विचार / लेख
-गुरमन
चूडिय़ाँ पहनने की संस्कृति दक्षिणी एशिया के देशों के बहुत बड़े हिस्से में मौजूद है। भारत सहित पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, और बंगलादेश के बहुत बड़े हिस्से में यह गहना औरतों द्वारा पहना जाता है। हड़प्पा मोहनजोदड़ो की खुदाई के दौरान मिली ‘नाचती हुई लडक़ी’ (डांसिंग गर्ल) की मूर्ति इस संस्कृति के पाँच हजार साल पुराना होने की पुष्टि करती है। ‘नाचती हुई लडक़ी’ का बायाँ हाथ चूडिय़ों से भरा देखा जा सकता है।
इस लेख में हम बात करेंगे चूडिय़ाँ बनाने वाले मजदूरों के जीवन हालातों की। उत्तरप्रदेश के फिरोजाबाद में चूडिय़ाँ बनाने वाले लगभग 200 कारखाने हैं। इन कारखानों में लगभग 50 हजार मजदूर काम करते हैं। मर्द, औरतों के अलावा यहाँ 20 हजार बच्चे भी काम करते हैं। इस शहर की 90 प्रतिशत आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चूडय़िों के कारोबार पर निर्भर है। बाज़ार में जो एक चूड़ी आती है, वो औसतन 40 लोगों के हाथों से होकर गुजरती है। फिरोजाबाद के चूड़ी बनाने वाले ये मजदूर बेहद गर्मी में लगातार 12-12 घंटे भट्ठी के आगे बैठकर काम करते हैं। भट्ठियों का तापमान औसतन 1200 डिग्री होता है। काँच की चूडिय़ाँ बनाने का काम ‘सिलिका सैंड’, जिसे सफेद रेत कहते हैं, की ढलाई से शुरू होता है। वैसे सफेद रेत 2800 डिग्री तापमान पर जाकर पिघलती है, लेकिन फिरोजाबाद के कारख़ानों की भट्ठियों का ज्यादा-से-ज्यादा तापमान 1200 डिग्री है। इसलिए सिलिका रेत में सोडियम नाइट्रेट मिलाकर सिलिका रेत के गलनांक को 1200 डिग्री तक लाया जाता है। गलनांक को कम करने के लिए संखिया और सुहागे का भी इस्तेमाल किया जाता है। काँच को मजबूती देने के लिए इसमें नमक भी मिलाया जाता है। इतने अधिक तापमान में काम करने पर भी मजदूरों को सुरक्षा कपड़े भी नहीं दिए जाते। मजदूरों का कहना है कि उन्हें दिए जाने वाले दस्ताने और मास्क आरामदायक नहीं हैं और इन्हें पहनकर काम करना बहुत मुश्किल है। भट्ठी के आगे गर्मी और पिघले हुए काँच से जलने की दुर्घटनाएँ आम हैं।
2012 में संसद के एक पैनल ने काँच और चूडिय़ाँ बनाने वाले चार लाख मजदूरों के हालातों के बारे में रिपोर्ट पेश की। इसमें कहा गया कि मजदूर जिस वातावरण में काम करते हैं, उसमें गर्मी और आवाज का स्तर इंसानी शरीर के सहने-लायक स्तर से कहीं ज्यादा है। चूडिय़ाँ बनाने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे रसायन गर्मी और काँच का मिश्रण मजदूरों की हालतों को और भी बदत्तर बना देता है। यहाँ के एक डॉक्टर के अनुसार उसके बहुत से मरीज छाती और फेफड़ों से संबंधित रोगों से ग्रस्त है। श्वास नली में सूजन और टी.बी का रोग बड़े स्तर पर है। फिरोजाबाद में रहने वाले बहुत सारे लोग उम्र से पहले ही अपनी नजर गँवा लेते हैं। चूडिय़ों को विभिन्न रंग देने के लिए कॉपर ऑक्साइड, क्रोमियम बाइकार्बोनेट, कैडमियम सल्फाइड और सेलेनियम ऑक्साइड को विभिन्न तरह के मिश्रण में मिलाया जाता है। कारखाने में इस्तेमाल होने वाले रसायनों जैसे कि सिक्का कैडमियम और पारा आदि से निकलीं जहरीली गैसें मजदूरों के स्वास्थ्य पर और बुरा असर डालती हैं।
