बहुत लंबी खिंचती है, जैसे कि आज की कोरोना की महामारी चल ही रही है, चलती ही जा रही है, तो ऐसे में जिंदगी के बाकी दायरों के जरूरी काम बहुत बुरी तरह बिछड़ जाते हैं। लोगों की जिंदगी में किसी भी तरह की परेशानी में दूसरों की मदद करने की क्षमता की एक सीमा रहती है, दानदाताओं की सीमा रहती है, बड़ी-बड़ी कंपनियों के भी समाजसेवा के बजट सीमित रहते हैं। जिस बरस ओडिशा में बड़ा तूफान आया, और बड़ी संख्या में मौतें हुईं, उस बरस देश के बाकी बहुत से जरूरी कामों के लिए दान ही नहीं मिला। अब जो लोग समाज से दान मिलने की उम्मीद में अनाथाश्रम या वृद्धाश्रम शुरू कर लेते हैं, उन्हें तो ऐसा अंदाज नहीं रहता कि किसी एक बरस उन्हें मिलने वाला दान तूफानपीड़ितों के लिए चले जाएगा या कि कोरोनाग्रस्त लोगों के लिए बनने वाले अस्थाई अस्पतालों के लिए चले जाएगा। दुनिया में बहुत किस्म के मदद के कार्यक्रम चलते हैं, और जब ऐसी कोई विकराल परेशानी आती है, तो बाकी सबके भूखों मरने की नौबत आ जाती है।
समाज की मदद करने की एक सीमा रहती है, और वह मदद उस वक्त के, या कि उस बरस के, सबसे अधिक मानवीय लगने वाले मुद्दे की तरफ मुड़ जाती है, तो जरूरत के जो बाकी रास्ते रहते हैं उनके किनारे खड़े हुए जरूरतमंद लोग देखते रह जाते हैं, लेकिन मदद किसी एक तरफ जब मुड़ती है तो पूरी तरह मुड़ जाती है। जिन लोगों को उड़ीसा के समुद्री तूफान जैसी प्राकृतिक विपदा का तजुर्बा है वे जानते हैं कि एयरपोर्ट से निकलने के बाद तूफानग्रस्त इलाकों तक पहुंचने के रास्ते में बड़े-बड़े राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगठन सबसे पहले अपने नाम और निशान वाले तंबू लगाना चाहते थे ताकि वहां पहुंचने वाले मीडिया और बाकी लोगों को सबसे पहले यह दिखे कि वे वहां पर काम कर रहे हैं। यह संगठन बहुत ही ईमानदार नीयत से काम करते हो सकते हैं, लेकिन उनके सामने सबसे पहले अपने खुद के अस्तित्व का सवाल रहता है। अगर उन्हें ही दान नहीं मिलेगा, तो वे आगे किसकी मदद कर पाएंगे? और फिर ऐसे बहुत से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समाजसेवी संगठनों का ऑडिट बताता है कि कई संगठन तो उन्हें मिलने वाले दान का आधा हिस्सा तक अपने पर खर्च कर देते हैं। ऐसे संगठनों के लिए कुछ जानकार लोग तंज कसते हुए यह भी कहते हैं कि दूसरों के दर्द में इनकी दवा है, दूसरों के भूखों मरने में इनका पेट भरता है। यह देखने का एक नजरिया जरूर हो सकता है लेकिन यह बात पूरी तरह सच भी नहीं है।
किसी देश या पूरी दुनिया में जरूरत के जितने प्रोजेक्ट चलते हैं, उनमें से अधिकतर बिना मदद के एक बरस भी नहीं गुजार सकते, और लोगों की हमदर्दी अगर किसी एक तरफ पूरी तरह मुड़ गई, तो बाकी प्रोजेक्ट बंद होने के कगार पर आ जाते हैं। ऐसे में ही अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और सरकारों की जरूरत पड़ती है, ऐसे में ही संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था की जरूरत पड़ती है जो कि एक व्यापक नजरिए से ऐसे प्रोजेक्ट बचा सके। ऐसे प्रोजेक्ट बच्चों के हो सकते हैं, बीमारों और बूढ़ों के हो सकते हैं, बेघरों के हो सकते हैं, कुदरत और पशु पक्षियों के हो सकते हैं, और हो सकता है कि किसी लोक कला को या लोक भाषा को बचाए रखने के, संरक्षण वाले ऐसे प्रोजेक्ट हों जो कि कोरोना से हो रही मौतों के बीच में गैरजरूरी लगें लेकिन जब दुनिया की लंबी जिंदगी को देखते हैं, तो ऐसे कई मुद्दे जरूरी लगते हैं जिनका बंद होना एक संभावना के खत्म होने सरीखा हो जाएगा।
देश-प्रदेश की सरकारों को यह भी देखना चाहिए कि उनकी तात्कालिक प्राथमिकता ऐसी ना हो जो कि दूसरे तमाम दीर्घकालीन महत्व के मुद्दों को कुचल कर रख दे। जब शासन से लेकर प्रशासन तक की प्राथमिकता किसी एक जलते हुए मुद्दे से निपटना हो, तो ऐसा कई बार होता है। पिछले बरस कोरोना के बीच जब प्रधानमंत्री राहत कोष से परे एक रहस्य में फंड पीएम केयर्स के नाम से बनाया गया, और उसे किसी भी जवाबदेही से मुक्त रखा गया, और उसे मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और साख से जोड़कर पेश किया गया. भारत सरकार की नवरत्न कंपनियों से लेकर देश की बड़ी-बड़ी निजी कंपनियों तक ने अपने साल भर के अधिकतर सीएसआर फंड इसी एक कोष में दे दिए। नतीजा यह हुआ कि इन कंपनियों से देशभर के दूसरे बहुत से समाजसेवी कामों के लिए जो मदद मिलती थी वह सिमट गई, और आज जब देश भर में मदद की जरूरत है करोना से बचाव के लिए भी पीएम केयर्स के उस फंड का क्या इस्तेमाल हो रहा है, लोगों की जानकारी में नहीं है। कुल मिलाकर देश की मदद करने की सारी निजी और सरकारी क्षमता का ऐसा केंद्रीकरण भी नहीं करना चाहिए जिससे मदद के हकदार दूसरे तमाम दायरे भूखे ही मर जाएं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कोरोना को देखकर यह लगता है कि हिंदुस्तान अभी एक ऐसी मंझधार में फंसा हुआ है जिसका कोई ओर-छोर नहीं है। बीमारी और बंद का यह दौर जब तक चलेगा, तब तक लोगों का रोजगार खत्म रहेगा, और कोरोना पहले खत्म होगा या लोग पहले खत्म होंगे, इनमें से किसी भी बात का कोई ठिकाना नहीं है। ऐसे में ना तो वैक्सीन के असर का कोई अंदाज लग रहा है, न ही यह समझ पड़ रहा है कि वैक्सीन कब तक हासिल होगी, और फिर उसे रिपीट कब करना होगा। एक अंदाज यह भी है कि यह वैक्सीन हर बरस लगवानी होगी, तब तक, जब तक कि कोरोना वायरस पूरी तरह से चल ना बसे।
लेकिन जिन लोगों को कोरोना के मौजूदा खतरे का अंत दिख रहा है उन्हें यह भी सोचने की जरूरत है कि कोरोना वायरस से अधिक बुरी, अधिक जानलेवा कोई बीमारी भी आ सकती है, और बीमारियों से परे की भी कोई मुसीबत आ सकती है। पिछले बरस जब कोरोनावायरस, और लॉकडाउन की मुसीबत चल रही थी उस वक्त भी हमने इसी जगह पर यह लिखा था कि जैसा वायरस आज इंसानी देह को खत्म करने के लिए आया हुआ है, वैसा ही जानलेवा वायरस कंप्यूटरों के लिए भी आ सकता है। और सच तो यह है कि दुनिया के बहुत से देशों के पास आज ऐसे साइबर अटैक की ताकत है, जिसके मुकाबले हिंदुस्तान जैसे देश अपने को बचाने में शायद बहुत मजबूत साबित नहीं होंगे। वैसे भी आज दुनिया के कुछ सबसे बड़े कंप्यूटर कारोबार पर जिस तरह के साइबर अटैक हो रहे हैं, और एक-एक बार में दसियों लाख लोगों की जानकारियां लूट ली जा रही हैं, उसे देखते हुए भारत जैसे कंप्यूटर मामलों के लापरवाह देश की नाजुक हालत का अंदाज लगाया जा सकता है। अभी कुछ महीने पहले ही यह खबर आई थी कि आंध्र और तेलंगाना के बिजलीघरों की कंप्यूटर प्रणाली पर दूसरे किसी देश से साइबर अटैक की, साइबर घुसपैठ की शिनाख्त हुई है, और उस सिलसिले में चीन का नाम लिया गया था। चीन आज दुनिया की बिरादरी में एक शैतान बच्चे की तरह मान लिया गया है कि कहीं कुछ गलत हो रहा है तो उसमें चीन का हाथ जरूर होगा।
दूसरी तरफ अमेरिका में अगर चुनाव को प्रभावित करने की विदेशी घुसपैठ हो हो रही है तो उसके रूसी अधिक होने का खतरा है। फिर हॉलीवुड की फिल्मों में परमाणु हथियारों के साथ अगर कोई साजिश होती है तो उसके पीछे कोई महत्वोन्मादी खरबपति कारोबारी होता है जिसे कि पूरी दुनिया पर काबू करने की हसरत रहती है। अगर कोई गिरोह ऐसा करता है तो वह तो वह साइबर घुसपैठ की ताकत भी रख सकता है, परमाणु हथियार भी रख सकता है और किसी देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम तक भी पहुंच रख सकता है। अगर पाकिस्तान की जमीन से ऐसी साजिश की कल्पना की जाती है, तो उसके पीछे वहां के धर्मांध आतंकियों का हाथ माना जाता है। अब सवाल यह है कि जब दुनिया में इतने किस्म की साजिशें हो सकती हैं, हो रही है, और लगातार साइबर घुसपैठ भी बैंकों को लूट रही है, तो ऐसे में हिंदुस्तान कब तक महफूज रहने जा रहा है?
यह समझने की जरूरत है कि आज कोरोना के बीच इस देश के नेताओं की मेहरबानी से इस देश का जो हाल हुआ है, वही हाल कोई कंप्यूटर वायरस, या हमला, किसी देश की सार्वजनिक व्यवस्थाओं से जुड़े कंप्यूटरों का क्यों नहीं कर सकता? जिस तरह आज इस देश में कोरोनावायरस आया, अमेरिकी राष्ट्रपति के विमान पर चढ़कर आया, और हिंदुस्तान में राजकीय अतिथि बनकर आया, कोई ऐसी नौबत दूर नहीं है कि ऐसा कोई कंप्यूटर वायरस फिर किसी रास्ते से सरकार की बेखबरी से हिंदुस्तान में आ जाए और तबाही मचा दे। एक ऐसी नौबत की कल्पना सबको जरूर करनी चाहिए जिसमें बैंकों के कंप्यूटर ध्वस्त हो जाएं, नतीजतन एटीएम बंद हो जाए, क्रेडिट कार्ड और डेबिट कार्ड का इस्तेमाल बंद हो जाए, ट्रेन और प्लेन के रिजर्वेशन खत्म हो जाएं, आधार कार्ड से जुड़ी तमाम जानकारियां खत्म हो जाएं, बिजलीघरों का पूरा इंतजाम चौपट हो जाए, अगर ऐसा कोई दिन आएगा तो क्या होगा? रेलगाड़ियों की आवाजाही, उनके सिग्नल, प्लेन का उड़ना या उतरना, यह सब खत्म हो जाए, मोबाइल फोन और इंटरनेट खत्म हो जाए तो क्या होगा?
आज कोरोना की वजह से आबादी का एक हिस्सा मौत की कगार पर है, लेकिन बाकी आबादी कुछ या अधिक हद तक कई किस्मों के काम कर पा रही है। अगर कोई कंप्यूटर वायरस, या कंप्यूटर हमला ऊपर लिखी तमाम बातों को खत्म कर दे तो क्या उससे यह देश बरसों तक उबर पाएगा? और यह नौबत फिल्मी नहीं है, यह हकीकत के अधिक करीब है और फिर ऐसे हमलावर ऐसी जानकारियों से आगे भी जा सकते हैं कि वे इस देश को कैसे अधिक तबाह करें। दुनिया में साइबर अटैक से सबसे अधिक सुरक्षित देशों में से एक अमेरिका के एक प्रदेश में अभी कुछ हफ्ते पहले ही एक जानलेवा साइबर अटैक हुआ। वहां लोगों के घरों तक पहुंचने वाले पीने के पानी को साफ करने वाले कारखाने में कंप्यूटरों से छेड़खानी करके कुछ रसायनों को इतनी अधिक मात्रा में पानी में घोल दिया गया कि अगर वह पानी लोग पी लेते, तो बड़ी संख्या में मौतें हो सकती थी। लेकिन वक्त रहते यह साइबर हमला पकड़ा गया।
आज जो हिंदुस्तान एक दवा ठीक से नहीं बांट पा रहा है, और जैसे जीवनरक्षक इंजेक्शन बांटना एक राजनीतिक शोहरत का मुद्दा बना लिया गया है, वह हिंदुस्तान ऐसे किसी भी साइबर अटैक का सामना करने के लिए बिल्कुल भी तैयार देश नहीं है। ऐसे किसी हमले के बाद कुछ हिंदुस्तानी, चीनी झंडे जलाकर इस हमले का सामना करने लगेंगे, और कुछ हिंदुस्तानी, पाकिस्तानी झंडे जलाकर। लेकिन हिंदुस्तानी फौज हो सकता है कि ऐसे किसी साइबर हमले के बाद कोई हवाई, या जमीनी हमला करने के लायक बच भी ना जाए। आज जब हम कोरोना के हमले से ही उबरने की ताकत नहीं रख रहे हैं तब ऐसे किसी दूसरे हमले के बारे सोचना कुछ लोगों को महज एक दिमागी शगल लग सकता है, लेकिन दुनिया पर आने वाली मुसीबतों का अंदाज ऐसे शगल से ही लगाया जा सकता है. इसलिए आज जितनी सफाई और सावधानी की जरूरत लग रही है, उतनी ही सावधानी इस देश के कंप्यूटर सिस्टम को लेकर भी बरतनी चाहिए। दुनिया का साइबर जुर्म का इतिहास बताता है कि ऐसे हमलों के लिए किसी देश की सरकारी साइबर फौज जरूरी नहीं रहती, दुनिया में अकेले काम करने वाले कोई नौजवान भी एक लैपटॉप लेकर दुनिया पर ऐसी तबाही लाने की ताकत रखते हैं. (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जो लोग आज कोरोना के शिकार हो चुके हैं या जो लोग आज कोरोना से बचे हुए हैं, ऐसे तमाम लोगों के सामने एक दुविधा है कि वे टीका लें या ना लें। यह दुविधा भी तब है जब वे अपने देश में मिल रहे टीकों को पाने के हकदार माने जा रहे हैं। हिंदुस्तान में जहां कि आज केंद्र सरकार ही टीके देना तय कर रही है और यह भी तय कर रही है कि किस उम्र के किन लोगों को ये पहले मिलें तो ऐसे में यह पसंद या नापसंद की दुविधा भी इसी उम्र के लोगों के सामने है या ऐसी ही बीमारी वाले लोगों के सामने है। दूसरी तरफ दुनिया के बहुत से देशों में जहां आज लोग अपनी मर्जी से टीके लगवाने की आजादी रख रहे हैं वहां भी उनके सामने यह दुविधा है कि कोरोना से बचाव के टीके के बारे में जितनी खबरें आ रही हैं उन्हें देखते हुए वे टीका लगवाएं या ना लगवाएं?
इस बात को समझने के लिए सबसे पहले तो इस बात पर गौर करना जरूरी है कि कोरोना वायरस करीब एक बरस ही पुराना है। और उसका टीका शायद आधा बरस पुराना ही है। इतिहास गवाह है कि टीकों के विकास में लंबा समय लगता है और क्योंकि यह महामारी बहुत सी जिंदगियां ले रही है इसलिए आधी-अधूरी तैयारी के साथ ही इन टीकों को परीक्षण के तौर पर लगाया जा रहा है। आज जब यह सवाल उठता है कि इन टीकों का असर कितने समय तक रहेगा, तो इसका जवाब किसी के पास नहीं है, क्योंकि उतना तो समय ही इन्हें बने हुए नहीं हुआ है, ऐसे में यह टीके परीक्षण ही हैं। और इसीलिए हिंदुस्तान जैसे कड़ाई से नियम लागू करने वाले देश में भी लोगों को यह छूट दी गई है कि वे चाहें तो टीके लगवाएं, और ना चाहें तो ना लगवाएं।
हिंदुस्तान के अधिकतर लोग टीका लगाते दिख रहे हैं, जबकि कुछ लोगों के मन में लगातार यह संदेह है कि दुनिया भर में जगह-जगह इस टीके के लगने के बाद, इस टीके के लगने की वजह से बहुत से लोगों की तबियत बिगड़ी है और मौतें भी हुई हैं। कुछ देशों ने कुछ टीकों पर रोक भी लगाई है कि नौजवानों पर ऐसे टीकों का बुरा असर हो रहा है और उनके खून में थक्के जम रहे हैं। लेकिन एक सवाल यह भी उठता है कि टीका लगाने के बाद लोगों को होने वाले कोरोना वायरस में जितनी कमी आई है, और कोरोना होने पर भी उनके लक्षण जितने कम खतरनाक दिखे हैं, टीका लगे हुए लोग जितने दूर तक मौत से बचे हुए हैं, उसे देखते हुए क्या टीका लगवा लेना चाहिए? यह सवाल छोटा नहीं है, यह सवाल बड़ा है, लेकिन इस सवाल से भी अधिक बड़ा एक दूसरा सवाल है कि आज सार्वजनिक जीवन में जिस रफ्तार से कोरोना का संक्रमण फैल रहा है, वैसे में क्या इंसानों को सचमुच ही इस बात का सामाजिक और नैतिक हक है कि वे अपने निजी फैसले से समाज के बाकी लोगों को खतरे में डालें? यह बात छोटी नहीं है क्योंकि दुनिया के तकरीबन तमाम लोकतांत्रिक देशों ने लोगों को छूट दी है कि वे चाहें तो ही टीके लगवाएं।
हिंदुस्तान भी ऐसे ही देशों में से एक है जो कि आज बढ़ते हुए कोरोना संक्रमण की वजह से दुनिया में सबसे ऊपर पहुंच गया है। ऐसे में चिकित्सा विज्ञान की सीमाओं के सीमित रहते हुए भी सवाल यह उठता है कि उन सीमाओं के भीतर अगर कोई संभावना दिख रही है तो क्या उन संभावनाओं पर काम करना हमारी सामाजिक जवाबदेही और जिम्मेदारी नहीं है? यह बात निर्विवाद रूप से साबित होते दिख रही है कि कोरोना वायरस से बचाव के टीकों से संक्रमण कम हो रहा है और संक्रमण की मार भी कम हो रही है। आज टीका कितने महीने काम करेगा, कितने महीने बाद उसका असर खत्म हो जाएगा, जैसे कई सवाल लोगों को परेशान कर रहे हैं। लेकिन विज्ञान की अपनी सीमाएं हैं, वह रातों-रात हर सवाल का जवाब ढूंढकर पेश नहीं कर सकता। आज दवा उद्योग से निकली खबरें यह भी बताती हैं कि हो सकता है कि लोगों को हर बरस यह टीके लगवाने पड़े, और टीकों के जानकार वैज्ञानिक इस बात पर भी मेहनत कर रहे हैं कि क्या किसी एक टीके के दो या अधिक डोज के मुकाबले अलग-अलग टीमों को देना अधिक असरदार हो सकता है?
