विचार / लेख
-अमिता नीरव
जिन दिनों मैं पढ़ रही थी दुर्भाग्य से उन दिनों फेमिनिज्म यूनिवर्सिटी के सिलेबस में नहीं पढ़ाया जाता था। कई सालों तक यह लगता रहा कि फेमिनिज्म का पॉलिटिकल साइंस से कोई लेना देना नहीं है। हालाँकि पोलिटिकल साइंस की थ्योरी यह कहती है कि पोलिटिकल सिस्टम, सोशल सिस्टम का ही सब-सिस्टम है। स्त्रियाँ इसी सोशल सिस्टम का हिस्सा है तो जाहिर-सी बात है कि उनसे जुड़ी विचारधारा को सिलेबस में होना चाहिए था, लेकिन यह विचार कभी आया ही नहीं कि फेमिनिज्म को पोलिटिकल साइंस में पढ़ाया जाना चाहिए। क्योंकि हम सब्जेक्ट्स को डिसिप्लिन के खाँचे में रखकर पढ़ते हैं।
अखबार में काम करने के शुरूआती सालों में महिला दिवस बस अखबार के कंटेंट तक ही सीमित था। इसमें विज्ञापन विभाग महिला दिवस पर मैसेजेस का एक सप्लीमेंट निकालकर पैसा कूटता था। अलग-अलग जगह से महिला दिवस की खबरें आती थी। उस दिन अखबारों में कुछ अलग करने का जोश-जुनून हुआ करता था। नए-नए स्टोरी आयडियाज, गेस्ट रायटर... महिलाओं से जुड़े लेख औऱ फीचर... मगर बस इतना ही। इस पूरे हड़बड़ में अखबार की महिला कर्मचारियों के लिए कुछ नहीं हुआ करता था।
फिर कॉर्पोरेट कल्चर की शुरुआत में महिला दिवस पर अखबार की कर्मचारियों के लिए भी कुछ-कुछ आयोजन किए जाने लगे। पहले-पहले एक दो साल तो बड़ा अच्छा लगता था। जब हम दफ्तर पहुँचते तो एचआर के लोग आकर बुके और चॉकलेट देते, फिर फोटो सेशन होता। दिन भर दफ्तर के लोग फोन करके महिला दिवस विश करते। शाम को महिलाओं के लिए पार्टी हुआ करती थी, जिसमें गेम्स, नाचना-गाना, खाना-पीना आदि-आदि हुआ करता था। कुल मिलाकर उस दिन कुछ खास होने का अहसास करवाया जाता था।
अब ये अलग बात है कि उस दिन भी सहकर्मी पुरुषों का स्त्री-द्वेष, पीठ पीछे साथ काम करती महिलाओँ पर भद्दे टिप्पणियाँ, उनके काम का क्रेडिट लेना, उनकी योग्यता और कार्यक्षमता पर प्रश्न उठाना, उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि का मजाक उड़ाना आदि-आदि चलता रहता था। इस बीच अपने भीतर की मनहूसियत का कीड़ा कुलबुलाने लगा और सवाल उठने लगा कि जिन माँगों के लिए दो सदी से आंदोलन किए जा रहे हों उसके प्रतीक स्वरूप मनाए जाने वाले दिन को बस इस तरह का आयोजन कर मना लिया जाना काफी है?
