विचार / लेख
-सुदीप ठाकुर
यह तस्वीर मुझे सोशल मीडिया पर मिली। यह हमारे समय की एक सुंदर तस्वीर है। इस दौर में ऐसी तस्वीर पर बात करने के अपने जोखिम हैं। फिर भी, जब चारों ओर कटुता फैलती जा रही है, सामाजिक कार्यकर्ताओं को शक की नजर से देखा जा रहा है, यह एक सुंदर तस्वीर है। यह जांच एजेंसियों और अदालतों को देखना है कि बिहार के युवा उपमुख्यमंत्री तेजस्वी के खिलाफ जो मामले चल रहे हैं, वह कैसे निर्णायक परिणति तक पहुंचें। लेकिन उन पर अभी सिर्फ आरोप हैं, यह ध्यान रहे। नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर को मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान ही नहीं, बल्कि उसके साथ कदमताल करने वाले मीडिया का एक बड़ा वर्ग, जिनमें दिग्गज संपादक और लेखक तक शामिल हैं, विकास ही नहीं, देश विरोधी तक मानता है।
1980 के दशक के मध्य में नर्मदा पर बन रहे बांधों के खिलाफ आंदोलन से जुडऩे वाली मेधा पाटकर निस्संदेह एक हारी हुई लड़ाई लड़ रही थीं। बड़े बांधों को लेकर जो सवाल सुंदरलाल बहुगुणा से लेकर बाबा आम्टे तक ने उठाए हैं, उनके दुष्परिणाम सामने आ चुके हैं, आते रहते हैं। बड़े बांधों और बड़ी परियोजनाओं को लेकर दुनिया भर में संघर्ष चल रहे हैं। सरदार सरोवर को लेकर नर्मदा आंदोलन की दलीलों को सर्वोच्च अदालत ने खारिज किया है, जिसका सम्मान किया जाना चाहिए। मगर इससे कौन इनकार कर सकता है कि नर्मदा बचाओ आंदोलन और मेधा पाटकर के संघर्ष के कारण हजारों विस्थापितों की ओर ध्यान गया।
एक समय था, जब गैर सरकारी संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को लोकतंत्र का पांचवां स्तंभ तक कहा गया। इन दिनों जल, जंगल और जमीन के साथ ही आदिवासियों और वंचितों के लिए काम करने वाले संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को शत्रुओं की तरह देखा जाता है। मेधा पाटकर उनमें से अलग नहीं हैं। सच यह भी है कि वह बरसों से निरंतर संघर्ष कर रही हैं और उन्हें देश के हर उस कोने में देखा जा सकता है, जहां वंचितों के अधिकार सिकुड़ते जा रहे हैं।
असल में इस तस्वीर को देखकर मुझे उनसे करीब एक दशक पहले हुई एक मुलाकात याद आ गई। हुआ कुछ यूं था कि करीब एक दशक पहले अक्टूबर, 2013 में मुझे मेरे अखबार की एक प्रतिस्पर्धा के सिलसिले में मेधा पाटकर से मिलना था, जो कि उसकी एक जूरी थीं। उन्होंने मुझे अहमदाबाद बुलवाया था, जहां उन्हें 2002 में दंगों के विरोध में हुई शांति सभा के दौरान उन पर हुए हमले से संबंधित मामले की पेशी थी। इस मामले के आरोपियों में अभी दिल्ली के उपराज्यपाल माननीय वीके सक्सेना भी एक आरोपी थे। दिनभर मैंने वह कार्रवाई देखी थी। रात में मैं अहमदाबाद से मुंबई के ट्रेन के सफर में मेधा पाटकर का सहयात्री था, क्योंकि वह ऐसा ही चाहती थीं, ताकि रातभर में वह मेरे साथ जूरी वाला काम निपटा लें।
उस सफर में हम देर रात तक जागते रहे। जूरी के काम के साथ ही उनसे बहुत-सी बातें हुईं और तब पता चला कि उन दिनों पंद्रह से बीस दिन तक वह रातों में ट्रेनों में सफर पर रहती थीं। (मैंने मेधा पाटकर से इस मुलाकात के बाद दो ब्लॉग भी लिखे थे, वे चार और मेधा बहन (7.10.2013) और बीस रातें ट्रेन में (9.10.2013), जो शायद कुछ मित्रों को याद भी हों। किन्हीं तकनीकी कारण से वह ब्लॉग न तो फेसबुक पर उपलब्ध है और न ही इंटरनेट पर)
मेरे संस्थान ने मेरे अहमदाबाद और मुंबई जाने और रहने का इंतजाम कर रखा था। लिहाजा, मैंने मेधा से अहमदाबाद से मुंबई के ट्रेन टिकट के बारे में जब कहा, तो उन्होंने मुझे कहा कि आप टिकट मत करवाना इंतजाम है। मैंने यह सोचा कि अहमदाबाद पहुंचकर उन्हें भुगतान कर दूंगा। ट्रेन में बैठने पर मेधा पाटकर ने बताया कि रेलमंत्री रहते लालू प्रसाद यादव, यानी तेजस्वी के पिता ने देश के चुनिंदा सामाजिक कार्यकर्ताओं को मुफ्त रेलवे पास दे रखे थे, ताकि वे देशभर में अपने संघर्ष को आगे बढ़ा सकें।
इस पास में एक सहयात्री की भी सुविधा थी, जाहिर है, इस यात्रा में मैं मेधा पाटकर का सहयात्री था।