ऐसे बहुत से सवालों के जवाब आते-जाते रहेंगे, लेकिन मौत बहुत रफ्तार से आ रही है, हिंदुस्तान में तो सरकार और म्युनिसिपल की मुर्दों के जलाने की क्षमता से अधिक रफ्तार से मौतें आ रही है। और यह सब हो रहा है जब चारों तरफ तरह-तरह से लॉकडाउन लगाया गया है, रात का कफ्र्यू लगाया गया है। लेकिन यह रोक-टोक पूरी जिंदगी तो चल नहीं सकती, और ऐसे में रोक-टोक उठने के बाद फिर कोरोना अधिक रफ्तार से बढ़ सकता है। इसलिए लोगों को अपने टीके लगवाने के फैसले के वक्त यह भी सोचना चाहिए कि समाज के प्रति, परिवार और बाकी लोगों के प्रति, उनकी क्या जवाबदेही है, और अगर टीकों का असर कुछ महीनों के लिए भी उनको कोरोना से या उसकी गहरी मार से बचाकर रख सकता है तो क्या वह भी कोई छोटी बात रहेगी? दुनिया में हमेशा ही बहुत से ऐसे लोग रहते हैं जिन्हें हवा में भूत दिखते हैं जो कि शंकाओं से भरे रहते हैं, जिनका मन तरह-तरह की साजिशों की कहानियां पर बहुत भरोसा करता है, ऐसे लोगों को आज भी कोरोना के टीकों में खामियां ही खामियां दिख रही हैं, लेकिन जिनको यह भी लग रहा है कि यह टीके लगवाने में कोई खतरा हो सकता है, उन्हें भी यह समझना चाहिए कि अपने परिवार और समाज के प्रति उनकी क्या जिम्मेदारी है। उनकी जिद, उनका दुराग्रह, उनका आशंकाओं से भरा मन कहीं बाकी तमाम लोगों के लिए खतरा तो नहीं बन रहा है।
हम तो महज इतना लिख सकते हैं, इसके बाद जब तक लोकतंत्र लोगों को टीके लगवाने या ना लगवाने का फैसला करने की छूट दे रहा है, तब तक वे जितना चाहे समय ले लें, लोगों को जितना चाहे उतना खतरे में डाल दें। दुनिया के इतिहास में बीमारियों से बचाव के टीके लगवाने के वक्त बहुत से लोग पीछे हटते रहे, हिंदुस्तान में अभी कुछ बरस पहले तक पोलियो का टीका अपने बच्चों को लगवाने से मुस्लिम समाज के बहुत से लोग हिचकते रहे कि वह टीका अमेरिका का बनाया हुआ था और उस टीके से उनके बच्चे कुनबे को आगे बढ़ाने की क्षमता खो बैठेंगे। ऐसी क्षमता तो किसी ने नहीं खोई, लेकिन ऐसे मां-बाप के बच्चे पोलियो के शिकार जरूर हुए। इसलिए यह वक्त अपने पूर्वाग्रहों को अलग रखकर समाज के व्यापक भले को समझने का है।
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जब जनतंत्र और जिंदगी में से किसी एक को बचाने की प्राथमिकता तय करना हो तो जाहिर तौर पर पहले जिंदगी को छांटना चाहिए क्योंकि जन है तो ही तंत्र है, जनतंत्र तो बाद में बना है, पहले तो जन ही था, और आखिरी तक जन ही रहने चाहिए। अब यह सवाल हम आज इसलिए उठा रहे हैं कि हिंदुस्तान में जनतंत्र जारी और कायम रखने के नाम पर चुनाव नाम का जो ढकोसला चल रहा है, उस ढकोसले को समझने की जरूरत है। अगर यह नहीं होता तो लोगों के मन में बेचैनी रहती कि देश में लोकतंत्र नहीं है अब यह है तो कम से कम एक दिखावा है कि लोगों को वोट डालने मिलता है, और उनके वोटों से चुनी हुई सरकार बनती है। यह एक अलग बात है कि वह बनी हुई सरकार कितने समय में गिर जाती है, यह देख-देखकर भी लोग थक गए हैं। फिर भी पाखंडपसंद हिंदुस्तानी इस बात को बहुत पसंद करते हैं कि चुनाव होते रहना चाहिए।
अब इस बार जब इन चुनावों को कोरोना के खतरे के साथ मिलाकर देखें तो लगता है कि क्या सचमुच यह चुनाव इस तरह से, इस कीमत पर होते रहना चाहिए? यह साफ-साफ दिख रहा है कि हिंदुस्तान के जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं उनमें से अधिकतर में कोरोना के खतरे को कम दिखाने के लिए आबादी के अनुपात में जांच कम हो रही है, आंकड़ों को छुपाया जा रहा है, और एक अविश्वसनीय तस्वीर पेश की जा रही है कि मानो कुछ हुआ ही नहीं है। हिंदुस्तान के कार्टूनिस्टों ने अब तक 100 से अधिक कार्टून इस बात पर बना लिए हैं कि चुनावों के बीच कोरोना वायरस किस तरह खत्म हो जाता है और किस तरह पूरे देश को कोरोना वायरस से बचाना हो तो पूरे देश में चुनाव की घोषणा कर देनी चाहिए। अभी यह भी समझने की जरूरत है कि कुछ समय पहले से देश के मोदीमय हो जाने पर यह मांग उठने लगी थी कि वन नेशन वन इलेक्शन करवाया जाए। मतलब यह कि पूरे देश में एक साथ चुनाव हो, विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ हों, और हो सके तो स्थानीय संस्थाओं के चुनाव भी साथ-साथ हो जाएं ताकि पंचायत और म्युनिसिपल तक भी मोदी के नाम पर चुनाव लड़े जा सकें, जीते जा सकें ।
हम तकनीकी रूप से ऐसे किसी विकल्प के पक्ष में लिख चुके हैं कि एक साथ होने वाले चुनाव से देश में एक तो चुनाव का खर्च घटेगा, दूसरी तरफ चुनाव को देखते हुए राजनीतिक दल जिस तरह के समझौते करते हुए सरकारी फिजूलखर्ची करते हैं, जिस तरह से नाजायज वायदे करते हैं, वह सब भी घटेगा। हम इस हद तक तो वन नेशन वन इलेक्शन के हिमायती रहते आए हैं। अभी दो और वजह से हम इसके बारे में सोच रहे हैं। बंगाल के चुनाव को लेकर वहां राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के बीच जितने किस्म की चुनावी गंदगी हुई है वह भयानक है। केंद्र और राज्य के संबंध जिस हद तक खराब हुए हैं वह भी अभूतपूर्व है। और अभी तो चुनावी नतीजे आना बाकी हैं, जिसके बाद हो सकता है कि तोडफ़ोड़ और खरीदी-बिक्री का एक नया सिलसिला नई ऊंचाइयों तक पहुंचे। फिर जिस तरह मेहरबान चुनाव आयोग ने 8 किस्तों में बंगाल का मतदान बांटकर दिल्ली के बड़े नेताओं को बंगाल की तकरीबन हर विधानसभा सीट तक पहुंचने का एक अभूतपूर्व मौका दिया है, वह भी देखने लायक है। बंगाल का पूरा सिलसिला देखें तो समझ पड़ता है कि क्या इतनी गंदगी देश के अलग-अलग राज्य में घूम-घूमकर हर कुछ महीनों के बाद करना ठीक रहेगा जब वहां विधानसभा चुनाव हो रहे होंगे? यह सिलसिला केंद्र और राज्य के संबंधों को तबाह करने वाला भी है। जब लोगों के बीच आपस में बातचीत के भी रिश्ते ना रह जाएं, और राज्यों के मुख्यमंत्रियों को यह लगने लगे कि प्रधानमंत्री के उस राज्य में आने पर भी उन्हें लेने जाना, उनके कार्यक्रम में जाना अपनी बेइज्जती करवाना होगा, यह सिलसिला लोकतंत्र के लिए खतरनाक है।
ऐसा लगता है कि वन नेशन वन इलेक्शन चाहे पूरे देश में एक नेता के पक्ष में सुनामी की तरह क्यों ना हो, सच तो यह है कि उससे चुनावी गंदगी कुछ महीनों में निपट जाएगी जो कि आज बारहमासी हो चुकी है। अगली जिस बात पर पर हम सोच रहे हैं वह कोरोना का खतरा है या कि ऐसी आने वाली किसी दूसरी महामारी का। असम से लेकर बंगाल तक और तमिलनाडु से लेकर केरल तक यह देखने में आ रहा है कि राजनीतिक दलों के मन में चुनाव की कीमत पर कोरोना के खतरे के लिए हिकारत के सिवाय कुछ नहीं है। राजनीतिक दलों ने चुनाव के लिए मतदाताओं की लाखों की भीड़ को जिस तरह कोरोना के खतरे में झोंक दिया है, उससे भी लगता है किसी देश में लोकतंत्र को बचाने का पाखंड आखिर किस कीमत पर किया जाए? अगर करोड़ों की आबादी वाले राज्यों को वहां एक-एक सीट पर लाखों वोटरों को इस तरह लापरवाह करके, कोरोना के हवाले करके, चुनाव लड़ा और जीता जाना है, तो देश पर इस खतरे से बेहतर यह है कि जिसे चुनाव जीतना है वह जीत ले, लेकिन बयानों की गंदगी से लेकर कोरोना के खतरे तक इन सबको 5 बरस में एक बार के लिए कर दिया जाए।
जिस तरह कुंभ मेला 12 बरस में एक बार होता है, और दो कुंभ के बीच 6 बरस के फासले पर अर्धकुंभ होता है, वैसे ही चुनाव भी इस देश में एक फासले पर हो जाने चाहिए ताकि उनके बीच की गंदगी खत्म हो जाए। चुनाव के बीच जिस तरह कुंभ को लेकर नेता और सरकार लापरवाह हैं, धार्मिक नेता इसका मजा ले रहे हैं, देश की अदालतें अपने आपको सुरक्षित कमरों में बंद करके आंखें बंद किए बैठी हैं, उससे भी लगता है कि देश के चुनावों को कुंभ के साथ भी जोड़ देना चाहिए। जिस बरस कुंभ हो, उसके आगे-पीछे चुनाव भी हो जाने चाहिए ताकि सभी किस्म की गंदगी का खतरा, और महामारी का खतरा एक साथ चले जाएं। हर कुछ महीनों में देश में खतरे कहीं ना कहीं खड़े होते रहे वह ठीक नहीं है, तमाम किस्म के खतरे एक साथ आ जाने चाहिए, एक साथ चले जाने चाहिए। ताकि उससे उबरकर हिंदुस्तानी जनता आगे देख सके, आगे तकरीबन 4 बरस काम कर सके।
देश में चुनावों के दौर में जिस हद तक नफरत के उन्माद को बढ़ाया जा रहा है, उतनी नफरत और उतना उन्माद हर दो-चार महीने में अलग अलग राज्य चुनाव में सामने आता रहे वह भी ठीक नहीं है। जिस नेता की पार्टी को वन नेशन वन इलेक्शन से सबसे अधिक उम्मीदें हैं, वही जीत जाए, यह देश नफरत से परे रह ले, महामारी के खतरे से बच जाए। लोकतंत्र पर नाजायज चुनावी वायदों का बोझ ना पड़े वह अधिक जरूरी है। यह सिलसिला खतरनाक हो गया है, राज्यों के चुनाव लोकतंत्र के बदन को चकलाघर पर खरीदने बेचने का एक और मौका बनकर आने लगे हैं, ऐसी कमाई से भला किस लोकतंत्र की इज्जत बढ़ रही है? जिन पार्टियों को वन नेशन वन इलेक्शन में हार जाने का खतरा दिखता है, उन पार्टियों की वैसे भी आज के भारतीय लोकतंत्र में क्या गुंजाइश बच गई है? ये तमाम सवाल बहुत तकलीफदेह हैं, लेकिन यही साफ दिख रहा है कि चुनावी गंदगी से लेकर कोरोना की गंदगी तक, मरना तो लोकतंत्र को है लोक को है, और तंत्र तो लोक से वैसे भी कट चुका है।
राजनीति और धर्म दोनों अपने आपमें पर्याप्त जानलेवा होते हैं, और जब इन दोनों का एक घालमेल होता है तो वह लोकतंत्र को भी खत्म करने की ताकत रखता है, और इंसानियत को तो खत्म करता ही है। उत्तराखंड में कल हरिद्वार में कुंभ मेले के दौरान सुबह से शाम तक 31 लाख लोग पहुंचे। राज्य सरकार ने खुद ही यह मान लिया है कि वह लोगों पर काबू नहीं रख सकी, और इस विकराल भीड़ के बीच कोरोना की सावधानी लागू कर पाना उसके लिए नामुमकिन था। देश में आज कोरोना जिस तरह छलांग लगाकर आगे बढ़ रहा, जिंदा लोगों के लिए अस्पताल की बात तो छोड़ ही दें, मुर्दों के लिए भी चिताओं की जगह कम पडऩे लगी है, वैसे में इस धार्मिक आयोजन को छूट देना अपने आपमें एक भयानक फैसला था, लेकिन जब राजनीति और धर्म एक-दूसरे के गले में हाथ डालकर नाचते हैं तो लोकतंत्र उनके पैरों तले कुचलते ही रहता है।
उत्तराखंड के हरिद्वार के स्थानीय लोग दहशत में हैं कि बाहर से आई हुई इतनी भीड़ उनके शहर और पूरे इलाके को कोरोना हॉटस्पॉट बनाकर छोड़ेगी। आज देश के किसी प्रदेश में कोरोना वायरस पर काबू पाना वहां की सरकार के बस में नहीं दिख रहा है, और देशभर में लोगों को टीकाकरण के लिए टीके दे पाना केंद्र सरकार के बस में नहीं दिख रहा है। ऐसे में किसी भी भीड़ से बचने की कोशिश करनी चाहिए लेकिन दसियों लाख लोगों की भीड़ के अंदाज वाले इस कुंभ को इजाजत देकर राज्य सरकार ने, और केंद्र सरकार ने एक आपराधिक जिम्मेदारी का काम किया है, जिसके नतीजे पूरा देश लंबे समय तक भुगतेगा, यहाँ से लौटते लोग कोरोना पूरे देश में फैलाएंगे।
देश में वैसे भी कोरोना के मोर्चे पर राजनीति इतना नंगा नाच कर रही है कि उसे देखना भी मुश्किल हो रहा है। गुजरात में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष ने यह सार्वजनिक मुनादी की कि एक जीवन रक्षक इंजेक्शन जो कि बाजार में नहीं मिल रहा है, उन्होंने उसके 5000 इंजेक्शन जुटा लिए हैं और भाजपा कार्यालय से उन्हें बांटा जाएगा। ऐसा हुआ भी उन्होंने भाजपा कार्यालय से यह इंजेक्शन बांटे जिनके बारे में केंद्र और राज्य सरकारों ने सख्त आदेश निकाले हैं कि जिस दुकानदार के पास इस इंजेक्शन का स्टॉक हो, वे तुरंत इस बारे में प्रशासन को खबर करें ताकि अधिक जरूरतमंद लोगों को यह इंजेक्शन मिल सके और इसकी कालाबाजारी ना हो सके। लेकिन ऐसी घोषणा भी लोगों को रोक नहीं पाई मध्यप्रदेश में कई दुकानदार इसकी कालाबाजारी करते हुए मिले, और गुजरात में तो भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष खुद ही सरकार से परे यह इंजेक्शन बांटते हुए दिखे। अब सवाल यह है कि जैसे एक इंजेक्शन के लिए लोग दिन-दिन भर कतार में लगे हैं, वह 5000 की संख्या में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष को कैसे मिल गया?
राजनीति सिर्फ इतना नहीं कर रही है, और धर्म भी सिर्फ इतना नहीं कर रहा है, लोगों को याद रहना चाहिए कि पिछले एक बरस में हिंदू धर्म का एक सबसे चर्चित प्रतीक बना हुआ बाबा रामदेव कितनी बार अपनी कितनी दवाइयों को लेकर झूठे दावे करते पकड़ाया, और किस तरह उसके दावों का साथ देने के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री भी उसके दावों में मौजूद रहे। यह एक अलग बात है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जब रामदेव के दावों में अपने नाम के बेजा इस्तेमाल पर विरोध किया, तब जाकर धर्म और राजनीति का यह एक बाजारू मेल, रामदेव कुछ चुप हुआ। यह समझने की जरूरत है कि रामदेव को पिछले वर्षों में हिंदू धर्म का, आयुर्वेद और योग के गौरवशाली इतिहास का, सबसे बड़ा प्रतीक बनाकर उसे कांग्रेस के खिलाफ और भाजपा के पक्ष में इस्तेमाल किया गया है, और आज भी वह रामदेव इस्तेमाल किया जा रहा है। एक नजरिया यह भी हो सकता है कि एक तरफ भाजपा उसका इस्तेमाल कर रही है, और दूसरी तरफ वह भाजपा का इस्तेमाल करके अपने कारोबार को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुकाबले टक्कर में खड़ा कर रहा है। आज जब देश सचमुच खतरे में पड़ा हुआ है, तो रामदेव का बाजारू दवा उद्योग चुप बैठा है। कोरोना के लिए, कोरोना के इलाज के लिए, या कि कोरोना से मरने वालों के मुर्दे जलाने के लिए भी रामदेव का मुंह नहीं खुल रहा कि उसके लिए पतंजलि का कौन सा सामान इस्तेमाल किया जाए। यह सिलसिला भयानक है। हरिद्वार के कुंभ से लेकर गुजरात के भाजपा दफ्तर में बंटते इंजेक्शन, और हरिद्वार में ही बसे रामदेव के बाजार को खड़ा करने तक का पूरा सिलसिला धर्म और राजनीति का खतरनाक मेल है। यह मेल उन दिनों से चले आ रहा है जब कबीले का सरदार इलाके के पुजारी के साथ मिलकर जनता का शोषण करने के लिए धर्म का आविष्कार कर रहे थे।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट में कुछ कर्मचारियों के कोरोनावायरस निकलने के बाद जजों ने यह तय किया है कि वे अपने घरों से ही वीडियो कांफ्रेंस पर मामलों की सुनवाई करेंगे। सुप्रीम कोर्ट में करीब 34 सौ कर्मचारी हैं, जिनमें से 44 कर्मचारी कोरोना पॉजिटिव पाए गए थे, उसके बाद आनन-फानन यह फैसला लिया गया है। दूसरी तरफ कल बड़ी संख्या में हरिद्वार में लोग कोरोनाग्रस्त मिले हैं और उसके बाद भी आज वहां कुंभ मेले के शाही स्नान में लाखों लोगों को एक साथ नहाने की छूट दी गई है। वहां की जो तस्वीरें सामने आ रही हैं उनसे लगता है कि कोरोना को बंगाल की चुनावी रैलियों के बाद देश का सबसे बड़ा निशाना कुंभ में ही मिला है। अब सवाल यह उठता है कि जिस सुप्रीम कोर्ट की नजरों के सामने देश में कई राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनाव में लोगों की यह अंधाधुंध भीड़ देखने मिल रही है और मीडिया का, अब तक बाकी, एक तबका इस भीड़ के खतरे भी गिना रहा है, देश का शायद ही कोई ऐसा कार्टूनिस्ट हो जिसने ऐसी अंधाधुंध चुनावी भीड़ को लेकर कई-कई कार्टून ना बनाए हों, लेकिन देश की जनता पर छाए हुए इस भयानक और अकल्पनीय खतरे से अगर कोई नावाकिफ है तो वह सुप्रीम कोर्ट है। सुप्रीम कोर्ट मानो अपने खुद के हितों से परे कुछ देखना-सुनना छोड़ ही चुका है।
इस देश का चुनाव आयोग वैसे भी लोगों की आलोचना का इस हद तक शिकार हो चुका है कि काफी लोग यह लिख रहे हैं कि एक वक्त के चुनाव आयुक्त रहे टी एन शेषन के नाम को इस चुनाव आयोग ने डुबा कर रख दिया है। इसलिए अपने बंद कमरे में महफूज इस चुनाव आयोग को और कुछ सूझे या न सूझे, कम से कम सुप्रीम कोर्ट को तो अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। इसके पहले भी बहुत से ऐसे मौके आए हैं जब व्यापक जनहित के किसी मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के जजों ने खुद होकर सुनवाई शुरू कर दी है और इसके लिए सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश होना भी जरूरी नहीं रहा है। जब किसी जज को दिल्ली की ट्रैफिक से शिकायत हुई तो कुछ मिनटों के भीतर दिल्ली के पुलिस कमिश्नर को सुप्रीम कोर्ट जज ने कटघरे में खड़ा किया है। आज जब देश में चारों तरफ कोरोना से लाशें गिर रही हैं, देश के अधिकतर मरघटों पर दो-दो, चार-चार दिनों की कतारें लगी हुई हैं, उस वक्त भी अगर सुप्रीम कोर्ट को यह समझ नहीं पड़ रहा कि चुनावी रैलियां और कुंभ जैसे आयोजन देश की जनता पर कितना बड़ा खतरा है तो सिवाय इसके क्या माना जाए कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने-आपको इतने ऊपर बिठा लिया है कि उसे हिंदुस्तानी जमीन की हकीकत दिखना भी बंद हो गया है, हिंदुस्तानियों पर मंडराते इतिहास के सबसे बड़े खतरे भी दिखना उसे बंद हो चुका है।