क्या दो सदी पहले से शुरू हुए संघर्षों का क्या बस यही हासिल है? एक दिन... ! जिसमें सजी-सँवरी स्त्रियों के लिए गिफ्ट्स और मजे का सामान मुहैया करवा दिया जाए और महिला दिवस का अनुष्ठान पूरा हो जाए! तभी इस तरह से आयोजनों से वितृष्णा होने लगीं। आयोजन चलता रहता औऱ हमारी टीम अपनी डेस्क पर बैठकर अपना काम करती रहती। बाद में उस आयोजन की खबरें मिलती थीं, जिसमें गेम्स में चीटिंग... गिफ्ट्स को लेकर खींचतान जैसी चीजें और भी ज्यादा वितृष्णा जगाने लगीं।
धीरे-धीरे यह महसूस होने लगा कि महिला दिवस को आंदोलन के प्रतीक दिवस के तौर पर नहीं, बल्कि खाना पूर्ति के तौर पर मनाया जाने लगा है। बाजार इस में ज्यादा बड़ी भूमिका का निर्वहन करने लगा था। दफ्तरों और संस्थानों में इसे मनाया जाना बाजारवाद का ही एक हिस्सा है और उस सबमें इसकी मूल भावना कहीं होती ही नहीं है। उस पर और बुरी बात यह है कि खुद स्त्रियाँ भी इसी अनुष्ठान का हिस्सा होकर खुश रहती है, गौरवान्वित होती रहती है।
अब चूँकि महिला दिवस को बाजार ने एक अनुष्ठान बना दिया है तो वे लोग भी इसे मना रहे हैं, जिन्हें न तो इसका इतिहास पता है, न इसके सिद्धांत और न ही इसका विकास...। बल्कि तो वे भी इसे मनाने की खानापूर्ति करते हैं जिनकी फेमिनिज्म के मूल विचार, सिद्धांतों, माँगों और तरीकों से ही असहमति है। जब दक्षिणपंथी महिलाओं को खुद को फेमिनिस्ट कहलाते हुए गर्व करते देखती हूँ तो विचार आता है कि आखिर इनके तईं फेमिनिज्म क्या हैं और ये उसके लिए किस स्तर पर, किनसे और कैसे संघर्ष करने को तत्पर होंगी।
पिछले साल भर में मुझे फेमिनिज्म पर बोलने के मौके मिले तो उसे समझने के लिए मुझे बहुत सारी चीजें पढऩा, सोचना और विश्लेषित करने की जरूरत हुई। जब मैं लेक्चर की तैयारी कर रही थी तो यह उत्सुकता हुई कि दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग और उन संस्थाओं में महिला दिवस पर वक्ता क्या बोलते होंगे? क्योंकि फेमिनिस्ट मूवमेंट की शुरुआत ही सोशलिस्टों ने की है। बाद के वक्त में इस विचार को विकसित करने वाली स्त्रियाँ लेफ्टिस्ट एप्रोच की रहीं तो जो राइटिस्ट हैं वे फेमिनिज्म को कैसे डिफाइन करती होंगी।
फेमिनिज्म तो असल में समाज के पारंपरिक ढाँचे से ही संघर्ष कर रहा है। राइट विंग उसी ढाँचे को प्रिजर्व करने के लिए सारे हथकंडे अपना रहा है तो फिर राइटविंगर्स महिला दिवस को क्या और कैसे मनाते होंगे? वे कैसे महिलाओं की समानता के लक्ष्य को पूरा करने का रोडमैप देते होंगे और कैसे सदियों से चले आ रहे भेदभाव के कारणों को चिह्नित करते होंगे? मुझे यह जानने की बहुत उत्सुकता है कि दक्षिणपंथी विचारों के साथ यदि कोई खुद को फेमिनिस्ट कहता है तो उसके पास समानता के क्या सिद्धांत हैं?
मैंने जितना फेमिनिज्म को समझा वह यह है कि लक्ष्य स्त्री-पुरुष समानता जरूर है, लेकिन इस तरह की समानता को स्थापित करने के लिए पहले बाकी सब जगह के खाँचों को खत्म करने की जरूरत होगी। क्योंकि समाज के हर स्तर पर पाए जाने वाले भेदभाव से यदि किसी वर्ग का पुरुष पीडि़त है तो उस वर्ग की स्त्री की पीड़ा दोहरी होगी। ऐसे में सिर्फ महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव से कैसे निबटा जा सकेगा? तो लैंगिक समानता का लक्ष्य हासिल करने से पहले सामाजिक समानता और न्याय को हासिल करना जरूरी है।
दक्षिणपंथ तो इसी के खिलाफ है। दक्षिणपंथ असल में पितृसत्ता के ही संरक्षण का हिमायती है तो पितृसत्ता द्वारा विकसित संस्थाओं में महिला दिवस मनाए जाना सिर्फ एक अनुष्ठान है। तो जो संस्थाएँ पितृसत्ता द्वारा स्थापित, पोषित और विकसित हैं वे किसी भी स्तर पर समानता को कैसे स्वीकार करेगी?
आंदोलन को अनुष्ठान में बदलना उस आंदोलन को खत्म करने का षडयंत्र है और दक्षिणपंथ इस तरह के षडयंत्रों में खासी महारत रखता है।