विचार / लेख
-ध्रुव गुप्त
हमारे दौर में वैलेंटाइन डे या सप्ताह एक अजानी-सी चीज़ थी। हां, प्रेम की भावनाएं तो तब भी थीं, उबाल भी मारती थीं और यदाकदा व्यक्त भी होती थीं। हमारे स्कूल के दिनों में प्रेम के अंदाज़ अलग और तेवर ज़ुदा हुआ करते थे। इश्क़ का मतलब चाहे पता न हो, लेकिन ज़ांबाजी इतनी थी कि इश्क़ के ख़त तब स्याही से नहीं, खून से लिखे जाते थे। स्कूली दिनों में मैंने भी खून से ऐसा ही एक ख़त लिखकर अपनी एक सहपाठिनी को प्रोपोज़ किया था। ख़त 'ये मेरा प्रेमपत्र पढ़कर कि तुम नाराज़ ना होना' से शुरू हुआ और उस दौर के सबसे धांसू शेर के साथ अंजाम तक पहुंचा - लिखता हूं ख़त खून से स्याही न समझना / मरता हूं तेरे नाम पे जिंदा न समझना। तब जैसा आमतौर पर होता था, मेरा वह ख़त घूम-फिरकर क्लास टीचर के हाथों में पहुंच गया। फिर मेरे प्रणय-निवेदन का जो अवदान मिला, वह था कटी उंगली वाली हथेली पर सौ-पचास छड़ी और क्लास रूम के बाहर स्कूल की आखिरी घंटी तक मुर्गा बनकर अपनी उस निर्दयी प्रेमिका और उसकी सहेलियों का मनोरंजन। प्रेमिका थोड़ी ज्यादा 'कोमल-ह्रदय' थी सो चिट्ठी वाली बात घर तक भी पहुंचा दी गईं। फिर घर में भी इश्क़ का भूत झाड़ने का सिलसिला शुरू हुआ। उफ़्फ़ कैसी तो जालिम होती थीं हमारे ज़माने की प्रेमिकाएं ! ऐसी दुर्दशा करवाने के बाद हमदर्दी का मरहम लगाना तो दूर, ससुरी हंसती हुई बगल से ऐसे निकल जाती थीं कि उस दौर का दूसरा सबसे लोकप्रिय शेर जुबान पर आ जाता था - आकर हमारी कब्र पे तुमने जो मुस्कुरा दिया / बिजली चमक के गिर गई सारा कफ़न जला दिया !
उसके बाद स्कूल-कॉलेज में जिस-जिसपर भी प्यार आया,वह अव्यक्त ही रहा। प्रणय-निवेदन का वैसा खूंखार प्रतिदान पाकर भला कौन दोबारा प्रोपोज करने का साहस जुटा पाएगा।
बहरहाल आप सभी मित्रों को 'प्रोपोज डे' की शुभकामनाएं !