ऐसे में राजनीतिक दलों की इस मनमानी और केंद्र-राज्य सरकारों की चुनावी जिद्द के खिलाफ कोई जाए तो कहां जाए? यह समझने की जरूरत है कि आज कोई भी लापरवाह तबका देश के दूसरे तमाम घर बैठे सावधान तबकों के लिए भी खतरा है, तब किसी को ऐसी लापरवाही की छूट कैसे दी जा सकती है? जब सड़कों पर मास्क ना लगाए हुए गरीबों की पीठ पर पुलिस अपनी लाठियां तोड़ रही है, तब देश के बड़े-बड़े नेता जिस तरह खुली हुई गाडिय़ों पर लदकर हजारों लोगों के साथ चुनावी रैलियां कर रहे हैं, उनमें से कोई भी मास्क नहीं पहन रहे हैं, तब उन पर कौन सी कार्रवाई हो रही है यह सवाल सोशल मीडिया पर छाया हुआ है। लेकिन चूंकि यह सवाल प्रशांत भूषण का उठाया हुआ किसी सुप्रीम कोर्ट जज के बारे में नहीं हैं इसलिए सुप्रीम कोर्ट के किसी जज को इस सवाल को पढऩे की फुर्सत भी नहीं है। यह पूरा सिलसिला लोकतंत्र को खत्म करने से आगे बढ़कर इस लोकतंत्र के लोगों को खत्म करने वाला साबित हो रहा है।
लोगों को याद होगा कि पिछले बरस जब कोरोना की शुरुआत हुई और दिल्ली की तबलीगी जमात में कुछ हजार लोग इक_ा हुए जिन्हें पुलिस ने वहां से भगाया और जिनमें से कई लोग कोरोना पॉजिटिव होकर देश भर में अपने-अपने इलाकों में लौटे तो मुस्लिमों के खिलाफ एक किस्मत से दहशत और नफरत का माहौल बना था। वे तो 10-20 हजार के भीतर लोग थे, लेकिन आज तो 10-20 लाख से अधिक लोग हरिद्वार के कुंभ में इक_ा है जिनके लिए न केंद्र सरकार के कोई नियम दिख रहे, और ना ही राज्य सरकार के कोई कोरोना प्रतिबन्ध उन पर लागू हो रहे हैं। यह नौबत सबसे अधिक भयानक तो सबसे पहले इन तीर्थ यात्रियों के परिवारों के लिए है जिनके बीच वे लौटेंगे। लेकिन इनसे परे भी वे ट्रेन और बसों में आते-जाते लोगों को कोरोना का प्रसाद देते जाएंगे, अपने-अपने शहर लौटने के बाद वहां के दूसरे धर्म के लोगों को भी तीर्थ का प्रसाद देंगे, और आगे जो चिकित्सा ढांचा अपनी कमर तुड़ाकर बैठा है, उस पर और बोझ भी डालेंगे।
एक तरफ तो इस देश में संसद को चलने नहीं दिया गया, सत्र नहीं होने दिया गया क्योंकि कोरोना वायरस का खतरा दिख रहा था, दूसरी तरफ जिस तरह विधानसभा के चुनावों में प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री से लेकर राज्यों के मुख्यमंत्रियों तक को भीड़ जुटाने का मौका दिया गया है, छूटें दी गई हैं, वह महामारी को बढ़ावा देने के अलावा और कुछ नहीं है। ऐसे चुनाव प्रचार से जो लोग लौट रहे हैं उनमें से कोरोनावायरस से लोगों का मरना भी शुरू हो चुका है। अगर इस देश के सुप्रीम कोर्ट को लोगों की जरा भी परवाह है, तो उसे कुंभ और चुनाव जैसे मामलों पर केंद्र और राज्य सरकारों से जवाब तलब करना चाहिए। महज अपने-आपको अपने बंगलों में कैद करके सुप्रीम कोर्ट के जज एक गैरजिम्मेदारी का रुख दिखा रहे हैं अगर उन्हें चुनावी रैलियों और कुंभ की लाखों लोगों की बिना मास्क की लापरवाह भीड़ की अगुवाई करते नेता नहीं दिख रहे हैं। महज अपने-आपको बचा लेना, और देश की आम जनता को नेताओं और सरकारों की रहमो-करम पर छोड़ देना किसी इज्जतदार अदालत का काम नहीं हो सकता। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ में अंधाधुंध रफ्तार से कोरोना बढ़ रहा है वह लोगों के लिए तो फिक्र की बात है ही, लेकिन वह शासन और प्रशासन के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती भी है। केंद्र सरकार जिस रफ्तार से कोरोना के टीके उपलब्ध करा पा रही है उसका अधिकतम इस्तेमाल छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में हो भी रहा है। लेकिन पहले टीके के बाद दूसरा टीका लगना और उसके बाद एक पखवाड़े और गुजर जाने पर ही यह उम्मीद की जा सकती है कि उसका असर शुरू होगा। टीका बनाने वाले वैज्ञानिकों का भी यह निष्कर्ष है कि करीब 70 फीसदी लोगों में ही टीके का असर होगा। अभी यह भी साफ नहीं है कि यह असर कितने महीने रहेगा, लेकिन दुनिया के दवा उद्योग के सरगनाओं का यह मानना है, और दबी जुबान से यह कहना भी है, कि इसे हर बरस लगाने की जरूरत पड़ सकती है।
हिंदुस्तान जैसा देश, या छत्तीसगढ़ जैसे राज्य इस पूरे खर्च को कहां से उठा सकेंगे यह एक रहस्य की बात है। लेकिन दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि शासन और प्रशासन अपने स्तर पर इस संक्रामक रोग के फैलाव को रोकने के लिए क्या कर सकते हैं? अभी प्रशासन अपने एक सदी पुराने परंपरागत तौर-तरीकों से इसे रोकने की कोशिश कर रहा है और कहीं रात का कफ्र्यू लगाया जा रहा है तो कहीं लॉकडाउन किया जा रहा है। यह समझने की जरूरत है कि ऐसी तरकीबों से कोरोना को महज कुछ दिन आगे खिसकाया भर जा सकता है, उसे रोका नहीं जा सकता, उसे खत्म तो बिल्कुल ही नहीं किया जा सकता।
जिस राज्य छत्तीसगढ़ को हम बहुत करीब से देखते आ रहे हैं उसमें राज्य बनने के बाद से एक बड़ा फर्क बड़ा दिखता है। और यह फर्क एक हिसाब से कोरोना की रोकथाम में भी आड़े आ रहा है। छत्तीसगढ़ में अविभाजित मध्यप्रदेश के वक्त के बड़े-बड़े जिले काट-काटकर छोटे कर दिए गए हैं, और उस वक्त के एक-एक कलेक्टर एसपी के काम के इलाके अब चार-पांच जिलों में भी बंट गए हैं। मतलब यह कि वे अफसर उसी कुर्सी पर बैठे-बैठे पहले से कम काम करते हैं, लेकिन वे लोगों को पहले के मुकाबले और भी कम हासिल हैं। एक वक्त था जब अविभाजित मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल थी, और छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा अफसर किसी एक संभाग का कमिश्नर होता था। अब राजधानी रायपुर में आ गई तो मुख्यमंत्री पिछले 20 बरस से इसी शहर में रहते हैं। छोटे-छोटे जिलों के कलेक्टर पूरे वक्त उनके प्रति जवाबदेही के साथ फोन पर रहते हैं। जिस वक्त आज के चार-पांच जिलों के इलाके के अकेले कलेक्टर रहते थे उस वक्त भी वे आम जनता को अधिक हासिल रहते थे, उनका जनता के साथ संपर्क अधिक बड़ा रहता था, अधिक गहरा रहता था, लेकिन हाल के इन दो दशकों में छत्तीसगढ़ के कलेक्टर और एसपी जैसे, इलाकों के अफसर लोगों से धीरे-धीरे कटते चले गए हैं और वह धीरे-धीरे सूरजमुखी के फूलों की तरह सत्ता की ओर चेहरा किए हुए अकेले उसी के प्रति जवाबदेह रह गए हैं। नतीजा यह हुआ है कि जनता के बीच उनकी जो पैठ रहनी चाहिए थी, वह पूरी तरह खत्म हो गई है, और शायद ही कोई ऐसे कलेक्टर-एसपी रह गए हैं जो कि जनता के बीच अधिक उठते-बैठते हैं। अगर कुछ ऐसे अफसर हैं भी, तो जाहिर तौर पर उनको अपने इलाकों में बेहतर काम करने में जनसहयोग का फायदा मिलता है। प्रशासन के काम का एक बड़ा हिस्सा लोगों से संपर्क का रहना चाहिए ताकि किसी आपदा के वक्त, विपदा के वक्त, या किसी भी चुनौती के वक्त एक अफसर भी अपने स्तर पर लोगों के बीच अपनी साख से भरोसा पैदा कर सके। आज हालत यह है कि मैदानों में काम करने वाले अफसरों के लोगों से संपर्क खत्म हो गए हैं, और उनकी कही बात का कोई असर भी नहीं रह गया है। वे लोगों से बात नहीं कर सकते, वे उन्हें आदेश दे सकते हैं, जो कि लोकतंत्र में एक आखिरी रास्ता रहना चाहिए।
जहां तक निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का सवाल है, उनका भी हाल पूरी तरह से चुनाव केंद्रित और सत्ता केंद्रित होकर रह गया है। आज कोरोना को देखते हुए जनता को जो सावधानी बरतनी चाहिए थी, वह सावधानी केवल प्रशासन के आदेश से लादी जा सक रही है, कोई ऐसे स्थानीय नेता नहीं दिखते जो कि खुद होकर शहर की सड़कों पर निकल पड़ें और जिनकी बात मानकर भीड़ छंट जाए, लोग वक्त पर दुकानें बंद करने लगें। छत्तीसगढ़ की राजधानी वाला यह शहर रायपुर गवाह है कि एक वक्त यहां पर एक एडीएम और एक सीएसपी हुआ करते थे, और वे अपने स्तर पर आंदोलनों से भी निपट लेते थे, म्युनिसिपल के अवैध कब्जा विरोधी अभियान को भी चला लेते थे। अभी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सम्पादकों से ऑनलाइन बातचीत की तो उन्होंने खुद कहा कि वे लॉकडाउन के खिलाफ हैं, लेकिन जनता इससे कम किसी बात पर नियम-निर्देश मानने को तैयार नहीं है।
यह जिम्मेदारी प्रशासन की नहीं है, यह शासन की जिम्मेदारी है कि जिलों के प्रशासन, जिलों की पुलिस को एक बार फिर जनता से जोड़ा जाए। कायदे की बात तो यह है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों और दूसरे राजनीतिक दलों, सामाजिक नेताओं को भी यह काम करना चाहिए, लेकिन पूरा प्रदेश यही सूरजमुखी के खेतों सरीखा होकर रह गया है। एक बार फिर प्रशासन को जनता से जोडऩे की जरूरत है, और इसके ठोस रास्ते निकाले जाने चाहिए। न सिर्फ प्रशासन बल्कि आज के शासन में भी कुछ स्तरों पर यह कमी आ गई है जिससे न तो अफसरों या मंत्रियों तक जनता की दिक्कतों और सुझावों की बात पहुंच पाती, न ही जनता की सोच का राज्य के शासन-प्रशासन में कोई फायदा मिल पाता मिल पाता। छत्तीसगढ़ एक बड़े राज्य का छोटा सा हिस्सा रहने के बाद अपने आपमें एक राज्य तो बन गया, लेकिन अविभाजित मध्यप्रदेश के वक्त उसका शासन-प्रशासन जनता से जितना जुड़ा हुआ था, वह अब नहीं रह गया। आज कोरोना के संक्रमण को रोकने की बात हो, कोरोना मौतों की बात हो, कोरोना वायरस के टीके की बात हो, इन सबमें जनता के बीच प्रशासन के संपर्क कम होने का नुकसान हो रहा है। यह जरूर है कि कुछ प्रमुख संगठनों के नेताओं से बंद कमरे की बैठक के बाद उनसे शासन को आइसोलेशन केंद्र बनाने में मदद मिली है, लेकिन संगठनों के पदाधिकारियों से परे आम जनता के बीच शासन और प्रशासन की सीधी पहुंच साफ-साफ घटी हुई दिखती है। इस निष्कर्ष के खिलाफ शासन और प्रशासन के लोग बहुत सी मिसालें दे सकते हैं, लेकिन उन्हें बंद कमरे में आत्ममंथन करना चाहिए कि आज जनता के बीच उनका कितना उठना-बैठना रह गया है, और अपने ही इलाके की जनता को हालात की गंभीरता समझाने के लिए पुलिस की गाडिय़ों पर मशीनगन तैनात करके फ्लैग मार्च निकालने जैसा अलोकतांत्रिक काम करना पड़ रहा है।
चीन की खबर है कि वहां लोग कोरोना के खतरे के चलते बड़ी संख्या में अपनी वसीयत रजिस्टर करवा रहे हैं। चीनी कानून के मुताबिक 18 बरस से ऊपर के कोई भी नागरिक वसीयत कर सकते हैं और एक फीस देकर उसे रजिस्टर भी करवा सकते हैं। बुजुर्गों के लिए वसीयत रजिस्टर करवाना सरकार की तरफ से मुफ्त है। पिछले बरस कोरोना फैलने और लोगों के मरने को देखते हुए चीनी नौजवानों में भी बड़ा डर फैला हुआ है और वे अपने मां-बाप से लेकर अपने बच्चों तक की देखभाल के हिसाब से वसीयत कर रहे हैं। नौजवानों के लिए वसीयत रजिस्टर करना सस्ता नहीं है, इसके लिए उन्हें करीब तीन हजार डॉलर की फीस देनी पड़ती है जो कि सवा दो लाख रुपये के बराबर होती है, इसके बावजूद नौजवान बड़ी संख्या में वसीयत रजिस्टर करवा रहे हैं।
इसी अखबार में बीच-बीच में हम कभी मजाक के अंदाज तो कभी गंभीरता से यह सलाह देते आए हैं कि लोगों को अपनी बारी के आने के पहले अपनी वसीयत कर देनी चाहिए, और लेन-देन का हिसाब भी चुकता कर देना चाहिए। इन कामों में वसीयत करना ही सबसे सस्ता है और हिंदुस्तान में तो दो-चार हजार रुपये में ही वसीयत रजिस्टर हो सकती है। जिन लोगों को अपने पर कोरोना का खतरा नहीं दिख रहा है उन्हें भी यह समझना चाहिए कि अच्छी भले चलते-फिरते लोग भी कोरोना से परे की बीमारियों से कभी भी खत्म हो जाते हैं, और आम से लेकर खास तक सभी किस्म के लोग सडक़ हादसों के भी शिकार हो जाते हैं। इसलिए महज कोरोना की वजह से नहीं जिंदगी पर हमेशा छाई रहने वाली एक अनिश्चितता की वजह से भी लोगों को परिवार में बंटवारा, जमीन-जायदाद के विवाद, लेन-देन, जमा करके रखी हुई या छुपाई हुई दौलत, इन सबकी एक वसीयत कर जाना चाहिए ताकि बाद में अगली पीढ़ी के बीच उसे लेकर सिर-फुटव्वल की नौबत न आए, और बच्चों के रिश्ते आपस में ठीक बने रहें। दुनिया की कड़वी हकीकत यह है कि बहुत से मां-बाप अपने बच्चों के बीच कोर्ट-कचहरी में जिंदगी बर्बाद करने का सामान छोडक़र जाते हैं। लोगों को अपने रहते-रहते कानूनी जिम्मेदारियां पूरी कर देनी चाहिए ताकि बाद में उनके हिस्से का यह काम वकीलों और जजों के सिर पर न आए।
दरअसल इंसानी फितरत ही ऐसी रहती है कि वह अपना बुरा होने की कल्पना नहीं करती। उसे लगता है कि सडक़ हादसा किसी और का होगा, कोरोना या दूसरी बीमारी भी किसी और को होगी, और उनकी मौत तो चिट्ठी लिखकर तीन महीने का वक्त देकर आएगी। नतीजा यह निकलता है कि लिखने वाले लेखक भी जरूरी बातों को वक्त रहते लिखना जरूरी नहीं समझते और फिर वह लिखना कभी हो ही नहीं पाता। जब उनका वक्त आता है, तो वह कोई वक्त नहीं देता।
चीन के लोग कई मायनों में कारोबारी कामयाबी के अलावा दुनिया भर में फैलकर अपना बेहतर कॅरियर बनाने के लिए जाने जाते हैं। चीन के पेशेवर लोग और वहां के छोटे-बड़े कारोबारी पिछले एक पीढ़ी में ही कामयाबी की सीढ़ी पर चढक़र आसमान तक पहुंचे हुए हैं। शायद इसीलिए वे अपने ताजा-ताजा हासिल को लेकर अधिक जिम्मेदारी दिखा रहे हैं, और नौजवानी में ही वसीयत कर रहे हैं। एक परंपरागत हिंदुस्तानी परिवार में तो परिवार के मुखिया के गुजर जाने के बाद जब मृत्यु संस्कार पूरे निपट चुके रहते हैं, तब आम तौर पर परिवार मुखिया की तिजोरी, आलमारी, या संदूक खोलते हैं और देखते हैं कि क्या-क्या छूटा हुआ है। इसके बाद शुरू होता है अदालती झगड़े का सिलसिला जो कि अगली पीढ़ी तक चलने की संभावना ही अधिक रहती है।
यह सिलसिला इसलिए खराब है कि इससे देश की अदालतों पर एक अवांछित बोझ बढ़ता है जिसे कि टाला जा सकता था। इसके अलावा वारिसों के बीच जितना तनाव खड़ा हो जाता है वह उनकी अगली पीढ़ी तक भी जारी रह सकता है, और हमने पहले भी यहां लिखा था कि भाईयों के बीच जब दीवार उठती है, तो जरूरत से काफी अधिक ऊंची उठती है।
न सिर्फ हिंदुस्तान बल्कि तमाम जगहों पर लोगों को वसीयत की औपचारिकता अपने सेहतमंद रहते हुए, और किसी खतरे के आने के पहले ही कर लेनी चाहिए। जो लोग ऐसा इंतजाम कर लेते हैं वे हो सकता है कि अपने लिए बेहतर वृद्धाश्रम का इंतजाम कर लें, या फिर परिवार के भीतर ही वारिसों से बेहतर सम्मान पा लें। हर हिसाब से यह काम समय रहते कर लेना चाहिए। जिस तरह भारत सरकार ने एक आधार कार्ड की व्यवस्था की, परिवारों के लिए राशन कार्ड की व्यवस्था की, लोग अपने दस्तावेज ऑनलाइन रख सकें इसके लिए डिजिलॉकर मुफ्त में उपलब्ध कराया, उसी तरह सरकार को वसीयत मुफ्त बनवाने का विकल्प भी उपलब्ध करवाना चाहिए इससे देश की अदालतों पर बोझ घटेगा और पारिवारिक-समरसता बनी रह सकेगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान में जिस रफ्तार से कोरोना बढ़ रहा है, और एक-एक करके बहुत से राज्य लॉकडाऊन कर रहे हैं, पूरे देश में मजदूरों के बीच भगदड़ मची हुई है। जो मजदूर अपने शहर में काम कर रहे हैं, उन्हें तो उम्मीद है कि रियायती या मुफ्त सरकारी अनाज के भरोसे उनके परिवार जिंदा तो रह लेंगे, लेकिन जो मजदूर दूसरे प्रदेशों में काम कर रहे हैं, उनके मन से पिछले बरस वाली दहशत जा नहीं रही है, और वे अपने प्रदेशों के लिए रवाना हो रहे हैं। कहीं वे रेलगाडिय़ों पर हैं, तो कहीं सडक़ों पर सवारी ढूंढ रहे हैं कि कैसे घर लौटें।