भारत की सर्वोच्च अदालत ने कारख़ानों में चिमनी की लंबाई कम-से-कम 60 मीटर करने का निर्देश दिया था, लेकिन उसे भी कारखाना मालिकों द्वारा अनदेखा किया जा रहा है। लेकिन कुछ सर्वेक्षणों के अनुसार मजदूरों की देखभाल के लिए एक भी सरकारी अस्पताल मौजूद नहीं है। उन्हें अपने इलाज के लिए 40 किलोमीटर दूर आगरा शहर में जाना पड़ता है। ‘व्यापारिक और कारोबार संघ’ के अनुसार इस शहर का उद्योग 150 अरब रुपए का है। भले ही इस शहर को 1989 में जिला घोषित किया गया था, लेकिन आज तक भी यहाँ कोई सरकारी अस्पताल मौजूद नहीं है।
स्वास्थ्य सुविधाओं के बिना एक और बहुत बड़ा मुद्दा बाल मजदूरी का है। अखबारों की कुछ रिपोर्टों के अनुसार 20 हजार से ज्यादा बाल मजदूर चूडिय़ाँ बनाने के काम में लगे हुए हैं। साल 2011 की जनगणना के अनुसार 80 प्रतिशत बच्चे जिनकी उम्र 14 साल से कम है, बाल मजदूरी में लगे हुए हैं। बाल मजदूरी के खात्मे के लिए भारत सरकार कई कानून लाई, जैसे कि फैक्टरी एक्ट 1948, द माइनर्स एक्ट 1952, द चाइल्ड लेबर एक्ट, 1986, द जुवेनाइल जस्टिस ऑफ चिल्डर्न एक्ट 2000। लेकिन इन सभी कानूनों के बावजूद भी बाल मजदूरी रुक नहीं रही। फिरोजाबाद की बाल मजदूरी का बड़ा कारण शायद ‘बाल मजदूरी कानून 2017’ घर में उद्योग से संबंधित कामों में बच्चों के काम करने के बारे में बहुत ज्यादा स्पष्ट नहीं है। एक रिपोर्ट के अनुसार फिरोजाबाद के 40 प्रतिशत बच्चे स्कूल जाते हैं। लडक़ों के मुकाबले स्कूल छोडऩे की दर लड़कियों की ज़्यादा है। गरीबी के कारण बच्चे इस काम में ज़्यादा आते हैं। एक मजदूर के अनुसार बच्चों के हाथ छोटे होने के कारण वो चूडिय़ाँ बनाने के काम के लिए ज़्यादा कारगर हैं। कुछ गैर-सरकारी संस्थाओं के दबाव में रजिस्टर्ड कारखानों में बाल मजदूरों की कमी आई है, लेकिन घर के अंदर काम करने वाले बच्चों की दर में कोई कमी नहीं आई है। एक रिपोर्ट के अनुसार, एक बच्चा एक दिन में 16 हजार चूडिय़ों को परखता है। गुणवत्ता परखने के लिए हर चूड़ी को एक पत्थर पर मारकर छनकाया जाता है। लेकिन इतने ज़्यादा महीन काम के लिए सिर्फ 90-100 रुपए दिहाड़ी दी जाती है।
उपरोक्त दो मुद्दों के अलावा मजदूरों को मिल रहा वेतन भी एक बड़ा विषय है। इस समय में मजदूरों के वेतन बढ़ती महँगाई के सामने बहुत कम हैं। कोरोना काल की पाबंदियों के बाद मजदूरों का जीवन स्तर बहुत नीचे गिरा है। कुछ समय पहले जिन्हें अपनी दिहाड़ी में सिर्फ पाँच रुपए प्रति तोड़ा (एक तोड़ा=296 चूडिय़ाँँ) मजदूरी बढ़वाने के लिए बड़ा धरना लगाना पड़ा। रूस और यूक्रेन युद्ध के कारण इन कारखानों के निर्यात को बारह सौ करोड़ का घाटा पड़ा है। जिसका स्पष्ट असर मजदूरों के वेतनों पर पड़ा है। चीन से मिलने वाले सस्ते माल ने भी फिरोजाबाद के उद्योग को करारी चोट दी है। एक अंदाजे के अनुसार, भारतीय बाजार में काँच से बनी चीज़ों का 80 प्रतिशत चीन से आता है। इस उद्योग पर एक और बड़ा ख़तरा ताज ट्रेपीजयिम जोन का घेरा है, जो कि ताजमहल के इर्द-गिर्द आने वाला इलाका है। जहाँ के प्रदूषण के कारण ताजमहल की ख़ूबसूरती को नुकसान पहुँचता है। इसके कारण बहुत सारे कारखाने बंद होने का ख़तरा है। अंत में इस सबकी मार मजदूर आबादी पर पडऩी लाजिमी है। इसके विरोध में मजदूरों की बड़ी एकता की सख़्त जरूरत है।
(मुक्ति संग्रामबुलेटिन 31 जून 2023 में प्रकाशित)