विचार / लेख
-ध्रुव गुप्त
सावन आने ही वाला है। सावन की आहट के साथ मुझे बरसों पहले देखी-सुनी एक घटना की यादें ताजा हो जाती है। तब एक जिले में मैं एक ग्रामीण थाने के निरीक्षण में था। दोपहर का वक्त था और बाहर बूंदाबांदी हो रही थी। पास के एक टोले से स्त्रियों की सामूहिक कजरी की मधुर आवाजें आ रही थी। बीच-बीच में उनके हंसने-खिलखिलाने की आवाज भी। मुझे अच्छा लगा और मैं काम रोककर कुछ देर कजरी के आनंद में डूबा रहा। शाम को काम पूरा कर लौटने को ही था कि उन्हीं घरों से कई स्त्रियों के सामूहिक विलाप की मर्मभेदी आवाजें उठने लगीं। मुझे किसी अनहोनी की आशंका हुई और मैंने एक अफसर को वहां जाकर देखने को कहा। उसने बताया कि हंसी और रुदन का यह सिलसिला सावन भर चलता है। वह टोला एक कथित बड़ी जाति के लोगों का है।
पिछले कुछ सालों में दूसरे ग्रामीणों के साथ अथवा अपने ही भाईयों के साथ भूमि विवाद और सशस्त्र संघर्ष में उन घरों के ज्यादातर मर्द या तो मारे जा चुके हैं या जेलों में लंबी सज़ा काट रहे हैं। सावन में दोपहर होते ही घर के काम निबटाकर विधवाओं सहित टोले की स्त्रियां पेड़ों पर लगे झूले पर झूलती हैं, गाती हैं, हंसी-ठठ्ठा करती हैं। शाम होते ही उनके घरों से विलाप के स्वर उठने लगते हैं। थोड़ी देर बाद वे सब शांत हो जाएंगी और चूल्हे-चौके में लग जाएंगी। मैं भीतर तक हिल गया। मर्दों के आपसी विवाद और उनकी हिंसक मनोवृत्ति की सज़ा हर युग में समाज की औरतों को ही भुगतना पड़ता है। मेरा मन हुआ कि उनके पास जाकर उन्हें सांत्वना दूं, लेकिन गांव के सामंती माहौल में यह संभव नहीं था।
मैं अपनी उदासी पर काबू पाने की कोशिश कर ही रहा था कि गांव के बारे में एक दूसरी बात सुनकर भौंचक रह गया। मुझे बताया गया कि इन कथित बड़ी जातियों के घर में जब बेटों का जन्म होता है तो पास के दलितों के टोले में शोक की लहर दौड़ जाती है। उस दिन किसी दलित के घर में चूल्हा नहीं जलता। इस शोक की वजह समझना मुश्किल नहीं है। हां, बेटियों का जन्म हो तो उस खुशी में दलित परिवार भी शामिल होते हैं।
मैंने उस रात वहीं रुकने का फैसला कर उस टोले के सभी मर्दों को बुला भेजा। मैंने उनसे आपसी या दूसरी जातियों के साथ चल रहे भूमि विवाद या झगड़ों के बारे में जानकारी ली और सुझाव दिया कि भविष्य में किसी विवाद में हिंसा का सहारा लेने के बजाय वे बातचीत से मसले सुलझाएं। अगर यह संभव न हो तो वे मुझे अपने बीच बुला सकते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि मेरी कोशिश का असर नहीं हुआ और कुछ ही दिनों बाद मूंछ की लड़ाई में दलित टोले के एक व्यक्ति की हत्या हुई और इस टोले के चार और लोग जेल गए। मुझे विधवाओं और अकेली रह गई औरतों के उस विलाप की याद आई और यह सोचकर मन भर आया कि टोले की अकेली स्त्रियों के विलाप में अबतक कुछ और आवाजें भी शामिल हो चुकी होंगी।
समय के साथ बहुत कुछ बदल गया है, लेकिन गांवों में सामंती मानसिकता और जातीय अहंकार के अवशेष अभी भी बाकी हैं। वर्षों बाद मेरा दुख भी कुछ कम नहीं हुआ है। वह अनुभव याद आता है तो सावन उदास कर जाता है मुझे।