हिंदुस्तान में ऐसे असंगठित और प्रवासी मजदूरों की हालत में पिछले बरस के भयावह तजुर्बे के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से कोई सुधार नहीं लाया गया है। और बेबस मजदूर बेहतर मजदूरी की तलाश में दूसरे प्रदेशों में तो जाएंगे ही। यह बात अकेले हिंदुस्तान पर लागू नहीं होती है, दुनिया के बहुत से देशों में गरीब पड़ोसी देशों से रोजाना लाखों मजदूर सरहद की चौकी पार करके काम करने जाते हैं। भारत में तो मजदूर न सिर्फ दूसरे प्रदेशों में काम करने जाने के आदी हैं, बल्कि सैकड़ों बरस से मजदूर फिजी, मॉरिशस जैसे कई देशों में जाकर काम करते आए हैं। आज खाड़ी के हर देश में दक्षिण भारत के तकनीकी-कामगार बड़ी संख्या में काम करते हैं, और केरल जैसे राज्य की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा खाड़ी-मजदूरों से आता है। वैसे भी प्रवासी मजदूरों के बारे में यह माना जाता है कि वे जब अपनी जगह से निकलकर बाहर जाते हैं, तो वे अधिक मेहनत करते हैं, अधिक काम करते हैं क्योंकि उन पर अपनी स्थानीय रिश्तेदारियों को निभाने का कोई दबाव नहीं रहता है। ऐसे मजदूर बाहर जाने के लिए एकदम से बेबस भी नहीं रहते, बल्कि अमूमन वे बेहतर मजदूरी के लिए बाहर जाते हैं, और वहां हर दिन अधिक से अधिक घंटे काम करके कमाते हैं, और लौटकर या तो कर्ज चुकाते हैं, या थोड़ी सी जमीन खरीद लेते हैं, या मकान बना लेते हैं। इस तरह मजदूर कमाते तो बाहर हैं लेकिन वेे अपने गृह राज्य की अर्थव्यवस्था में हर बरस कुछ न कुछ जोड़ते हैं। चूंकि ये मजदूर पूरी तरह असंगठित हैं, इसलिए किसी मुसीबत के वक्त उनकी कोई योजनाबद्ध मदद नहीं हो पाती है, या शायद यह कहना अधिक सही होगा कि सरकारें उनकी अधिक परवाह नहीं करती है।
यह बात समझने की जरूरत है कि कोरोना या इस किस्म की कोई दूसरी संक्रामक-महामारी जाने कब तक लॉकडाऊन की नौबत लेकर आएगी। इसलिए अब सरकार और कारोबार, इन दोनों को अपने-अपने स्तर पर ऐसे प्रवासी मजदूरों के बारे में सोचना चाहिए कि उन्हें मजबूरी में लौटने से कैसे रोका जाए, कैसे उनके लिए कामकाज के प्रदेश और शहर में ही जिंदा रहने, पेट भरने, और इलाज पाने का इंतजाम किया जाए। देश के बचे-खुचे मजदूर कानूनों में भी मजदूरों के बच्चों की देखभाल तक का इंतजाम है, लेकिन जमीन पर ऐसा कुछ भी नहीं है। हाल के बरसों में उदार अर्थव्यवस्था के नाम पर सबसे संगठित मजदूर-तबकों के हक भी खत्म किए गए हैं, इसलिए हमारी यह सलाह पता नहीं केंद्र सरकार के किसी काम की है या नहीं, लेकिन राज्य सरकारें तो अपने स्तर पर महामारी और लॉकडाऊन के लंबे भविष्य के खतरे से निपटने की योजनाएं बना सकती हैं। ऐसी हर नौबत पर मजदूरों की गांव या घरवापिसी बहुत अच्छी नौबत नहीं है, क्योंकि उससे उनके उत्पादक हफ्ते या महीने भी खराब होते हैं, और बीमारियों के फैलने का खतरा भी रहता है। इसलिए ऐसे हर राज्य को ऐसा आपदा प्रबंधन करना चाहिए कि लॉकडाऊन में प्रवासी मजदूर अपने काम के शहरों में ही किस तरह हिफाजत से रखे जाएं। हमको मालूम है कि यह सलाह देना आसान है, इस पर अमल एक नामुमकिन किस्म की चुनौती रहेगी क्योंकि आज जब किसी प्रदेश में अस्पतालों में बिस्तर बचे नहीं हैं, तब कौन सा प्रदेश चाहेगा कि प्रवासी मजदूरों के इलाज का अतिरिक्त बोझ उस पर आए। लेकिन यहीं पर इंसानियत को दखल देना होगा, देश में बची-खुची, थोड़ी-बहुत साख वाली अदालतों को दखल देना होगा ताकि काम की जगह पर जिंदा रहने का इंतजाम तय किया जा सके।
लॉकडाऊन से हिंदुस्तान जैसे सबसे गरीब मजदूरों वाले देश में करोड़ों लोगों के सामने भुखमरी से जरा ही कम बुरी नौबत आ रही है। आज 21वीं सदी में भी केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर भी लोगों को बस जिंदा रहने लायक अनाज दे पा रही हैं, पिछले बरस तो हजार-हजार किलोमीटर का वापिसी-सफर भी मजदूरों को पैदल ही तय करना पड़ा था। इस देश के बड़े-बड़े राष्ट्रीय प्रबंधन संस्थानों से निकले हुए गे्रजुएट नौजवान दुनिया की सबसे बड़ी कई कंपनियों को संभाल रहे हैं। अगर सरकारों में राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो ऐसी कोई वजह नहीं है कि ऐसे प्रबंधन-विशेषज्ञ जानकार लोग इस देश के प्रवासी मजदूरों के लायक कोई कामयाब योजना न बना सकें। कोई प्रदेश भी ऐसी पहल कर सकता है, और केंद्र सरकार को तो करना ही चाहिए। आगे-आगे देखें कि किसके मन में कितना दर्द है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अभी उत्तरप्रदेश की योगी सरकार के घोर साम्प्रदायिक दिखने वाले दर्जनों मामलों को खारिज करते हुए सरकार को बुरी तरह फटकार लगाई है। यूपी में एनएसए, राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत दर्ज 120 मामलों में से 94 को हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया ह और कई आरोपियों को रिहा भी किया है। इनमें से अधिकतर मामले मुस्लिमों के खिलाफ बनाए गए थे, जिनमें गाय को मारने से लेकर किसी भीड़ में मौजूद होने तक कई किस्म के जुर्म दर्ज किए गए थे। हाईकोर्ट ने पुलिस के बनाए ऐसे मामलों को बाद में जिला मजिस्ट्रेट की मंजूरी पर भी कड़ा हमला किया है और कहा है कि ऐसा लगता है कि डीएम ने दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया है। अदालत ने यह खुले तौर पर पाया और कहा है कि सरकार ने आरोपियों के मामलों की सुनवाई में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई ताकि वे जेलों में बंद पड़े रहें, जबकि इनके खिलाफ कार्रवाई करने में अफसरों ने असाधारण जल्दबाजी दिखाई थी। राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के लिए बने सलाहकार बोर्ड के सामने इनके मामलों को रखा भी नहीं गया। एक प्रमुख अंगे्रजी अखबार, इंडियन एक्सपे्रस की एक रिपोर्ट से ये बातें निकलकर सामने आई हैं कि पिछले तीन बरसों में योगी सरकार ने मुस्लिमों के खिलाफ बड़ी संख्या में राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम का इस्तेमाल किया गया जिसमें से अधिकतर मामलों में हाईकोर्ट ने या तो केस खारिज किए, या लोगों को रिहा किया और अधिकतर मामलों में अफसरों के रूख को फटकार के लायक पाया।
तीन बरस में ऐसे करीब सवा सौ मामलों की अलग-अलग चर्चा यहां संभव नहीं है, लेकिन इस पूरे दौर में उत्तरप्रदेश से आने वाली खबरों से यह साफ दिखता ही था कि वहां सरकार और उसकी एजेंसी, पुलिस का रूख किस हद तक साम्प्रदायिक हो चुका था। अब देश के कानून में एक बड़ी कार्रवाई करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम बनाया गया और जैसा कि इसके नाम से जाहिर है यह राष्ट्रीय सुरक्षा को कोई खतरा होने पर इस्तेमाल के लिए है। लेकिन देश भर में राज्य सरकार या जिला पुलिस इस कानून का मनमाना बेजा इस्तेमाल करते आई हैं। कई बार तो खुद पुलिस की कार्रवाई में लिखा होता है कि कोई व्यक्ति जिले की कानून व्यवस्था के लिए खतरा बन गया है इसलिए उसके खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत कार्रवाई की जा रही है। जब सत्ता और पुलिस की मनमानी और गुंडागर्दी में साम्प्रदायिकता और जुड़ जाती है तो वह अल्पसंख्यकों को इस देश का नागरिक भी महसूस नहीं होने देती। हाल के बरसों में ऐसे बहुत से मामले सामने आए हैं जिनमें दस-बीस बरसों से जेलों में बंद बेकसूर मुस्लिमों को अदालत ने बाइज्जत बरी किया है, यह एक अलग बात है कि इस दौरान इनके परिवार तबाह हो चुके रहते हैं, और एक पूरी पीढ़ी उनके बिना या तो जवान हो चुकी रहती है, या मर चुकी रहती है। देश में उत्तरप्रदेश सरकार के साम्प्रदायिक रूख के मामले में अव्वल है। वहां जानवरों की तस्करी, गौवंश को मारना, गोमांस खाना, जैसे आरोप लगाकर किसी की भी भीड़त्या भी की जा सकती है और कानूनी कार्रवाई तो की ही जा सकती है, फिर चाहे उसका हश्र वही हो जो कि अभी करीब सवा सौ मामलों का हाईकोर्ट पहुंचकर हुआ है।
हमारा ख्याल है कि हिंदुस्तान के राज्यों के मातहत काम करने वाली पुलिस, या कि दिल्ली जैसे राज्य में केंद्र सरकार के मातहत काम करने वाली पुलिस को जब तक उसकी ऐसी साजिशों के लिए सजा देना शुरू नहीं होगा, तब तक हालात नहीं सुधरेंगे। राज्यों की सत्ता और वहां की पुलिस के बीच मुजरिमों के गिरोह से भी अधिक मजबूत भागीदारी बन जाती है, और दोनों ही पक्ष सत्ता और कानून का बेजा इस्तेमाल करके कमाने में जुट जाते हैं। पुलिस और राजनीति का यह भागीदारी-माफिया किसी भी लोकतांत्रिक-सिद्धांत से अछूता रहता है।
उत्तरप्रदेश की यह मिसाल तो वहां की सरकार की साम्प्रदायिकता को भी उजागर करने के काम की है, लेकिन देश के बाकी प्रदेशों को भी यह सोचना चाहिए कि पुलिस का बेजा इस्तेमाल सत्ता के लिए सहूलियत का तो हो सकता है, लेकिन वह अपने प्रदेश के भीतर ही कई किस्म की बेइंसाफी की खाईयां भी खोद देता है। केंद्र सरकार के मातहत काम करने वाली दिल्ली पुलिस ने पिछले कई बरसों में जेएनयू से लेकर शाहीन बाग तक, और दूसरे कई आंदोलनों तक केंद्र सरकार की मर्जी की कार्रवाई की, और बार-बार अदालतों में मुंह की खाई, फटकार खाई। यह सिलसिला लोकतंत्र के भीतर पुलिस को वर्दीधारी गुंडा बनाने वाला है और आज से दशकों पहले इसी इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस अवध नारायण मुल्ला ने पुलिस को वर्दीधारी गुंडा करार दिया था। तब से अब तक कई पार्टियों की सरकारें उत्तरप्रदेश में आई-गईं, लेकिन एक बार मुजरिम बन चुकी पुलिस वक्त के साथ-साथ और खूंखार मुजरिम ही बनती चली जा रही है, चाहे वह उत्तरप्रदेश की साम्प्रदायिक पुलिस हो, चाहे वह बस्तर की मानवाधिकार कुचलने वाली पुलिस हो। इस देश में पुलिस के बेजा इस्तेमाल पर रोक लगाने का संवैधानिक समाधान अगर नहीं निकाला जाएगा, तो लोगों का इंसाफ के सिलसिले की इस पहली कड़ी पर जरा भी भरोसा नहीं रह जाएगा।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ में कोरोना की वजह से जो नौबत आज आ खड़ी हुई है, उसमें सरकार एक चौराहे पर खड़ी दिख रही है, और बेहतर रास्ता कौन सा है यह तय करना आसान नहीं है। अभी-अभी खत्म हुई छत्तीसगढ़ मंत्रिमंडल की बैठक अधिक तैयारी के इरादे के साथ खत्म हुई है और सरकार ने हालात गंभीर होने की बात इस तैयारी के बयान के साथ ही एक किस्म से मान ली है। व्यापारी प्रतिनिधियों के साथ बैठक के बाद आज शाम तक राजधानी रायपुर और कुछ दूसरे शहरों में लॉकडाऊन की घोषणा के आसार हैं। जाहिर है कि इस रफ्तार से बढ़ते कोरोना के साथ तो जिंदगी चल नहीं सकती, इसलिए उसे कुछ दिनों के लिए स्थगित करके घरों में कैद रखा जाए। प्रशासन के सामने यह भी एक बड़ी चुनौती रहेगी कि लॉकडाऊन के बीच कैसे हर शहर में रोज हजारों कोरोना-टेस्ट किए जाएंगे, और कैसे हजारों वैक्सीन लगाई जाएंगी।
बीते कल चौबीस घंटों में करीब दस हजार नए कोरोना पॉजिटिव मेडिकल जांच में पाए गए हैं, और लोगों का अंदाज यह है कि इससे दर्जनों गुना कोरोना पॉजिटिव लोग होंगे लेकिन वे नौकरी जाने, मजदूरी जाने के डर से जांच नहीं करा रहे हैं। ऐसे भी बहुत से लोग होंगे जो कि मेडिकल जुबान में असिम्प्टोमेटिक (लक्षणविहीन) होंगे और इसलिए वे किसी जांच के लिए पहुंच ही नहीं रहे हैं। प्रदेश भर में कोरोना जांच केंद्रों पर जो अंधाधुंध भीड़ लगी है, वहां पहुंचकर भी बहुत से लोग लौट जा रहे हैं कि अब तक अगर कोरोना नहीं लगा होगा, तो भी यहां लग जाएगा। अस्पतालों में बिस्तर नहीं बचे हैं, और छोटे से छोटे निजी अस्पताल में भी कोरोना वार्ड के एक हफ्ते का बिल डेढ़ लाख रुपये तय कर दिया गया है। बड़े अस्पताल और भी बड़ा बिल बना रहे हैं, मरीजों का ऑक्सीजन स्तर जब तक एक निर्धारित सीमा से ऊपर नहीं पहुंच रहा है, उन्हें छुट्टी नहीं दी जा रही है, और खर्च की कोई सीमा नहीं रह गई है। चारों तरफ सरकारी इंतजाम इस कदर चुक गया है कि सुबह से देर दोपहर तक कई जगहों पर कोरोना वार्ड में खाना नहीं पहुंच रहा है।
इन बातों से परे आज छत्तीसगढ़ की जमीनी हकीकत यह है कि यह अपनी आबादी के कई गुना अधिक आबादी वाले प्रदेशों से कई गुना अधिक कोरोना संक्रमण वाला प्रदेश हो गया है, और अब तक के आंकड़े बताते हैं कि प्रदेश में पचास हजार से अधिक सक्रिय कोरोना पॉजिटिव अभी हैं। इनमें से अधिकतर घरों पर ही अलग रखे गए हैं, लेकिन जब लोगों के लापरवाह मिजाज को देखा जाए, तो यह बात अविश्वसनीय लगती है कि मास्क तक से परहेज करने वाला यह प्रदेश घरों पर सावधानी से अलग बैठे रहेगा और परिवार के बाकी लोगों के लिए खतरा नहीं बनेगा।
लेकिन आज सबसे बड़ी फिक्र लॉकडाऊन को लेकर है कि अलग-अलग शहरों या जिलों को किस तरह बंद किया जाए ताकि लोगों का संपर्क एक-दूसरे से टूटे और कोरोना की लंबी-लंबी छलांग बंद हो, या धीमी पड़े। पिछले दो दिनों के आंकड़े देखें तो छत्तीसगढ़ में पांच अपै्रल को करीब 75सौ कोरोना पॉजिटिव मिले थे जो कि छह अपै्रल को बढक़र करीब दस हजार नए कोरोना पॉजिटिव हो गए हैं। यह अविश्वसनीय किस्म की और हक्काबक्का करने वाली नौबत है। दुनिया की किसी सरकार की पूरी ताकत भी इस रफ्तार से बढऩे वाले कोरोना संक्रमण से नहीं जूझ सकती और छत्तीसगढ़ को कड़ा और कड़वा फैसला लेना ही होगा।
एक अलग मोर्चा वैक्सीन का चल रहा है। देश के अलग-अलग राज्यों में कोरोना के टीके लगाने की रफ्तार अलग-अलग है। महाराष्ट्र में जहां पर कि देश की सबसे खराब हालत है, वहां अगले तीन दिनों के लिए ही टीके बचे हैं, और राज्य सरकार का कहना है कि जिन्हें पहले टीके लग चुके हैं, उन्हें भी लगाने के लिए दूसरा टीका नहीं बचेगा। छत्तीसगढ़ में भी कल से बिलासपुर के निजी अस्पतालों को टीके देना बंद कर दिया गया था, और ताजा हालत आगे सामने आएगी। टीकों की कमी अगर हो जाएगी तो कुछ महीनों बाद भी कोरोना पर काबू पाने की उम्मीद एक सपना साबित होगी। एक सौ 30 करोड़ आबादी के इस देश में अब तक महज कुछ करोड़ लोगों को ही टीके लगे हैं, और उनमें भी कम लोगों को ही दो टीके लगे हुए एक पखवाड़ा हो चुका है जिसके बाद उसका असर माना जाता है।
किसी भी प्रदेश में संक्रमण को रोकना पहली नजर में उसकी अपनी जिम्मेदारी मानी जाती है, और टीकों की सप्लाई केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है, लेकिन उनको लगाना राज्य सरकार का ही काम है। यह नौबत किसी भी राज्य के लिए एक अभूतपूर्व चुनौती की है जिसमें शासन और प्रशासन के बड़े अफसरों से लेकर छोटे कर्मचारियों तक की समझ-बूझ और क्षमता कसौटी पर चढ़ रही है। निर्वाचित राजनीतिक नेता सरकार की मशीनरी का कैसा इस्तेमाल करते हैं यह बहुत बड़ी चुनौती उनके सामने है।
फिर जनता के सामने भी यह बहुत बड़ी चुनौती है कि किसी लॉकडाऊन की नौबत में वह कमाए क्या, और खाए क्या। राज्य सरकारें या केंद्र सरकार गरीबी की रेखा के नीचे के लोगों तो जिंदा रहने के लिए मुफ्त अनाज दे सकती हैं, और संपन्न तबके को बैंक की किश्त पटाने में समय की कुछ छूट मिल सकती है, सरकारी नौकरी के लोगों को भी तनख्वाह की गारंटी है, लेकिन असंगठित कर्मचारियों और रोजगार पर जिंदा रहने वाले छोटे-छोटे कारोबारियों के लिए कोई भी लॉकडाऊन मरने जैसी नौबत ला देता है। किसी भी राज्य सरकार के सामने ऐसे बड़े तबके का ख्याल रखना भी एक असंभव सी चुनौती है, और देखना होगा कि छत्तीसगढ़ या किसी दूसरे राज्य की सरकार किस तरह अपने लोगों के काम आती है, उनका साथ देती है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बस्तर में हुए ताजा नक्सल हमले में 22 जवानों की शहादत पर राज्य और केंद्र सरकारें हिली हुई हैं। इन सरकारों ने न तो मुआवजा देने में कोई कमी की है, और न ही नक्सलियों के खिलाफ एक बड़ी लड़ाई छेडऩे की घोषणा करने में कोई देर की है। ऐसा हमला हो जाने के बाद ये दोनों सरकारें जो-जो कर सकती थीं, उन्होंने तकरीबन तमाम काम किए हैं। अब महज यह बाकी रह गया है कि बस्तर जिस बुरी तरह नक्सल प्रभावित है, उस प्रभाव के पीछे की वजहों को देखा जाए, और उन्हें दूर किया जाए।
यह कुछ मुश्किल काम भी है। अविभाजित मध्यप्रदेश के वक्त से, तीन दशक से भी अधिक हो चुके हैं कि बस्तर में नक्सलियों का डेरा है, और वहां पिछले बीस बरस में तो हर बरस औसतन सौ से अधिक नक्सल-मौतें होती ही हैं। ये तीन दशक भोपाल और रायपुर की राजधानियों के भी रहे हैं, और कांगे्रस और भाजपा की सरकारों के भी। लेकिन आदिवासियों के जिस अंतहीन शोषण, और उन पर राज करने वाले शासन-प्रशासन, राजनीतिक ताकतों, और तरह-तरह के माफिया की वजह से नक्सलियों को बस्तर में दाखिला मिला था, और जमीन मिली थी, वह सब कुछ तो अब भी जारी है। इस बुनियादी नाकामयाबी और खतरे की बात भी किए बिना सिर्फ बंदूकें बढ़ाकर बस्तर से नक्सलियों को खत्म करने की बात एक हसरत अधिक हो सकती है, हकीकत नहीं। जब किसी पेड़ की जड़ों में ही कोई बीमारी लगी हो, तो उसके पत्तों और फलों पर दवा छिडक़कर भला क्या हासिल किया जा सकता है?
बस्तर में सरकारी मशीनरी और सरकारी कामकाज में जो परंपरागत भ्रष्टाचार लंबे समय से बैठा हुआ है, गरीब आदिवासियों के नाम पर निकली रकम का जो बेजा इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है वह भी बुनियादी दिक्कत का एक हिस्सा है। दिक्कत का दूसरा, अधिक खतरनाक हिस्सा आदिवासियों का शोषण है। पिछले बरसों में, खासकर भाजपा के निरंतर 15 बरस के राज में बस्तर के आम आदिवासियों के न्यूनतम मानवाधिकारों को भी जिस तरह कुचलकर रख दिया गया था, और मुजरिमों से भी बदतर पुलिस अफसरों ने वहां आतंक के नंगे नाच के कई बरस पेश किए थे, उसने बस्तर के आदिवासियों के बीच नक्सलियों के एजेंडा की विश्वसनीयता बढ़ाने का ही काम किया था। जिस तरह गांव के गांव पुलिस जला रही थी, बेकसूरों को गोली मार रही थी, आदिवासी महिलाओं से बलात्कार हो रहे थे, ये बातें उस वक्त के विपक्ष की कांगे्रस पार्टी की तोहमतें ही नहीं थीं, ये बातें सुप्रीम कोर्ट तक जाकर खड़ी रहीं हैं। लेकिन मजाल है कि हिंदुस्तानी लोकतंत्र ऐसे अंतहीन और धारावाहिक जुर्म और जुल्म के जिम्मेदार लोगों को छू भी ले! इसी का नतीजा है कि अभी जब नक्सलियों ने 22 जवानों को मारा, तो उसके दो दिन पहले ही बस्तर पुलिस के एक छोटे अफसर ने अपने दोस्तों सहित एक नाबालिग आदिवासी लडक़ी से बलात्कार किया था। यह शहरी, संपन्न, शिक्षित, और सुरक्षित लोगों के लिए तो सिर्फ पुलिस रिपोर्ट की बात हो सकती है, लेकिन बस्तर में जुल्म के ऐसे सिलसिले से निपटने के लिए नक्सली भी मौजूद हैं। जिन आदिवासियों ने पुलिस जुल्म के, और सरकारी-अनदेखी के कई दशक देखे हैं, उनके सामने एक अलग किस्म के, लोकतंत्र से परे के, इंसाफ का जरिया भी आसपास मौजूद है नक्सलियों की शक्ल में। इसलिए अगर राज्य या केंद्र की सरकार, या आधा दर्जन और नक्सल प्रभावित प्रदेशों की सरकारों को नक्सल हिंसा खत्म करनी है तो वर्दीधारी-सरकारी जुल्म और जुर्म के सिलसिले को पहले खत्म करना होगा।
छत्तीसगढ़ के बस्तर के इस ताजा नक्सल हमले को लेकर एक यही बात सूझती है जिसे न राज्य के मुख्यमंत्री ने कहा है, और न ही केंद्र से आए हुए गृहमंत्री ने। हो सकता है कि इस हमले के बाद के ताबूतों के बीच इस किस्म की कोई बात कहना बेमौके की बात होती, लेकिन अब जब बस्तर में शासन-प्रशासन दूसरे काम में भी लगेंगे, और राजनीतिक ताकतें भी तरह-तरह के कानूनी और गैरकानूनी धंधों में लगेंगी, तो राज्य सरकार को यह सोचना चाहिए कि बस्तर में सरकार की साख कैसे बनाई जाए? यह काम राज्य सरकार के मौजूदा ढांचे के बस का नहीं है क्योंकि वह बस्तर में आदतन शोषण को ही प्रशासन मानते आया है। आदिवासी इलाकों के लिए उनकी संस्कृति और परंपराओं की समझ रखने वाले गैरसरकारी जानकार लोगों को लाकर बस्तर में शासन-प्रशासन की खामियों की शिनाख्त करवानी चाहिए। वैसे भी संविधान में बस्तर को लेकर या दूसरे अधिसूचित इलाकों को लेकर शासन की एक अलग व्यवस्था और प्रणाली साफ-साफ लिखी गई है। इन सबको ध्यान में रखते हुए राज्य सरकार को बहुत ईमानदार नीयत से एक संवेदनशील प्रशासन कायम करने की कोशिश करनी चाहिए। देश और दुनिया के बहुत से ऐसे समाजशास्त्री हैं जो कि छत्तीसगढ़ सरकार को एक संवेदनशील व्यवस्था सुझा सकते हैं, और ऐसा किए बिना संवेदनाशून्य नेता-अफसर बस्तर के प्रशासन को बेहतर नहीं बना सकते, वहां से नक्सलियों को खत्म नहीं कर सकते। इतना जरूर है कि हिंदुस्तान की सरकार की ताकत बहुत बड़ी है, और वह 25-50 हजार सुरक्षाकर्मी भेजकर बस्तर को और बुरी तरह रौंद सकती है, लेकिन क्या उससे बस्तर के लोगों का दिल भी जीता जा सकेगा? फिर आज छत्तीसगढ़ की कांगे्रस सरकार पर एक नैतिक जिम्मेदारी भी है कि पिछली भाजपा सरकार के वक्त का जुल्म का बरसों का सिलसिला खत्म किया जाए जो कि उस वक्त कांगे्रस ही उठाती थी। जानकार लोगों का यह भी कहना है कि कांगे्रस के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी छत्तीसगढ़ के बस्तर की चर्चा होने पर बार-बार यह पूछते हैं कि वह बदनाम अफसर कहां है, उसे कोई काम तो नहीं दिया है? जाहिर है कि कांगे्रस हाईकमान के दिमाग में भी बस्तर के जुल्म के इतिहास की बात दर्ज है। ऐसे में राज्य सरकार को राज्य और सरकार से परे के जानकार और आदिवासियों के लिए हमदर्दी रखने वाले लोग लाकर बस्तर के एक बेहतर प्रशासनिक व्यवस्था बनवानी चाहिए। और अधिक सुरक्षाकर्मी भेजना सरकार के हाथ में तो है, लेकिन कल देश भर में दर्जन भर जगहों पर ताबूत पहुंचने पर जैसा हाहाकार मचा है, वैसी मानवीय त्रासदी की कीमत पर ही सरकार की हथियारबंद कार्रवाई जारी रह सकती है। सरकार को एक संवेदनशीलता और कल्पनाशीलता भी दिखानी चाहिए और बस्तर को शोषण और भ्रष्टाचार से मुक्त प्रशासन देने की एक मौलिक कोशिश करनी चाहिए जो कि नक्सल-विरोधी हथियारबंद-मुहिम के मुकाबले बहुत अधिक कठिन भी होगी।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के बस्तर में दो दिन पहले नक्सल हमले में बाईस सुरक्षाकर्मियों की शहादत के बाद आज केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह बस्तर पहुंचे और शवों की घर रवानगी के पहले राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के साथ मिलकर श्रद्धांजलि दी। इसके बाद केंद्र और राज्य के बड़े सुरक्षा अफसरों की बैठक हुई और उससे निकलकर अमित शाह और भूपेश बघेल ने नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई को निर्णायक अंत तक ले जाने की घोषणा की। राजनीतिक रूप से परस्पर विरोधी इन दोनों नेताओं ने भी इस कठिन मौके पर एक-दूसरे के साथ पूरी तरह खड़े रहने की बातें कहीं। दोनों ही नेताओं ने नक्सलियों को बुरी तरह धिक्कारते हुए उनके खात्मे की बात दुहराई है।
जाहिर है कि केंद्र और राज्य के सुरक्षा बलों ने दो दिन पहले ही अपने बाईस साथियों को खोया है और बहुत से जख्मी साथी अस्पतालों में अभी जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं। ऐसे में अपने सुरक्षा बलों के मनोबल को बढ़ाने के अलावा नेता और कर भी क्या सकते हैं? और फिर यह जितनी बड़ी हिंसक घटना हुई है, लोकतंत्र को बचाने में लगे हुए सुरक्षा कर्मचारी जितनी बड़ी संख्या में मारे गए हैं, ऐसे में केंद्र और राज्य की यह जवाबदेही भी होती है कि नक्सलियों के खिलाफ हथियारबंद कार्रवाई की जाए। इसलिए यह मौका किसी और बात का रहता नहीं है, खासकर ऐसे में शांति सुझाना एक बहुत ही अलोकप्रिय बात होना तय है। फिर भी सरकारें अपना काम कर रही हैं, हम अपना काम कर रहे हैं।
आज बस्तर के इस मोर्चे पर एक और खबर आई है कि इस मुठभेड़ के बाद से लापता सीआरपीएफ का एक जवान नक्सलियों के कब्जे में है। ऐसा पता लगा है कि नक्सलियों ने ही पुलिस और मीडिया को फोन पर यह खबर दी है और इस जवान की जम्मू में रह रही पत्नी से भी फोन पर बात करके कोई नुकसान न करने का भरोसा दिलाया है। इसके पहले भी कुछ ऐसे मौके आए हैं जब कुछ छोटे पुलिस कर्मचारी नक्सलियों के कब्जे में पहुंच गए थे, और बाद में उन्हें रिहा किया गया। इसलिए यह उम्मीद की जानी चाहिए कि बड़ा अफसर न होने पर भी इस जवान की रिहाई के लिए केंद्र और राज्य सरकार वही लचीलापन दिखाएंगी जो कि दस बरस पहले एक आईएएस के अपहरण के बाद दिखाया गया था, या जो कंधार विमान अपहरण के बाद तालिबानी आतंकियों को रिहा करके दिखाया गया था।
आज चूंकि नक्सली हथियारबंद होकर मोर्चे पर डटे हुए हैं, और वे सुरक्षाकर्मियों को मारने का कोई भी मौका नहीं चूकते हैं, इसलिए उन पर जवाबी हथियारबंद कार्रवाई न करने की कोई वजह नहीं है। केंद्र और राज्य के सुरक्षाबल अब मिलकर और अधिक ताकत से उन पर हमला बोलेंगे, ऐसे आसार हैं। लेकिन इस बीच इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान जैसे दुश्मन समझे जाने वाले देश के साथ भी अभी सरहद पर अमन कायम रखने का जो समझौता निचले फौजी स्तर पर हुआ है, उसके पीछे भारत और पाकिस्तान के सुरक्षा सलाहकारों के बीच मध्यस्थों के मार्फत लंबी बातचीत बताई जाती है। वैसे भी कूटनीति में या अंतरराष्ट्रीय संबंधों में परदे के पीछे की कोशिशें जब किसी कामयाबी तक पहुंचाने के करीब रहती हैं, तभी परदे के बाहर कैमरों के सामने औपचारिक बातचीत होती है। इसलिए नक्सलियों के खिलाफ सरकारी कार्रवाई अपनी जगह चलती रहे, लेकिन परदे के पीछे ऐसी कोशिशें जरूर करनी चाहिए जो कि लोकतंत्र के हिमायती लोगों के बीच तो हो, लेकिन जिसमें ऐसे लोग भी शामिल हों जिन पर कि नक्सलियों का भी भरोसा हो। बस्तर जैसे नक्सल मोर्चे पर जो भी कार्रवाई हो रही है, वह दोनों ही पक्ष रातों-रात तो बंद करने से रहे, लेकिन बस्तर से दूर किसी और शहर में बैठे विचारवान और विश्वसनीय लोग हिंसा को खत्म करने और लोकतंत्र को जीत दिलाने के लिए काम कर सकते हैं। ऐसी बातचीत के बिना मोर्चों पर छोटे सुरक्षा कर्मचारी उसी तरह शहीद होते रहेंगे जिस तरह शतरंज की बिसात पर प्यादे खत्म होते रहते हैं और वजीर पीछे बैठे नजारा देखते रहते हैं। लोकतंत्र में राजनीतिक दलों और केंद्र या राज्य की सरकारों की कामयाबी हथियारबंद उग्रवादियों या आतंकवादियों को मारने में नहीं है, उन्हें लोकतंत्र की मूलधारा में लाने में है। हिंदुस्तान में कोई भी नेता नक्सलियों को पांच बरस भी मारते रहकर न तो उन्हें खत्म कर सकते हैं, और न ही खुद महानता का दर्जा पा सकते हैं। लेकिन अगर कोई नेता नक्सल हिंसा को ही खत्म करके नक्सलियों को लोकतंत्र में ला सकें, तो वह बहुत बड़ी ऐतिहासिक कामयाबी होगी। इसलिए हम बंदूकों के लिए कोई मनाही किए बिना भी लोकतांत्रिक ताकतों को लोकतांत्रिक समाधान तलाशने की एक नई पहल सुझाना चाहते हैं। यह भी जरूरी नहीं है कि ऐसी कोशिश तेजी से कामयाब हो जाए, लेकिन तेजी से तो दसियों हजार सुरक्षा कर्मचारी मिलकर भी एक अकेले बस्तर से नक्सलियों को खत्म नहीं कर पा रहे हैं। नक्सलियों के साथ औपचारिक शांतिवार्ता की कोई जमीन अभी तैयार नहीं है, लेकिन यह लोकतांत्रिक-निर्वाचित सरकार का जिम्मा है कि अनौपचारिक बातचीत से ऐसी जमीन तैयार करे। और इस सिलसिले में कामयाबी मिले या न मिले, नक्सलियों के दिल-दिमाग की बात जानने वाले जो मध्यस्थ सरकार के प्रतिनिधियों के साथ बैठेंगे, वे कम से कम सरकारी-लोकतंत्र की खामियों पर तो चर्चा करेंगे ही, और उससे सरकार को अपनी व्यवस्था को सुधारने का एक मौका भी मिलेगा।
देश के आधा दर्जन राज्यों और केंद्र सरकार के सामने मनमोहन सिंह-सरकार के वक्त से ही माओवादी या नक्सली कही जाने वाली हिंसा देश का सबसे बड़ा आंतरिक खतरा बनी हुई है। इसे खत्म करने के लिए जिस तरह कई किस्म के सुरक्षा बल, कई किस्म के हथियार, और कई किस्म की रणनीति का इस्तेमाल पिछले कई दशकों से चले आ रहा है, वैसी ही एक अलग शांतिवार्ता की रणनीति हम सुझा रहे हैं, इस पर भी कोशिश करनी चाहिए।
छत्तीसगढ़ के नक्सलग्रस्त बस्तर के बीजापुर जिला मुख्यालय से करीब 60 किलोमीटर दूर कल दोपहर नक्सलियों के हमले में 22-24 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए हैं। इनमें दो तिहाई राज्य पुलिस के बताए जा रहे हैं और एक तिहाई सीआरपीएफ के। इस इलाके में नक्सलियों की तलाश और मुठभेड़ में राज्य और केंद्र के सुरक्षा बल मिलकर काम करते हैं, और किसी नाकामयाबी की हालत में आम तौर पर दोनों ही एक-दूसरे से तोहमत से बचते हैं और जिम्मेदारी बंद कमरे की बैठक में तय होती है, और बाहर दोनों एकजुट नजर आने की कोशिश करते हैं। नक्सल मोर्चे पर यह हाल-फिलहाल में एक बड़ी शहादत है, और कुल एक या दो नक्सलियों की लाशें मिलने की सरकारी खबर से यह बात साफ होती है कि यह कोई मुठभेड़ नहीं थी, बल्कि सुरक्षा बल नक्सलियों के बिछाए हुए किसी जाल में फंस गए थे, और उन पर दो-तीन तरफ से हुई गोलीबारी में दिन की रौशनी में भी वे कोई जवाबी कार्रवाई नहीं कर पाए और उनकी एकमुश्त शहादत हुई है। लेकिन यह कैसे हुआ इसकी बारीकियां आज यहां लिखने का मकसद नहीं है, मुद्दे की बात यह है कि चौथाई सदी से अधिक हो चुका है कि अविभाजित मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से सबसे अधिक दूरी पर बसा हुआ बस्तर नक्सल प्रभावित चले आ रहा है, और मौतों के आंकड़ों में उतार-चढ़ाव से परे यह समस्या कभी खत्म नहीं हो पाई है। इसने भोपाल और रायपुर में बैठे कई मुख्यमंत्री देख लिए हंै, केंद्र में कई सरकारें देख ली हैं, लेकिन सुरक्षाकर्मियों को इस मोर्चे पर झोंकने से परे केंद्र और राज्य की कोई नीति अब तक सामने नहीं आई है। जब निर्वाचित-लोकतांत्रिक सरकारों के पास भी रणनीति ही अकेली नीति हो, तो फिर ऐसी जटिल हथियारबंद सामाजिक-राजनीतिक समस्या आखिर खत्म कैसे होगी?
जब कभी नक्सलियों से बातचीत की कोई सलाह दी जाए तो तुरंत ही सरकारों की तरफ से यह प्रतिक्रिया आती है कि नक्सलियों की कोई एक लीडरशिप, उनका कोई एक संगठन तो है नहीं, बात करें तो किससे करें? और फिर सत्तारूढ़ पार्टियां, सरकार, और नक्सल संगठन इनकी तरफ से तरह-तरह की शर्तें सामने आने लगती हैं कि वे बातचीत के लिए तैयार हैं बशर्तें दूसरा पक्ष हथियार डाल दे, या नक्सल-इलाकों से सुरक्षाबलों को हटा लिया जाए। ऐसी शर्तों को खारिज करने से आगे बढक़र और कोई बात अभी तक हो नहीं पाई है, और अकेले बस्तर के नक्सल मोर्चे पर सैकड़ों जवान शहीद हो चुके हैं, ग्रामीण-आदिवासियों और नक्सलियों की मौतों को भी गिनें, तो कुल मिलाकर यह गिनती हजारों तक भी पहुंच सकती है।
नक्सलियों से बातचीत का कोई गंभीर और ईमानदार इरादा इस चौथाई सदी में हमें सुनाई भी नहीं पड़ा है। छत्तीसगढ़ में एक दशक से पहले बस्तर के एक कलेक्टर का नक्सलियों ने अपहरण कर लिया था, और चूंकि वह बड़ा अफसर था, राज्य सरकार से लेकर केंद्र सरकार तक खासे दबाव में थीं कि उसे रिहा कराया जाए। उसे छोडऩे के एवज में नक्सलियों ने कई मांगें रखी थीं, जिन पर गौर करने और चर्चा करने के लिए नक्सलियों और सरकार की आपसी और मिलीजुली पसंद के कुछ लोगों की एक कमेटी बनाई गई थी जिसकी सिफारिशों पर बस्तर की जेलों में सड़ रहे बहुत से बेकसूर लगने वाले आदिवासियों को छोड़ा भी गया था। बहुत से लोगों के खिलाफ मामले वापस लिए गए थे और वह नौजवान आईएएस कलेक्टर रिहा होकर लौटा था। लेकिन उस वक्त की छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार, और केंद्र की यूपीए सरकार ने बातचीत की इस अस्थाई मेज को स्थाई बनाकर बातचीत आगे बढ़ाने की कोई कोशिश नहीं की, और अखिल भारतीय सेवा के महज एक अफसर को बरी कराने के साथ ही यह संभावना भी खत्म कर दी।
नक्सलियों को गैरराजनीतिक मुजरिम करार देना इस मुद्दे का एक सरकारी-अतिसरलीकरण है। दुनिया का इतिहास है कि हथियारबंद राजनीतिक-आंदोलनों को कभी महज सरकारी हथियारों से खत्म नहीं किया जा सका है। हर कहीं बातचीत जरूरी साबित हुई है, और हिंदुस्तान में भी पंजाब के आतंकी दिनों से लेकर उत्तर-पूर्वी राज्यों के बहुत से हथियारबंद आंदोलनों तक समाधान बातचीत से ही निकला है। हिंदुस्तान के बाहर भी इतिहास के सबसे लंबे, उत्तरी आयरलैंड के हथियारबंद और आतंकी आंदोलन का खात्मा बातचीत से ही हुआ था, और आखिरी दौर के समझौते के लिए उस वक्त के अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने उत्तरी आयरलैंड पहुंचकर मध्यस्थता की थी। छत्तीसगढ़ में एक अफसर की रिहाई के लिए ऐसी मध्यस्थता कायम होने के बाद भी उसकी संभावनाओं को आगे बढ़ाने का मौका सरकारों ने गंवा दिया, और मौतें जारी हैं।
लोकतांत्रिक-निर्वाचित सरकारों की कामयाबी बंदूकों से नक्सलियों को मारने में नहीं है, अगर उन्हें पूरी तरह खत्म करना मुमकिन मान भी लिया जाए, तो भी। कामयाबी इसमें है कि देश के भीतर के किसी भी किस्म के हथियारबंद-आंदोलनकारियों को लोकतंत्र की मूलधारा में वापिस लाया जाए। कोई भी लोकतांत्रिक देश दूसरे देशों से भी बातचीत करके अमन कायम करने और मौतों को रोकने की कोशिश करते हैं। ऐसे में अपने देश के भीतर के असहमत लोगों को बातचीत के लिए तैयार करना निर्वाचित सरकारों की जिम्मेदारी है। नक्सली तो लोकतंत्र पर ही भरोसा नहीं करते हैं, सरकार और संविधान पर भरोसा नहीं करते हैं, इसलिए उनसे तो ऐसी पहल की उम्मीद नहीं की जा सकती, लेकिन लोकतांत्रिक सरकार की यह बुनियादी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी है कि वह देश के भीतर के लोगों को बातचीत के लिए सहमत करे, और फिर कोई रास्ता निकाले। इस चौथाई सदी में एक भी सरकार ऐसा कोई ईमानदार कदम उठाते नहीं दिखी है, न छत्तीसगढ़ की, और न ही देश के बाकी आधा दर्जन नक्सल-प्रभावित राज्यों की, और न ही केंद्र में सत्ता संभालने वाले अलग-अलग गठबंधनों ने ऐसी कोशिश की है। यह सिलसिला फौजी-रणनीति या पुलिसिया नजरिए से तो ठीक है, लेकिन लोकतंत्र के नजरिए से यह नाकाफी है। इस देश को अपने छोटे सुरक्षाकर्मियों को इस तरह शहादत की तरफ धकेलना बंद करना चाहिए, और बातचीत की अधिक बड़ी चुनौती मंजूर करना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान में सबसे तेज रफ्तार से जिन दो-चार राज्यों में कोरोना बढ़ रहा है, उनमें छत्तीसगढ़ एक है। आबादी के अनुपात में संक्रमण और मौत अगर देखें तो छत्तीसगढ़ देश के बहुत से दूसरे प्रदेश और महानगरों से भी आगे निकल गया है। और इसके बढऩे के रूकने का कोई ठिकाना नहीं दिख रहा है। पूरे देश में कोरोना पिछले पूरे एक बरस के सारे रिकॉर्ड को तोडऩे के करीब है, और एक दिन में कोरोना पॉजिटिव लोगों की बढ़ोत्तरी दो-चार दिनों में ही पिछले साल का रिकॉर्ड तोडऩे जा रही है। श्मशानों की तस्वीरें दिल दहलाने वाली हैं कि वहां पर चिता की राख ठंडी होने का वक्त भी नहीं मिल रहा है, और अगल-बगल दूसरी लाशें बिछा दी जा रही हैं। महाराष्ट्र के एक शहर की खबर है कि वहां कोरोना-मौतों में अंतिम संस्कार का जिम्मा परिवार का ही रहेगा, जबकि अब तक देश भर में परिवार को इससे दूर रखा जाता था, और पीपीई पोशाक पहने हुए कर्मचारी अंतिम संस्कार करते थे।
देश भर में तरह-तरह के लॉकडाउन, नाईट कफ्र्यू का वक्त आ गया है, और राज्य के शासन से लेकर जिलों के प्रशासन तक बंद और प्रतिबंध ही सबसे आसान औजार माने जाते हैं। छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार ने जिला प्रशासनों पर लॉकडाउन या नाईट कफ्र्यू का फैसला छोड़ा है, और एक-एक करके कई जिले इसकी घोषणा भी करते जा रहे हैं। लॉकडाउन से लोगों में बेकारी, और बेरोजगारी बड़े पैमाने पर शुरू हो जाएगी, और कारोबार-कारखाने बंद होने से रोजगार और मजदूरी करने वाले लोग बड़ी संख्या में बिना काम के रह जाएंगे। इसलिए लॉकडाउन की नौबत आए बिना अगर कोरोना संक्रमण के बढऩे पर रोक लगाने का कोई जरिया निकाला जा सकता है, तो प्रशासन की वह अधिक बड़ी कामयाबी होगी।
आज शहरी जिंदगी में जहां कोरोना संक्रमण बढऩे के खतरे सडक़ों पर दिखते हैं, वहां कोई कार्रवाई होते नहीं दिखती है। पुलिस को रिश्वत देकर जो ओवरलोड ऑटोरिक्शा चलते हैं, वे आज भी उसी तरह ओवरलोड चल रहे हैं, और इस खतरे को रोकना बहुत आसान हो सकता था, लेकिन पुलिस और प्रशासन की ऐसी कोई नीयत भी नहीं दिखती है। दूसरा एक खतरा सडक़ किनारे ऐसे खाने-पीने के ठेलों पर है जहां प्लेट-चम्मच या कप-ग्लास एक ही बाल्टी में बार-बार धोकर ग्राहकों को दिए जाते हैं। इन पर भी कोई कार्रवाई इतने महीनों में भी नहीं हुई, और अब आम हिन्दुस्तानी लोग कोरोना के खतरे से बेफिक्र हो चुके हैं, और ऐसी जगहों पर खाना-पीना बेबसी न होने पर भी वह धड़ल्ले से जारी है। बेघर लोग रोज का खाना बाहर खाने को तो बेबस हो सकते हैं, लेकिन स्वाद के लिए इस तरह खाना गैरजरूरी है, और लोगों को खतरे की समझ खत्म हो चुकी है।
प्रशासन के पास लॉकडाउन करने का अधिकार तो है, लेकिन यह तो एक आखिरी रास्ता रहता है जिससे अर्थव्यवस्था भी चौपट होती है, और गरीब सबसे अधिक बदहाल हो जाते हैं। इसलिए यह नौबत आने के पहले ही दूसरी तरकीबों से संक्रमण को रोकने की समझदारी अगर दिखाई जाती, तो वह एक कामयाब प्रशासन होता। लॉकडाउन जैसा प्रतिबंध लगाकर तो संक्रमण को रोकना एक भारी नुकसान वाला आसान रास्ता है, जिसमें प्रशासनिक-कामयाबी कुछ भी नहीं है।
पिछले कुछ बरसों में शहरों की सार्वजनिक जगहों पर, बगीचों में, तालाब किनारे, और फुटपाथों पर कसरत की बहुत सी मशीनें लगाई गई हैं जिनमें से हरेक का सैकड़ों लोग इस्तेमाल करते हैं। ये सारे लोग इन मशीनों के गिने-चुने हिस्सों को थामते हैं, और ये संक्रमण का एक बड़ा खतरा हो सकता है, लेकिन इन पर कोई रोक नहीं लगाई गई है। छत्तीसगढ़ में तो जागरूक लोगों से लेकर सरकार तक सभी बहुतायत आबादी की गैरजिम्मेदारी देखकर हक्का-बक्का हैं कि इतनी मौतों के बाद भी लोग मास्क तक लगाने को तैयार नहीं हैं। यहां सडक़ों पर महिला कर्मचारियों के जत्थे लोगों की गाडिय़ों को घेर-घेरकर उन पर जुर्माना लगा रही हैं, उसकी तस्वीरें रोज छप रही हैं, फिर भी लोग सुधर नहीं रहे हैं। जिन दुकानों में रोज सैकड़ों ग्राहक पहुंच रहे हैं, वहां भी दुकानदार खुद मास्क लगाने को तैयार नहीं हैं। अब सवाल यह है कि इतने गैरजिम्मेदार और लापरवाह लोग बर्दाश्त क्यों किए जाएं? जब ये लोग दूसरे जिम्मेदार लोगों की जिंदगी पर खतरा बनकर खड़े हैं, तो इन पर मामूली जुर्माने से अधिक बड़ी कार्रवाई क्यों नहीं की जाए? आज कोरोना के संक्रमण का खतरा इतना अधिक है कि किसी को जेल भेजने की सलाह देना गलत होगा, लेकिन कारोबार के आकार और लापरवाही का दर्जा देखकर इन पर इतना तगड़ा जुर्माना तो लगाना ही चाहिए कि और लोगों को सबक मिल सके।
महामारी से आबादी को बचाना आसान नहीं है, दसियों लाख सावधान लोगों के बीच अगर दसियों हजार लापरवाह हैं, तो वे बीमारी को फैलाने के लिए काफी हैं। इसलिए प्रशासन को लापरवाह लोगों पर बड़ी सख्ती बरतनी चाहिए, और ऐसी कड़ी कार्रवाई का प्रचार भी करना चाहिए। लेकिन इसके साथ-साथ बड़ी बात यह है कि संक्रमण फैलने के खतरे वाले कारोबार, कार्यक्रम की शिनाख्त करके उन्हें तुरंत रोका जाना चाहिए। अगर बीच के कुछ महीनों में जब कोरोना का हमला कुछ कम था, उस वक्त कारोबार और कार्यक्रम को लेकर प्रशासन ने सावधानी बरती होती, तो ऐसी नौबत नहीं आई होती। दुनिया भर के चिकित्सा वैज्ञानिकों और महामारी के जानकारों का यह मानना है कि कोरोना का टीका लगाने की जरूरत हर बरस पड़ सकती है, और मास्क तो बरसों तक लगाना ही पड़ेगा, तो ऐसी नौबत में हर राज्य और जिले को सख्ती से सावधानी लागू करने का काम करना चाहिए। जिन लोगों को कोरोना से होने वाली मौतें अभी भी काफी नहीं लग रही हैं, उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि कोरोना से उबरने के बाद भी लोग बदन से हुए नुकसान से नहीं उबर सकते, और वे बाकी जिंदगी कई किस्म की दिक्कतें झेलते रहेंगे। लोगों के पास, लापरवाह लोगों के पास गैरजिम्मेदारी दिखाने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए, और उन पर सख्त कार्रवाई प्रशासन का जिम्मा है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मध्यप्रदेश दलितों, आदिवासियों और महिलाओं के साथ बहुत ही परले दर्जे के जुल्मों के लिए हमेशा से जाना जाता है। सतना-रीवां से लेकर ग्वालियर तक का इलाका सामंती असर में जीता है, और कल के सामंत, आज के नेता, इनके जुल्मों में कोई बहुत फर्क आ गया हो, ऐसा भी नहीं दिखता है। अभी वहां 16 बरस की एक नाबालिग लडक़ी से एक बालिग ने बलात्कार किया तो गांव ने दोनों को बांधकर साथ-साथ परेड निकाली। जब इसका वीडियो चारों तरफ फैल गया, तब पुलिस के पास भी बलात्कार के इस आरोपी और परेड निकालने वाले पांच लोगों को गिरफ्तार करने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया था। दिल दहलाने वाला यह वीडियो बताता है कि लोगों की भीड़ इन दोनों को बांधकर पीटते हुए इनका जुलूस निकाल रही थी, और भारत माता की जय के नारे लगा रही थी। अब जब चारों तरफ थू-थू होते कुछ दिन हो गए तो भारतीय बाल अधिकार संरक्षण परिषद ने मध्यप्रदेश के पुलिस प्रमुख से इस पर रिपोर्ट मांगी है।
यह घटना याद दिलाती है कि किस तरह कुछ बरस पहले जब जम्मू-कश्मीर एक राज्य था, और वहां पीडीपी-भाजपा की गठबंधन सरकार थी तब जम्मू में एक खानाबदोश मुस्लिम बच्ची से एक मंदिर में पुजारी समेत आधा-एक दर्जन लोगों ने बलात्कार करके उस बच्ची को मार डाला था, तो इनके नाम सामने आने पर इन्हें बचाने के लिए भाजपा नेताओं की अगुवाई में जम्मू में तिरंगे झंडे लेकर जुलूस निकाले थे। जम्मू हिन्दू बहुतायत वाला इलाका है, और वहां पर सिर्फ हिन्दुओं वाली इस बलात्कारी-टोली को बचाना एक बड़ा हिन्दूवादी मुद्दा बनाया गया था। और तो और इस मुस्लिम बच्ची की तरफ से जो हिन्दू महिला वकील खड़ी हुई थी, उसे भी हिन्दू संगठनों की ओर से तरह-तरह की धमकियां दी गई थीं, उसका सामाजिक बहिष्कार किया गया था।
किसी धर्म की महानता इस बात से तय नहीं होती कि उसकी किताबों में कैसी नसीहतें लिखी हुई हैं। यह तो उस धर्म को मानने वाले लोगों के चाल-चलन और बर्ताव से तय होने वाली बात रहती है। फिर अधिकतर धर्मों में धार्मिक किताबों से लेकर मानने वालों के चाल-चलन तक कुछ बुनियादी बेइंसाफी चली ही आती है। कहीं दलितों के खिलाफ, तो कहीं पति खो चुकी महिला के खिलाफ, तो कहीं किसी लांछन की शिकार महिला के खिलाफ, त्रेता और द्वापर युग से लेकर अब तक यह चले ही आ रहा है। और यह बात सिर्फ हिन्दू धर्म में है, ऐसा भी नहीं है। दूसरे भी बहुत सारे धर्मों में महिलाओं और दीगर कमजोर तबकों के खिलाफ बेइंसाफी की बातें भरी हुई हैं। नतीजा यह होता है कि जब मध्यप्रदेश में कोई दलित दूल्हा घोड़ी पर सवार होकर बारात के साथ निकलता है, तो उस पर गांव के सवर्ण पथराव करते हैं। शर्मिंदगी की ऐसी तस्वीरें भी मध्यप्रदेश से कई बार सामने आती हैं जब ऐसी बारात को सुरक्षा देते हुए साथ चलती पुलिस हेलमेट लगाकर पैदल चलती है, और दूल्हे को भी घोड़ी पर हेलमेट पहना दिया जाता है।
यह पूरा सिलसिला किसी धर्म, किसी देश, किसी प्रदेश, या किसी जाति के लोगों को शर्मिंदगी में डुबाने के लिए काफी होना चाहिए, लेकिन ये तमाम तबके ऐसे चिकने घड़े बन चुके हैं जिन पर शर्मिंदगी की एक बूंद भी नहीं टिक पाती, उसे छू भी नहीं पाती।
जब देश में एक धर्म को दूसरे धर्म के खिलाफ मोर्चा खोलने के लिए भडक़ाया और उकसाया जाता है, जब दूसरे धर्म का एक काल्पनिक खतरा सामने खड़ा किया जाता है, और फिर कुछ ऐसा ही एक जाति में दूसरी जाति के खिलाफ पैदा किया जाता है, ऊंची कही जाने वाली जातियों को यह खतरा दिखाया जाता है कि नीची कही जाने वाली जातियां एकजुट होकर एक दिन हमलावर हो जाएंगी, तो ऐसे में सदियों से चले आ रहा सामाजिक तनाव पिछली पौन सदी के लोकतंत्र को अनदेखा करके सडक़ों पर हिसाब चुकता करने में लग जाता है। आज यह सामाजिक तनाव बढ़ाते-बढ़ाते इस हद तक पहुंचा दिया गया है कि लोगों को अपनी जाति के बलात्कारी सुहाने लगे हैं, और दूसरी जाति की बलात्कार की शिकार लडक़ी भी सजा की हकदार लगने लगी है। यह सिलसिला देखकर किसी की लिखी यह लाईन याद आती है कि जिन्हें नाज है हिन्द पर वे कहां हैं?
दो राष्ट्रवाद लोगों के बीच एक अभिमान भरने वाला होना चाहिए, उसे अभिमान के लायक तो कुछ मिल नहीं रहा है, और शर्मिंदगी उसे होना बंद हो चुकी है। यह सिलसिला इस देश को टुकड़े-टुकड़े कर रहा है, लेकिन लोगों को ये दरारें अभी दिख नहीं रही हैं क्योंकि लोगों को अपने ही तबकों, अपनी बिरादरियों के भीतर मगन रहना सिखा दिया गया है। अपने तबके के बलात्कारियों को बचाने में जिस तबके को गौरव हासिल होता हो तो उस तबके के लोगों के धर्म और जाति अपनी इज्जत की फिक्र खुद कर लें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तराखंड हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को आदेश दिया है कि हरिद्वार में होने जा रहे कुंभ मेले में आने वाली अपार भीड़ की कोरोना-जांच के लिए मेला स्थल पर हर दिन 50 हजार कोरोना जांच की जाए। अदालत ने इसके लिए पार्किंग और घाट के इलाकों में मोबाइल मेडिकल सुविधाओं सहित प्रशिक्षित मेडिकल टीम तैनात करने का आदेश दिया है। इसके साथ ही हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से यह भी कहा है कि केन्द्र सरकार द्वारा दिए गए कोरोना-निर्देशों पर सख्ती से अमल किया जाए। यह आदेश ऐसे वक्त आया है जब आज पहली अप्रैल से हरिद्वार महाकुंभ की औपचारिक शुरूआत हो रही है, और 30 अप्रैल तक यह मेला चलेगा। इसमें दसियों लाख लोग पहुंचने वाले हैं, और राज्य सरकार का कहना है कि कोरोना से अधिक प्रभावित एक दर्जन राज्यों से आने वाले लोगों पर खास नजर रखी जाएगी। सरकार ने यह भी कहा है कि पहुंचने के पिछले 72 घंटों के भीतर ही आरटीपीसीआर निगेटिव रिपोर्ट और फिटनेस प्रमाणपत्र कुंभ मेले की वेबसाईट पर अपलोड करने के बाद उसकी रसीद दिखाने पर ही श्रद्धालुओं को मेला क्षेत्र में प्रवेश दिया जाएगा। जो लोग हरिद्वार जैसे नदी किनारे बसे हुए शहर से वाकिफ हैं वे समझ सकते हैं कि शहर की सरहद पर हर दिन पहुंचने वाले लाखों लोगों के कागजातों की इतनी जांच कैसे हो सकेगी, और कैसे हाईकोर्ट के हुक्म के मुताबिक रोज 50 हजार लोगों की आरटीपीसीआर जांच हो सकेगी।
अभी चार दिन पहले ही महाराष्ट्र के नांदेड़ में सिक्खों के एक बड़े महत्वपूर्ण माने जाने वाले गुरूद्वारे के बाहर पुलिस ने जब धार्मिक जुलूस निकालने से रोका, तो सैकड़ों सिक्खों की भीड़ ने पुलिस पर हमला कर दिया। इनमें से दर्जनों लोग तलवारें लेकर पुलिस पर टूट पड़े। इस हमले का वीडियो भी चारों तरफ फैला है। धक्का-मुक्की वाला ऐसा जुलूस, और धार्मिक लोगों का ऐसा हथियारबंद हमला झेलती हुई पुलिस न सिर्फ जख्म पा रही थी, बल्कि कोरोना का खतरा भी पा रही थी। ऐसी ही नौबत उत्तराखंड में आ सकती है जहां लाखों लोगों से हर दिन उनकी कोरोना रिपोर्ट इंटरनेट पर डालने की उम्मीद की जाएगी, और मोबाइल फोन पर उसकी रसीद दिखाने की भी। ऐसी अपार धार्मिक भीड़ से अदालत और सरकार किस किस्म के अनुशासित होने की उम्मीद कर सकती है? और सवाल यह भी उठता है कि जब पिछले एक बरस में महीनों तक इस देश में तमाम ईश्वरों के दरवाजे बंद देखे हैं जिन्हें खोलने के लिए ईश्वरों ने भी अपनी दैवीय ताकत या करिश्मे का कोई इस्तेमाल नहीं किया, तो आज दुनिया के एक सबसे बड़े धार्मिक आयोजन, कुंभ की इस जानलेवा धक्का-मुक्की वाली भीड़ को कोरोना के खतरे से कोई कैसे बचा सकेंगे? अगर लोगों को अपनी धार्मिक भावनाओं को पूरा करते हुए यह याद नहीं पड़ रहा है कि आज हिन्दुस्तान में कोरोना का खतरा कितना गंभीर है, तो उन्हें यह याद दिलाना जरूरी है। पिछले बरस जब कोरोना इस देश में सबसे खतरनाक हाल पैदा कर चुका था, तब हर दिन हिन्दुस्तान में एक लाख से कुछ कम लोग कोरोना पॉजिटिव मिल रहे थे। वह नौबत कई महीनों के कोरोना-संक्रमण के बाद आई थी। लेकिन अभी हाल के कुछ हफ्तों में कोरोना पॉजिटिव तेजी से छलांग लगाकर अब कल एक दिन में 72 हजार पार कर चुकी है और कल के एक दिन में 459 कोरोना मौतें हुई हैं। जो कि पिछले बरस के सर्वाधिक आंकड़ों से अधिक पीछे नहीं है। ऐसे में हिन्दुओं का एक बहुत बड़ा मेला जिसमें एक महीने में दसियों लाख लोग पहुंचेंगे, वह किसका भला करने जा रहा है? अगर देश के हालात और अधिक बिगड़े तो महाराष्ट्र की तरह दूसरे राज्य भी ईश्वरों को बचाने के लिए धर्मस्थलों को बंद कर देंगे, लेकिन इंसान कहां जाएंगे? नांदेड़ में चार सौ लोगों की भीड़ जब सैकड़ों पुलिसवालों पर टूट पड़ी तो उसने कई पुलिसवालों को बुरी तरह जख्मी कर दिया। अब कुंभ में धर्मालु भीड़ अगर किसी वजह से हिंसक या बेकाबू हुई तो किस धर्म के लोगों का सबसे अधिक नुकसान होगा? कुंभ से लौटकर आने वाले श्रद्धालु जाहिर तौर पर अपने हिन्दू परिवारों में ही लौटेंगे, और अगर वे संक्रमण लेकर आते हैं तो देश के हिन्दुओं को ही कोरोना का प्रसाद देंगे। ऐसे में कोरोना के इस खतरनाक और जानलेवा दौर में जिस धर्म के लोग इकट्ठा हो रहे हैं उसी धर्म का सबसे बड़ा नुकसान है। उत्तराखंड के मुख्य सचिव ने औपचारिक रूप से यह कहा है कि पूरे कुंभ के दौर में हरिद्वार में देश-विदेश के श्रद्धालु रहेंगे, और कोरोना संक्रमण का खतरा बने रहेगा। तमाम सावधानी के बावजूद वहां के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत और उनकी पत्नी दोनों कोरोना पॉजिटिव हैं, पूर्व सीएम और पूर्व स्वास्थ्य मंत्री भी कोरोना पॉजिटिव हैं। महामारी के इस भयानक दौर में इस धार्मिक आयोजन पर अड़े रहना राज्य सरकार के लिए, बाकी देश के लिए जितना भी बड़ा खतरा है, उससे कहीं अधिक बड़ा खतरा वह इस धर्म के लोगों और उनके परिवारों के लिए है।
लोगों को याद होगा कि पिछले बरस इन्हीं दिनों में दिल्ली में तब्लीगी जमात के कुछ हजार लोगों के बीच से कोरोना देश भर में फैलने को लेकर दिल्ली की सरकारों ने कुछ इस किस्म का हंगामा खड़ा किया था कि उस पर देश की कई अदालतों ने बहुत बुरी नाराजगी जाहिर की है, और सरकार और मीडिया की कड़ी आलोचना भी की है। अब कुछ हजार लोगों के एक धार्मिक आयोजन से तो दसियों लाख लोगों के गंगा स्नान वाले कुंभ की कोई तुलना भी नहीं की जा सकती। उस वक्त अगर लौटे हुए तब्लीगी जमातियों से कोरोना फैला था, तो अब दसियों लाख हिन्दुओं के कुंभ-स्नान से लौटने के बाद क्या वैसा कोई खतरा नहीं हो सकता? देश में धार्मिक भावनाएं उबाल पर हैं, और हिन्दुस्तानियों की सोच में जितनी कुछ भी वैज्ञानिक सोच आधी सदी में विकसित हो पाई थी, उसे धर्मान्धता की धार मार-मारकर धो दिया गया है। कुंभ का जितना इंतजार तीर्थयात्री नहीं कर रहे हैं, उनका ईश्वर नहीं कर रहा है, कुंभ का उतना इंतजार कोरोना कर रहा है।
भारत के पड़ोस के जिस म्यांमार में लोकतंत्र की वापिसी के लिए चल रहे आंदोलन पर वहां की ताजा फौजी तानाशाही की गोलियां अभी एक दिन में सौ से अधिक लोगों का कत्ल कर चुकी हैं। जाहिर है कि वहां के लोग पड़ोस के देशों में जाकर शरण लेने की कोशिश करेंगे। ऐसे में भारत में म्यांमार से लगी सरहद के मणिपुर में भी वहां के कुछ लोग आ रहे हैं, और ऐसे में राज्य की सरकार ने एक आदेश निकालकर सभी जिलों को कहा कि म्यांमार के नागरिकों के अवैध दाखिले को रोकने के लिए उचित कार्रवाई करें, और अपने जिलों में आए ऐसे लोगों को रहने-खाने का कोई भी इंतजाम न दें। मणिपुर की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री एन. बिरेन सिंह अभी कुछ दिन पहले खबरों में आए थे जब मीडिया में उनका एक वीडियो सामने आया जिसमें वे अफसरों के साथ किसी सरकारी इमारत का दौरा कर रहे हैं, और उनके चलने के कालीन के दोनों तरफ स्कूली बच्चे जमीन पर सिर टिकाए हुए कतार में खड़े थे। उसके बाद अभी आए इस दूसरे आदेश से भी राज्य की सरकार के खिलाफ देश-विदेश के सोशल मीडिया में इतना कुछ लिखा गया कि सरकार को अपने इस आदेश को सुधारना पड़ा, और नर्म करना पड़ा। वरना पहले आदेश में मणिपुर सरकार ने जिलों को लिखा था कि किसी सामाजिक या अशासकीय संगठन को भी म्यांमार से आने वाले लोगों को रहने-खाने का इंतजाम न करने दिया जाए।
मणिपुर का यह आदेश उस वक्त आया जब संयुक्त राष्ट्र में म्यांमार के राजपूत ने भारत सरकार और भारत की राज्य सरकारों से अपील की थी कि दोनों देशों के बीच के लंबे ऐतिहासिक संबंधों को न भुलाया जाए, और आज मानवीय त्रासदी की वजह से म्यांमार के जो लोग भारत में जान बचाने के लिए आ रहे हैं, उन्हें शरण दी जाए। भारत का पुराना इतिहास रहा है कि पड़ोसी देशों से मुसीबत में आने वाले लोगों की उसने मदद की है। पाकिस्तान से आए हुए लोगों को भारत में लगातार नागरिकता दी जाती रही है, चीन छोडक़र आए हुए दलाई लामा सहित दसियों हजार तिब्बतियों को भारत ने शरण दी है, जब पाकिस्तान ने अपने पूर्वी पाकिस्तान वाले हिस्से पर जुल्म किया, और लाखों लोग सरहद पार करके भारत आए, तो तब से लेकर अब तक वे बांग्लादेशी कहे जाने वाले लाखों शरणार्थी भारत में ही हैं। और तो और अभी भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बांग्लादेश की राजकीय यात्रा पर वहां औपचारिक घोषणा करके आए हैं कि बांग्लादेश की आजादी के लिए चले सत्याग्रह में 1971 में हिन्दुस्तान में वे भी शामिल थे। और यह तो इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है कि बांग्लादेश के निर्माण के साथ ही जुड़ी हुई हकीकत है कि भारत ने ऐसे लाखों शरणार्थियों को अपने देश में बसाया जो कि आज भी यहीं हैं। भारत में नेपाल के लोग बिना वीजा रहकर काम करते हैं, और बहुत किस्म की नौकरियां भी करते हैं। इस तरह भारत में तकरीबन हर पड़ोसी देश के लोगों की मुसीबत में मदद अपनी आजादी के दिनों से ही की है। ऐसे में जब भारत का एक राज्य यह आदेश निकालता है कि म्यांमार से आने वाले लोगों को खाना भी न दिया जाए, और न किसी को इजाजत दी जाए कि वह ऐसे शरणार्थियों को खाना दे, तो ऐसा सरकारी आदेश धिक्कार के लायक है। खासकर उस वक्त जब देश की मोदी सरकार और मणिपुर की प्रदेश सरकार एक ही पार्टी की अगुवाई वाली सरकारें हैं, यह सोच पाना नामुमकिन है कि एक भाजपाई मुख्यमंत्री केन्द्र सरकार से पूछे बिना अपने स्तर पर ऐसा आदेश निकाल सकता है। जब पड़ोस के देश में फौजी तानाशाह की फौज एक-एक दिन में सौ से अधिक लोकतंत्र-आंदोलनकारियों को मार गिरा रही है, उस वक्त जान बचाकर आए हुए लोगों को अगर गौरवशाली इतिहास वाले हिन्दुस्तान में जगह और खाने-पीने से भी मना कर दिया जाए, तो हिन्दुस्तान एक दकियानूसी टापू बनकर रह जाएगा।
वैसे भी आज हिन्दुस्तान न सिर्फ म्यांमार बल्कि दूसरे देशों में हो रही अमानवीय घटनाओं में अपनी अंतरराष्ट्रीय-मानवीय जिम्मेदारी निभाने से बुरी तरह कतरा रहा है। उसने फिलीस्तीनियों पर हो रहे अंतहीन इजराईली जुल्मों को देखने से भी मना कर दिया है, उस पर कुछ बोलना तो दूर रहा। देश के भीतर विदेशी कहे जाने वाले दसियों लाख लोगों को हिरासत-शिविरों में डालने, और अंतत: देश के बाहर निकालने पर भी मोदी सरकार आमादा है। यह एक अलग बात है कि इस दर्जे में गिने जा रहे सबसे अधिक लोग जिस बांग्लादेश से आए बताए जाते हैं, उस बांग्लादेश की दो दिन की राजकीय यात्रा में भी प्रधानमंत्री मोदी ने इन लोगों की चर्चा तक नहीं की, जबकि बांग्लादेश के विदेश मंत्री खासे अरसे पहले यह बोल चुके थे कि उन्होंने भारत सरकार से लिस्ट मांगी है कि अगर कोई बांग्लादेशी नागरिक वहां अवैध रूप से रह रहे हैं तो उन्हें बांग्लादेश वापिस लेने तैयार है। भारत के बहुचर्चित और विवादास्पद एन.आर.सी., नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजनशिप, के विवाद पर बांग्लादेशी विदेश मंत्री एक बार भारत का दौरा रद्द भी कर चुके हैं।
अपने पड़ोस के लोगों की मुसीबत के वक्त उनके काम आना किसी भी लोकतांत्रिक देश की घोषित जिम्मेदारी रहती है। अंतरराष्ट्रीय संबंध ऐसी जिम्मेदारी की बुनियाद पर ही बनते हैं। लोगों ने हाल के बरसों में देखा है कि सीरिया जैसे अशांत देशों से नौकाओं पर सवार होकर योरप पहुंचने वाले लाखों शरणार्थियों को तकरीबन तमाम यूरोपीय देशों ने जगह दी है, और उनके लिए इंतजाम किए हैं। मणिपुर का रूख भारत के लिए बहुत शर्मिंदगी का है, और खुद भारत सरकार का रूख भी ऐसा नहीं है कि जिस पर आने वाली सदियां कोई गर्व कर सके। मानवीय आधार पर मदद की नौबत आने पर बिना किसी शर्त इंसानों को जिंदा रहने की मदद करनी चाहिए। भारत का जो फौजी विमान पाकिस्तान में गिरा था, वह दुश्मन-फौजी विमान होने के बावजूद वहां की सरकार ने उसके हिन्दुस्तानी पायलट की मदद की थी। भारत सरकार को मणिपुर सरकार की चिट्ठी पर इस देश का नजरिया साफ करना चाहिए क्योंकि यह मामला भारत के किसी राज्य के पड़ोसी देश से संबंध का नहीं है, बल्कि भारत के विश्व समुदाय से संबंधों का मामला है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान के और हिन्दू धर्म के किसी भी दूसरे त्यौहार के मुकाबले होली कई किस्म की बुराईयों से जुड़ी हुई आती है। हो सकता है कि सैकड़ों बरस पहले लकड़ी की कमी न रहती हो, और लोग होली जलाते हों तो उससे न तो लकड़ी की कमी होती होगी, न ही हरे पेड़ उसके लिए काटने पड़ते होंगे, और न ही प्रदूषण इतना अधिक रहता होगा कि होली की आग से प्रदूषण और बढ़ता रहा हो। वैसे वक्त होली जलाने की जो परंपरा थी, उस वक्त सडक़ें भी डामर की नहीं रहती थीं, और न तो वे जलकर खराब होती थीं, और न ही अगले दिन से उस जगह से निकलने वाली गाडिय़ों से कई दिन तक उडऩे वाली राख दिक्कत खड़ी करती होगी। जिस तरह दीवाली बहुत से पटाखों के बारूद और रसायन का भयानक प्रदूषण हवा में फैलाकर सेहत पर खतरा खड़ा करने लगी है, उसी तरह होली से अब शहरी और कस्बाई सडक़ें जलती हैं, राख और कोयला कई दिनों तक हवा में उड़ते हैं, और लोग हरे पेड़ काटकर भी जला देते हैं।
अब होली जलाने से परे का रिवाज देखें तो अगले दिन रंग खेला जाता है, और किसी समय वह अच्छा रंग भले रहता होगा, अब यह रंग तरह-तरह के रसायनों से बना हुआ रहता है, और लोग चेहरों को चांदी या सोने जैसा पेंट लगाकर भी घूमते हैं। अधिक उत्साही लोग चुनाव की अमिट स्याही जुटाकर भी कुछ चुनिंदा चेहरों पर पोतते हैं, और इनका नुकसान तुरंत चाहे नहीं दिखता, वह रहता तो लंबे समय तक है। होली जलाने से लेकर रंग खेलने तक जो बात एक सरीखी रहती है वह नशे और अश्लीलता की है। होली के दो-चार दिन जमकर नशा चलता है, और लोग अश्लील गालियां देते घूमते हैं। अब एक हिन्दू धार्मिक कथा से शुरू हुआ यह त्यौहार कब और कैसे नशे और अश्लीलता में डूब गया यह अंदाज लगाना खासा मुश्किल काम है, लेकिन अभी तो पिछले 25-50 बरस से देखने में ऐसा ही आ रहा है।
त्यौहारों का जिंदगी में एक अलग महत्व होता है, और होली के साथ एक खूबी यह है कि यह सबसे सस्ता हिन्दू त्योहार भी है। और त्योहारों में यहां मामूली क्षमता के लोग भी कपड़े सिलाने या खरीदने की परंपरा निभाते हैं, वहीं होली में लोग पुराने कपड़ों में निकलते हैं, और पहले से खराब हो चुकी एक जोड़ी पूरी तरह फेंकने लायक हो जाती है, इसमें कोई खर्च नहीं होता। दारू भी लोग अपनी औकात से पीते हैं, रंग-गुलाल में भी बहुत बड़ा खर्च नहीं होता है। इस तरह होली एक सस्ता त्योहार है जो किसी गरीब परिवार पर भी बोझ बनकर नहीं आता। फिर जैसा कि होली के त्योहार को लेकर कहा जाता है कि दुश्मन बन चुके दिल भी इस दिन मिल जाते हैं, तो हो सकता है कि कुछ लोग खोए हुए दोस्त इस दिन वापिस पा जाते होंगे, या नए दोस्त बना लेते होंगे। इससे परे की एक बात यह भी है कि हिन्दुस्तानी जनजीवन में अश्लीलता और गाली-गलौज से अमूमन परहेज चलता है, लेकिन इस दिन लोगों को अपनी भड़ास निकालने का पूरा मौका मिलता है, और उनकी दमित-कुंठित भावनाएं त्यौहार की आड़ में बाहर आ जाती हैं। उत्तर भारत के कुछ इलाके ऐसे भी हैं जिनमें महिलाओं और पुरूषों के बीच सार्वजनिक रूप से मिलकर खेले जाने वाले अकेले त्यौहार होली से महिलाओं को भी बराबरी का एक मौका मिलता है, और वे ल_मार होली खेलते भी दिखती हैं। होली के रंग-गुलाल के साथ-साथ परंपरागत गीत-संगीत की बड़ी समृद्ध परंपरा है, और लोगों को इन एक-दो दिनों पर फिक्र अलग रखकर आनंद लेने का मौका मिलता है, और भारत की इसी परंपरा के चलते कई भाषाओं की फिल्मों को भी होली के नाच-गाने मिल जाते हैं।
इस बरस, 2021 में यह होली एक अभूतपूर्व तनाव के बीच आई है। पिछले बरस 2020 में होली कोरोना-लॉकडाउन के पहले आई थी, और लोगों ने उसे हर बार की तरह खेला भी था। लेकिन इस बरस पिछले एक-दो महीनों से हिन्दुस्तान में जिस रफ्तार से कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं, और अभी बंगाल-असम के चुनाव, और कई क्रिकेट मुकाबलों की मेहरबानी से बढ़ते चलने हैं, उसे देखते हुए इस बार की होली सिर्फ लापरवाही और गैरजिम्मेदार लोगों के बीच पहले सरीखी हो सकती है, बाकी तमाम लोग डरे-सहमे भी रहेंगे, और हो सकता है कि सरकार की सलाह के मुताबिक घर के भीतर भी रहेंगे। यह याद रखने की जरूरत है कि होली में जिस तरह एक-दूसरे को छूना, एक-दूसरे के गले मिलना, एक-दूसरे पर रंग डालना चलता है, वह सिलसिला कोरोना को बहुत पसंद आने वाला है, और हो सकता है कि होली की मस्ती हिन्दुस्तान में कोरोना को एक नई ऊंचाई पर ले जाए। आज कोरोना की जितनी काल्पनिक तस्वीरें बनाई गई हैं, और प्रचलित हैं, वे सारी की सारी होली जैसे रंगों में दिखती हैं, और आज हकीकत भी यही है कि इन रंगों के साथ-साथ छुपा हुआ कोरोना भी चारों तरफ फैले। होली की परंपरा शुरू होने के बाद से अब तक कभी ऐसी नौबत नहीं आई थी कि लोगों को इतनी सावधानी बरतने की जरूरत पड़ी हो, और होली की लापरवाही इस महामारी या ऐसी महामारी के फैलाने का खतरा रहे। अगले दो-तीन दिन लोगों को होली की अपनी हसरतों को तब तक काबू रखना चाहिए जब तक कि कोरोना चला न जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एक बयान पर की गई अपनी टिप्पणी पर माफी मांगी है। मोदी ने बांग्लादेश के दौरे के बीच वहां एक भाषण में बांग्लादेश की आजादी या उसके निर्माण के संदर्भ में इंदिरा गांधी का भी जिक्र किया था। साथ ही उन्होंने यह भी कहा था- बांग्लादेश की आजादी के लिए संघर्ष में शामिल होना मेरे जीवन के भी पहले आंदोलनों में से एक था। मेरी उम्र 20-22 साल रही होगी, जब मैंने और मेरे कई साथियों ने बांग्लादेश के लोगों की आजादी के लिए सत्याग्रह किया था।
मोदी के इस कथन पर शशि थरूर ने ट्वीट किया था- हमारे प्रधानमंत्री बांग्लादेश को फर्जी खबर का स्वाद चखा रहे हैं। हर कोई जानता है कि बांग्लादेश को किसने आजाद कराया। अब शशि थरूर ने अपनी इस ट्वीट के लिए माफी मांगी है और कहा है कि उन्होंने जल्दबाजी में ऐसा ट्वीट किया था। उन्होंने कहा कि कल खबरों की सुर्खियां पढक़र उन्होंने यह लिख दिया था जबकि बाद में उन्होंने देखा कि मोदी ने इंदिरा गांधी को भी इसका श्रेय दिया था।
आज जब किसी गलत राजनीतिक बयान के लिए माफी मांगना या अफसोस भी जाहिर करना हिन्दुस्तान में चलन से बाहर हो चुका है, और अमरीका में भी ट्रंप-युग में यह आऊट ऑफ फैशन था। ऐसे में शशि थरूर का यह माफी मांगना उनके सज्जन और उदार होने का एक संकेत तो है, लेकिन उनकी यह नौबत यह भी सोचने पर मजबूर करती है कि क्या आज का वक्त और इसकी टेक्नालॉजी लोगों के पास सोचने का वक्त भी छोड़ते हैं?
अभी कुछ दशक पहले तक हिन्दुस्तान में लोग टेलीफोन पर बात करने के लिए भी ऑपरेटर को नंबर देकर घंटों तक इंतजार करते थे। किसी को कुछ लिखकर भेजना होता था तो पोस्टकार्ड या अंतरदेशीय पत्र लाकर उसमें लिखकर उसे पोस्ट करने जाना होता था, और यह सबसे तेज प्रतिक्रिया भी कुछ घंटे तो लेती ही थी। फिर यह भी होता था कि छोटे गांवों में डाकिया रोज नहीं आता था, और जब वह अगली बार आए तब तक सोचने का और लिखने का वक्त रहता था। वह तमाम सिलसिला अब खत्म हो गया है। अब तो लोग वॉट्सऐप पर तेजी से टाईप करके उसे भेज देते हैं, एसएमएस टाईप करके भेज देते हैं, या ईमेल भेज देते हैं, और बात खत्म हो जाती है। कुछ दशकों के भीतर क्या इंसान का मिजाज सचमुच ही इस रफ्तार से बदल गया है कि वे अब पलक झपकते जवाब देने के लायक हो गए हैं? कम्प्यूटर और मोबाइल फोन पर किसी भी चैट पर एक मिनट के भीतर लोगों की दस-दस बातें आती-जाती हैं, और लोग इस बात की भी परवाह नहीं करते कि उनका लिखा हुआ सभी है या नहीं, या वे किसी कानूनी उलझन की बातें तो नहीं लिख रहे हैं? आज जब कोई बात जुर्म के दायरे में आ जाती है तो लोगों को समझ पड़ता है कि उनका एक-एक शब्द किस तरह उन्हें सजा दिलाने के लिए काफी है। दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से लेकर बहुत से केन्द्रीय मंत्री और सांसद समय-समय पर अपने सार्वजनिक बयानों के लिए अदालतों में या अदालत के बाहर माफी मांगकर, बयान वापिस लेकर कानूनी मामले खत्म करवाते दिखते हैं। ये बयान लोग उत्तेजना में देते हैं, या हड़बड़ी में कही हुई बातें रहती हैं। जब टीवी चैनलों के माइक्रोफोन सामने रहते हैं और कैमरे तने रहते हैं, तो लोग एक अजीब सी दिमागी हालत में बयान देने लगते हैं, और मानो वे अपना आपा खोकर बेदिमाग बातें करने लगते हैं। कई दशक पहले जब सिर्फ अखबारनवीस डायरी में बातों को नोट करते थे, तो लोग प्रेस कांफ्रेंस की शुरूआत में अपनी कही बातों को खत्म होने के पहले तक कुछ सुधार भी लेते थे, और अखबारनवीस भी ऐसी चूक या बदली हुई सोच को मान लेते थे। लेकिन आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो महज चूक, लापरवाही, बददिमागी, या बेदिमागी पर फोकस रहता है, और यही बातें उसे अधिक दर्शक जुटाने में मदद करती हैं। कुछ-कुछ इसी किस्म की बातें लोगों के सोशल मीडिया अकाऊंट्स पर भी काम आती हैं। इसलिए अब कुछ कहने के बाद कुछ पल बाद भी उसमें सुधार या फेरबदल की गुंजाइश नहीं रह जाती। आज टेक्नालॉजी का हर चीज को रिकॉर्ड कर लेने और सुबूत की तरह दर्ज कर लेने का मिजाज ऐसा है कि बहुत सावधान नेता भी कभी-कभी चूक कर ही जाते हैं। इसलिए आधे पढ़े हुए पर डेढ़ दिमाग से की गई टिप्पणी खुद पर भारी पड़ती है, और ट्विटर का पंछी उडक़र आकर लापरवाह के चेहरे पर बीट कर जाता है। आज डिजिटल और सोशल मीडिया पर किसी चूक के लिए, गलती या गलत काम के लिए माफी की कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए लोगों को इत्मीनान से पढ़-समझकर, सोच-विचारकर ही जुबान खोलनी चाहिए, या उंगलियों को की-बोर्ड पर चलाना चाहिए। हड़बड़ी महज माफी मांगने या मुकदमा झेलने की गुंजाइश छोड़ती है।
भारत और पाकिस्तान के बीच लम्बे वक्त के बाद फिर बातचीत होने वाली है। जिसमें कई मुद्दों पर चर्चा होगी। यह बातचीत ऐसे वक्त होने जा रही है जब पाकिस्तान एक नई अस्थिरता में घिरते दिख रहा है। वहां पर सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ विपक्षी पार्टी खुलकर खड़े होते भी दिख रही है और लोकप्रियता पाते भी दिख रही है। किसी भी देश में एक मजबूत विपक्ष में कोई बुराई नहीं है, इससे लोकतंत्र मजबूत ही होता है, लेकिन पाकिस्तान जैसे कमजोर और जर्जर हो चुके लोकतंत्र में आज किसी भी फेरबदल का मौका आने पर कभी आतंकी, कभी सेना, कभी खुफिया एजेंसियां, कभी विदेशी ताकतें, फेरबदल को प्रभावित करने की खुली या ढंकी-छुपी कोशिश करने लगते हैं। ऐसे बाहरी असर मतदाता के फैसले को या तो मतदान के पहले प्रभावित करते हैं या फिर मतदान के बाद सरकार बनाने के समय इनका असर दिखता है।
यह शायद पहली बार हो रहा है कि निर्वाचित सरकार के होते हुए भी पाकिस्तानी फौजी मुखिया हिंदुस्तान के साथ शांति और अच्छे संबंधों की वकालत कर रहे हैं, बयां दे रहे हैं। मीडिया रिपोर्टों में भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत में संयुक्त अरब अमीरात के मध्यस्थता करने का दावा भी किया गया है कि संयुक्त अरब अमीरात की मध्यस्थता में भारत और पाकिस्तान के बीच पर्दे के पीछे बातचीत हुई है। हालांकि भारत या पाकिस्तान ने इसकी पुष्टि नहीं की है। विश्लेषक ये भी मान रहे हैं कि हाल की दोनों देशों के बीच की सकारात्मक घटनाएं पर्दे के पीछे चल रहीं गतिविधियों का नतीजा हैं।
पाकिस्तान की किसी भी किस्म की बदहाली से भारत में लोगों का एक तबका खुश सा होते दिखता है। इसमें ऐसे लोग हैं जिन्होंने मुम्बई हमले जैसे बहुत से जख्म खा-खाकर पाकिस्तान से नफरत करना जरूरी समझ लिया है। इसमें ऐसे लोग भी हैं जिनको पाकिस्तान पर हमले के बहाने मुसलमानों पर हमला करना एक आसान मौका लगता है और वे इससे नहीं चूकते। बहुत से ऐसे साधारण लोग इन दोनों तबकों के बाहर के ऐसे भी हैं जिन्हें लगता है कि भारत को एक हमला करके पाकिस्तान नाम के सिरदर्द को मिटा देना चाहिए। इसमें हमें अधिक हैरानी इसलिए नहीं होती कि एक जटिल अंतरराष्ट्रीय मामले की समझ तो बहुत अधिक लोगों में होने की उम्मीद करना सही नहीं होता, किसी भी मामले में समझदार लोगों की गिनती गिनी-चुनी होती है और बेसमझ, कमसमझ या अनजान लोग ही अधिक होते हैं। भारत में पाकिस्तान के बारे में जो जनमत है, उसमें ऐसे लोग ही अधिक हैं। हम संदेह का लाभ देते हुए यह मानते हैं कि इनमें बहुतायत अनजान लोगों की ही है।
पाकिस्तान की आज की हालत भारत के लिए बहुत फिक्र की बात भी है। हमारी सरहद से लगे हुए दो ही परमाणु देश हैं जिनमें से पाकिस्तान ऐसा है जो कि सरकार के काबू से बाहर की नौबतें झेलता है और वहां पर आतंकियों का एक तबका, फौजी तानाशाही में भरोसा रखने वाला एक तबका, और हथियारों के सौदागरों के सत्ता में बैठे हुए दलाल ऐसे हैं जो कि युद्धोन्माद को बढ़ावा देने में भरोसा रखते हैं। ऐसे में एक बड़े देश के रूप में, सफल लोकतंत्र के रूप में भारत की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह पाकिस्तान को लोकतंत्र की पटरी पर लौटने में मदद करे और उसका हौसला बढ़ाए। जिस तरह फिलीस्तीनियों को यह मानकर चलना चाहिए कि इजराइल अब एक हकीकत बन चुका है और उसे मिटाने की शर्त पर कोई बात आगे नहीं बढ़ सकती। इसी तरह भारत के युद्धोन्मादियों को यह मान लेना चाहिए, समझ लेना चाहिए कि पाकिस्तान को मिटाना अब मुमकिन नहीं है, न ही ऐसी कोई हरकत सही भी होती, होगी। ऐसे में उसे अमरीका की जेब से निकलकर चीन की जेब में पूरी तरह जाने देना भारत के फौजी हितों के खिलाफ होगा।
अंतरराष्ट्रीय संबंध दो और दो चार की तरह, या शतरंज की तयशुदा चालों की तरह नहीं बढ़ते। ऐसे संबंध बहुत सी बातों को ध्यान में रखकर तय किए जाते हैं, और हम ऐसी बातों के बीच भी, बजाय देश के हितों को ही ध्यान में रखकर काम करने के, पूरी दुनिया के, पूरे मानव समाज के हितों को ध्यान में रखकर काम करने पर अधिक भरोसा रखते हैं। ऐसे में पाकिस्तान की आज की अस्थिरता और वहां चल रहे तनाव को कम करने की जरूरत है क्योंकि एक परिपच् लोकतंत्र, स्थायी लोकतंत्र भारत के हित में है। इतने पड़ोस में बसा हुआ कोई देश अगर आतंकियों से अपने आपको नहीं बचा पा रहा है तो वह कल के दिन वहां से भारत आकर हमला करने वाले आतंकियों को, अगर चाहेगा तो भी, कैसे रोक पाएगा? और अगले किसी मुम्बई हमले की नौबत आने पर भी भारत के लिए यह आसान नहीं होगा कि वह पाकिस्तान को उसके घर में घुसकर मारे। वैसे भी चीन जैसे नए दोस्त की ताकत जब पाकिस्तान के साथ आज भी है तब यह शक्ति संतुलन ऐसे किसी बड़े हमले की संभावना पैदा नहीं होने देगा। इसलिए आज भारत के लोगों को यही मनाना चाहिए कि पाकिस्तान में लोकतंत्र मजबूत हो। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
तकरीबन हर दिन देश के किसी न किसी शहर से खबर आती है कि किसी करीबी ने धोखा दे दिया, और आपसी अंतरंग पलों के बनाये हुए वीडियो लीक कर दिए या पोस्ट कर दिए। इसके बाद कत्ल या खुदकुशी की नौबत आती है, पुलिस, जेल, कोर्ट, और सजा तो आम बात है ही। हालांकि मामले-मुकदमे बरसों तक चलते हैं, और जब तक कोई फैसला आता है, तब तक लोगों को ऐसी मौतों की खबर याद भी नहीं रहती। नतीजा यह होता है कि ऐसी हरकत पर क्या सजा मिलती है, यह सबक नहीं बन पाता।
आज टेक्नालॉजी इतनी आसान हो गई है कि लोग अपने अंतरंग संबंधों की रिकॉर्डिंग भी निजी उत्तेजना के लिए, या कि बाद में मजा लेने के लिए कर बैठते हैं। इंटरनेट पर देखें तो जितने किस्म के वीडियो क्लिप तैरते हैं, उनमें से अधिकतर ऐसे रहते हैं जो कि आम लोगों ने अपने तक ही रखने के लिए बनाए थे, और वे अब बाजार में फैल रहे हैं। उत्तर भारत से तो ऐसी भी खबरें आती हैं कि वहां बलात्कार के वीडियो क्लिप कम्प्यूटर सेंटरों पर बिकते हैं। यह पूरा सिलसिला भयानक इसलिए है कि आज मोबाइल फोन की शक्ल में हर हाथ में एक कैमरा है, और जब लोग अपनी निजी इस्तेमाल के लिए खुद की ऐसी कोई फिल्म बनाते हैं, तो उन्हें उस वक्त उसके फैल जाने के खतरे का अंदाज भी नहीं रहता। कई ऐसे मामले भी रहते हैं जिनमें दो लोगों के बीच संबंध रहते हैं, और संबंध खराब होने पर जोड़ीदार को ब्लैकमेल करने के लिए लोग ऐसे वीडियो फैलाने की धमकी देते हैं, या फैलाते हैं।
आज सामान्य समझबूझ का इस्तेमाल करके लोगों को यह सावधानी बरतनी चाहिए कि वे अपने किसी नाजुक वक्त भी, अपने सबसे करीबी व्यक्ति के साथ भी ऐसी कोई रिकॉर्डिंग न करें जिसके लिए बाद में उन्हें शर्मिंदगी झेलनी पड़ी। लोगों के संबंध आज अच्छे रहते हैं, और बाद में बहुत खराब भी हो सकते हैं। जो लोग आग के इर्द-गिर्द सात फेरे लगाकर सात जन्म तक साथ रहने की कसमें खाते हैं, उन्हीं में से बहुत से लोग तलाक के लिए सात-सात बरस तक अदालत में धक्के भी खाते हैं, पुलिस में रिपोर्ट भी लिखाते हैं, और अनगिनत वारदातें ऐसी होती हैं जिनमें जीवन-साथी एक-दूसरे को मार भी डालते हैं। जब रिश्तों में इतनी हिंसा की नौबत आती है तो यह जाहिर है कि एक-दूसरे की वीडियो क्लिप फैला देना तो उसके मुकाबले छोटी हिंसा है और छोटा जुर्म है।
लोगों को इंसानी रिश्तों पर जरूरत से अधिक भरोसा बिल्कुल नहीं करना चाहिए। जितने किस्म के राजनीतिक या सरकारी स्टिंग ऑपरेशन होते हैं, वे जान-पहचान के लोगों के किए हुए रहते हैं जो कि उस वक्त पर बड़े भरोसेमंद भी बनकर दिखाते हैं। इसलिए इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि अपने खुद के हितों से अधिक भरोसा किसी को किसी पर नहीं करना चाहिए। फिर बाकी बातों के साथ-साथ यह भी याद रखना चाहिए कि किसी वजह से आपकी अचानक मौत हो जाए, तो बाकी चीजों की विरासत के साथ-साथ फोन और कम्प्यूटर पर दर्ज आपके वीडियो आपके बच्चों को नसीब होते हैं, और उनकी बाकी पूरी जिंदगी आपकी यादों के साथ हिकारत से जीते हुए गुजरती है। इसलिए साफ-सुथरी जिंदगी, सौ फीसदी सावधानी में ही सुरक्षा है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में एक होनहार नाबालिग स्कूली छात्र ने अपनी शिक्षिका द्वारा किए गए देह शोषण से थककर और उसके द्वारा की जा रही ब्लैकमेलिंग से डरकर खुदकुशी कर ली। छात्र से दोगुनी से अधिक उम्र की शिक्षिका अपने इस छात्र के साथ मोबाइल फोन के टेलीग्राम अकाऊंट से अश्लील वीडियो लेन-देन कर रही थी। इस छात्र ने खुदकुशी करते हुए डिजिटल कैमरा शुरू कर रखा था जिसमें फांसी रिकॉर्ड है, और उसने दोस्तों को खुदकुशी के संदेश भी भेजे थे, और आत्महत्या की चिट्ठी भी अपने मोबाइल पर टाईप करके रखी थी। उसने लिखा है कि शिक्षिका ने उसके साथ शारीरिक संबंध बनाए, और उसका वीडियो बनाकर ब्लैकमेल कर रही है, इसके अलावा वह उसे अनुसूचित जनजाति कानून के तहत जेल भेजने की बात भी कर रही है। खुदकुशी के इस नोट और तरह-तरह के वीडियो के बाद पुलिस ने 30 बरस उम्र की इस शिक्षिका को बच्चों के सेक्स-शोषण के कानून पॉक्सो एक्ट के तहत गिरफ्तार कर लिया है।
अभी कल-परसों ही हमने स्कूल-कॉलेज की लड़कियों और महिला खिलाडिय़ों के देह शोषण के बारे में इसी जगह पर लिखा था इसलिए इतनी जल्दी यहां पर जुड़े हुए एक और मुद्दे पर लिखने की जरूरत नहीं पडऩी थी, लेकिन यह घटना ऐसी है, और इन दिनों सोशल मीडिया पर ऐसा कुछ घट भी रहा है कि उन्हें जोडक़र देखना जरूरी है। जो लोग फेसबुक पर दिखने वाले नाच-गाने के कुछ साधारण दिखते हुए वीडियो खिसकाते हुए आगे बढ़ते हैं, दूसरे वीडियो की तरफ जाते हैं, तो दो-चार वीडियो के बाद ही पोर्नो शुरू हो जाता है। और हिन्दुस्तान में, हिन्दी में बनाए गए ऐसे अश्लील, वयस्क, और नग्नता वाले वीडियो में से आधे ऐसे रहते हैं जिनमें कोई महिला शिक्षिका ट्यूशन पढऩे आने वाले किसी छात्र-लडक़े का यौन शोषण करती दिखती है। अब बिलासपुर में गिरफ्तार इस शिक्षिका के बारे में यह तो जांच में ही पता लगेगा कि उसके और खुदकुशी करने वाले छात्र के बीच कौन किसे कैसे वीडियो भेज रहे थे, लेकिन मरने वाले की बात को सच मानें तो इस शिक्षिका ने अपने से आधी उम्र के इस छात्र के साथ खुद के कुछ सेक्स वीडियो बना रखे थे, और उसके आधार पर वह उसे ब्लैकमेल कर रही थी। चूंकि इन दिनों फेसबुक पर ऐसे हजारों हिन्दुस्तानी-पोर्नो तैर रहे हैं इसलिए ये दोनों बातें मिलकर एक साथ लिखने के लिए मजबूर कर रही हैं।
जो लोग पोर्नोग्राफी को नुकसानरहित मानते हैं, और यह मानते हैं कि इससे लोग अपनी उत्तेजना की जरूरत खुद पूरी कर पाते हैं, उन्हें भी मनोवैज्ञानिकों के इस निष्कर्ष पर गौर करना चाहिए कि अधिक पोर्नो देखने वालों के दिमाग की कोशिकाएं इससे कमजोर होती चलती हैं, मरती जाती हैं। बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि जब पोर्नोग्राफी अधिक आसानी से हासिल होती है तो उसमें दिखाई और सुझाई गई कहानियों से प्रेरणा पाकर लोग अपने आसपास जबर्दस्ती पर उतारू हो जाते हैं। अभी हमारा खुद का इस बारे में अधिक सोचना इसलिए नहीं है कि यह मनोवैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों के अध्ययन और विश्लेषण के नतीजों की बात है, और इस मुद्दे का हम अतिसरलीकरण करके खुद कोई नतीजा निकालना नहीं चाहते। अमरीकी सरकार की एक वेबसाईट पर भारत में पोर्नोग्राफी और रेप के बीच संबंध स्थापित करने की कोशिश की गई है, और ऐसे अध्ययन का नतीजा यह निकला है कि पोर्नोग्राफी तक आसान पहुंच से बलात्कार की घटनाओं और महिलाओं के खिलाफ हिंसा में कोई मायने रखने वाला असर पड़ते नहीं दिखता है। लेकिन यह सिर्फ एक अध्ययन के नतीजे की बात है, और हो सकता है कि कुछ दूसरे अध्ययन कुछ और सुझाएं।
लेकिन एक बात जो हमें लगती है वह यह कि अपने ही देश और अपनी ही भाषा के लोगों के ऐसे पोर्नो जो कि किसी पारिवारिक कहानी में गूंथकर बनाए गए हों, वे देखने वालों को ऐसे संबंध बनाने का हौसला शायद देते होंगे जो बलात्कार या जुर्म न भी हों, लेकिन जो पारिवारिक और सामाजिक खतरे वाले जरूर होते होंगे, जैसा कि बिलासपुर के सेक्स-शोषण और खुदकुशी के इस मामले में दिख रहा है। एक 30 बरस की शिक्षिका 17 बरस के नाबालिग छात्र से ऐसे संबंध बनाए, रखे, उसका वीडियो बनाए, उस पर दबाव डाले, उसे ब्लैकमेल करे, यह कुल मिलाकर ऐसा लग रहा है जैसे फेसबुक पर पोस्ट किसी पोर्नो की हिन्दुस्तानी कहानी हो। यह मामला एक आम देह-शोषण से अलग है, और यह खुदकुशी एक आम आत्महत्या से अलग है। दुनिया के बहुत से देशों से बड़ी उम्र की शिक्षिकाओं, और कमउम्र के उनके छात्रों के बीच ऐसे संबंधों की कहानियां बीच-बीच में आती रहती हैं, और बिना किसी हत्या-आत्महत्या के भी सिर्फ ऐसे संबंध रखने के लिए भी बहुत सी शिक्षिकाएं जेल जाते दिखती हैं।
इस मुद्दे पर लिखने का मकसद यही है कि स्कूल-कॉलेज जैसे संस्थान भी ऐसी बातों की तरफ आंखें खुली रखें, और परिवार अपने बच्चों का ख्याल रखे। इसके अलावा समाज के लोगों को भी अपने आसपास ऐसा कुछ संदिग्ध होते हुए दिखे, तो उन्हें सावधान रहना चाहिए ताकि ऐसे और हादसे न हों। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
वैसे तो हिन्दुस्तान देवियों की पूजा करने वाला देश है। पश्चिम से लेकर पूरब तक, और जम्मू से लेकर केरल तक सभी जगह देवियों की उपासना होती है, उनके न सिर्फ बड़े-बड़े मंदिर और तीर्थ हैं, बल्कि गुजरात की नवरात्रि में दुर्गा पूजा से लेकर बंगाल की दुर्गा पूजा तक, और दीवाली पर देश के अधिकतर हिस्से में कारोबार से लेकर सरकारी खजाने तक में होने वाली लक्ष्मी पूजा धर्म से आगे बढक़र सामाजिक और सांस्कृतिक परंपरा बन चुकी है। ऐसे देश में महिलाओं से अत्याचार का भी कोई अंत नहीं है।
आज एक प्रमुख समाचार वेबसाईट पर कुछ खबरों को कतार से देखते हुए इस मुद्दे पर लिखना सूझा जिसमें नया कुछ नहीं है लेकिन इन्हें एक साथ देखते हुए लगा कि देवियों की पूजा करने वाला यह देश किस तरह हर नामुमकिन तरीके से भी लड़कियों और महिलाओं पर जुल्म करता है। जुल्म की हकीकत है, और देवी पूजा के फसाने हैं! जब कभी हिन्दुस्तानी समाज के महिलाओं के प्रति हिंसक होने की बात कही जाए, भ्रूण हत्या से लेकर कन्या हत्या तक, और फिर दहेज हत्या से लेकर विधवाश्रम तक की कोई भी बात की जाए, तो हिन्दुस्तानी समाज बड़ी रफ्तार से अपने बचाव में देवी पूजा की परंपरा गिनाने लगता है। लोग यह गिनाना नहीं भूलते कि यहां कन्या पूजा करके छोटी-छोटी बच्चियों के भी पैर छूने की परंपरा है। मानो ये सारी परंपराएं हिन्दुस्तानी मर्दों ने लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ अपनी हिंसा के बचाव के सुबूत की तरह गढक़र रखी हैं।
अभी सोशल मीडिया पर एक जगह मां-बाप की विरासत में बेटों के अलावा बेटियों के भी हक की बात छिड़ी, तो पुत्रमोह के शिकार हिन्दुस्तानी, हिन्दू आदमियों के मन की महिलाविरोधी बातें फूट पड़ीं। लोग याद दिलाने लगे कि लड़कियों को न सिर्फ दहेज दिया जाता है, बल्कि बाद में भी जिंदगी भर भाई उनसे रिश्ता निभाते हैं, लेन-देन करते हैं, इसलिए मां-बाप की सम्पत्ति पर बेटियों का कोई हक नहीं होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट तक इस बारे में बिल्कुल साफ है कि मां-बाप की जायदाद का बंटवारा करते हुए बेटियों और बेटों में कोई फर्क नहीं किया जा सकता, लेकिन बहस में शामिल अधिकतर आदमी मानो इस कानूनी व्यवस्था से नावाकिफ रहकर बहन-बेटियों को कोई भी कानूनी हक देने के खिलाफ लिखते रहे। और तो और कोई-कोई महिला भी इस पुरूषवादी तर्क की हिमायती निकलीं कि बेटियों का हक बराबरी का होना चाहिए।
भारत में लैंगिक समानता एक बहुत ही काल्पनिक आदर्श सोच है जिसके उपजने और पनपने के लिए समाज में कोई जमीन नहीं है। और यह नौबत महज हिन्दुओं के बीच है ऐसा भी नहीं है, मुस्लिमों के बीच एक शाहबानो के हक को लेकर हिन्दुस्तान में मुस्लिम समाज के आदमियों ने इतना तनाव खड़ा किया था कि उस वक्त के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अल्पसंख्यक-वोटरों की दहशत में आकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था, और कांग्रेस के उस वक्त के संसदीय बाहुबल का बुलडोजर बूढ़ी शाहबानो पर चला दिया था। देश के जिन आदिवासी समाजों को सबसे कम पढ़ा-लिखा मानते हुए शहरी लोग जिन्हें जंगली कहते हैं, उन्हीं आदिवासी समाजों में महिलाओं को शहरी और सवर्ण तबकों की महिलाओं के मुकाबले अधिक बराबरी के हक मिलते हैं। शहरी, शिक्षित, सवर्ण महिलाओं को समाज में पुरूषों के मुकाबले जरा सी भी बराबरी का कोई हक अगर मिलता है तो वह उनके आर्थिक आत्मनिर्भर होने पर ही मिलता है, वरना वे गुलामों की सी जिंदगी जीती रह जाती हैं।
हर दिन कई ऐसी खबरें आती हैं कि हिन्दुस्तान में महिलाओं और लड़कियों पर किस किस्म के जुल्म हो रहे हैं। आज की ही खबर है कि हरियाणा में आठवीं की एक छात्रा ने अपने वकील के मार्फत पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई है कि उसकी मां ने अपने प्रेमी और उसकी पत्नी के साथ मिलकर उस लडक़ी की जबर्दस्ती शादी करवाई और जबर्दस्ती शारीरिक संबंध को मजबूर किया। हरियाणा की ही एक दूसरी खबर है कि वहां ट्यूशन पढ़ा रहा शिक्षक नाबालिग छात्रा से लगातार बलात्कार कर रहा था, और जब लडक़ी ने ट्यूशन पर जाना बंद कर दिया, तो मां-बाप ने उसकी डॉक्टरी जांच कराई और बलात्कार के इस सिलसिले की खबर हुई।
लड़कियों के लिए यह बहुत आम बात है कि किसी टीम में चुने जाने के लिए उन्हें खेल संघों के पदाधिकारी, खेल प्रशिक्षक, या चयनकर्ता के सामने अपना समर्पण करना पड़ता है, तो दूसरी किसी अधिक काबिल खिलाड़ी का हक मारकर उसे टीम में ले लिया जाता है। कई बार तो टीम में जगह तक नहीं मिलती, और अलग-अलग कई लोग लड़कियों का शोषण करते रहते हैं। विश्वविद्यालयों में शोधकार्य करने वाली लड़कियों का रिसर्च-गाईड द्वारा देहशोषण बहुत अनसुनी बात नहीं है, और ऐसा बहुत से मामलों में होता है, यह अलग बात रहती है कि पीएचडी पाने के मोह में और सामाजिक बदनामी-प्रताडऩा से बचने के लिए लड़कियां और महिलाएं यह जुल्म बर्दाश्त कर लेती हैं। देश के एक सबसे नामी-गिरामी संपादक रहे एम.जे.अकबर पर उनके सबसे कामयाबी के बरसों में अपनी मातहत महिला-पत्रकारों के यौन शोषण के दर्जन भर से अधिक आरोप लग चुके हैं, और इसी सिलसिले में एक आरोप के खिलाफ अकबर के दायर किए गए मुकदमे में अकबर की हार भी हो चुकी है। एम.जे. अकबर उसी बंगाल की राजधानी कोलकाता से अखबारनवीसी करते थे जहां देवियों की पूजा की लंबी परंपरा है। बंगाल में तो देवताओं की पूजा सुनाई भी नहीं पड़ती, और दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती और काली की ही पूजा होती है, और वहां की इस सामाजिक संस्कृति के बावजूद वहां के इस मशहूर संपादक का यह आम हाल और मिजाज था। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)